मातृ ऋण चुकाने पर ही अगले जन्म का सुधार होता है matri rin chukana
हिन्दू सनातन धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति पर जन्म के समय से ही कुछ ऋण होते हैं , जो स्वतः ही धारित होते जाते हैं और उन्हें चुकाने के लिए व्यक्ति को कर्तव्य भाव से आचरण करना चाहिए, इस तरह की अपेक्षा ईश्वरीय व्यवस्था की है यह माना जाता है । मूलतः तीन प्रकार के ऋण बताए गए हैं, देव ऋण, पितृ ऋण और गुरु ऋण ! कहीं - कहीं इनकी संख्या 4 भी है , अर्थात ब्रह्म ऋण । व्यवहारिक दृष्टिकोंण से ये और भी अधिक हो सकते हैं।
यूँ तो देव ऋण यानीकि ईश्वरीय व्यवस्था का ऋण , पितृ ऋण यानीकि माता - पिता,पूर्वजों और समाज व्यवस्था का ऋण , गुरु ऋण यानीकि जो शिक्षण एवं मार्गदर्शन करते हैं का ऋण । कहीं - कहीं एक ऋण बृह्म ऋण के रूप में भी आता है । यानीकि ब्रह्मा द्वारा रचित ब्रह्मांडीय व्यवस्था का ऋण । इसमें मूलतः हम पर्यावरण का चिंतन कर सकते हैं ।। ये चारों ऋण अपने आप में समग्र होते हैं । प्रत्येक ऋण का व्यक्ति के जीवन में अपना भार होता है , अहसान होता है, सहयोग होता है । जिसका व्यक्ति ऋणी होता है । जिससे वह भारित होता है ।
यदि हम व्यवहारिक जीवन में देखें तो व्यक्ति के सामने सबसे महत्वपूर्ण पितृ ऋण हैं । जिसमें माता पिता पूर्वजों और समाज व्यवस्था के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन महत्वपूर्ण है ।
1- यह सच है कि ईश्वरीय व्यवस्था जो अदृश्य शक्ति के रूपमें कार्य करती है किंतु उसे हम भौतिक जगत के रूपमें महसूस करते हैं । उसी ईश्वरीय व्यवस्था के कारण प्रकृति सत्ता का सृजन हुआ है और उसकी निरंतरता है । इसी में हमारा शरीर बना है और इसी से चौरासी लाख प्रकार के शरीर जल थल और नभ में पाए जाते हैं । इसलिए इस ईश्वरीय सत्ता का ऋण हम पर है ।
2- एक व्यक्ति अपनी मां की कोख से जन्म लेता है । उसका मन की कोख में जो शरीर बना है वह मां के शरीर के अंशों से पोषण से बना है । इसलिए एक व्यक्ति सबसे ज्यादा ऋणी है तो अपनी मां का ऋणी है , वह इस ऋण को चुका नहीं सकता ।, इस तरह का अमूल्य ऋण उसके ऊपर भारित है । वहीं पिता के परिश्रम से ही उसका पोषण होता है और वंश परंपरा से चली आरही व्यवस्था एक सहायक परंपरा होने से पूज्यनीय है । किंतु सर्वोच्च मातृ ऋण ही है । माना जाता है कि मातृ ऋण की उपेक्षा करने वाला अगले जन्मों में अच्छे जीवन की संभावना खो देता है ।
मातृ ऋण चुकाने के तरीके :-
मातृ ऋण, जिसे हिंदू धर्म में सबसे बड़ा ऋण माना जाता है,तथा यह अपेक्षित है कि माता के प्रति वह कृतज्ञता और सम्मान का भाव सन्तान के आचरण में होना चाहिए , जो माता के द्वारा किये गए त्याग, परिश्रम और बलिदान के लिए व्यक्त किया जाना चाहिए । मातृ ऋण को कई तरह से चुकाया जाता है, जो न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं बल्कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के दृष्टिकोंण में भी गहराई से जुड़े हुए हैं। आइए इसे विस्तार से समझते हैं ।
