25 सितम्बर जयंती पर विशेष : पंडित दीनदयाल उपाध्याय: एक युग-दृष्टा Pandit Deendayal Upadhyay

Special on 25th September birth anniversary: Pandit Deendayal Upadhyay: A visionary of the era

पंडित दीनदयाल उपाध्याय

  पंडित दीनदयाल उपाध्याय: एक युग-दृष्टा



कार्यकारी सारांश

       पंडित दीन दयाल उपाध्याय एक जाने-माने अर्थशास्त्री, लेखक, संपादक, राजनीतिक वैज्ञानिक, पत्रकार, समाजशास्त्री, इतिहासकार, विचारक, नियोक्ता और दार्शनिक थे। उनका जन्म 25 सितंबर 1916 को मथुरा निवासी एक अत्यंत धार्मिक  परिवार में हुआ था। उनका मूलतः जन्म नाना के यहां हुआ था जो कि राजस्थान के जयपुर के निकट धानिक्या रेल्वे स्टेशन के स्टेशन मास्टर थे। पण्डित जी की जन्मस्थली पर एक गरिमामय स्मारक स्थापित है। वह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी थे । उन्होंने कला में स्नातक  और साहित्य में परास्नातक की पढ़ाई की। वह जनसेवा करने के मन्तव्य से राजकीय सेवा से जुड़े किन्तु उन्होने शीघ्र ही न मात्र इसका परित्याग कर दिया बल्कि अपने समस्त उपाधियों के प्रमाणपत्रों को जला दिया क्योंकि वह जिस प्रकार की सामाजिक और राजनीतिक संरचना गढ़ना चाहते थे, राजकीय सेवा में रहते हुए उसे पूरा कर पाना संभव नहीं था।


      दीनदयाल शासन और राजनीति के वैकल्पिक प्रारूपों के प्रस्तावक थे।  उनका मानना था कि भारत के लिए न तो साम्यवाद और न ही पूंजीवाद उपयुक्त है।उनके मॉडल को एकात्म मानवदर्शन का सिद्धांत कहा जाता है जिसे भारतीय जन संघ ने एक वैचारिक दिशा निर्देश के रूप में अपनाया गया।  

     1940 के दशक में उन्होंने लखनऊ से मासिक "राष्ट्रधर्म", साप्ताहिक पांचजन्य और दैनिक "स्वदेश" की शुरुआत की ।  उनका मानना था कि धर्म किसी राज्य पर शासन करने का सबसे सही मार्गदर्शक सिद्धांत है । उन्होंने हिंदी में "चंद्रगुप्त मौर्य" नाटक और "शंकराचार्य" की जीवनी लिखी। ।
ग्य से एक कार्यक्रम में भाग लेने रेल से जा रहे दीन दयाल उपाध्याय जी को फरवरी 11, 1968 को मुगल सराय रेलवे स्टेशन की पटरियों के पास में रहस्यमय तरीके से मृत पाया गया था।




दीनदयाल उपाध्याय के मुख्य कालजयी कथन

1.“अनपढ़ और मैले कुचैले लोग हमारे नारायण हैं । हमें इनकी पूजा करनी है यह हमारा सामाजिक दायित्व और धर्म है । जिस दिन हम इनको सुंदर घर बनाकर देंगे , जिस दिन इनके बच्चों को और स्त्रियॉं को शिक्षा और जीवन दर्शन का ज्ञान देंगे जिस दिन हम इनके पैर की बिवाइयों को भरेंगे और जिस दिन इनको उद्योग धंधों कि शिक्षा देकर इनकी आय को उठा देंगे उस दिन हमारा भ्रातृत्व भाव व्यक्त होगा। ग्रामों में जहां समय अचल खड़ा है जहां माता पिता अपने बच्चों को बनाने में असमर्थ हैं वहाँ जब तक हम आशा और पुरुषार्थ का संदेश नहीं पहुंचा पाएंगे तब तक हम राष्ट्र को जागृत नहीं कर सकेंगे । हमारी श्रद्धा का केंद्र आराध्य हमारे पराक्रम और प्रयत्न का उपकरण तथा उपलब्धियों का मानदंड वह मानव होगा जो आज शब्दशः अनिकेत और अपरिग्रही है”


2.धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (मानव प्रयास के चार प्रकार) की लालसा व्यक्ति में जन्मगत होता है और इनमें संतुष्टि एकीकृत रूप से भारतीय संस्कृति का सार है

 
3.यहाँ भारत में, व्यक्ति के एकीकृत प्रगति को हासिल के विचार से, हम स्वयं से पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की चौगुनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आदर्श रखते हैं


4.हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया, डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना; लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों के मूलभूत एकात्म को देखा है।


5.विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की विचारधारा में रची- बसी हुई है

6.यह जरूरी है कि हम ‘हमारी राष्ट्रीय पहचान’ के बारे में सोचें इसके बिना ‘आजादी’ का कोई अर्थ नहीं है


7.भारत के सामने समस्याएँ आने का प्रमुख कारण, अपनी ‘राष्ट्रीय पहचान’ की उपेक्षा है


8.मानवीय ज्ञान सार्वजनिक संपत्ति है।


9.स्वतंत्रता मात्र तभी सार्थक हो सकती है, जब यह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है


10.भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है कि यह एक एकीकृत समग्र रूप से जीवन पर दिखती है


11.जीवन में विविधता और बहुलता है फिर भी हमने हमेशा उनके पीछे एकता की खोज करने का प्रयास किया है


12.विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति, भारतीय संस्कृति की सोच रही है


13.टकराव प्रकृति की संस्कृति का लक्षण नहीं है, बल्कि यह उसके गिरावट का एक लक्षण है.


14.हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं. माता शब्द हटा दीजिये तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा।


15.जब अंग्रेज हम पर राज कर रहे थे, तब हमने उनके विरोध में गर्व का अनुभव किया, लेकिन अचरज की बात है कि अब जबकि अंग्रेज चले गए हैं, तो अब पश्चिमीकरण हमारी प्रगति का पर्याय बन गया है


16.पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन शैली दो अलग-अलग चीजें हैं. चूँकि पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है और हम आगे बढ़ने के लिए इसे अपनाना चाहिए, लेकिन पश्चिमी जीवनशैली और मूल्यों के सन्दर्भ में यह सच नहीं है


17.धर्मनिष्ठता का अर्थ एक पंथ या एक संप्रदाय है और इसका मतलब धर्म नहीं है


18.धर्म बहुत व्यापक अवधारणा है जो समाज को बनाए रखने के लिये जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है


19.जब स्वभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार मोड़ा जाता है, हमें संस्कृति और सभ्यता के दर्शन होते हैं


20.भगवान ने हर आदमी को हाथ दिये हैं, लेकिन हाथों की खुद से उत्पादन करने की एक सीमित क्षमता है। उनकी सहायता के लिए मशीनों के रूप में पूंजी की आवश्यकता होती है


21.एक देश लोगो का समूह है जो एक लक्ष्य, एक आदर्श, एक मिशन के साथ जीते है और इस धरती के टुकड़े को मातृभूमि के रूप में देखते है यदि आदर्श या मातृभूमि इन दोनों में से कोई एक भी नही है तो इस देश का अस्तित्व नही है


यदि मुझे दो या तीन और दीनदयाल मिल जाय, तो मैं भारत के पूरे राजनीतिक मानचित्र को बदल दूंगा ।
-डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी,( लाल कृष्ण आडवाणी की पुस्तक मेरा देश मेरा जीवन (2008) में )

