ईश्वर और काल का ज्ञाता हिन्दू ही है - अरविन्द सिसौदिया
ईश्वर और काल का ज्ञाता हिन्दू ही है - अरविन्द सिसौदिया
Hindu is the knower of God and Time - Arvind Sisodia
It is mentioned in Rigveda that once upon a time a golden urn rotating at high speed explodes and it causes swelling of the universe. This illusion is called Big Bang by the people of the western world. From which many galaxies are formed. There are crores of objects in each galaxy. Which we know by the names of Sun, Moon, Stars, Mandakaniyo Niharrikaye, and by attaining a systematic speed, they make up the creation of a very long period of time.
ऋगवेद में आता है कि एक समय एक स्वर्ण कलश तेजगति से घूमत हुये विस्फोट होता है और उससे सृष्ट्रि का सुजन होता है। इसी घब्ना को पाश्चात्य जगत के लोग बिगबैंग कहते हैं। जिससे अनेकों आकाशगंगायें बनती हैं। प्रत्येक आकाशगंगा में करोडो पिण्ड होते है। जिन्हे हम सूर्य चन्द्र तारे मंदाकनियों निहररिकायें के नामों से जानते है और ये व्यवस्थित गति प्राप्त कर एक बहुत बडे कालखण्ड की सृष्टि को बनाती है।
This creation keeps expanding over time on the basis of force and when the force weakens, it shrinks and finally turns into a body again. And this body explodes again after reaching a particular temperature.
यही सृष्टि समयोपनरांत बल के आधार पर विस्तार पाती रहती है और बल के क्षीण होनें पर ये सिकुडते हुये अन्त में पुनः एक पिण्ड में परिवर्तित हो जाती हैं। और यही पिण्ड एक तापमान विशेष की ठंड पर पहुंच कर पुनः विस्फोटित हो जाता है।
This sequence has been going on continuously since eternity and will continue till eternity. All this happens just like day and night. The regulator of all creation is temperature, the force of gravity and the energy that causes matter to contract and expand. These are the causes of light and darkness. Their legal origins are different types of conscious and unconscious forms. Their controller is God. Its parts are the life force that creates nature.
यही क्रम निरंतर अनन्तकाल से चल रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। यह सब ठीक अैसे ही होता है जैसे दिन रात होते है। सम्पूर्ण सृजन का नियामक तापमान,गुरूत्वाकर्ष्णन बल और ऊर्जा है जो पदार्थ को सिकुडन और विस्तार देती है। ये ही प्रकाश एवं अंधकार के कारण होते हैं। इनकी विधि उत्पत्तीयां विविध प्रकार के चेतन अचेतन स्वरूप हैं। इनका नियामक ही ईश्वर है। उसके अंश ही प्राणां हैं जो प्रकृति का निर्माण करते है।
Hindu civilization is the only civilization in the whole world to which this knowledge and science has been available first and foremost. This sequence of creation and completion of the universe and then creation and completion has been first discovered and known by the Hindu civilization. Various rishis, saints and sages of Hindu civilization have done this great research and have identified the Supreme Supreme God, known him and recognized his system. And scripted this great research, knowledge, science and experience and made it available to the entire mankind.
सम्पूर्ण विश्व में हिन्दू सभ्यता ही एक मात्र सभ्यता है जिसके पास यह ज्ञान एवं विज्ञान सबसे पहले और सबसे प्रमाणित तौर पर उपलब्ध हुआ है। सृष्टि के सृजन और समापन तथा फिर सृजन एवं समापन के इस क्रम को सबसे पहले हिन्दू सभ्यता ने ही खोजा एवं जाना है। हिन्दू सभ्यता के विविध ऋषियों , साधू संतों एवं मुनियों ने यह महान अनुसंधान कर परम बृहम परमेश्वर की पहचान की उसे जाना उसकी व्यवस्था को पहचाना है। तथा इस महान अनुसंधान , ज्ञान , विज्ञान एवं अनुभव को लीपिबद्ध कर सम्पूर्ण मानवजाती को उपलग्ध करवाया है।
Hindu is Sanatan and Sanatan is Hindu. Now for convenience we can call them Indians too. But this is the human civilization which bears the evidence of being born first and also has potential. In which all the cultural literature including time calculation, astronomical research and knowledge till recognizing the form of God is leading not only on earth but also on various other worlds.