क . माता की सेवा करना
माता की सेवा करना मातृ ऋण चुकाने का एक प्रमुख तरीका है। यह सेवा शारीरिक, मानसिक और सहयोगी व्यवहार के रूप से हो सकती है। माता की देखभाल करना, उनके आदेश निर्देश का ध्यान रखना, और उन्हें समय देना इस सेवा का हिस्सा हैं। जब हम अपने कर्तव्यपालन से उनकी की देखभाल करते हैं, तो हम उनके प्रति अपने प्यार और सम्मान को व्यक्त करते हैं। तो इस भार को उतरते हैं बल्कि पुण्य भी संचित करते हैं ।
ख . आज्ञाकारी होना :-
हिन्दू धर्म में माता-पिता की आज्ञा का पालन करना एक महत्वपूर्ण व्यवहार है। माता पिता की बात हमारी ही भलाई के लिए होती है । जो कि उनके अनुभव और ज्ञान से महत्वपूर्ण हैं। इसका एकमात्र उद्देश्य हमारी उनके प्रति एकजुटता को मजबूत करना है जो हमें सही मार्ग पर चलने में भी मदद करती है।
ग. प्रेम और सम्मान की अभिव्यक्ति :-
माता के प्रति प्रेम और सम्मान व्यक्त करना मातृ ऋण चुकाने का एक अन्य महत्वपूर्ण तरीका है। यह प्रेम केवल शब्द तक सीमित नहीं होना चाहिए; इसे कार्य में भी दिखाना चाहिए। जैसे कि उन्हें समय देना, उनके साथ बातचीत करना और उनके विचारों को समझाना।
घ . धार्मिक अनुष्ठान द्वारा :-
हिंदू धर्म में कई धार्मिक अनुष्ठान भी हैं जो मातृ ऋण का भुगतान कर सकते हैं। जैसे कि जन्मदिन पर मातृ पूजा करना , उनसे आशीर्वाद लेना और मृत्यु के पश्चात अर्पण तर्पण करना। यह अनुष्ठान माता की प्रति श्रद्धा प्रकट करने का एक तरीका है और परिवार पर सकारात्मक ऊर्जा प्रभाव डालता है। नई पीढ़ी को प्रेरणादायक है ।
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• ये ऋण भी बहुत हद तक पाप-पुण्य में सहभागी बन जाते हैं।
• इस ऋण में वो सभी देवी-देवता भी सम्मिलित हैं जो हमारे पालन-पोषण में अपनी अदृश्य भूमिका निभाते हैं।
• पितृ ऋण कई तरह का होता है क्योंकि हमारे पालन पोषण और जीवन पर, हमारी आत्मा पर, कई सगे-संबंधियों का सहयोग का रिश्ता होता है।
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माना जाता है कि चार ऋणों के साथ व्यक्ति जन्म लेता है , हर मनुष्य को इन्हें चुकाना चाहिए । इसी पर भावी जन्मों के सुख दुख निर्भर करते हैं ।
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, जब कोई व्यक्ति जन्म लेता है, तो वह केवल संचित कर्मों (पिछले जन्मों के कर्मों को) के साथ जन्म नहीं लेता है बल्कि वो चार प्रकार के ऋण के साथ भी जन्म लेता है। अगर वह ये ऋण चुकता नहीं करता है, तो ये ऋण भी बहुत हद तक उसके पाप-पुण्य में सहभागी बन जाते हैं और उसे दुःख, दुर्भाग्य और संकट भी प्रदान करते हैं।
