अपनी भाषा का मूल अधिकार नागरिक को मिले....

-अरविन्द सीसौदिया,कोटा ,राजस्थान।



सच यह है कि देश में अपनी भाषा का मूल अधिकार नागरिक को मिले इस हेतु नये जनांदोलन की जरूरत हे।
आम आदमी को अपनी भाषा के अधिकार की बात अब समझ आ रही है कि यह होना चाहिये था।सरदार वल्लभ भाई पटेल चाहते थे कि भाषा का अधिकार मूल अधिकारों में शामिल किया जाये । मगर तब हिन्दी , अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के झगडे इस तरह हावी हो गये थे  िकइस पर उतनी तन्मयता से विचार ही नहीं हो पाया । या हालात तब की राजनीति ने इस तरह उलझाा दिये कि संविधान में नागरिकों को भाषा का अधिकार नहीं मिल सका । इसी का फायदा विदेशी भाषा उठा रही है। विदेशी बहु राष्ट्रीय कम्पनियों के फायदें में भारतीय वातावरण कैसे बना रहक इसी में हमारी सरकारें लगीं रहतीं हैं। सो हिन्दी के सामने अनेकानेक वे कठिनाईयां खडी करदीं गईं जो हैं ही नहीं ।




आम आदमी की व्यथा...


एक चिकित्सक अंग्रेजी में पर्चा लिखता है तो मरीज यह नहीं समझ पाता कि उसे बीमारी क्या है ? जांच की स्थिती क्या है? शरीर में कमी क्या है? दवाईयों या इलाज क्या लिखा गया है? परेज क्या रखने हैं? केन्द्र और राज्य सरकार स्तर की गैर जिम्मेवारी से पूरे देश में आम आदमी का यह शोषण व्याप्त है। जबकि इसे स्थानीय भाषा में लिखा भी जा सकता और पढाया भी जा सकता है। मगर चुन कर गये नेताओं को स्वार्थ की रोटियां सेकनें से फुरसत मिले तब ना........इस तरह के हजारों लाखें काम हैं जो हिन्दी और स्थानीय भाषाओं में किये जा सकते है। मगर सरकारी गैर जिम्मेवारी से भाषाई शोषण जारी है। इस लिये भाषा का मूल अधिकार भी होना चाहिये।


उच्च वर्ग जो समाज का शोषक होता है,वह इस तरह की भाषा बनाये रखने के पक्ष में होता है, जो आम आदमी की समझ में न आये और उनके व्यापारिक हितों को लाभ या एकाधिकार बना रहे। जैसे डाॅक्टर, वकील, उच्च शिक्षा, बीमा, बैंक जैसे बहुत से जन शोषक क्षैत्र ।यूरोप में लैटिन भाषा इसी तरह की थी, बाद में यह स्थान फ्रंेच ने लिया अब वहां अंग्रजी है और वह भी कम होती जा रही है और अलग अलग भाषायें उभर रहीं हैं। इसी तरह हिन्दी आम व्यक्ति की भाषा है , उसे कितना कोई रोक पायेगा । वह तो आगे ही बडेगी। अंग्रजी परस्त वर्ग बहुत ना मामूली है। गरीबी की रेखा से नीचे जीने वाले 40 प्रतिशत ये अधिक व्यक्तियों को अंग्रेजी से क्या लेना देना मजदूर किसान और छोट व्यापारी को अंग्रजी से भी क्या लेना देना। देश के आम व्यक्ति को अंगे्रजी से काई लेना देना नहीं है। अपनी अपनी भाषा को अपना कर ही उन्नत हुए हैं। हमारी वास्तविक उन्नति नहीं होने और आधे ये ज्यादा लाग गरीब होनें में भाषाई गुलामी का भी बडा योगदान है।



हिन्दी आज बनीं थी राष्ट्रभाषा.....
’ 12 सितम्बर 1949 को सायं 4 बजे डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद के सभापतित्व में संविधान सभा के सदन में राष्ट्र एवं प्रदेशिक भाषाओं से सम्बंधित ” संविधान के भाग 14 क भाषा “ पर अंतिम रूपसे विचार प्रारम्भ हुआ,प्रस्तावित स्वरूप के विरूद्ध 300 से अधिक संशोधन आये,लगातर 14 सितम्बर तक बहस चली, इस दौरान 71 सदस्यों ने बहस में हिस्सा लिया ।सभा के सदस्य आर वी धुलकर वह पहले व्यक्ति थे जो हिन्दी की बात सबसे पहले से सभा में उठाते आ रहे थे। हिन्दी को दो शर्तों यथा अंकों का स्वरूप अंतराष्ट्रीय होगा और 15 वर्षों तक अंग्रेजी को हिन्दी के साथ - साथ रखने पर, राष्ट्रभाषा स्विकार किया गया । तब से हिन्दी देश की राष्ट्रभाषा है।  


हिन्दी को राष्ट्रभाष बनाने में किसी का अहसान नहीं है, स्वंय हिन्दी की अपनी व्यापकता को इसका श्रेय जाता है, तब संविधान सभा में और कांगेस कार्यालय में कांग्रेस के नेता अलग थलग पड गये थे और हिन्दी समर्थकों ने ताल ठोक कर मैदान में आ गये थे । वे किसी भारतीय भाषा के खिलाफ नहीं अंग्रेजी के खिलाफ थे...! तब मजबूरी में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना पडा था। यह दर्द पंडित जवाहरलाल नेहरू के 13 सितम्बर 1949 के भाषण में स्पष्ट था कि उनके मन की नहीं हो पाई । मगर उन्होने 15 साल तक अंगे्रजी को बनाये रखने का कपट पूर्ण खेल खेला, जिससे आज भी अंग्रेजी हिन्दी की सौत बन कर सिंहासन पर बैठी है और देश का शोषण कर रही है। 

सच यह है कि देश में अपनी भाषा का मूल अधिकार नागरिक को मिले इस हेतु नये जनांदोलन की जरूरत हे।
आम आदमी को अपनी भाषा के अधिकार की बात अब समझ आ रही है कि यह होना चाहिये था।

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