हल्दिघाटी : एक दिन एक स्थान तीन पीढ़ियों का बलिदान, धन्य है ग्वालियर के राजा रामशाह तोमरHaldighati
"तीन पीढियों का बलिदान"........
हल्दिघाटी : एक दिन एक स्थान तीन पीढ़ियों का बलिदान, धन्य है ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर
Haldighati: One day at one place the sacrifice of three generations, blessed is Raja Ramshah Tomar of Gwalior
विश्व के इतिहास में वीरता और बलिदानों की एक से बढ़ कर एक गौरव गाथा विद्यमान हैं किन्तु एक ही युद्ध में एक ही दिन एक ही स्थान पर एक ही परिवार की तीन पीढियां एक साथ वीरगति को प्राप्त हुई हों ऐसा उदाहरण विश्वभर में मात्र वीर प्रसविनी मेवाड़ धरा पर ही मिलता है।
मित्रों!
भारत के विभिन्न प्रान्तों में बसे तोमर या तँवर राजपूत महाभारत के नायक अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के वंशज हैं।
इसी वंश के राजा अनंगपाल (प्रथम)ने दिल्ली को बसाया, इन्हीं के द्वारा निर्माण करवाये गये 'लाल कोट' नामक स्थान को आज हम दिल्ली के लाल किले के नाम से जानते हैं।
1192 ई.में राजा अनंगपाल द्वितीय के समय तोमर साम्राज्य का पतन हो गया।
सन् 1375 में अनंगपाल द्वितीय की पाँचवीं पीढ़ी के वीरसिंह देव ने ग्वालियर में तोमर राजवंश की स्थापना की।वीरसिंह के बाद ग्वालियर का छठा तोमर राजा विक्रमादित्य 1526 ई.मे पराजय के बाद लोदी के अधीन एक सामन्त मात्र रह गया।
20 अप्रैल 1526ई. को पानाप्रस्थ (पानीपत )में लोदी की ओर से बाबर के खिलाफ लड़ते हुये विक्रमादित्य वीरगति को प्राप्त हुआ।
उस समय उसके पुत्र रामसिंह की आयु 12 वर्ष थी।वह अपने चाचा धुमरगंद के साथ ग्वालियर को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयासरत था।ग्वालियर वापस दिलाने में मदद करेगा यह सोच कर ये दोनों शेरशाह सूरी के साथ हो जाते हैं।
सन्1543 में सूरी ग्वालियर रामसिंह को न देकर अपने सेनापति शुजात खां को दे देता है ऊपर से मालवा के रायसेन में तोमर शाशक पूरणमल से विश्वासघात कर सोजना के तोमरों का वंश नाश कर देता है।
इस घटना ने रामसिंह को अन्दर तक हिला कर रख दिया।वह क्रोध की ज्वाला से धधक रहा था।उसने चम्बल के बीहडों को अपना निवास बना लिया और सेना एकत्र करता रहा।उचित अवसर पाकर 1558 में रामसिंह बीहड़ों से निकल कर ग्वालियर गढ़ पर आक्रमण कर देता है।यह आक्रमण इतना सुनियोजित और योजनाबद्ध था कि सूरी सुहैल की पराजय सुनिश्चित हो गई थी किन्तु उसी समय अकबर का सेनापति कियाखां ग्वालियर पर कब्जा करने की नियत से सेना सहित आ पहुंचा।
रामसिंह को अब सुहैल को छोड़ कियाखां से युद्ध करना पड़ता है।तीन दिन के युद्ध के बाद रामसिंह बीहड़ लोट जाता है।तभी अकबर ने सुहैल को संदेशा भिजवाया कि तोमर चुप नहीं बैठेगा,गढ़ तोमरों के हाथों में चला जाये इससे अच्छा है कि यह मुगलों के हाथ में रहे।सुहैल अकबर की आधीनता स्वीकार कर लेता है और दिल्ली दरबार में चला जाता है।
इसके बाद अकबर रामसिंह को इस इस शर्त पर ग्वालियर गढ़ देने को तैयार हो जाता है कि रामसिंह अकबर की आधीनता स्वीकार कर ले।
पर इस योद्धा को अकबर की दासता स्वीकार नहीं थी।