1. देव ऋण: पहला ऋण है देव ऋण, जो हमारे पालनकर्ता भगवान विष्णु से जुड़ा है। इस ऋण में वो सभी देवी-देवता भी सम्मिलित हैं जो हमारे पालन-पोषण में अपनी भूमिका निभाते हैं। इस ऋण को चुकाने का केवल यही तरीका है कि हम अपना चरित्र उत्तम रखें, दान करते रहें, आवश्यकता से अधिक धन अपने पास जमा ना करें और धर्म के पथ पर चलते रहें। एक उत्तम संतान बनकर ही हम अपने भरण-पोषण करने वाले को उसकी कीमत चुका पायेंगे।
2. ब्रह्म ऋण : दूसरा ऋण है ब्रह्म ऋण। यह ऋण भगवान ब्रह्मा से जुड़ा है जिन्होंने हमें जन्म दिया है और अपने सभी संतानों में कोई भेदभाव नहीं रखा है। उस ईश्वर के कारण ही ये जीवन संभव हुआ है और इस ऋण को चुकाने की शर्त केवल यही है कि जिस पवित्र रूप में ईश्वर ने आपकी इस आत्मा को जीवन दिया है, आप उसे उसी पवित्रता के साथ उस ईश्वर को लौटाएं। आप आत्मा को आत्मज्ञानी और पवित्र वेद, उपनिषद और गीता जैसे धर्मग्रंथ पढ़कर रख सकते हैं। ये सारे धर्मग्रथ आपके आत्मा को जागरूक और उन्नत रखते हैं। यदि आपने यह ऋण नहीं चुकाया, तो आपका जीवन घोर संकट में घिरता जाता है या मृत्यु के बाद उसे किसी भी प्रकार की मदद नहीं मिलती।
ब्रह्म ऋण को पृथ्वी का ऋण भी कहते हैं, जो संतान द्वारा चुकाया जाता है। यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म और कुल को छोड़कर गया है, तो यह ऋण दुर्भाग्य के रूप में कुल के अंत होने तक पीछा करता रहता है क्योंकि यह ऋण ब्रह्मा और उनके पुत्रों से जुड़ा हुआ है। इस ऋण को कम करने का एक यह भी तरीका है कि आप ब्रह्मा के द्वारा के सभी संतानों में कोई भेदभाव ना रखें, ना जात के आधार पर और ना ही धर्म के आधार पर ।
3.पितृ ऋण : यह ऋण हमारे पूर्वजों से जुड़ा हुआ है। पितृ ऋण कई तरह का होता है क्योंकि हमारे कर्मों का, हमारी आत्मा का कई सगे-संबंधियों से रिश्ता होता है और उनका योगदान हमारे जीवन में होता है, जैसे कि माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, बेटा-बेटी इत्यादि। उदाहरण के लिए जब मातृ ऋण से कर्ज चढ़ता जाता है, तो घर की शांति भंग हो जाती है, बहन के ऋण से व्यापार-नौकरी कभी भी स्थायी नहीं रहती, भाई के ऋण से हर तरह की सफलता मिलने के बाद भी सबकुछ खत्म होने की संभावना बनी रहती है। ये सारे कष्ट आपको 28 से 36 वर्ष की आयु के बीच झेलने पड़ते हैं। मूल रूप से माता-पिता अपना सारा जीवन हमारे पालन-पोषण हेतु समर्पित कर देते हैं, हमारे लिए कष्ट सहते हैं, तो हमारा परम कर्तव्य है कि इस ऋण को चुकाने के लिए संतान को माता पिता की सेवा करना अनिवार्य है। जब पितृ पक्ष आये, तो अपने पूर्वजों के लिए पितृ दान एवं पिंड दान अवश्य करें। श्राद्ध करना भी इस ऋण को चुकाने का एक अहम हिस्सा है।
4. गुरु ऋण : गुरु का हमारे जीवन में बहुत बड़ा रोल होता है। उनके मार्गदर्शन के बिना हमारा जीवन अच्छा होना संभव नहीं होता है। इसलिए गुरु ऋण चुकाना बेहद आवश्यक है। इस ऋण को चुकाना तभी संभव है, जब गुरू से हमनें जो भी ज्ञान प्राप्त किया है, तो उसे हम खुद तक ही सीमित ना रखकर दूसरे लोगों तक भी पहुँचायें, बिना किसी लाभ के उनसे भी बांटे।
