पूरी तरह वैज्ञानिक हैं हिन्दू पुरषार्थ और कर्मयोग - अरविन्द सिसोदिया Pursharth & Karmyog

 Arvind Sisodia:-

हिन्दू जीवन पद्धति में पुरषार्थ कर्मयोग

विचार - 

हिन्दू जीवन पद्धति में पुरुषार्थ और कर्मयोग दो महत्वपूर्ण अवधारणाएं हैं। ये दोनों अवधारणाएं हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांतों में से एक ही हैं , इन्हें एक सिक्के के दो पहलू माना जा सकता है और जीवन के उद्देश्य और अर्थ को समझने में बहुमूल्य मदद मिलती हैं। ये पूरी तरह वैज्ञानिक और यर्थात के धरातल पर सटीक उतरने वाला तथ्य है ।

पुरुषार्थ:- 

पुरुषार्थ का अर्थ है "मानव जीवन का मूल उद्देश्य"। हिन्दू धर्म में पुरुषार्थ को चार प्रकार में विभाजित किया गया है:

1. _धर्म_: विधि सम्मत नैतिक और धार्मिक जीवन जीना।
2. _अर्थ_: विधि सम्मत आर्थिक सुरक्षा और स्थिरता प्राप्त करना।
3. _काम_: विधि सम्मत भौतिक जीवन , व्यक्तिगत सुख और नियंत्रित आनंद प्राप्त करना।
4. _मोक्ष_: आत्मा की मुक्ति और परमात्मा के साथ एकता प्राप्त करना। आवा गमन के चक्र से मुक्त होना ।

कर्मयोग:- 
मूलरूप से कर्म से अभिप्रेत है कि जीवन के लिए आवश्यक सभी कार्यों को कर्तव्य भाव से करो । कर्तव्य के अधीन कार्यों में लाभ हानि की दृष्टि से परे हट कर , यह कार्य हमारा कर्तव्य है जिम्मेदारी है इस भाव से करना ही है । परिणामों की चिन्ता किये बिना लक्ष्य की बढने की प्रेरणा ही कर्मयोग है । इसे हम भक्ति भाव की अति से मनुष्य को बाहर निकाल कर कर्तव्य भाव के मार्ग पर चलाने का महान कार्य , प्रेरणा या दिशा देना ही कर्म योग है ।

कर्मयोग का अर्थ है "कर्म के माध्यम से आत्मा की मुक्ति"। कर्मयोग के अनुसार, व्यक्ति को अपने कर्मों को बिना किसी आसक्ति - अपेक्षा के करना चाहिए। कर्मयोग के तीन मुख्य सिद्धांत हैं:-

1. _निष्काम कर्म_: कर्मों को बिना किसी अपेक्षा के करना।
2. _स्वधर्म_: अपने कर्मों को अपने स्वभाव और धर्म के अनुसार करना।
3. _इश्वरप्राणिधान_: अपने कर्मों को परमात्मा के चरणों में समर्पित करना।

इस प्रकार, पुरुषार्थ और कर्मयोग हिन्दू जीवन पद्धति के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं जो जीवन के उद्देश्य और अर्थ को समझने में मदद करते हैं। 
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Arvind Sisodia : -
हिन्दू जीवन पद्धति में पुरषार्थ का कर्मयोग

पुरुषार्थ और कर्मयोग का महत्व- 

हिन्दू जीवन पद्धति में “पुरुषार्थ” कहे गए हैं जिनका अर्थ चार वे लक्ष्य जो जीवन से लेकर आत्मकल्याण के लिए आवश्यक हैं । 

पुरषार्थ का अर्थ है मानव के चार मुख्य लक्ष्यों की प्राप्ति, जो हैं: धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष के रूपमें जाने जाते हैं। इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करने के लिए कर्मयोग एक महत्वपूर्ण साधन है। कर्मयोग का तात्पर्य है अपने कार्यों को निष्काम भाव से करना, अर्थात् फल की इच्छा के बिना कार्य करना। यह सिद्धांत भगवद गीता में विशेष रूप से वर्णित है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि कैसे उसे अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

यह एक वैज्ञानिक सत्य भी है कि हम अपने अधिकांश कार्यों में विफल होते हैं और फिरसे नए काम को करने में जुट जाते हैं , इस तरह प्रतिदिन हजारों विफलताएं प्रतिदिन आनें पर भी उनका विलाप नहीं करना उनसे दुःखी नहीं होना ही निष्काम भाव कहलाता है । जो हमें मानसिक अधोपतन से बचाता है ।