हिन्दू ही सनातन है और सनातन ही हिन्दू है। अब हम सुविधा के लिये इन्हे भारतीय भी कह सकते है। किन्तु यह वह मानव सभ्यता जो सर्वप्रथम उत्पन्न होनें का साक्ष्य भी रखती है तथा सामार्थ्य भी रखती है। जिसमें कालगणना, खगोलीय शोध और ज्ञान सहित ईश्वर के स्वरूप को पहचानने तक का तमाम संस्कृति साहित्य युगों युगों से पृथ्वी पर ही नहीं वरन विविध अन्य लोकों पर भी नेतृत्व कर रहा है।हिन्दू संस्कृति न केबल काल की गणना को सम्पूर्ण व्यवस्थित प्रकार से करती है बल्कि उसके सम्पूर्ण सृष्टि परिभ्रमण की भी सही जानकारी देती है। हिन्दुओं में महाकाल के रूप में भगवान शंकर उज्जैन में स्थापित हैं। समय के देवता के रूप में देवों के देव महादेव का यह स्वरूप समय के देवता के रूप में स्थापित है।
Hindu culture not only calculates the time in a completely systematic way, but also gives correct information about its entire world tour. Lord Shankar is established in Ujjain in the form of Mahakal among Hindus. This form of Mahadev, the god of gods, is established as the god of time.
Hindu civilization is the only civilization which tells the whole world that the controller of the universe is Tridev. Which is also accepted by the whole world. Lord Brahma is the God of creation, Lord Vishnu is the God of operation and Lord Shankar is the God of destruction. Under his leadership, the universe passed through the era of creation, operation and destruction countless times. Is passing the time. enjoying the time. The word God is also derived from this. G to generate, O to operate and D to destroy.
हिन्दू सभ्यता ही एक मात्र वह सभ्यता है जो सम्पूर्ण विश्व को बताती है कि सृष्टि के नियामक त्रिदेव है। जिसे पूरे विश्व ने भी माना है। सृजन के देव भगवान बह्मा, संचालन के देव भगवान विष्णु और संहार के देव भगवान शंकर है। इन्ही के नेतृत्व में सृष्टि सृजन, संचालन एवं संहार के दौर से अनगिनित बार गुजरते हुये । समय को गुजार रही है। समय का आनन्द ले रही है। इसी से गॉड शब्द भी बना है। जी से जनरेट,ओ से ओपरेट और डी से डिस्ट्राय ।
Science also tells the proof of Hindu Trinity by finding it in an atom. The trinity is present even in the tiniest part of matter. One in the form of electron, second in the form of proton and third in the form of neutron. This is an irrefutable evidence of Tridev power. Hindu civilization itself tells first of all that God has a cabinet, an administration. There is a great and comprehensive administration system to fulfill their work with full commitment. Not even a single hair of a body is free from its influence.
हिन्दू त्रिदेव का सबूत विज्ञान भी एक परमाणु में खोज कर बताता है। पदार्थ के सबसे सूक्ष्म अंश परमाणु में भी त्रिदेव हैं। एक इलेक्ट्रान के रूप में , दूसरा प्रोटान के रूप में और तीसरा न्यूट्रान के रूप में । यह त्रिदेव सत्ता का अकाट्य साक्ष्य है। हिन्दू सभ्यता ही सबसे पहले बताती है कि ईश्वर का मंत्रीमण्डल है, प्रशासन हैं । उनके कार्य को पूरी पूरी प्रतिबद्धता से पूरा करने वाला एक महान और व्यापक प्रशासन तंत्र है। जिसके प्रभाव से एक देह का एक बाल भी मुक्त नहीं है।
Hindu civilization and its knowledge is the father of western science. Hindu literature and knowledge is not imaginary but researchable. Many researches have been done on this in the western world and are also being done. A lot of knowledge of Hindus has also been served by putting its own label. Hindus should also make the world benefit properly with their advanced knowledge.