विस्तृत जीवनी

जहाँ बहुतायत लोगों का मान उनके जीवन में आत्मविश्वास, कर्मठता, दृढ़-निश्चय, लगन , निष्ठा, त्याग, समाज कल्याण और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता जैसे शब्दों के जुड़ जाने से बढ़ता है, वहीं पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी के अद्वितीय जीवन से जुड़कर ये शब्द अपनी महत्ता और भी बढ़ा लेते है । पंडित दीन दयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 (आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, संवत 1973) राजस्थान के अजमेर-जयपुर रेलमार्ग पर स्थित धनकिया रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूप मे कार्यरत उनके नाना चुन्नी लाल शुक्ल के यहाँ हुआ। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद और माता का नाम राम प्यारी देवी था। उनका पैतृक गाँव उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के “नगला चंद्रभान” था। दीनदयाल जी के प्रपितामह श्री हरीराम शास्त्री एक सुप्रसिद्ध और सम्मानित ज्योतिषी थे। उनकी मृत्यु के उपरांत उनके परिवार मे मृत्युओ का ऐसा चक्र चला कि दीनदयाल के पिता को छोडकर सारे पुरुष काल कवलित हो गए । दीनदयाल के जन्म के दो वर्ष बाद उनकी माँ ने एक दूसरे पुत्र शिवदयाल को जन्म दिया जिसके छः माह बाद दीनदयाल जी के पिता स्वर्गवासी हो गए। उसके बाद उनकी माँ दोनों पुत्रों को लेकर मायके आ गई। जब दीनदयाल जी 6 साल के हुए तो उनकी माँ भी क्षयरोग से ग्रसित होकर मृत्यु को प्राप्त हो गईं। दीनदयाल जी के नाना पं चुन्नीलाल को इस बात से इतना धक्का लगा कि नौकरी छोड़कर अपने पैतृक गाँव आगरा के “गुड़ की मड़ई” चले गए। जब दीनदयाल की उम्र मात्र 9 वर्ष थी तो उनके पालक नाना भी सितंबर 1925 मे परलोक सिधार गए। इसके बाद दीनदयाल और उनके भाई शिवदयाल के देखभाल का दायित्व उनके मामा राधा रमण शुक्ल ने संभाला। 15 वर्ष की आयु मे जब दीनदयाल जी 7वीं कक्षा मे थे तब उनके ऊपर से पितातुल्य मामा श्री राधा रमण जी का भी साया उठ गया। उसके बाद राधा रमण  के चचेरे भाई जोकि राजस्थान के अलवर स्टेशन मे स्टेशन मास्टर थे, उन्होने  दीनदयाल जी की शिक्षा-दीक्षा का दायित्व संभाला। 18 नवंबर 1934 को उनका छोटा भाई शिवदयाल भी इस दुनिया से चला गया। इतनी विषम परिस्थितियों के बावजूद दीनदयाल जी हाईस्कूल और इंटरमीडियट दोनों मे न केवल प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए बल्कि सर्वोच्च अंक प्राप्त किया और क्रमशः सीकर के महाराजा और घनश्याम दास बिड़ला ने उन्हे स्वर्ण पदक, 10 रुपये प्रति माह छात्रवृत्ति तथा 250 रुपए की पुरस्कार राशियां  प्रदान की। 1937 मे दीनदयाल जी बी.ए. की शिक्षा प्राप्त करने के लिए कानपुर स्थानांतरित हुए । अध्ययन के दौरान उनका संपर्क बाबा साहब आप्टे, दादाराव परमार्थ और वीर सावरकर जैसे लोगों से हुआ। क्रांतिकारियों और समाज उत्थान को समर्पित लोगों से संपर्क ने उन्हे सार्वजनिक जीवन मे चेतना पैदा करने , देश को स्वतंत्र कराने, सेवा और नैतिक सुधार के माध्यम से लोगों को जागरूक करने और भारत के प्राचीन गौरव की पुनर्स्थापना के लिए काम करने के लिए प्रेरित किया। कानपुर मे रहते हुए उन्होने ज़ीरो क्लब बनाया जिसमे वे पढ़ाई मे कमजोर छात्रों को सक्षम बनाने के लिए पढ़ाया करते थे। 1939 मे कानपुर से बी.ए. प्रथम श्रेणी मे पास करके दीनदयाल जी एम.ए. करने के लिए सेंट जॉन कालेज , आगरा गए ..प्रथम वर्ष उत्तीर्ण के बाद दीनदयाल जी की ममेरी बहन रामादेवी गंभीर रूप से बीमार पद गईं और उपचार के लिए आगरा आई .... इसी बीच दीनदयाल जी की एम.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा भी पड़ गयी किन्तु बहन की देखभाल के लिए उन्होने परीक्षा छोड़ दी। उन्होने अपनी ओर से भरसक प्रयत्न किया किन्तु नियति ने  उनकी ममेरी बहन को उनसे छीन लिया। परीक्षा में सम्मिलित ने होने से दीन दयाल को मिल रही छात्रवृत्तियाँ रुक गई और एक बार फिर वह गंभीर आर्थिक दबाव की स्थिति मे आ गए , उनके मामा ने उन्हे प्रशासकीय सेवा की प्रतियोगिता मे बैठने का सुझाव दिया, जिसमे वह ने केवल बैठे बल्कि शीर्षस्थ स्थान के साथ सफल भी हुए किन्तु उन्होने नौकरी न करने का निर्णय लिया और बी.टी. करने के लिए प्रयाग चले गए और 1942 मे उन्होने यह परीक्षा भी प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण कर ली। इसी दौरान दीनदयाल जी के मामा जी ने उन्हे घर वापस आने के लिए पत्र लिखा। वह चाहते थे कि दीनदयाल जी अब अन्य युवको की भांति नौकरी करके वैवाहिक जीवन का निर्वहन करें किन्तु जुलाई 1942 मे दीन दयाल जी ने विनम्रता पूर्वक घर वापस न लौटने का निर्णय साझा करते हुए एक पत्र लिखा जो उनकी समाज और देश के प्रति उनकी संवेदना और दायित्वबोध का एक ऐतिहासिक अभिलेख बन गया। प्रत्येक परीक्षा मे बिना अपवाद प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने वाले दीन दयाल जी ने अपने सारे शैक्षणिक अभिलेख जला दिए ताकि भविष्य मे किसी दबाव मे गृहस्थ जीवन अपनाने को विवश न होना पड़े और सदा के लिए स्वयं को राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित कर दिया। उन्होने राष्ट्र और समाज सेवा हेतु राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को चुना। लगन , परिश्रम , चिंतन और ज्ञान से ओत-प्रोत दीनदयाल जी भारत को एक स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में स्थापित करने के लिए सदैव उठे रहे। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और ऑर्गनाइज़र जैसे पत्र पत्रिकाओं का सम्पादन किया। जब राष्ट्र हित के मुद्दों पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दिया और भारतीय जनसंघ की स्थापना की तो दीनदयाल जी को राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। 1967 में वे जनसंघ के अध्यक्ष बने। अपनी ओजस्वी भाषण कला, लेखन, संगठन क्षमता से वे अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय मूल्यों पर आधारित राजनीति की मुखर आवाज बनकर उभरे। भारत की एकता , अखंडता, संस्कृति के कुशल चितेरे , और गरीबो के उत्थान के लिए दिन रात संकल्पित भारतीय राजनीति के इस सितारे की संदिग्ध परिस्थितियों में 11 फरबरी 1968 में मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर मौत हो गयी।