ये चारों ऋण हमारे जीवन में बेहद अहम हैं और अगर आप इन्हें चुकता नहीं करते हैं, तो आपका भविष्य एवं आगे की यात्रा कष्टमय ही सकता है।
यूँ तो देव ऋण यानीकि ईश्वरीय व्यवस्था का ऋण , पितृ ऋण यानीकि माता - पिता,पूर्वजों और समाज व्यवस्था का ऋण , गुरु ऋण यानीकि जो शिक्षण एवं मार्गदर्शन करते हैं का ऋण । कहीं - कहीं एक ऋण बृह्म ऋण के रूप में भी आता है । यानीकि ब्रह्मा द्वारा रचित ब्रह्मांडीय व्यवस्था का ऋण । इसमें मूलतः हम पर्यावरण का चिंतन कर सकते हैं ।। ये चारों ऋण अपने आप में समग्र होते हैं । प्रत्येक ऋण का व्यक्ति के जीवन में अपना भार होता है , अहसान होता है, सहयोग होता है । जिसका व्यक्ति ऋणी होता है । जिससे वह भारित होता है ।
यदि हम व्यवहारिक जीवन में देखें तो व्यक्ति के सामने सबसे महत्वपूर्ण पितृ ऋण हैं । जिसमें माता पिता पूर्वजों और समाज व्यवस्था के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन महत्वपूर्ण है ।
1- यह सच है कि ईश्वरीय व्यवस्था जो अदृश्य शक्ति के रूपमें कार्य करती है किंतु उसे हम भौतिक जगत के रूपमें महसूस करते हैं । उसी ईश्वरीय व्यवस्था के कारण प्रकृति सत्ता का सृजन हुआ है और उसकी निरंतरता है । इसी में हमारा शरीर बना है और इसी से चौरासी लाख प्रकार के शरीर जल थल और नभ में पाए जाते हैं । इसलिए इस ईश्वरीय सत्ता का ऋण हम पर है ।
2- एक व्यक्ति अपनी मां की कोख से जन्म लेता है । उसका मन की कोख में जो शरीर बना है वह मां के शरीर के अंशों से पोषण से बना है । इसलिए एक व्यक्ति सबसे ज्यादा ऋणी है तो अपनी मां का ऋणी है , वह इस ऋण को चुका नहीं सकता ।, इस तरह का अमूल्य ऋण उसके ऊपर भारित है । वहीं पिता के परिश्रम से ही उसका पोषण होता है और वंश परंपरा से चली आरही व्यवस्था एक सहायक परंपरा होने से पूज्यनीय है । किंतु सर्वोच्च मातृ ऋण ही है । माना जाता है कि मातृ ऋण की उपेक्षा करने वाला अगले जन्मों में अच्छे जीवन की संभावना खो देता है ।
मातृ ऋण चुकाने के तरीके :-
मातृ ऋण, जिसे हिंदू धर्म में सबसे बड़ा ऋण माना जाता है,तथा यह अपेक्षित है कि माता के प्रति वह कृतज्ञता और सम्मान का भाव सन्तान के आचरण में होना चाहिए , जो माता के द्वारा किये गए त्याग, परिश्रम और बलिदान के लिए व्यक्त किया जाना चाहिए । मातृ ऋण को कई तरह से चुकाया जाता है, जो न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं बल्कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के दृष्टिकोंण में भी गहराई से जुड़े हुए हैं। आइए इसे विस्तार से समझते हैं ।
क . माता की सेवा करना