हिन्दू सभ्यता और उसका ज्ञान ही पाश्चात्य विज्ञान का जनक है। हिन्दू साहित्य एवं ज्ञान काल्पनिक नहीं है अल्कि अनुसंधानीय है। इस पर पाश्चात्य जगत में अनेकानेक शोध हुये भी हैं और हो भी रहे है। हिन्दुओं के बहुतेरे ज्ञान को अपना लेबिल लगा कर परोसा भी जाता रहा है। हिन्दुओं को भी अपने उन्नत ज्ञान से विश्व को ठीक प्रकार से लाभावान्वित करवाना चाहिये।
------------------
भारत की प्राचीनतम काल गणना की आधुनिकता और वैज्ञानिकता का संबंध
By प्रवक्ता ब्यूरो -January 3, 2021
कालगणना की युगपद्धति अथवा कल्पपद्धति हमारे देश के व्यावहारिक जगत् में बहुप्रचलित एवं सर्वमान्य थी। तब प्रश्न यह उठता है कि मानव के पृथ्वी पर प्रादुर्भाव के इतने पूर्व की कालगणना का आधार क्या था? कल्पारंभ से गणना करना अथवा उसका हिसाब रखना संभव न हो सकने के कारण युगपद्धति की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं, परन्तु हमारे देश के गणितज्ञ एवं ज्योतिषी इस पद्धति का उल्लेख दीर्घकाल से करते चले आ रहे हैं।
भारतीय पौराणिक साहित्य में श्रीमद्भागवत का महत्व सर्वाविदित है। इस ग्रंथ में कुछ दार्शनिक एवं वैज्ञानिक सिद्धांतो को अन्य कथाओं के साथ-साथ इस सुघड़ता से पिरोया गया है कि व्यास जी के कौशल के समक्ष नतमस्तक होना पड़ता है। एक ऐसा ही महत्वपूर्ण अवबोध है काल। श्रीमद्भागवत पुराण में अनेक स्थलों पर इसके संबंध में दार्शनिक एवं वैज्ञानिक मीमांसा विस्तृत रूप से प्रस्तुत की गयी है। महत्वपूर्ण यह है कि काल जैसे जटिल तत्व के विषय को भी इतने सरल ढंग से लिख दिया है कि सामान्य पाठक अथवा श्रोता कथापट के ताने-बाने में गुंथे उसके अद्भुत सौंदर्य को उसी सहज रूप में ग्रहण करता चलता है मानो वह श्रीकृष्ण की लीला का ही अमृतपान कर रहा हो। यद्यपि काल एवं उसके स्वरूप की दार्शनिक चर्चाओं के उल्लेख श्रीमद्भभागवत में अनेक स्थलों पर किये गये हैं, तथापि दो प्रसंग ऐसे हैं जिनके द्वारा काल एवं पदार्थ के सूक्ष्म एवं महान रूप से संबंधित गंभीर जिज्ञासाएं की गयी हैं। इस प्रसंगों के अवलोकन से यह भी विदित होता है कि पौराणिक ग्रन्थों में इस दोनों तत्वों की वैज्ञानिक अवधारणाएं कितने उच्च धरातल को स्पर्श करती हैं।
श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध के आठवें अध्याय में राजा परीक्षित ने शुकदेव मुनि से विविध प्रश्न किये हैं। इस अध्याय के बारहवें एवं तेरहवें श्लोक में वे पूछते हैं कि महाकल्प एवं उनके अवांतर कल्प कितने होते हैं? भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल का अनुमान कैसे किया जाता है? तथा काल की अण्वी (सूक्ष्म) एवं बृहत (महान) गतियां किस प्रकार जानी जा सकती हैं? इसी प्रकार तृतीय स्कंध के दसवें अध्याय के दसवें श्लोक में विदुर जी मैत्रेय जी से कहते हैं, आपने श्रीहरि की जिस काल नामक शक्ति का उल्लेख किया था, उसका विस्तार से वर्णन कीजिए। मैत्रेय ऋषि ने अगले दो श्लोकों में तो इतना ही उत्तर दिया है कि त्रिगुणात्मक पदार्थ का रूपांतर करना ही काल का आकार है, स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि एवं अनंत है। अव्यक्तमूर्ति काल को ही उपादान बनाकर सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। परन्तु इसी स्कंध के ग्यारहवें अध्याय में मन्वंतरादि काल विभाग का वर्णन करते हुए जिस विस्तार से उन्होंने परमाणु, ब्रह्मांड राशियों, सूक्ष्म एवं परम महान काल को व्याख्यायित किया है, उसे चमत्कारिक ही कहा जायेगा।