इधर मेवाड़ में महाराणा उदयसिंह को भी किसी भी कीमत पर अकबर की दासता स्वीकार नहीं थी।यह बात तोमर रामसिंह भी जानते थे।अतः अन्तर्मन में धधक रही मुगलों को परास्त करने की ज्वाला को प्रज्वलित रखते हुऐ अपने कुलाभिमान की रक्षा के लिये रामसिंह मेवाड़ में आकर महाराणा उदयसिंह के शरणागत हो जाते हैं।महाराणा उदयसिंह ग्वालियर और चम्बल घाटी के इस नरनाहर की शौर्य गाथाएँ और कठोर जीवटता के बारे में सुन चुके थे।उदयसिंह जी रामसिंह और उनके पूरे परिवार का बड़े मान-सम्मान से स्वागत करते हुऐ उन्हें 'शाहों का शाह' के सम्बोधन से सम्बोधित करते हैं।उसी दिन से मेवाड़ और सम्पूर्ण राजपूताना तथा देश भर में रामसिंह को "राजा रामशाह तोमर" के नाम से जाना जाने लगा।रामशाह जीवन पर्यन्त पहले उदयसिंह पश्चात महाराणा प्रताप के विश्वासपात्र एवं सलाहकार रहे।
महाराणा उदयसिंह के स्वर्गारोहण के बाद जब प्रताप उनके अन्तिम संस्कार के लिए गये हुए थे,तभी पीछे से कुछ सामन्त उदयसिंह के छोटे पुत्र जगमाल का राज्याभिषेक कर देते हैं।
राजा रामशाह और जालौर के मानसिंह आखेराजोत तथा चूण्डावत सरदार कृष्णदास को यह स्वीकार नहीं था।अन्तिम संस्कार से लोट कर गद्दी पर बैठे हुऐ जगमाल का एक हाथ रामशाह ने तथा दूसरा हाथ चूण्डावत कृष्ण दास ने पकड़कर उसे गद्दी से उठा दिया।
बुलंद स्वर में रामशाह ने जगमाल से कहा 'आप भूल कर रहे हैं,इस सिंहासन पर बैठने का अधिकार केवल प्रताप का है'
रामशाह की क्रोधानल से रक्तिम आँखों के साथ सिंह गर्जन समान शब्दों को सुन जगमाल चुपचाप दरबार से चला जाता है।
उसी समय 28 फरवरी 1572 को गोगुन्दा गढ़ में सलूम्बर के चूण्डावत सरदार ने अपनी कटार से अँगूठे को चीर उससे बहते रक्त से महाराणा प्रताप का राज तिलक किया।
यह1576 का जून का महिना था अर्थात हकीम खां सूर की शहादत,बड़ी सादड़ी के सरदार झाला मान द्वारा तिल तिल कट मातृ भू का ऋण चुकाने के साथ ही तीन पीढियों के कालजयी बलिदान का समय सन्निकट आ गया था।
आखिर वह क्षण भी आ ही गया जब महाराणा प्रताप के साथ रामशाह को भी लगा कि बरसों पुरानी अकबर को परास्त करने उनकी अभिलाषा पूरी होने वाली है।
पर यह क्या? महाराणा प्रताप को सपने मे देखकर थर्राने वाला कायर अकबर युद्ध के मैदान मे आया ही नही था।
मित्रों! यकीन मानें हल्दी घाटी के उस रण में यदि अकबर आ गया होता तो "चेतक टापों से चिन्हित अरावली के शिलाखण्ड आज कुछ ओर ही गौरव गाथा सुना रहे होते"
"महाराणा का वह प्रलयंकर भाला अकबर का लहु चाट लेता और जैवन्ता का लाल वह कालजयी राणा प्रताप भारत का भाग्य बदल देता"।
18 जून 1576 का वह ऐतिहासिक दिन ....अकबर की एक लाख सैनिकों की फौज हल्दीघाटी में आ पहुंची थी। महाराणा प्रताप का ध्वजगज भी हल्दीघाटी में आ पहुंचा था। वर्षा ऋतु का प्रारंभ हो चुका था किंतु उस दिन भीषण गर्मी और उमस थी।
तभी रण के डंकों की चोट पड़ी,रण की शंख ध्वनि गरज उठी,केसरिया जौहर जाग उठा, रणधीर भुजाऐं फड़क उठी, केसरियाबानों में सुसज्जित मेवाड़ी वीरों ने इतिहास रक्त से लिखने को प्राणों का मूल्य नहीं जाना।
प्रताप की ओर से हारावल (अग्रिम पंक्ति)में पठान तोपची हकीम खान सूर, बड़ी सादड़ी के झाला बीदा,झाला मान,जालौर के अखेराजोत के पुत्र मानसिंह थे।
सलूंबर के चुंडावत सरदार कृष्णदास, देवगढ़ के रावत सांगा और चित्तौड़ युद्ध के अमर सैनानी जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ का शौर्य अपने चरम पर था।
पीछे चाँदावल की की टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे पानरवा के सोलंकी सरदार राणा पूंजा।आसपास की पहाड़ियों पर अधनंगे लगते महारुद्र वनवासी भील योद्धा तीर कमानों के साथ मोर्चा संभाले हुऐ थे।