एकात्म मानवदर्शन
एकात्म मानवदर्शन पंडित दीनदयाल उपाध्याय के मुंबई में 22 से 25 अप्रैल, 1965 में चार भागों में दिए गए भाषण का सार है। दीनदयाल जी पूंजीवाद और समाजवाद दोनों विचारधाराओं भारत के लिए अनुपयुक्त और अव्यावहारिक मानते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि भारत को सुचारु रूप से चलाने के लिए नीति-निर्देशक सिद्धान्त भारतीय दर्शन के आधार पर ही हो सकता है। वे पश्चिमी जगत मे जन्मे सिद्धांतों के विरुद्ध मानव और समाज को विभाजित करके देखने के पक्षधर नहीं थे। उनके अनुसार मानव अस्तित्व के चार अवयव होते है , शरीर , मन, बुद्धि और आत्मा जिनके माध्यम से जीवन के चार मौलिक उद्देश्यों काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष को प्राप्त किया जाता है ।इनमे से किसी की भी अवहेलना नहीं की जा सकती किन्तु मनुष्य और समाज के लिए धर्म आधारभूत है और मोक्ष अंतिम लक्ष्य है। उनका मानना था कि पश्चिमी पूंजीवनदी और समाजवादी सिद्धान्त मात्र शरीर और मन कि आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही केन्द्रित हैं इसलिए उनका लक्ष्य मात्र सांसरिक इच्छाओं की पूर्ति और धनार्जन है ।जबकि मानव और समाज के सम्पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है कि भारतीय दर्शन के चार लक्ष्यों (पुरुषार्थों) के अनुरूप व्यक्ति और समाज की भौतिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओ की पूर्ति हो।उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है । बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता है।मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी. एकात्म मानववाद में व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और फिर मानवता और चराचर सृष्टि का विचार किया गया है. ‘एकात्म मानववाद’ इन सब इकाइयों में अंतर्निहित, परस्पर-पूरक संबंध देखता है। भारतीय चिंतन जिस तरह से सृष्टि और समष्टि को एक समग्र रूप में देखता है, वैसे ही पं दीनदयाल ने मानव, समाज और प्रकृति व उसके संबंध को समग्र रूप में देखा।

सामाजिक एकता और समरसता
दीन दयाल जी देश की एकता और अखंडता के लिए सदैव समर्पित रहे । उनका मानता था कि राष्ट्र की निर्धनता और अशिक्षा को दूर किए बिना वास्तविक उन्नति संभव नहीं है ।निर्धन और अशिक्षित लोगों की उन्नति के लिए उन्होने अंत्योदय की संकल्पना का सुझाव दिया। उनका कहना था “अनपढ़ और मैले कुचैले लोग हमारे नारायण हैं । हमे इनकी पूजा करनी है यह हमारा सामाजिक दायित्व और धर्म है । जिस दिन हम इनको सुंदर घर बनाकर देंगे , जिसदिन इनके बच्चों क और स्त्रियॉं को शिक्षा और जीवन दर्शन का ज्ञान देंगे जिस दिन हम इनके पैर कि बिवाइयों को भरेंगे और जिस दिन इनको उद्योग धंधों कि शिक्षा देकर इनकी आय को उठा देंगे उस दिन हमारा भ्रातृत्व भाव व्यक्त होगा।ग्रामों में जहां समय अचल खड़ा है जहां माता पिता अपने बच्चों को बनाने में असमर्थ हैं वहाँ जब तक हम आशा और पुरुषार्थ का संदेश नहीं पहुंचा पाएंगे तब तक हम राष्ट्र को जागृत नहीं कर सकेंगे ।हमारी श्रद्धा का केंद्र आराध्य हमारे पराक्रम और प्रयत्न का उपकरण तथा उपलब्धियों का मानदंड वह मानव होगा जो आज शब्दशः अनिकेत और अपरिग्रही है”। उनका यह दृष्टिकोण मात्र लेखन, भाषण और चिंतन तक सीमित नहीं था बल्कि जब वह देश भर में प्रवास के लिए जाते तो वरीयता के आधार पर पर समाज के दबे कुचले लोगों के यहाँ ही ठहरते थे।

जम्मू और कश्मीर
दीन दयाल जी नेहरू की कश्मीर नीति के कटु आलोचक थे ।कश्मीर पर धारा 370 से लेकर 1966 में नेहरू द्वारा पाकिस्तान के साथ जल संधि पर हस्ताक्षर तक दीन दयाल जी समय समय पर आगाह करते रहे किन्तु हठवादी नेहरू ने उनकी एक न सुनी जब भारत सरकार और शेष अब्दुल्ला के बीच समझौता हुआ तो भी दीन दयाल उपाध्याय ने आर्गनाईजर में एक लेख के माध्यम से उसे कश्मीर से भारत के पृथक्करण की बुनियाद बताया था , इसी प्रकार जब नेहरू 1966 में नहर जल संधि पर हस्ताक्षर करने जा रहे थे  तब दीन दयाल जी ने “क्या कश्मीर पर समझौता हितकर रहेगा” शीर्षक से लेख लिखकर सतर्क किया था और कहा था “जहां तक भारत का संबन्ध है कश्मीर के बारे में उसे पाकिस्तान से केवल इसी प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि भारतीय भूखंड के उस भाग से वह कब और किस प्रकार हटने वाला है जिस पर उसने भारत के साथ विश्वासघाती आक्रमण कर अवैध कब्जा जमा रखा है”। अपने समय में नेहरू दीन दयाल जी की दूरदृष्टि का लाभ लेने चूक गए थे , लगभग उसी दृष्टि का प्रयोग करते हुए वर्तमान सरकार ने कश्मीर से धारा 370 हटा दी है और आगे के लिए पाकिस्तान से सम्बन्धों को भी इसी के अनुरूप आगे बढ़ा रही है।

आर्थिक विचार
दीन दयाल जी का आर्थिक चिंतन भारत की तत्कालीन वास्तविकताओं पर आधारित था । वे मनुष्य से मनुष्य के बीच बनावटी संबंधो से संतुष्ट नहीं थे । उनका मानना था की एक तरफ शोषण , गरीबी, भुखमरी हो और दूसरी तरफ अर्थतन्त्र का एकाधिकार हो वहाँ मनुष्य का सम्पूर्ण विकास केवल छल है।आर्थिक विषमता का समाप्त करके ही व्यक्ति के सम्मान और प्रतिष्ठा स्थापित की जा सकती है। उनका मानना था कि भारत की अर्थनीति जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित लोगों के उत्थान पर केन्द्रित होनी चाहिए। वह विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे ।वह वित्त के एकाधिकार, वितरण में असमानता , जमीन पर आवश्यकता से अधिक नियंत्रण के विरुद्ध थे । वह राजनीति के समान अर्थव्यवस्था में भी व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता के विकास के अवसरों की सुनिश्चितता के पक्षधर थे ।अर्थ व्यवस्था के क्षेत्र में वह समन्वयवादी थे।वह कहते थे कि हमे न पूंजीवाद चाहिए न समाजवाद  बल्कि मनुष्य की प्रगति और प्रसन्नता अर्थव्यवस्था का ध्येय होना चाहिए।

पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी ने अपने मौलिक चिंतन , श्रेष्ठ लेखन, पत्रकारिता, प्रभावशाली वक्ता , संगठनकर्ता और जन जुड़ाव के माध्यम से अपनी अंतिम साँसों तक भारत वर्ष की अतुलनीय सेवा की , उनके महान त्याग, संघर्ष और चिंतन के योगदान के लिए यह राष्ट्र सदैव उनका आभारी रहेगा। उनके सपनों का भारत गठित हो और लोग उन्नति को प्राप्त करें , उनके सकल्प और बलिदान के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।

संदर्भ ग्रंथ
दीनदयाल उपाध्याय 2019, दीनदयाल उपाध्याय सम्पूर्ण वांगमय , प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
अमरजीत सिंह , 2015 , मई दीन दयाल बोल रहा हूँ , प्रतिभा प्रतिष्ठान , नई दिल्ली
दीन दयाल उपाध्याय, 1968, Integral Humanism, जागृति प्रकाशन , नोयडा
http://deendayalupadhyay.org/home.html

संबन्धित लेख
हमारी अर्थ-नीति का मूल आधार
- दीनदयाल उपाध्याय
(पांचजन्य, 5 जनवरी, 1959)
विकासोंमुख भारतीय अर्थनीति की दिशा की ओर संकेत अनेक बार किया जा चुका है। यह निश्चित है कि काफी लंबे अर्से से परागति की ओर जानेवाली व्यवस्था को प्रगति की दिशा में बदलने के लिए प्रयास करने होंगे। स्वत: वह ह्रास से विकास की ओर नहीं मुड़ सकती। वास्तव में जब कोई व्यवस्था शिथिल हो जाती है तो उसके स्वत: सुधार का सामर्थ्य जाता रहता है। विकास की शक्तियों का प्रादुर्भाव होने एवं गति देने के लिए योजनापूर्वक प्रयास करने पड़ते हैं। स्वतंत्र देश के शासन के ऊपर स्वाभाविक रूप से यह जिम्मेवारी आती है।

