कविता - शासन कहां है,अब ये तो बाजार लगता है

कविता -
“शासन कहां अब तो यहाँ बाजार है ”
- अरविन्द सिसोदिया 
9414180151
हर तरफ़ धुंध है, धुआँ है, सत्य मौन है ,
सच यही कि मीठा होना था, मगर नोन है ।
काग़ज़ों के जंगल में इंसान खो गये,
न्याय के मंदिर भी, व्यापार हो गये,
अन्याय सिर चढ़ कर बोलता है,
पैसा परमेश्वर है,यही भाग्या खोलता है।
==1==
पटवारी की कलम भी बोली लगाती,
पुलिस की वर्दी रिश्वत में मुस्कराती।
न्यायालय तो नोटों के पहाड़ों पर सवार है,
ग़रीब की पुकार अब बेकार है।
नियम क़ानून की धाराओं पर व्यापार चलता है,
शासन कहां है,अब ये तो बाजार लगता है।
==2==
प्रशासन कमा कर भूखा है, अपार पैसे से पेट भरता है।
भ्रष्टाचार का रावण हर कोने में बहरूपिया बन रहता है ।
“देश बदला, नेता बदले, सरकारें बदली ”
पर भ्रष्टाचार अजर अमर हो गया है।
रिश्वत कहना गुनाह है सेवा शुल्क जो हो गया है।
===3===
आशा है कोई न्याय प्रिय आयेगा,
ईश्वर कभी किसी को प्रगटायेगा,
भ्रष्टाचार की अमावस्या में मशाल जलायेगा,
सड़ी गली व्यवस्था है बदबू से जीना दुस्वार है, 
बदलाव से सच का कोई दीवान फिर से सजायेगा,
न्याय नीति का समय तभी आ पायेगा, तभी आपायेगा।
=====समाप्त =====

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