कविता - में हारा सब जीते
कविता - में हारा सब जीते
कर्म क्षेत्र के धर्म पथ पर,
कर्तव्यों कि तपस्थली में,
पूरा जीवन जलता रहा,
जब अपने हित की बात आई तो,
सबको पाया शत्रुदल में ,
फिर क्या था....में हारा सब जीते !
क्योंकि में अपनापन त्याग न पाया,
उनमें अपनापन आ न पाया।
में हारा सब जीते..में हारा सब जीते।
जो बड़ा बेटा होता है,
जिम्मेदारी ढोता है,
पढ़ाई उसकी छूटती है,
लड़ाई में उसे छोक दिया जाता है
बांकी के अच्छे के लिए,
अक्सर बुरा उसका होता है,
जब वह अपने हक की बात करे
वनवास उसे तब होता है..
महाभारत घर के करते,
वह खून के आंसू रोता है ...!
कर्म क्षेत्र के धर्म पथ पर,
कर्तव्यों कि तपस्थली में,
पूरा जीवन जलता रहा,
जब अपने हित की बात आई तो,
सबको पाया शत्रुदल में ,
फिर क्या था....में हारा सब जीते !
क्योंकि में अपनापन त्याग न पाया,
उनमें अपनापन आ न पाया।
में हारा सब जीते..में हारा सब जीते।
आस टूटती, विश्वास टूटता
स्वास स्वांस, जीवन टूटता
मुर्दो सा बदहाल वह
बुझी हुई आग वह
आहे भर भर रोता है,
कल तक़ कर्णधार था
विश्वासघात से वाहियात होता है ...
नर्क सा जीवन, अंधकार ही नियती
अंतिम पायदान की प्रतीक्षा में जगता है
कर्म क्षेत्र के धर्म पथ पर,
कर्तव्यों कि तपस्थली में,
पूरा जीवन जलता रहा,
जब अपने हित की बात आई तो,
सबको पाया शत्रुदल में ,
फिर क्या था....में हारा सब जीते !
क्योंकि में अपनापन त्याग न पाया,
उनमें अपनापन आ न पाया।
में हारा सब जीते..में हारा सब जीते।
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