अपने इस दायित्व का निर्वाह करने के लिए योजना और नीतियों के निर्धारण की आवश्यकता होती है। किंतु शासन कई बार गलती कर जाता है। वह अर्थ-व्यवस्था को गति देने के स्थान पर स्वयं ही उसका अंग बनकर खड़ा हो जाता है। इस प्रयास में उसे उन लक्ष्यों और उद्देश्यों का भी विस्मरण हो जाता है जिनको लेकर उसने अपने प्रयत्न प्रारंभ किए थे।

अर्थ-व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन संपूर्ण जनता के नाम पर 'पीपुल्स डेमोक्रेसी' के नामाभिधान से तानाशाही चलावे और चाहे वह सही माने में प्रतिनिधि शासन हो, जनता का स्थान नहीं ले सकता। वह जनता का मार्गदर्शन कर सकता है, सहायक बन सकता है, उसका नियंत्रण कर सकता है, आदेश दे सकता है, उसे गुलाम बना सकता है। इनमें से उसे किस रूप में व्यवहार करना है इस पर ही उसकी योजनाओं की मर्यादाएँ और स्वरूप निर्भर करेंगे।

नियोजन का स्वरूप
'नियोजन' शब्द का पहले रूस द्वारा व्यवहार होने के कारण उसे साम्यवादी अर्थ-व्यवस्था का आवश्यक अंग ही नहीं, नियोजित अर्थनीति का अपरिहार्य परिणाम भी साम्यवाद माना जाता है। किंतु आज नियोजन साम्यवादियों तक सीमित नहीं। अमेरिका और ब्रिटेन भी नियोजन में विश्वास करते हैं। पर रूस और इन देशों की नियोजन की कल्पलाएँ भिन्न-भिन्न हैं। चूँकि साम्यवादी देश एक अत्यंत ही सूत्रबद्ध योजना बनाए तथा संपूर्ण आर्थिक गतिविधियों, उत्पादन, वितरण और उपभोग का पूरी तरह नियंत्रण करें। इसके विपरीत प्रजातंत्रवादी अपने विशेष दृष्टिकोण के कारण ही बहुत अधिक नियंत्रित योजना को, यदि वह, आर्थिक कारणों से संभव भी हो, नहीं अपनाएँगे। इसी आधार पर सन् 1948 में ब्रिटेन की चतुवर्षीय योजना में लिखा थायूनाइटेड किंगडम का आर्थिक नियोजन इन मूलभूत तथ्यों पर आधारित है आर्थिक तथ्य कि यू.के. की अर्थव्यवस्था अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर अत्यधिक निर्भर है, राजनीतिक तथ्य कि वह (यू.के.) एक प्रजातंत्र3 है और रहेगा; तथा प्रशासनिक तथ्य कि कोई भी नियोजक भावी आर्थिक विकास की सामान्य प्रवृत्तियों से अधिक का ज्ञान नहीं रख सकता।

नियोजन और प्रजातंत्र
आर्थिक नियोजन में यह अंतिम तथ्य अत्यधिक महत्त्व का है। जब कोई भी मनुष्य किसी जीवनमान एवं विकासशील अर्थव्यवस्था के भावी व्यवहार के संबंध में भविष्यवाणी करता है तो वह केवल अपने अनुभवों एवं कल्पनाओं के आधार पर ही कुछ अनुमान लगाता है। यह निश्चित नहीं कि वे पूरी तरह सत्य उतरें। अत: उसे उनमें सदैव परिवर्तन के लिए तैयार रहना चाहिए। किंतु तानाशाही शासन परिवर्तन स्वीकार करने के स्थान पर अर्थ की गतियों को अपनी भविष्यवाणी के अनुसार बदलने का आग्रह करता है। उसमें से संकट पैदा होते हैं। इसी प्रकार जब कोई नियोजक योजना के विभिन्न प्रकार संबद्ध अंगों में संभाव्य परिवर्तनों के लिए गुंजाइश छोड़कर नहीं चलता तो विभिन्न प्रकारों के संकट खड़े हो जाते हैं। उन्हें टालने के लिए शासन अधिकाधिक शक्ति अपने हाथ में लेता जाता है। रूस आदि साम्यवादी देशों में यदि पहला प्रकार दिखता है तो भारत में दूसरा। एक में तानाशाही ही अर्थनीति का नियंत्रण करती है तो दूसरे में अर्थनीति की कठिनाइयां तानाशाही को जन्म दे रही हैं। हमें दोनों से बचना होगा।

मानव-ज्ञान की इन सीमाओं के अतिरिक्त भी नियोजन की मर्यादाएँ जीवन के अन्य मूल्यों के आधार पर निश्चित करनी पड़ती हैं। जहां शासन ही संपूर्ण अर्थोत्पादन कर स्वामी है वहाँ योजना बनाना और कार्यान्वित करना सरल है। जहाँ व्यक्तियों को आर्थिक क्षेत्र में खुली छूट है वहाँ भी अधिक कठिनाई नहीं, किंतु जहाँ एक मिश्रित अर्थ-व्यवस्था है वहाँ नियोजन एक दुष्कर कार्य है। उदाहरण के लिए जहाँ केवल सैन्य-संचालन का कार्य करना है वह सरलता से किया जा सकता है।

नीति और नियोजन
प्रजातंत्रीय देशों में शासन मौद्रिक एवं वित्तीय नीतियों, अंतरराष्ट्रीय व्यापार के नियंत्रण आदि से अर्थ-व्यवस्था की गतिविधियों को ठीक रखता है। उनका नियोजन नीति-निधार्रण, बजट आदि तक सीमित रहता है। वे एक-एक क्षेत्र और एक-एक इकाई की गतिविधि की चिंता नहीं करते। इसे हम बृहत् आर्थिक नियोजन कह सकते हैं। इसके विपरीत जहाँ छोटे-छोटे लक्ष्यों का निर्धारण तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म आर्थिक गतिविधियों का नियोजन किया जाए उसे अणु-आर्थिक नियोजन कहेंगे। रूस दूसरी पद्धति का पालन करता है तो अमेरिका और ब्रिटेन पहली का। हमने दोनों का मेल बिठाने की कोशिश की है किंतु पूर्ण समाजवाद न होने के कारण दूसरा असफल होता है तो सार्वजनिक क्षेत्र का अत्यधिक विस्तार होने के कारण पहला प्रभावी नहीं हो पाता। आवश्यकता है कि शासन अपने हाथ में बहुत ही थोड़े एवं अपरिहार्य उद्योग ले तथा शेष का नियंत्रणों के द्वारा नियमन करता चला जाए।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना
भारत में अभी तक दो योजनाएँ बनी हैं। पहली तो केवल कुछ स्कीमों का संकलन मात्र था, किंतु दूसरी देश के आर्थिक ढाँचे में मूलभूत परिवर्तन न करने की योजना बनाई गई। राष्ट्रीय आय में पच्चीस प्रतिशत की वृद्धि, विषमताओं की कमी, मूल तथा भारी उद्योगों के विकास पर बल देते हुए देश का तेजी से औद्योगीकरण तथा रोजगारों का अधिक विस्तार, ये लक्ष्य इस योजना के सम्मुख रखे गए थे। इन्हें प्राप्त करने के लिए चार हजार आठ सौ करोड़ रुपए के व्यय का अनुमान किया गया है। समाजवाद के उद्देश्य के अनुरूप शासन के द्वारा तीन हजार आठ सौ करोड़ रुपए तथा निजी-क्षेत्र में एक हजार चार सौ करोड़ रुपए के पूँजी-विनियोजन की व्यवस्था थी। साधन की दृष्टि से यह अनुमान लगाया गया था कि आठ सौ करोड़ रुपए करों से, एक हजार दो सौ करोड़ रुपए ऋण से, आठ सौ करोड़ रुपए विदेशों से, चार सौ करोड़ रुपए बजट के अन्य सूत्रों से, एक हजार दो सौ करोड़ रुपए घाटे की अर्थ-व्यवस्था से प्राप्त किया जाएगा। शेष चार सौ करोड़ रुपए की कमी कैसे पूरी की जाएगी इसका कोई विधान नहीं किया गया था।