इस अध्याय में मैत्रेय जी विदुर जी को बताते हैं कि जो काल पदार्थ की परमाणु जैसी सूक्ष्म अवस्था में व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म (परमाणु काल) है और जो सृष्टि से प्रलय पर्यत उसकी सब अवस्थाओं का भोग करता है, वह परम महान है। वे आगे कहते हैं, उसे परमाणु कहते हैं। यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, उस पदार्थ की समग्रता का नाम परम महान है। पदार्थ के इस सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरूप के सादृश्य से परमाणु आदि अवस्थाओं में व्याप्त होकर पदार्थों को भोगनेवाले सृष्टि करने में समर्थ काल की भी सूक्ष्मता और स्थूलता (महानता) का अनुमान किया जा सकता है।
इसके पश्चात् यह बतलाया गया है कि दो परमाणु मिलकर एक अणु बनाते हैं तथा तीन अणु मिलकर एक त्रसरेणु का निर्माण करते हैं। त्रसरेणु के आकार की कल्पना देते हुए मैत्रेय जी कहते हैं, त्रसरेणु किसी द्वार की झिर्री में से आयी हुई सूर्य की किरणों के प्रकाश में उड़ता देखा जा सकता है। ऐसे तीन त्रसरेणुओं को भोग करने में जितना समय लगता है, उसे त्रुटि कहते हैं। इससे सौ गुना काल वेध कहलाता है और तीन वेध का एक लव होता है। तीन लव को एक निमेष एवं तीन निमेष को एक क्षण कहते हैं। पांच क्षण की एक काष्ठा और पंद्रह काष्ठा का एक लघु होता है। पंद्रह लघु की एक नाडि़का होती है तथा एक मुहूर्त में दो नाडि़काएं होती है। मैत्रेय जी यह भी कहते हैं कि दिन के घटने-बढऩे के अनुसार छ: या सात नाडि़का का एक प्रहर होता है, जो मनुष्य के दिन या रात का चौथा भाग होता है तथा जिसे याम भी कहते हैं। चार-चार प्रहर के दिन और रात होते हैं और पंद्रह दिन-रात का एक पक्ष। पक्ष दो होते हैं – शुल्क एवं कृष्ण। दो पक्षों का एक मास होता है, जो पितरों का एक दिन-रात है। दो मास की एक ऋतु तथा छ: मास का एक अयन होता है, जिसके उत्तरायन एवं दक्षिणायन दो भेद हैं। दोनों अयन मिलाकर मनुष्यों का एक वर्ष किंतु देवताओं का एक दिन-रात होता है। ऐसे सौ वर्ष की मनुष्य की परमायु बतायी गयी है तथा मैत्रेय जी यह भी कहते हैं कि हे विदुर जी, देवताओं के बारह सहस्र वर्ष से एक चतुर्युगी होती है, जिनमें सत्युग में चार, त्रेता में तीन, द्वापर में दो तथा कलियुग में एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं। जिस युग में जितने सहस्र दिव्य वर्ष, उससे दोगुने सौ वर्ष उनकी संध्या एवं संध्यांशों में होते हैं। इस प्रकार कलियुग में बारह सौ दिव्य वर्ष या चार लाख बत्तीस हजार मानव वर्ष हुआ करते हैं।
ब्रह्मा जी के दिन और रात की चर्चा करते हुए मैत्रेय जी ने कहा है प्यारे विदुर जी, त्रिलोकी से बाहर महर्लोक से ब्रह्मलोक पर्यत भूलोक की एक सहस्र चतुर्युगी के बराबर एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात होती है। ब्रह्मा जी का एक दिन एक कल्प कहलाता है। ब्रह्मा जी की परमायु ब्रह्मलोक के सौ वर्षो के तुल्य होती है जिसका आधा भाग परार्ध कहलाता है। अब तक पहला परार्ध व्यतीत हो चुका है। यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनादि विश्वात्मा का एक निमेष माना जाता है। सामान्य रुप से त्रुटि से लेकर द्विपरार्ध पर्यंत फैला हुआ काल सर्व समर्थ होने पर भी सर्वात्मा पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता।
