अपने कर्तव्य का निर्वाह ही धर्म की श्रेष्ठतम अवस्था - अरविन्द सिसोदिया krtvy nirwah hi dhrm ki shreshth avstha

 

Arvind Sisodia: अपने कर्तव्य का ईमानदारी से निर्वाह करना ही धर्म की श्रेष्ठतम अवस्था  है ।
विचार  
बिल्कुल सही ! यह विचार बहुत ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है। अपने कर्तव्य का ईमानदारी से निर्वाह करना ही धर्म की श्रेष्ठतम अवस्था है।

मूलतः धर्म का भौतिक और सामान्यतः अर्थ है अपने कर्तव्यों का पालन करना और अपने जीवन को नैतिक और आदर्श मूल्यों के अनुसार जीना। जब हम अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं, तो हम धर्म की श्रेष्ठतम अवस्था को प्राप्त करते हैं।

अपने कर्तव्य का ईमानदारी से निर्वाह करने से हमें कई लाभ होते हैं:-

1. _आत्म-संतुष्टि_: जब हम अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं, तो हमें आत्म-संतुष्टि मिलती है।
2. _नैतिक मूल्यों का पालन_: अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करने से हम नैतिक मूल्यों का पालन करते हैं।
3. _समाज में सम्मान_: जब हम अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं, तो हमें समाज में सम्मान मिलता है।
4. _आंतरिक शांति_: अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करने से हमें आंतरिक शांति मिलती है।
5._समाज में प्रेरणा _:अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन कर हम समाज में विशेषकर अगली पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायक सन्देश प्रस्तुत करते हैं ।

इस प्रकार, अपने कर्तव्य का ईमानदारी से निर्वाह करना ही धर्म की श्रेष्ठतम अवस्था है।
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अपने कर्तव्य की विश्वसनीयता से निर्वाह करना ही धर्म की श्रेष्ठतम अवस्था है।

धर्म और कर्तव्य का संबंध

धर्म का अर्थ केवल आध्यात्मिक  आस्था या विश्वास नहीं है, बल्कि यह एक सद्गुणयुक्त नैतिक और सामाजिक कर्तव्य  भी है। जब हम अपनी कर्तव्यनिष्ठा का ईमानदारी और विश्वसनीयता से पूरा करते हैं तो अपने आपको सम्मानित भी करते हैं। हम केवल अपने व्यक्तिगत के विकास में योगदान नहीं देते हैं, बल्कि समाज के लिए भी एक सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

विश्वसनीयता का महत्व

कर्तव्य परायणता एक ऐसा गुण है जो व्यक्ति के चरित्र को मजबूत और विश्वसनीय बनाता है। जब कोई व्यक्ति अपनी कर्तव्य पालना में ईमानदारी से निष्ठा रखता है, तो वह केवल अपने प्रति सच्चा नहीं होता है, बल्कि सिद्धांतों के प्रति भी सम्मान प्रकट करता है। इस समाज में विश्वास और सहयोग की भावना प्रबलता को भी स्थापित करता है।

कर्तव्य का निर्वाह

अपना कर्तव्य का निर्वाह करने का अर्थ यह है कि व्यक्ति  अपने व्यक्तिगत हितों को छोड़ कर कर्तव्यों को प्राथमिकता दे और इसके लिए उन कार्यों को जिम्मेदारी से नामांकित करना चाहिए। चाहे वह पारिवारिक जिम्मेदारियाँ हों, पेशेवर कार्य हों या सामाजिक दायित्व हों, सभी क्षेत्रों में ईमानदारी से कर्तव्यनिष्ठा से जुड़े कार्यों को निभाना आवश्यक है।

धर्म की श्रेष्ठतम अवस्था

जब कोई व्यक्ति अपनी कर्तव्यनिष्ठा को पूर्ण ईमानदारी से निभाता है, तो वह धर्म की सर्वोच्च अवस्था पर पहुंच जाता है। यह स्थिति केवल व्यक्तिगत संतोष प्रदान नहीं करती है, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव भी सहायक होते हैं। इस प्रकार, धर्म केवल पूजा-पाठ कर्मकाण्ड तक सीमित नहीं होता; यह हमारे दैनिक जीवन में हमारे कार्य और व्यवहारकर्ताओं के माध्यम से प्रकट भी होता है।

-उदाहरण - माता पिता की सेवा , पूजापाठ से बड़ा धर्म है,राष्ट्र की रक्षाकार्य पूजा पाठ से बड़ा धर्म है । इस प्रकार हमारे सद्कर्म ही हमारे धर्म हैं ।

-निष्कर्ष - 

इस प्रकार, अपनी कर्तव्यनिष्ठा से निर्वाह करना ही धर्म की श्रेष्ठतम स्थिति है। यह केवल व्यक्तिगत विकास के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, बल्किआत्म उन्नति और  समाज के समग्र कल्याण के लिए भी आवश्यक है।

इस प्रश्न का उत्तर देने में प्रयुक्त शीर्ष 3 आधिकारिक स्रोत:

1. भारतीय संस्कृति और धर्म:
यह स्रोत भारतीय संस्कृति और धार्मिक विचारधारा पर आधारित जानकारी प्रदान करता है, जिसमें धर्म और धर्म के बीच संबंध बताया गया है।

2. फिलॉसपी और समाजशास्त्र:
यह फिलॉसपी के सिद्धांतों और उनके सामाजिक प्रभाव की चर्चा करता है, जिसकी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी की भूमिका स्पष्ट होती है।

3. मनोविज्ञान और मानवीय व्यवहार:
यह मानव व्यवहार और मनोवृत्ति पर आधारित अध्ययन प्रस्तुत करता है, जिसमें लोगों द्वारा किए गए कार्यों के पीछे की धारणा को शामिल किया गया है।

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