हिन्दू वर्ण व्यवस्था के आदर्श , आधुनिक परिवेश में भी समावेशी - अरविन्द सिसोदिया Hindu Varn Vayvstha
Arvind Sisodia: -
हिन्दू जीवन पद्धति में वर्ण व्यवस्था आदर्श समन्वय
विचार -
हिन्दू जीवन पद्धति में वर्ण व्यवस्था एक महत्वपूर्ण और आदर्श संरचना है, जो समाज में आपसी समन्वय , सामाजिक और आर्थिक संतुलन बनाए रखने में मदद करती है।
वर्ण व्यवस्था में चार मुख्य वर्ण होते हैं और सच यह है कि ये सभी मनुष्यों में एक साथ भी होते हैं और अलग अलग भी होते हैं । इसलिए इसका अर्थ हल्का नहीं लिया जाना चाहिए ये व्यपाक और बहुआयामी हैं ।
वेद कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के शरीर में ये चारों वर्ण हैं । जैसे कि मस्तिष्क ब्रह्मणस्वरूप है , भुजाएं जो मूलतः व्यवस्था कार्य करती हैं जिसमें संरक्षण व रक्षाकार्य भी हैं वे क्षत्रिय स्वरूप हैं । पेट को मूलतः वैश्य माना गया है जो शारीरिक पालनपोषण का केंद्र है । शरीर के सभी अंगों को पोषण यहीं से जाता है । और शरीर में शुद्र स्वरूप पैरों का होता है यह गति का सूचक है , इसे कार्य संपादन प्रणाली माना जा सकता है । शूद्र शब्द से मूलतः श्रम पर्याय है , इसका अभिप्राय सेवा ही है । मूलतः श्रमयुक्त सेवा ही शुद्र शब्द से अभिप्रेत है, इसका कार्यों को संपादित करने अथवा गति प्रदान करने का आशय है । अर्थात प्रत्येक शरीर में यह चारों वर्ण हमेशा रहते हैं और इनकी अपनी सपनी जरूरी भूमिका होती है ।
1. _ब्राह्मण_:- ज्ञान और शिक्षा के प्रसार के लिए जिम्मेदार समूह जो वंश परंपरा से हो सकता है अथवा आश्रम परंपरा से हो सकता है । मूलरूप से यह शब्द ब्रह्म के बारे में ज्ञान रखने वालों के लिए था । आध्यात्मिक अनुसन्धान के आधार पर जो ब्रह्म तक पहुंचने के ज्ञान को जानता समझता था वह ब्राह्मण कहलाता था । बाद में यह शब्द बुद्धि के कार्यों को करने वालों के लिए संबोधित होने लगा ।
वर्तमान में बौद्धिक कार्यों की समझ वाले लोगों को ब्राह्मण कहा जा सकता है । एक अनुसन्धान कर्ता , एक अभियन्ता , एक चिकित्सक , एक शिक्षक भी ब्राह्मण ही हैं । अंबेडकरजी जब संविधान रचना करते हैं तो उनका यह कार्य बुद्धि का कार्य है और वे तब ब्रह्मणस्वरूप ही हैं । राजनैतिक स्वार्थ से इस पर मतभेद किया जा सकता है किंतु सत्य यही है कि बुद्धि के कार्य करने वाला ब्राह्मण है ।
2. _क्षत्रिय_: रक्षा और सुरक्षा के लिए जिम्मेदार। मूलरूप से यह शब्द समाज के संरक्षण कर्ता कार्य के लिए है , जो मानव सभ्यता के किसी बसावट विशेष की क्षत्रछाया करता है वह क्षत्रिय माना जाता है । इसका मूल अभिप्राय मुखिया से होता है ।
कालांतर में भी राजपूत को क्षत्रिय इसी लिये माना जाता रहा कि वे समाज को सुरक्षित रखने वाली राजव्यवस्था को संभालते थे । समान व्यवस्था को संरक्षित रखते हुए संचालित कर्ता वर्ग क्षत्रिय है ।
वर्तमान समय में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री , राज्यपाल , मुख्यमंत्री , मंत्रीगण , सांसद, विधायक , जिला कलेक्टर , प्रशासन आदि क्षत्रिय ही हैं । वे चाहे किसी भी जाती गौत्र से हों।
3. _वैश्य_: व्यापार और वाणिज्य के लिए जिम्मेदार।
मूलतः यह शब्द वितरण व्यवस्था को व्यक्त करती है । देश में , समाज में , परिवार में , विविध वस्तुओं की आवश्यकता होती है और वे एक दूसरे को आदान प्रदान से ही मिलती है । इन वस्तुओं के विनिमय को ही व्यापार , वाणिज्य कहा जाता है । यह समाज के लिए जरूरी और नित्यप्रति का कार्य है और इसे वैश्य वर्ग कहा जाता है ।
4. _शूद्र_: श्रम , सेवा और सहायता के लिए जिम्मेदार।
मूलतः श्रमयुक्त व्यवस्था निर्माण के कार्यों की जिम्मेवारी जिस वर्ग पर है वह शुद्र कहलाता है । जैसे फेक्ट्री में कार्यकरने वाला श्रमिक जो मानदेय पाता है वह शुद्र ही है । किसान भी मूलतः शुद्र इसलिए हे कि भूमि का मूल मालिकाना हक राज्य का होता है वह लगान देकर उस भूमि में कृषि कार्य करता है । समाज में जितने भी कार्य को गति प्रदान करने वाले कार्य हरण वे सभी शूद्रवर्ण में आते हैं ।
