संघ यात्रा के नए क्षितिज RSS Vyakhanmala

संघ यात्रा के नए क्षितिज..!
- प्रशांत पोळ

दिनांक 26, 27 और 28 अगस्त को, दिल्ली के विज्ञान भवन में '100 वर्ष की संघ यात्रा - नए क्षितिज' इस शीर्षक से व्याख्यानमाला संपन्न हुई। यह व्याख्यानमाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आयोजित की थी और सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत जी इसमें वक्ता थे। इस कार्यक्रम में देश-विदेश के गिने-चुने एक हजार लोग आमंत्रित थे। इनमें कुछ देशों के राजनयिक भी सम्मिलित थे। विज्ञान भवन अत्याधुनिक तकनीकी से सुसज्जित हैं। इसलिए, सरसंघचालक जी जब हिंदी में बोल रहे थे, तभी हेडफोन्स के माध्यम से उसे अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश और जर्मन भाषा में सुनने की व्यवस्था थी। हम यूं समझें, कि देश के वैचारिक क्षेत्र के Who's Who वहां उपस्थित थे।

मोटे तौर पर, पहले दिन सरसंघचालक जी ने सौ वर्ष के संघ के प्रवास का वर्णन
किया। संघ की स्थापना की आवश्यकता का गहराई से विवेचन किया। दूसरे दिन, संघ के प्रवास की दिशा क्या रहेगी, संघ का लक्ष्य क्या रहेगा, अगले सौ वर्षों की संघ की सोच क्या रहेगी, इन विषयों पर चर्चा की। अंतिम दिन श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर दिए।

तीन दिनों की यहां व्याख्यानमाला अनेक अर्थों में ऐतिहासिक थी। संघ के बारे में अत्यंत स्पष्ट चित्र खींचने वाली थी। यह दिशा दर्शक भी थी।

इस विजया दशमी को संघ को सौ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। यह एक बहुत बड़ा मील का पत्थर हैं। किंतु साध्य नहीं हैं। इस प्रवास में अभी और आगे जाना है।

'कहां तक और किस दिशा में..?'

इसका उत्तर भी सरसंघचालक जी ने बड़े विस्तार के साथ दिया हैं। आपका दूसरे दिन का उद्बोधन, कार्यक्रम प्रारंभ होने के बाद 30 वे मिनट से आगे, लगभग 10 - 12 मिनट तक यदि हम सुनते हैं, तो सारा चित्र स्पष्ट हो जाता हैं।

सरसंघचालक जी ने धर्म (रिलिजन नहीं) की स्पष्टता बताते हुए कहा कि, "धर्म तो इस सृष्टि में पहले से ही अस्तित्व में था। धर्म यह यूनिवर्सल हैं। विश्व की गति को पहचान कर उसको ठीक से चलाने वाला जो प्राकृतिक नियम हैं, वह धर्म हैं।"

धर्म की इतनी सरल, इतनी सुंदर और इतनी सुस्पष्ट व्याख्या हमने कहीं सुनी नही होगी।

इसी विचार को आगे बढ़ते हुए सरसंघचालक जी ने कहा कि, "इस धर्म को हमें विश्व को समझाना हैं। उसे सारे विश्व में लेकर जाना हैं।"

पर कैसे..?

Not by Preaching, not by Conversion, but by Practice.
(प्रवचन या भाषण देकर नहीं, धर्मांतरण करके भी नहीं, तो धर्म को जीने का उदाहरण प्रस्तुत करके)

यह जबरदस्त हैं। नए वैश्विक परिदृश्य में यह अत्यंत प्रभावी संदेश हैं। 'वसुधैव कुटुंबकम्' की हमारी संकल्पना प्राचीन हैं। उसे अगले 100 वर्षों में धरातल पर उतारने का संकल्प लेकर संघ आगे बढ़ रहा हैं।

सरसंघचालक जी ने वर्ष 1991 का एक वाकया बताया। तब वह विदर्भ प्रांत के प्रांत प्रचारक थे। स्वर्गीय लक्ष्मणराव जी भिड़े उन दिनों पश्चिम क्षेत्र के क्षेत्र प्रचारक थे। इससे पहले वह अनेक वर्ष विदेश विभाग में प्रचारक थे। सरसंघचालक जी 1991 के वर्ग में लक्ष्मणराव जी भिड़े के उद्बोधन का उल्लेख कर रहे थे। उस उद्बोधन में लक्ष्मणराव जी ने कहा कि, "भारत के बाहर संघ का कार्य करने वाली अब तीसरी पीढ़ी हैं। इस पीढ़ी ने अपने-अपने देशों में, देश - काल - परिस्थिति और प्रवृत्ति के अनुरूप संघ खड़ा करना चाहिए। ऐसा संघ, जिसे देखकर उस देश के लोग कहे, हमें ऐसा RSS खड़ा करना हैं..!"

कितनी बड़ी सोच है यह..!