कर्मयोग की परिभाषा और सिद्धांत -
कर्मयोग का मूल सिद्धांत यह है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों को बिना लाभ की आकांक्षाओं के ,  पूरी निष्ठा, मनोयोग  और समर्पण के साथ निभाए, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ या हानि की चिंता किए , अपने कर्तव्य को पूरा करे । यह विचारधारा हमें सिखाती है कि हमारे कार्यों का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत लाभ नहीं होना चाहिए, बल्कि परिवार , समाज , राष्ट्र  और मानवता के कल्याण के लिए भी होना चाहिए। जो हिन्दू आदर्श विश्व का कल्याण हो के लक्ष्य पर जाकर पहुंचता है । इस प्रकार, कर्मयोग हमें आत्म-समर्पण और सेवा की भावना से प्रेरित करता है।

धर्म और कर्मयोग
धर्म का संबंध मूलरूप से धारण किये हुए जीवनमूल्यों से है । जीवन में धर्म  सकारात्मकता, नैतिकता, सदाचरण  और आध्यात्मिकता से संबद्ध होते हुए ईश्वर की शरण प्राप्ति के ध्येय को कहा जाता है । हिन्दू धर्म में यह माना जाता है कि जब हम अपने कर्तव्यों को धारण किये हुए आत्म अनुशासन ( धर्म ) के अनुसार निभाते हैं, तो हम न केवल अपनी आत्मा की उन्नति करते हैं बल्कि समाज में भी सकारात्मक बदलाव लाते हैं। कर्मयोग हमें यह सिखाता है कि हमारे कार्यों का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत संतोष नहीं होना चाहिए; बल्कि हमें परिवार , समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए कार्य करना चाहिए।

अर्थ और कर्मयोग - 
अर्थ का शाब्दिक  अर्थ जीवन यापन हेतु आवश्यक धन व  भौतिक संसाधनों से है। हिन्दू जीवन पद्धति में अर्थोपार्जन को एक महत्वपूर्ण पुरुषार्थ माना गया है। लेकिन इसे धर्म के सिद्धांतों के अनुसार ही अर्जित किया जाना चाहिए अर्थात विधि सम्मत तरीके से अर्जित धन व  संसाधन ही अर्थ पुरषार्थ हरण । कर्मयोग इस बात पर जोर देता है कि धन कमाने की प्रक्रिया में नैतिकता और ईमानदारी बनाए रखनी चाहिए। इससे न केवल व्यक्ति की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है, बल्कि समाज में व्यक्ति की स्वाभाविक स्थिरता आती है, सम्मान रहता है ।

काम और कर्मयोग - 
काम का शाब्दिक अर्थ कामनाओं से अभीप्रेत है । काम-पुरषार्थ से  इच्छाओं और भोगों से जुड़ा होना होता है। भारतीय संस्कृति में काम को संयमित और विधि सम्मत तरीके से जीने पर जोर दिया गया है। कर्मयोग हमें सिखाता है कि इच्छाओं को नियंत्रित करना आवश्यक है ताकि वे हमारे कर्तव्यों में बाधा न डालें। जब हम अपने कामों को धर्मानुसार करते हैं, तब हमारी इच्छाएँ भी अनुशासित और संतुलित रहती हैं, इनमें आने वाले असन्तुलित भाव से धर्म बचाता है ।

मोक्ष और कर्मयोग - 
मोक्ष अंतिम लक्ष्य होता है , जन्म मरण रूपी माया जाल से मुक्त होना ही मोक्ष है । जिसे हर जीवात्मा प्राप्त करना चाहती है। यह बंधनों से मुक्ति का प्रतीक होता है। कर्मयोग द्वारा व्यक्ति अपने कार्यों को सही दिशा में लगाकर मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकता है। जब व्यक्ति निष्काम भाव से कार्य करता है, तो वह अपने भीतर शांति अनुभव करता है जो मोक्ष की ओर ले जाती है।

निष्कर्ष - 
इस प्रकार, हिन्दू जीवन पद्धति में पुरुषार्थ और कर्मयोग एक-दूसरे के पूरक हैं। ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं।जो मिलकर व्यक्ति को एक संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं, जिसमें आध्यात्मिकता, नैतिकता, भौतिक सुख-सुविधाएँ तथा सामाजिक जिम्मेदारियाँ सहित अनाशक्ति भी सम्मलित होती हैं, जो अंतिम पुरषार्थ मोक्ष को प्रेरित करती है।

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