जब यह योजना बनाई गई थी तो इसे अत्यंत महत्त्वाकांक्षिणी तथा उपलब्ध साधनों से बाहर की बताया गया था। साथ ही कृषि की उपेक्षा करके औद्योगीकरण पर और उसमें भी भारी अद्योगों पर बल गलत था। देश की बेकारी के उन्मूलन की इसमें कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। शासन ने अपनी क्षमता से अधिक भारत अपने ऊपर ले लिया था। करों का भार दुर्वह होगा आदि पिछले ढाई वर्ष के अनुभव ने इन आलोचनाओं को सत्य सिद्ध किया है।

योजना आयोग ने मई 1958 में जो योजना के क्रियांवयन का सिंहावलोकन किया है उसके अनुसार उपर्युक्त आंकड़ों और अनुमान में बदल हुआ है। अब राजस्व की आय से बचत सात सौ इक्यावन करोड़ रुपए, रेलों से दो सौ पचास रुपए, ऋण से नौ सौ चवअन करोड़ रुपए, अन्य स्रोतों से उनतीस करोड़ रुपए, विदेशों से एक हजार उन्नचालीस करोड़ रुपए घाटे की अर्थ-व्यवस्था से एक हजार दो सौ करोड़ रुपए का अनुमान लगाया गया है। इस प्रकार का कुल आय का अनुमान चार हजार दो सौ साठ करोड़ रुपए का होता है। अत: योजना को घटाकर चार हजार पाँच सौ करोड़ रुपए की करने का सुझाव रखा गया। नवंबर 1958 के आयोग के एक नोट के अनुसार चार हजार पाँच सौ करोड़ रुपए भी जुटाना संभव नहीं होगा। अत: घटाकर चार हजार दो सौ चालीस करोड़ किया जाए, ऐसा सुझाव रखा गया। आवंटनों में भी अनेक परिवर्तन किए गए। राष्ट्रीय विकास परिषद् ने उसके सुझावों को अमान्य किया है।
योजना के लक्ष्यों और अनुमानों की गलतियाँ हैं, यद्यपि यदि थोड़ा अधिक ध्यान दिया जाता तो उन्हें काफी सुधारा जा सकता था। किंतु हमारे देश में आंकड़ों के एकत्रीकरण और विवेचन की न तो कोई अच्छी, विश्वसनीय एवं अविलंबकारी व्यवस्था है, और न शासन की लाल फीताशाही में वह संभव ही है। महत्त्व का प्रश्न तो यह है कि यदि ये अंदाजे ठीक भी निकल जाते तो भी योजना से भारत की समस्याएँ सुलझाना तो दूर रहा, उसका सामर्थ्य प्राप्त करने की दिशा में भी हम आगे नहीं बढ़ पाते।

योजना की मौलिक गलती
योजना की सबसे बड़ी गलती है उसके द्वारा भारत की परिस्थितियों पर विचार न किया जाना। उसने न तो भारत के साधनों का विचार किया और न उसकी आवश्यकताओं का। वह रूस और यूरोप के औद्योगीकरण के अनुकरण का एक क्षीण प्रयास मात्र है। उसमें भी इन देशों के सम्मुख औद्योगीकरण के काल में और उसके परिणामस्वरूप जो समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं उनका भी विचार नहीं किया गया।

विभिन्न परियोजनाओं और क्षेत्रों के बीच न तो संतुलन बिठाया गया और न समन्वय ही। किसी भी योजना की पूर्ति के लिए धन ही नहीं, भौतिक और मानवी साधनों की आवश्यकता है। हमारा संपूर्ण ध्यान धन की प्राप्ति के स्रोत ढूँढ़ना और उसके व्यय की मात्रा के अनुसार सफलता को कम से कम व्यय से अधिकतम लाभ का विचार ही भूल गए। जहाँ हमें मानवीय विकास का लक्ष्य रखना चाहिए था, वहाँ हमने भौतिक लक्ष्य रखे और उनका आधार भी वित्तीय लक्ष्य मान लिया।

तीसरी योजना
आज तीसरी योजना की चर्चा शुरू हो गई है। योजना का आधार भारत की कृषि और उसके अभिन्न अंग के रूप में खड़े हुए विकेंद्रित उद्योग हो, विकेंद्रित कृषि-औद्योगिक ग्राम-समाज ही हमारे राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी हो सकता है। उसका विकास करने के लिए संस्था संबंधी व्यवस्थाएँ निर्माण करना, यही शासन की योजनाओं का काम हो सकता है।

देश की अर्थ-व्यवस्था के क्रांतिकारी विकास का कार्यक्रम बनाते हुए भी हमें यह ध्यान में रखना होगा कि तीसरी योजना दूसरी से असंबद्ध न हो। घड़ी के पैंडुलम के समान परिस्थितियों के थपेड़े से इधर से उधर झूलते रहने से हम समय, शक्ति और साधनों का अपव्यय ही करेंगे। भारी खर्चा करके दूसरी योजना की अवधि में प्राप्त साधनों का इस प्रकार उपयोग करना होगा, जिससे हम उन्हें व्यर्थ न जाने दें तथा अपनी अर्थ-व्यवस्था में हमने जो असंतुलन पैदा कर लिए हैं उन्हें ठीक करते हुए आगे के विकास की व्यवस्था कर सकें।