माता की सेवा करना मातृ ऋण चुकाने का एक प्रमुख तरीका है। यह सेवा शारीरिक, मानसिक और सहयोगी व्यवहार के रूप से हो सकती है। माता की देखभाल करना, उनके आदेश निर्देश का ध्यान रखना, और उन्हें समय देना इस सेवा का हिस्सा हैं। जब हम अपने कर्तव्यपालन से उनकी की देखभाल करते हैं, तो हम उनके प्रति अपने प्यार और सम्मान को व्यक्त करते हैं। तो इस भार को उतरते हैं बल्कि पुण्य भी संचित करते हैं ।
ख . आज्ञाकारी होना :-
हिन्दू धर्म में माता-पिता की आज्ञा का पालन करना एक महत्वपूर्ण व्यवहार है। माता पिता की बात हमारी ही भलाई के लिए होती है । जो कि उनके अनुभव और ज्ञान से महत्वपूर्ण हैं। इसका एकमात्र उद्देश्य हमारी उनके प्रति एकजुटता को मजबूत करना है जो हमें सही मार्ग पर चलने में भी मदद करती है।
ग. प्रेम और सम्मान की अभिव्यक्ति :-
माता के प्रति प्रेम और सम्मान व्यक्त करना मातृ ऋण चुकाने का एक अन्य महत्वपूर्ण तरीका है। यह प्रेम केवल शब्द तक सीमित नहीं होना चाहिए; इसे कार्य में भी दिखाना चाहिए। जैसे कि उन्हें समय देना, उनके साथ बातचीत करना और उनके विचारों को समझाना।
घ . धार्मिक अनुष्ठान द्वारा :-
हिंदू धर्म में कई धार्मिक अनुष्ठान भी हैं जो मातृ ऋण का भुगतान कर सकते हैं। जैसे कि जन्मदिन पर मातृ पूजा करना , उनसे आशीर्वाद लेना और मृत्यु के पश्चात अर्पण तर्पण करना। यह अनुष्ठान माता की प्रति श्रद्धा प्रकट करने का एक तरीका है और परिवार पर सकारात्मक ऊर्जा प्रभाव डालता है। नई पीढ़ी को प्रेरणादायक है ।
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• ये ऋण भी बहुत हद तक पाप-पुण्य में सहभागी बन जाते हैं।
• इस ऋण में वो सभी देवी-देवता भी सम्मिलित हैं जो हमारे पालन-पोषण में अपनी अदृश्य भूमिका निभाते हैं।
• पितृ ऋण कई तरह का होता है क्योंकि हमारे पालन पोषण और जीवन पर, हमारी आत्मा पर, कई सगे-संबंधियों का सहयोग का रिश्ता होता है।
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माना जाता है कि चार ऋणों के साथ व्यक्ति जन्म लेता है , हर मनुष्य को इन्हें चुकाना चाहिए । इसी पर भावी जन्मों के सुख दुख निर्भर करते हैं ।
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, जब कोई व्यक्ति जन्म लेता है, तो वह केवल संचित कर्मों (पिछले जन्मों के कर्मों को) के साथ जन्म नहीं लेता है बल्कि वो चार प्रकार के ऋण के साथ भी जन्म लेता है। अगर वह ये ऋण चुकता नहीं करता है, तो ये ऋण भी बहुत हद तक उसके पाप-पुण्य में सहभागी बन जाते हैं और उसे दुःख, दुर्भाग्य और संकट भी प्रदान करते हैं।
1. देव ऋण: पहला ऋण है देव ऋण, जो हमारे पालनकर्ता भगवान विष्णु से जुड़ा है। इस ऋण में वो सभी देवी-देवता भी सम्मिलित हैं जो हमारे पालन-पोषण में अपनी भूमिका निभाते हैं। इस ऋण को चुकाने का केवल यही तरीका है कि हम अपना चरित्र उत्तम रखें, दान करते रहें, आवश्यकता से अधिक धन अपने पास जमा ना करें और धर्म के पथ पर चलते रहें। एक उत्तम संतान बनकर ही हम अपने भरण-पोषण करने वाले को उसकी कीमत चुका पायेंगे।