उधर दाहिने भाग का नेतृत्व स्वयं राजा रामशाह तोमर कर रहे थे।उनके साथ उनके तीन पुत्र शालीवाहन,भवानी सिंह, प्रताप सिंह और पौत्र बलभद्र थे और साथ में था चंबल घाटी के तोमर,भदौरिया, सिकरवार एवं जादौन राजपूतों का दल जिसकी संख्या 500 के करीब थी।मुगलों के वाम पार्श्व पर रामशाह का दल टूट पड़ा।इस दल ने ऐसा भीषण रणरंग मचाया कि दुश्मन की हारावल में भगदड़ मच गई और वाम पार्श्व के सैनिक भाग खड़े हुऐ।
उधर महाराणा प्रताप ने मानसिंह के हाथी पर चेतक को चढ़ा दिया था और भाले का प्रहार मानसिंह पर किया,मानसिंह ने महावत के पीछे होदे में छिपकर अपनी जान बचाई।
इधर रामशाह और उसके पुत्रों के अपरिमेय शौर्य के आगे गाजी खां बदख्सी टिक नहीं पाया और वह भी रणक्षेत्र छोड़कर भाग खड़ा हुआ।
इस युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी और अकबर की ओर लड़ रहे अब्दुल कादिर बदायूंनी ने लिखा है कि "ग्वालियर के राजा मानसिंह के पोते रामशाह ने ऐसी वीरता दिखलाई जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है"
इस प्रकार युद्ध का प्रथ सर्ग महाराणा की विजय के साथ सम्पन्न हुआ।
आखिर हृदय विदीर्ण कर देने वाला वह क्षण भी आया...जिसके बारे में सोचता हूँ तो लगता है उस समय एक पल को धरती भी शायद कांप उठी होगी शायद अम्बर का अन्तस मन भी भर आया होगा.. जब युद्ध में वीरता के साथ लड़ते हुऐ एक पिता अपने पुत्रों और पौत्र के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ।
भवानी सिंह की आँतें निकल पड़ी थी काका की मदद को बलभद्र आगे बढ़ता है और एक पल में ही काका पर प्रहार करने वाले मुगल सेनिक का सर धड़ से अलग कर देता है।मुगल सेनिक पीछे से इस किशोर वय के बालक बलभद्र पर वार करते हैं।
घायल होने पर भी महाराणा प्रताप का यह भानजा बलभद्र दस दस मुगलों पर भारी था।जब तक तन में प्राण रहे यह शूरवीर अगणित बैरियों को दोजख की राह दिखाता रहा।
शालीवाहन की आँखें कैसे उस मंजर को सहन कर पायी होंगी जब उन आँखों ने पहले पिता रामशाह फिर भाईयों और पुत्र को बलिवेदी पर हवन होते हुए देखा।इस पर भी सैकड़ों दुश्मनों से घिरा शालीवाहन मुगलों का जिन्दा काल बना हुआ निर्लज्ज वैरियों के सर काट काट लाशों का शिखर खड़ा कर रहा था।बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए महाराणा प्रताप का यह सगा बहनोई शालीवाहन भी उसी रक्त तलाई में वीरगति को प्राप्त हुआ।
उस स्थान पर आज भी इनकी स्मृति में छतरियां बनी हुई हैं।
अफगान तोपची हकीम खां सूर, बड़ी सादड़ी के सरदार झाला मान भी मातृ भू का कर्ज चुकाते हुए वीरगति को प्राप्त हुऐ।
बलिदानों की इस श्रृंखला में हल्दी घाटी के उस महा समर में रक्त ताल में राजा रामशाह तोमर एवं उसके तीन पुत्रों व एक पौत्र का बलिदान अर्थात एक ही युद्ध में एक ही दिन एक ही स्थान पर एक ही परिवार की तीन पीढ़ी एक दूसरे के सामने वीरगति को प्राप्त हुई हों ऐसा अन्य कोई उदाहरण महाभारत से लेकर आज तक इस धरती पर लड़े गए किसी युद्ध में नहीं मिलता।
यह विडम्बना ही है कि इतिहासी पन्नो में तीन पीढियों के इस महा बलिदान के साथ न्याय नहीं हुआ,इतिहासकारों से इसे यथोचित स्थान नहीं मिला।
धन्य है राजा रामशाह, धन्य हैं उनके पुत्र और पौत्र..
आज हल्दी घाटी युद्ध के विजय दिवस पर बलिदानी राजा रामशाह तोमर और उनकी संतति को शब्द सुमन समर्पित करते हुए कृतज्ञ भाव के साथ सम्पूर्ण मेवाड़ की ओर से उन्हें सादर कोटि कोटि प्रणति निवेदित करता हूँ।
विद्वदानुचरः
डॉ.नटवर शर्मा
चित्तौड़गढ़(मेवाड़)
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