अब्दुल्ला द्वारा जुलाई समझौते का उल्लंघन स्वतंत्र कश्मीर की रूपरेखा तैयार
- दीनदयाल उपाध्याय
(पांचजन्य, 11 मई, 1953)
अलग निशान और अलग प्रधान का निर्माण कर जम्मू और कश्मीर के नेता अपनी पृथकतावादी मनोवृत्ति का परिचय पहले ही दे चुके हैं किंतु जो अलग विधान इस राज्य के लिए उन्होंने बनाने का प्रस्ताव किया है। वह इस मनोवृत्ति का व्यापक स्पष्टीकरण करता है। सच में तो भारत के लिए जम्मू और कश्मीर भी उसी प्रकार सम्मिलित है जिस प्रकार अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के पूर्व स्वतंत्र की हुई शेष पाँच सौ चव्वन रियासतें हैं। एक विधान बन चुका है। वह विधान सब पर लागू है और आशा थी कि जम्मू और कश्मीर पर भी यह विधान लागू होगा। किंतु न मालूम किस घड़ी में हमारे प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के मुँह से जनमत संग्रह की बात निकल गई और तब से शेख अब्दुल्ला तथा उनके साथी उसका आधार लेकर स्वतंत्र कश्मीर के मंसूबे पूरे कर रहे हैं। कश्मीर में लड़ाई की स्थिति होने के कारण उस रियासत का भारत के साथ अन्य रियासतों के समान पूरी तरह से विलीनीकरण नहीं हो सका और इसीलिए संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़कर भारत कश्मीर के उस समय के संबंधों का दिग्दर्शन कराया गया तथा भावी की दिशा इंगित की गई।
अस्थायी और अंतरिम प्राविधानों के अंतर्गत अनुच्छेद 370 में यह स्पष्ट दिया है कि भारत और कश्मीर के संबंध तीन मामलों तक सीमित रहेंगे। किंतु उसी अनुच्छेद की धारा 3 में यह भी कहा है कि कश्मीर की संविधान सभा के अभिस्ताव पर भारत के प्रधान यह घोषणा कर सकते हैं कि अनुच्छेद 370 पूरी तरह समाप्त हो गया अथवा उसमें कुछ परिवर्तन कर लिया गया। विधान निर्माताओं की यह अपेक्षा थी कि उस समय चाहे कश्मीर को अन्य 'ख' श्रेणी राज्यों के समकक्ष न रखा जाए किंतु वह दिन अवश्य आएगा जब अनुच्छेद 370 समाप्त हो जाएगा और कश्मीर भी पूर्णतया 'ख' श्रेणी का राज्य होकर भारत में मिल जाएगा। स्वर्गीय श्रीयुत गोपालास्वामी आयंगर ने, जिन्होंने अनुच्छेद 370 का प्रस्ताव किया था, संविधान सभा में यह आशा भी व्यक्त की थी किंतु वह आशा दुराशा ही सिद्ध हुई। शेख अब्दुल्ला और उनके साथी, जिन्हें हमने भारतीय समझा था, भारतीय नहीं बन पाए। वे स्वत: को कश्मीरी ही समझते हैं और उससे ऊपर उठने को तैयार नहीं।
धीरे-धीरे जब यह प्रकट होने लगा कि शेख अब्दुल्ला कश्मीर को भारत में पूरी तरह नहीं मिलाना चाहते हैं तो भारत में उनके विरुद्ध जनमत ने जोर पकड़ा। यहाँ तक कि रणवीर सिंह पुरा में स्वतंत्र कश्मीर का प्रस्ताव करते हुए जो भाषण शेख अब्दुल्ला ने दिया, उसकी निंदा पं. नेहरू ने भी की। उनके मंसूबों के इस प्रकार साफ प्रकट होने पर भारत सरकार ने उन्हें बुलाया और यह जानना चाहा कि आखिर वे कश्मीर का कौन सा अंतिम स्वरूप रखना चाहते हैं। छोटे-छोटे मामलों में चाहे कश्मीर में भिन्न प्रकार का शासन हो, किंतु भारतीय संविधान के कुछ भाग जैसे नागरिकता, मौलिक अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय, वित्तीय एकीकरण, निर्वाचन, प्रधान के संकटकालीन अधिकार आदि तो सभी जगह पर समान रूप से लागू होने चाहिए। फलत: जुलाई 1952 में नेहरूजी तथा शेख अब्दुल्ला के बीच बातचीत हुई जिसके अनुसार उपर्युक्त सभी विषयों को किसी-न-किसी अंश में कश्मीर पर लागू करने का निर्णय हुआ। इस जुलाई समझौते को उस समय नेहरूजी ने बहुत संतोषजनक बताया था क्योंकि उन्होंने सोचा था कि इस प्रकार भारत का संविधान पूरी तरह नहीं तो कम-से-कम कुछ अंशों में तो कश्मीर पर अवश्य लागू हो जाएगा। किंतु राजनीतिक दृष्टि से यह समझौता भारी भूल हुई क्योंकि इसमें कश्मीर की एक स्वतंत्र सत्ता किसी-न-किसी रूप में मान ली गई। अभी तक जो अनिश्चित थी वह निश्चित हो गई। और उसका लाभ शेख अब्दुल्ला ने 'अंगुली के बाद पहुंचा पकड़ने' की नीति के अनुसार उठाया है।
अब्दुल्ला की इस नीति को समझने के पूर्व हमें कश्मीर राज्य के लिए वहाँ की संविधान समिति द्वारा प्रस्तुत संविधान के प्रारूप का थोड़ा सा दिग्दर्शन करना पड़ेगा
प्रारूप के अनुसार जम्मू और कश्मीर राज्य भारत की एक स्वायत्त संबद्ध इकाई ((Autonomous Federated Unit) होगा और वह सर्वप्रभुता संपन्न राज्य रहेगा। उसकी वैधानिक, प्रशासनिक तथा न्यायिक शक्तियों का स्रोत न तो भारत की जनता या संविधान है बल्कि कश्मीर की जनता और उसका अपना संविधान है।
प्रारूप का भाग 2 नागरिकता से संबंध रखता है जिसके अनुसार 'स्थायी निवासी' की संज्ञा देकर कश्मीरवासियों को भारत के नागरिकों से भिन्न नागरिकता प्रदान की गई है।
भाग 3 मूलभूत अधिकारों से संबंध रखता है जिसमें भारतीय संविधान के भाग 3 के सभी मूलभूत अधिकार सम्मिलित कर लिए गए हैं। किंतु भूमि सुधारों के लिए मुआवजे आदि से बचत का मार्ग भी निकाल लिया है। कश्मीर में स्थायी संपत्ति खरीदने अथवा नौकरियों में स्थान प्राप्त करने का अधिकार केवल कश्मीर के 'स्थायी निवासियों' को ही दिया गया है। मौलिक अधिकारों के साथ भारतीय संविधान से भिन्न और संभवतया किसी भी संविधान की दृष्टि से नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों का समावेश भी किया है जिसके अनुसार एक सेकुलर प्रजातंत्रीय राज्य का निर्माण करने के लिए प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि (क) वह जातीय तथा सांप्रदायिक एकता स्थापित करें, (ख) सभी सार्वजनिक कार्यों में प्रामाणिकता का परिचय दें, (ग) अपने व्यवहार में गौरव, शालीनता और उत्तरदायित्व को प्रकट करें, (घ) किसी भी सार्वजनिक संस्था में सोच समझकर तथा ईमानदारी से वोट दें, (च) सांप्रदायिक विद्वेष का प्रचार न करें, (छ) चोर-बाजारी और मुनाफाखोरी या इसी प्रकार के समाज विरोधी काम न करें। उपर्युक्त कर्तव्यों का पालन न करनेवालों को मताधिकार से वंचित किया जा सकेगा।
भाग 4 जम्मू और कश्मीर राज्य के प्रमुख, जो सदरे रियासत कहलाएगा के निर्वाचन, कर्तव्य आदि का वर्णन करता है। केवल स्थायी नागरिक ही सदरे रियासत चुने जा सकेंगे। सदरे रियासत को 'खुदा' का नाम लेकर, चाहे वह नास्तिक ही क्यों न हो, शपथ ग्रहण करनी पड़ेगी। सदरे रियासत भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा और उनकी प्रसादावधि तक पदारूढ़ रहेगा किंतु उसकी नियुक्ति कश्मीर की राष्ट्रीय सभा दोषारोपण (Impeachment) कर उसे हटा भी सकती है। भारत के राष्ट्रपति को तो राष्ट्रीय सभा के निर्णयों पर मुहर लगाने मात्र का अधिकार है। यदि मुहर नहीं लगाई तो क्या परिणाम होगा, यह भविष्य के लिए छोड़ दिया गया है।