मात्र कुछ कालखण्ड पहले इस वर्ण से कुछ समुदायों से उनके कार्य के आधार पर भेद किया गया यह फूटडालो राजकरो की नीति के अंतर्गत भी था । इसे वोट पानें का हथियार भी बनाया गया है । शुद्र का मतलब मैला ढोने वाले या चर्मकार का कार्यकरने वालों तक सीमित हो गया जो गलत है । शुद्र तो एक व्यापक शब्द है और समाज व्यवस्था के सभी कार्यों को गति प्रदान करने वाले इस शब्द की परिधि में आते हैं ।
वर्ण व्यवस्था के कई फायदे हैं:-
मूलतः यह स्वस्फूर्त बनी व्यवस्थाएं है और पूरी तरह वैज्ञानिक हैं । सभी वर्ण समान और आवश्यक है । इनमें जो भेदभाव का अवगुण था वह भी समाप्त हो गया है । अब सिर्फ राजनैतिक वोट बटोरने हेतु इसका दुरुपयोग होता है ।
1. _सामाजिक संतुलन_: वर्ण व्यवस्था समाज में सामाजिक और आर्थिक संतुलन बनाए रखने में मदद करती है।
2. _विशेषज्ञता_: प्रत्येक वर्ण के लिए विशिष्ट कार्य और जिम्मेदारियाँ होती हैं, जो विशेषज्ञता को बढ़ावा देती हैं।
3. _सहयोग_: वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के लिए सहयोग और समन्वय की आवश्यकता होती है, जो समाज में एकता और सामंजस्य को बढ़ावा देती है।
4. _नैतिक मूल्य_: वर्ण व्यवस्था में नैतिक मूल्यों को महत्व दिया जाता है, जो समाज में नैतिकता और सदाचार को बढ़ावा देती हैं।
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हिन्दू जीवन पद्धति में वर्ण व्यवस्था आदर्श समन्वय है
वर्ण व्यवस्था हिंदू धर्म की एक महत्वपूर्ण सामाजिक संरचना है, जो चार मुख्य वर्गों में समाज को विभाजित करती है: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह व्यवस्था न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और आर्थिक कार्यों का भी निर्धारण करती है। बल्कि प्रत्येक वर्ण के अपने विशेष कर्तव्य और अधिकार भी प्रदान करती हैं, जो समाज के समुचित संचालन में योगदान करते हैं।
वर्ण व्यवस्था का आधार -
वर्ण व्यवस्था का मूल आधार ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से लिया गया है, जिसमें मानवता को चार वर्गों में विभाजित किया गया है। इस पाठ में कहा गया है कि ब्राह्मण मुख के समान हैं, क्षत्रिय भुजाओं के समान, वैश्य उदर के समान और शूद्र पैरों के समान हैं। यह प्रतीकात्मक विभाजन दर्शाता है कि सभी वर्ग एक-दूसरे पर निर्भर हैं और समाज की संपूर्णता के लिए आवश्यक हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सही हैं ।
आदर्श समन्वय की अवधारणा -
वर्ण व्यवस्था का आदर्श समन्वय इस बात पर आधारित है कि प्रत्येक वर्ग अपने कर्तव्यों का पालन करे और समाज में संतुलन बनाए रखे। ब्राह्मण ज्ञान और शिक्षा प्रदान करते हैं, क्षत्रिय सुरक्षा और शासन करते हैं, वैश्य व्यापार और धन संचय करते हैं, जबकि शूद्र सेवाएं प्रदान करते हैं। इस प्रकार, हर वर्ग की अपनी भूमिका होती है जो समाज को एकीकृत बनाती है।
समाज में परिवर्तन
हालांकि वर्ण व्यवस्था का आदर्श समन्वय महत्वपूर्ण था, समय के साथ इसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। आधुनिक युग में जाति आधारित भेदभाव और असमानताएँ समाप्त हुई हैं। किन्तु राजनैतिक लोग इसमें निहित स्वार्थ हेतु विकृतियां उत्पन्न कर रहे हैं । कई विद्वान मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था को एक आदर्श रूप में समझा जाना चाहिए, न कि कठोर सामाजिक श्रेणी के रूप में। उपनिषदों जैसे ग्रंथों में भी यह विचार प्रस्तुत किया गया है कि व्यक्ति का वर्ण उसके कर्मों पर निर्भर करता है न कि जन्म पर।
आधुनिक दृष्टिकोण
इस प्रकार, हिन्दू जीवन पद्धति में वर्ण व्यवस्था का आदर्श समन्वय एक ऐसी प्रणाली थी जिसने प्राचीन भारतीय समाज को संगठित किया था उन्नत किया था । वर्तमान में दुनिया तेजी से बदल रही है और सभी को इसके वैज्ञानिक स्वरूप को ही समझना चाहिए । आज इसे नए संदर्भों में देखने समझने और उसी प्रबुध्द दृष्टिकोंण को प्रचारित व स्थापित करने की जरूरत है ।
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