स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी की कविता की पंक्तियां हैं -
     शत जन्म शोधिताना I शत आर्ति व्यर्थ झाल्या I
     शत सूर्य मालिकांच्या I दीपावली विझाल्या II
(असंख्य जन्मों की खोज, अनगिनत आरतियाँ और हजारों सूर्य-मालाओं की दीप्ति भी निष्फल सिद्ध हुई, मानो दीपावली के दीप भी बुझ गए हों।)

इसमें सावरकर जी अपने सौरमाला (सूर्य मंडल) जैसे सौ सौरमाला (Solar System) की बात कर रहे हैं। प्रख्यात मराठी लेखक पु. ल. देशपांडे जी ने कहा था, "सावरकर जी की इन दो पंक्तियों में दिखी विचारों की उडान के लिए उन्हें साहित्य का नोबेल मिलना चाहिए।"

बस् ऐसा ही कुछ इस सोच में भी है।

       विश्व धर्म प्रकाशेन I विश्व शांति प्रवर्तके II
अर्थात, इस विश्व धर्म के प्रकाश में, विश्व शांति का प्रवर्तन होना चाहिए।

आज जो विश्व का परिदृश्य हम देख रहे हैं, वह बहुत अच्छा नहीं हैं। यहां लड़ाई हैं, संघर्ष हैं, गरीबी हैं, सामाजिक अस्वस्थता हैं, उजड़े हुए कुटुंब हैं, विद्वेष हैं, कट्टरपन और बहशीपन हैं... ऐसे विश्व में आज अपने देश का 'हिंदू विचार' अत्यंत प्रासंगिक और महत्व का बन गया हैं। इसलिए, अब विश्व के अनेक देशों में यह विचार लेकर, उन - उन देशों की प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार उसे ढालकर, नयी विश्व रचना का सृजन करने की आवश्यकता दिख रही हैं।

सहसा, 11 सितंबर 1893 को, शिकागो के अंतरराष्ट्रीय धर्म परिषद में दिया गया स्वामी विवेकानंद जी का भाषण स्मरण हो आया..!

सरसंघचालक जी ने कहा कि 'वसुधैव कुटुंबकम्' की संकल्पना संघ में नई नहीं हैं। संघ के अंदर कई बार इसकी चर्चा हो चुकी हैं। किंतु प्रकट रूप से संघ यह बात कहता नहीं था। सरसंघचालक जी ने कहा, "उन दिनों यदि हम आपको बुलाते तो आप नहीं आते। आते भी, तो हमारी बातों को गंभीरता से नहीं लेते। और यह विश्व कल्याण की बातें तो आपको स्वप्नरंजन लगती।"

इसका कारण था। तब संघ की विशेष ताकत नहीं थी, और अपने देश की भी स्थिती, किसी को सुनाने जैसी नहीं थी।

किंतु अब नहीं। अब बहुत कुछ बदला हैं। संघ की शक्ति और फैलाव भी बढा हैं। साथ ही, भारत वैश्विक मंच पर एक शक्तिशाली तथा तेजी से आगे बढ़ते देश के रुप मे प्रस्थापित हो चुका हैं।

किंतु सरसंघचालक ने यह भी कहा कि, "विश्व कल्याण की बात करने से पहले हमें एक प्रतीक के रूप में, एक मॉडल के रूप में खड़ा होना पड़ेगा। यदि हम ही हमारे हिंदू विचार को प्रत्यक्ष जीवन में नहीं उतारेंगे, तो विश्व हमारी बातें क्यों सुनेगा.?"

इसलिए, संघ ने अपने प्रवास के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर प्रत्यक्ष समाज में परिवर्तन लाने का संकल्प लिया हैं। इस परिवर्तन के पांच आयाम है - 

1. समरसता - सारा समाज जाति पंथ से परे, एकजुट हो। 'राष्ट्र सर्वप्रथम' यह भावना सबके मन में रहे।

2. पर्यावरण - पर्यावरण पूरक जीवन यह हमारी हिंदू जीवन पद्धति का अभिन्न अंग रहा हैं। उसे, हमे पुनः आज के परिपेक्ष्य में अपनाना हैं।

3. 'स्व' के भाव का जागरण - देश तभी उठ खड़ा होगा, जब हमारे अंदर अपने 'स्व' का भाव जागृत होगा। इसलिए स्वदेशी समवेत, हमारी पहचान से जुड़ी हर चीज अपनानी होगी।

4. परिवार प्रबोधन - समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार, उसे मजबूत करना।

5. नागरिक कर्तव्य - सामाजिक कर्तव्य का निर्वहन करते हुए राष्ट्रहित में योगदान देना।

इन पांच बातों को यदि हम समाज में ठीक से उतारते हैं, तो हम निश्चित रूप से विश्व को कुछ बताने की भूमिका में रह सकेंगे।

इस त्रि दिवसीय व्याख्यानमाला में सरसंघचालक जी ने अत्यंत खुलकर और पारदर्शिता से सारी बातें कहीं। 'हिंदू' शब्द के आग्रह के बारे में तर्कपूर्ण विचार रखें। साथ ही, "भारत यह हिंदू राष्ट्र है। अलग से घोषित करने की आवश्यकता नहीं।" यह भी अत्यंत स्पष्टता से कहा।

दो मिनट के लिए जरा राजनीति को बाजू में रखें, मीडिया के टीआरपी समाचारों को दुर्लक्षित करें और इस तीन दिवसीय व्याख्यानमाला के बारे में सोचे, तो हम पाएंगे कि भारत के भविष्य का एक सुस्पष्ट चित्र सरसंघचालक जी ने खींचा है..!
- प्रशांत पोळ

(अगर यह व्याख्यानमाला नही सुनी होगी, तो एक बार अवश्य सुने।)

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