कश्मीर का शासन-कार्य एक मंत्री परिषद् के द्वारा होगा जो सामूहिक रूप से राष्ट्रीय सभा के प्रति उत्तरदायी होगी। मंत्री परिषद् प्रधानमंत्री की इच्छा के अनुसार सदरे रियासत द्वारा नियुक्त की जाएगी और उसकी इच्छा के अनुसार ही एक या अधिक मंत्री हटाए भी जा सकते हैं।
राष्ट्रीय महासभा कश्मीर की विधान परिषद् होगी जोकि प्रति चालीस हजार निवासियों के ऊपर एक सदस्य के आधार पर चुनी जाएगी। केवल जम्मू प्रांत में हरिजनों के लिए पाँच वर्ष के लिए चार स्थान सुरक्षित रहेंगे। कश्मीर के नागरिक भारत के नागरिकों से अधिक समझदार है इसलिए उन्हें उठारह वर्ष की उम्र में ही मताधिकार प्राप्त हो जाएगा। मतदाताओं को अपने प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार (Recall) दिया है। महासभा का सब कार्य उर्दू में होगा। अध्यक्ष यदि चाहे तो किसी भी सदस्य को अंग्रेजी में और यदि वह अंग्रेजी भी नहीं बोल सकता तो मातृभाषा में बोलने की अनुमति दे सकता है।
भाग 6 न्याय विधान से संबद्ध है। इसके अनुसार कश्मीर राज्य का अंतिम और सर्वोच्च न्यायालय दीवानी, फौजदारी आदि सभी मामलों के लिए एक न्याय मंडल (Judicial Board) होगा। यह न्याय मंडल सदरे रियासत के द्वारा प्रधानमंत्री की सहमति से नियुक्त किया जाएगा। न्याय मंडल के अतिरिक्त एक हाई कोर्ट भी होगा, जिसकी बैठके जम्मू और श्रीनगर में होंगी। मूलभूत अधिकारों के संबंध में आदेश आदि देने का अधिकार दोनों न्यायालयों को होगा। मौलिक अधिकारों के संबंध में कोई भी नागरिक भारत सुप्रीम कोर्ट में भी आवेदन कर सकता है किंतु सुप्रीम कोर्ट में कश्मीर के और किसी भी विषय पर अपील नहीं की जा सकेगी।
भाग 7 प्रधानाकेक्षक की नियुक्ति के संबंध में है। भारत के प्रधानाकेक्षक को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं रहेंगे।
भाग 8 भारत और कश्मीर के संबंधों की विवेचना करता है। यह संबंध तीन अनुसूचियों में वर्णित है जिसमें प्रथम अनुसूची वे विषय सम्मिलित हैं, जिनका संबंध रक्षा, विदेश नीति और यातायात से है। इन विषयों पर विधान बनाने का अधिकार भारतीय संसद को होगा। इसके साथ ही एक और अनुसूची दी गई है जिसमें वे विषय सम्मिलित हैं जो सम्मिलिन पत्र के अनुसार तो भारतीय संसद के अधिकार क्षेत्र में हैं किंतु जिनमें परिवर्तनों की माँग की गई है। इसमें ध्यान देने योग्य यह है (क) भारतीय संसद में कश्मीर के प्रतिनिधि जनता द्वारा चुने हुए नहीं होंगे वरन् वहाँ की सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होंगे। (ख) कोई भी संधि जो भारत का विदेशमंत्री दूसरे देशों के साथ करे और जिसमें जम्मू और कश्मीर राज्य का किसी भी प्रकार संबंध आए, वह कश्मीर की सरकार की सहमति के बिना नहीं हो सकेगी और भारतीय संसद को उस संधि को व्यावहारिक रूप देने के संबंध में कोई भी कानून बनाने का अधिकार न होगा। (ग) भारतीय संसद के अध्यक्ष कश्मीर के किसी भी संसदीय सदस्य को उसकी मातृभाषा में भाषण करने की अनुमति नहीं दे सकेंगे। वह भाषण वहाँ की राजकीय भाषा अर्थात् उर्दू में ही हो सकता है। (घ) भारत के सुप्रीम कोर्ट को विभिन्न राज्यों एवं राज्य और संघ सरकार के बीच उत्पन्न सभी विवादों के लिए मूल न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं किंतु वह न तो कश्मीर के संविधान के संबंध में और न उन विषयों के संबंध में, जिनके लिए भारतीय संसद को कश्मीर के लिए कानून बनाने का अधिकार नहीं, अपने अधिकारों का उपयोग कर सकेगा। (च) यदि किसी विषय पर भारत और कश्मीर दोनों ने नियम बनाए हैं और वे परस्पर विरोधी हैं तो जहाँ अन्य राज्यों में राज्य के नियम के ऊपर संघीय नियम को मान्यता होती है, वहाँ कश्मीर में राज्य के अपने नियम को ही मान्यता रहेगी। (छ) भारत को यद्यपि यातायात में सभी अधिकार प्राप्त हैं किंतु भारत का राष्ट्रपति किसी भी मार्ग को कश्मीर सरकार की सम्मति के बिना राष्ट्रीय या सैनिक महत्त्व का घोषित नहीं कर सकता। (ज) कश्मीर राज्य चाहे तो राज्य की पुरानी सेनाओं को रख तथा बढ़ा सकता है। यदि उनका भारतीय सेनाओं के साथ किसी भी प्रकार से एकीकरण किया जाए तो वह कश्मीर सरकार की सम्मति से ही हो सकेगा। कोई भी सेना का अंग, जो भारतीय सेना के साथ अभी तक संबद्ध नहीं हुआ है, भारतीय सेना का अंग नहीं समझा जाएगा और उनपर राज्य का ही अधिकार रहेगा। (झ) भारत यदि नागरिकता के संबंध में कोई कानून बनाता है तो वह कश्मीर की विधानसभा की सहमति के बिना उस राज्य पर लागू नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार वे सब लोग जो जम्मू और कश्मीर राज्य से सन् 1947 के झगड़ों के कारण पाकिस्तान (भारत नहीं) चले गए हैं, वे सब वापस आने पर नागरिक माने जाएँगे। (त) भारत यदि राज्य कर्मचारियों के लिए कोई संयुक्त जनसेवा आयोग बनाना चाहे तो उसे कश्मीर सरकार की पूर्व सम्मति प्राप्त करना आवश्यक होगा। (थ) भारत के राष्ट्रपति को जम्मू और कश्मीर राज्य में आंतरिक दुर्व्यवस्था होने पर तब तक संकटकालीन स्थिति की घोषणा करने का अधिकार प्राप्त नहीं जब तक वहाँ की सरकार प्रार्थना न करे। युद्ध जन्य संकटकालीन स्थिति की घोषणा करने पर भी संघ सरकार जम्मू और कश्मीर राज्य को वही निर्देश दे सकती है, जो राज्य के प्रशासनिक मामलों में किसी प्रकार का दखल न दे। इसी प्रकार भारतीय संसद ऐसे समय में भी बिना कश्मीर की विधानसभा अथवा वहाँ की सरकार की सहमति के कोई कानून नहीं बना सकती।
कश्मीर सरकार ने अपने व्यापारी प्रतिनिधि देश-विदेशों में रखने और किसी भी प्रकार के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में, जिनमें व्यापार आदि की बातें हों, भाग लेने का अधिकार सुरक्षित रखा है।
भारत की सुरक्षा के लिए तैयारी करने संबंधी नियम बनाने का अधिकार यद्यपि संघीय अनुसूची की प्रथम सूची के अनुसार भारत को स्वत: प्राप्त है, किंतु कश्मीर में उसके लिए कश्मीरी विधानसभा की स्वीकृति आवश्यक है। संघीय सूची में से विषय क्रमांक 7 (संसद द्वारा सुरक्षा अथवा युद्ध के लिए आवश्यक घोषित उद्योग), क्रमांक 8 (केंद्रीय सूचना तथा चर विभाग), क्रमांक 9 (सुरक्षा, वैदेशिक मामले और भारत की सुस्थिति से संबंधित निवारक निरोध अधिनियिम) को कश्मीर राज्य ने भारतीय संसद के अधिकार क्षेत्र से निकाल लिया है।