2. ब्रह्म ऋण : दूसरा ऋण है ब्रह्म ऋण। यह ऋण भगवान ब्रह्मा से जुड़ा है जिन्होंने हमें जन्म दिया है और अपने सभी संतानों में कोई भेदभाव नहीं रखा है। उस ईश्वर के कारण ही ये जीवन संभव हुआ है और इस ऋण को चुकाने की शर्त केवल यही है कि जिस पवित्र रूप में ईश्वर ने आपकी इस आत्मा को जीवन दिया है, आप उसे उसी पवित्रता के साथ उस ईश्वर को लौटाएं। आप आत्मा को आत्मज्ञानी और पवित्र वेद, उपनिषद और गीता जैसे धर्मग्रंथ पढ़कर रख सकते हैं। ये सारे धर्मग्रथ आपके आत्मा को जागरूक और उन्नत रखते हैं। यदि आपने यह ऋण नहीं चुकाया, तो आपका जीवन घोर संकट में घिरता जाता है या मृत्यु के बाद उसे किसी भी प्रकार की मदद नहीं मिलती।
ब्रह्म ऋण को पृथ्वी का ऋण भी कहते हैं, जो संतान द्वारा चुकाया जाता है। यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म और कुल को छोड़कर गया है, तो यह ऋण दुर्भाग्य के रूप में कुल के अंत होने तक पीछा करता रहता है क्योंकि यह ऋण ब्रह्मा और उनके पुत्रों से जुड़ा हुआ है। इस ऋण को कम करने का एक यह भी तरीका है कि आप ब्रह्मा के द्वारा के सभी संतानों में कोई भेदभाव ना रखें, ना जात के आधार पर और ना ही धर्म के आधार पर ।
3.पितृ ऋण : यह ऋण हमारे पूर्वजों से जुड़ा हुआ है। पितृ ऋण कई तरह का होता है क्योंकि हमारे कर्मों का, हमारी आत्मा का कई सगे-संबंधियों से रिश्ता होता है और उनका योगदान हमारे जीवन में होता है, जैसे कि माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, बेटा-बेटी इत्यादि। उदाहरण के लिए जब मातृ ऋण से कर्ज चढ़ता जाता है, तो घर की शांति भंग हो जाती है, बहन के ऋण से व्यापार-नौकरी कभी भी स्थायी नहीं रहती, भाई के ऋण से हर तरह की सफलता मिलने के बाद भी सबकुछ खत्म होने की संभावना बनी रहती है। ये सारे कष्ट आपको 28 से 36 वर्ष की आयु के बीच झेलने पड़ते हैं। मूल रूप से माता-पिता अपना सारा जीवन हमारे पालन-पोषण हेतु समर्पित कर देते हैं, हमारे लिए कष्ट सहते हैं, तो हमारा परम कर्तव्य है कि इस ऋण को चुकाने के लिए संतान को माता पिता की सेवा करना अनिवार्य है। जब पितृ पक्ष आये, तो अपने पूर्वजों के लिए पितृ दान एवं पिंड दान अवश्य करें। श्राद्ध करना भी इस ऋण को चुकाने का एक अहम हिस्सा है।
4. गुरु ऋण : गुरु का हमारे जीवन में बहुत बड़ा रोल होता है। उनके मार्गदर्शन के बिना हमारा जीवन अच्छा होना संभव नहीं होता है। इसलिए गुरु ऋण चुकाना बेहद आवश्यक है। इस ऋण को चुकाना तभी संभव है, जब गुरू से हमनें जो भी ज्ञान प्राप्त किया है, तो उसे हम खुद तक ही सीमित ना रखकर दूसरे लोगों तक भी पहुँचायें, बिना किसी लाभ के उनसे भी बांटे।
ये चारों ऋण हमारे जीवन में बेहद अहम हैं और अगर आप इन्हें चुकता नहीं करते हैं, तो आपका भविष्य एवं आगे की यात्रा कष्टमय ही सकता है।
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