रेल पथ यद्यपि संघीय विषय है किंतु यदि कश्मीर सरकार राज्य में कोई रेल बनाए या किसी कंपनी से बनवाएँ तो वह केंद्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर होगी।
मुद्रा, बैंकिंग, पोस्ट आफिस आदि में केंद्र को कोई अधिकार नहीं रहेगा। जनगणना के लिए कश्मीर राज्य भारत की जनगणना से संबंध नहीं रखेगा और न उसका किसी प्रकार सर्वेक्षण विभाग से कोई संबंध रहेगा। चुनाव आयोग का अधिकार-क्षेत्र केवल राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के निर्वाचन तक ही रहेगा।
भारत का कश्मीर के साथ किसी भी प्रकार वित्तीय एकीकरण नहीं होगा। वहाँ भारत कोई कर नहीं लगा सकता।
भाग 9 के अनुसार प्रधानमंत्री की सलाह से सदरे रियासत एक जनसेवा आयोग नियुक्त करेगा। चुनाव कमीशन सदरे रियासत द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह से नियुक्त होगा। भाग 11 उर्दू को राजभाषा स्वीकार करता है। प्रारंभिक शिक्षा के लिए कोई भी जिला कौंसिल किसी भी अनुसूचित भाषा को स्वीकार कर सकती है। भाग 12 में विविध प्राविधान दिए हैं जिनमें संकटकालीन स्थिति की अवस्था में प्रधानमंत्री की सलाह से सदरे रियासत घोषणा कर सकता है कि किसी भी न्यायालय को मौलिक अधिकारों के संबंध में विचार करने का अधिकार नहीं रहेगा।
राज्य का झंडा तीन सफेद खड़ी पहियों और हल के साथ लाल रंग का रहेगा।
भाग 13 के अनुसार कश्मीर एक संघ राज्य माना गया है जिसके पाँच अंग होंगे(क) कश्मीर : अनंतनाग, श्रीनगर, बारामूला जिलों सहित, (ख) पूंछ : मीरपुर, पूंछ, रजौरी और मुजफ्फराबाद जिलों सहित, (ग) जम्मू : जम्मू, कठुआ, ऊधमपुर और डोडा जिलों सहित, (घ) लद्दाख : लेह, कारगिल और अस्कारदू सहित, (च) गिलगित : गिलगित तहसील और दुंजी सहित। कश्मीर, पूंछ और जम्मू प्रांत का शासन एक चीफ कमिश्नर के अधीन होगा जिसकी नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह से सदरे रियासत करेंगे। चीफ कमिश्नर प्रांत के प्रशासन का प्रमुख रहेगा और वह राज्य सरकार के प्रति उत्तरदायी होगा। प्रत्येक चीफ कमिश्नर के अधीन मंत्री परिषद् होगी जो प्रांतीय अनुसूची में वर्णित विषयों के संबंध में उसे सलाह देगी। मंत्री परिषद् प्रांतीय विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी। विधानसभा का निर्वाचन प्रति साठ हजार निवासियों पर एक सदस्य के हिसाब से होगा। मतदाताओं को अपने प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार होगा। प्रांतीय विधानसभा को प्रांत का बजट स्वीकार करने का भी अधिकार है जो बाद में राज्य के बजट के साथ सम्मिलित कर लिया जाएगा। लद्दाख और गिलगित के प्रदेशों के लिए एक रीजनल कमिश्नर नियुक्त होगा। उसको सलाह देने के प्रति दस हजार निवासियों पर एक सदस्य के हिसाब से एक प्रादेशिक समिति निर्वाचित होगी। यह समिति सलाहकार समिति के रूप में काम करेगी। कश्मीर, पूंछ और जम्मू प्रांत के प्रत्येक जिले की एक जिला समिति होगी जिसका निर्वाचन बीस हजार निवासियों पर एक सदस्य के हिसाब से होगा। जिला समिति डिप्टी कमिश्नर की सलाहकार समिति के रूप में काम करेगी तथा जो प्रस्ताव वह चाहे पास करके राज्य या प्रांतीय सरकार के पास सिफारिश के रूप में भेज सकती है। राज्य विधानसभा नया जिला या प्रांत बना सकती है, उन्हें घटा-बढ़ा सकती है। उनकी सीमाएँ बदल सकती है। गिलगित और मीरपुर, मुजफ्फराबाद, कश्मीर में मिलने तक राज्य संघ की केवल तीन ही इकाइयाँ होंगी -कश्मीर और जम्मू प्रांत तथा लद्दाख का जिला। तब तक सभी जिला कौंसिल में एक तिहाई सदस्य सरकार द्वारा नामजद रहेंगे। प्रत्येक जिला कौंसिल अपनी कार्यपालिका निर्वाचित करेगी जो सलाहकार समिति के रूप में काम करेगी। कोई भी जिला एक प्रस्ताव द्वारा तीन वर्ष के बाद निर्णय कर सकता है कि वह एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाएगा अथवा सीधा राज्य सरकार से प्रशासित हों। राज्य सरकार भी एक आयोग की रिपोर्ट के बाद किसी भी जिले या प्रांत की सीमाएँ बदल सकती हैं।
भाग 16 के अनुसार संविधान में संशोधन राष्ट्रीय महासभा के दो तिहाई बहुमत से किया जा सकता है किंतु प्रांतीय विधानसभाओं के अधिकार और कार्यों से संबंधित संशोधन उन विधानसभाओं के दो तिहाई सदस्यों द्वारा पारित होने पर ही स्वीकृत होंगे।
यह विधान भारतीय संविधान से पृथक् होने के कारण भारत की मौलिक एकता के लिए घातक तो है ही, किंतु स्वयं भी अनेक दृष्टियों से आपत्तिजनक है। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों को कश्मीर पर लागू करने के बजाय कश्मीर के संविधान में ही मौलिक अधिकारों का भाग जोड़ना प्रकट करता है कि कश्मीर-राज्य भारत का अविभाज्य अंग नहीं बल्कि एक नए पाकिस्तान के रूप में बना हुआ है। अंतर यही है कि उसकी रक्षा की जिम्मेदारी हमारी है और शेख अब्दुल्ला लियाकत अली के समान भारत को घूंसा न दिखाकर मुहम्मद अली के समान नेहरूजी को बड़ा भाई कह देते हैं। चाहिए तो यह था कि भारतीय संविधान के वे सभी भाग जिनके संबंध में जुलाई 1952 में विचार हो चुका है, जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू कर दिए जाते और उस राज्य के लिए यदि कोई विशेष प्रबंध करने की आवश्यकता है तो भारतीय संसद में तत्संबंधी संवैधानिक संशोधन पारित कर दिया जाता किंतु शेख साहब ने तो जुलाई समझौते को भी ठुकरा दिया है। हाँ, इस प्रारूप से जम्मू प्रजा परिषद् की माँगों को स्वीकार करने का दिखावा अवश्य किया गया है। क्योंकि (क) जम्मू को प्रांतीय स्वायत्त सत्ता दी गई है, यद्यपि उस सत्ता का अधिकार क्षेत्र भारत की किसी नगरपालिका से भी गया बीता है। (ख) डोडा जिले को जम्मू से अलग नहीं किया गया, यद्यपि भविष्य में उसको अलग करने के बीज जरूर बो दिए गए हैं। हम समझते हैं कि चालीस लाख लोगों के एक छोटे से राज्य का संघीय विधान बनाना और फिर उसका भारत संघ के साथ केवल तीन मामलों में संबंध करना एक ऐसा प्रयोग है जो दुनिया के अन्य किसी भाग में देखने को नहीं मिलता। भारत की आत्मा को एकता चाहती है और इसीलिए अंग्रेजों की तमाम कोशिशों के बाद भी हमने सन् 1935 के संविधान के फैडरेशन वाले भाग को स्वीकार नहीं किया तथा स्वतंत्र होने के बाद भी जो विधान बनाया उसके ऊपर यद्यपि फैडरेशन की कुछ छाप रही परंतु हमने तो भी उसे एकत्व का जामा पहनाने का प्रयत्न किया और भारत को एक 'फैडरेशन ऑफ स्टेट्स' के स्थान पर 'यूनियन ऑफ स्टेट्स' बनाया। हमारे संविधान के अनुसार हमारी संपूर्ण जनता की शक्ति हमारी केंद्र सरकार में निहित है। प्रांतों को वही शक्ति प्राप्त है जो केंद्र देता है और अवशेष प्रभुता केंद्र को प्राप्त है किंतु कश्मीर में चक्र उलटा चला जा रहा है। क्या इसके बाद भी हम यह समझें कि शेख अब्दुल्ला ने राष्ट्रवादी मनोवृत्ति का परिचय दिया है। सच तो यह है कि लौह पुरुष सरदार पटेल के निधन, नेहरूजी की संतुष्टीकरण की नीति और संयुक्त राष्ट्रसंघ में कश्मीर के प्रश्न की उपस्थिति से उत्पन्न परिस्थिति का अनुचित लाभ उठाकर, जो कभी भी राष्ट्र भक्तिपूर्ण नहीं हो सकता, शेख अब्दुल्ला एक तीसरे राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं। सत्य प्रकट हो गया है, अब यह भारत की जनता को निर्णय करना है कि वह उस सत्य का मुकाबला करती है अथवा ऑंखें बंद कर सत्य को देखने से इनकार करती है।



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