मैत्रेय जी इतने पर भी संतुष्ट नही हुए। वे सृष्टि की विशालता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि प्रकृति महत्तत्व आदि से निर्मित यह ब्रह्मांड-कोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस गुने सात आवरण हैं। उन सबके सहित यह जिसमें परमाणु के समान पड़ा हुआ दिखता है और जिसमें ऐसी करोड़ों ब्रह्मांड राशियां हैं, वही परमात्मा का श्रेष्ठ रूप है। इस प्रकार,भागवतकार के शब्दों में परमाणु से लेकर अपरिमित विस्तारवाली सृष्टि का व्याप तथा त्रुटि से लेकर दो परार्ध जिसका निमेष है, ऐसे परमकाल का रूवरूप पदार्थ एवं काल के संदर्भ में सूक्ष्म एवं परम महान की परिकल्पनाओं का दिग्दर्शन कराता है।
उपरोक्त वर्णन में जहां परमाणु, अणु, त्रसरेणु, ब्रह्मांड राशियां सूक्ष्म काल, महत्वकाल, काल के लोक सापेक्ष या विभिन्न लोकों का समय भिन्न होने जैसे वैज्ञानिक अवबोधों का विवेचन है, कालगणना की युग पद्धति का उल्लेख है, वहां कुछ राशियों के माप भी दिये गये हैं। भागवतकार द्वारा त्रुटि काल का सूक्ष्मतम माप बताया गया है और यदि दिन-रात का काम चौबीस घंटे मानकर गणना की जायें, तब त्रुटि का कोटिमान 10-4 या 10-3 सेकंड के तुल्य उपलब्ध होगा। आधुनिक अत्यंत सुग्राही तकनीकवाले कुछ कैमरों के शटर की गति इसी कोटि की होती है। काल का परार्धमान, जो महतकाल का प्रारंभिक छोर कहा जा सकता है (क्योंकि संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त काल के संदर्भ में परार्ध को एक निमिष मात्र कहा गया है), उस रचना की परम आयु बतायी गयी है, जिसके हम अंग हैं। श्रीमद्भागवत में बताये गये कालमान के अनुसार परार्ध का कोटिमान 10-22 सेकंड के सन्निकट होता है। द्रष्टव्य है कि सृष्टि-संबंधी एक आधुनिक सिद्धांत के आधार पर किये गये वैज्ञानिक आकलन से सूर्य का अपेक्षित जीवनकाल 10-18 सेकंड के आस-पास अनुमानित है। हम जानते हैं कि सूर्य से ही पृथ्वी पर जीवन है और सूर्य के विनाश के पश्चात् पृथ्वी या हमारे अस्तित्व की कल्पना असंभव है। सृष्टि-वैज्ञानिकों के एक दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार तारामंडलों की ऐसी टक्कर, जिसमें हमारे सौरमंडल के सदस्य ग्रह टूटकर बिखर जाये 1015 या 1022 वर्ष में होती है। इस सिद्धांत के अनुसार भी हमारे सौरमंडल का जीवन काल 1015 वर्ष या परार्ध के लगभग है। अत: परार्ध हमारे सौरमंडल के आयुष्य की सीमा का द्योतक है।
इसी प्रकार यदि एक योजन को आठ मील के बराबर मानकर गणना करें, तब ब्रह्मांड कोश का परिणाम लगभग सत्तर करोड़ किलोमीटर के सन्निकट होगा। यह भागवतकार के मत में नेत्रगोचर जगत का आहार है। आधुनिक खगोलशास्त्री हमें बताते हैं कि एंड्रोमीडा नामक निहारिका, जिसकी मंद संदीप्त बस कठिनाई के कोरी आंखों द्वारा देखी जा सकती है, हमसे लगभग 1018 किलोमीटर दूर है। इसके अतिरिक्त अन्य किसी मंदाकिनी के नेत्रों से दर्शन संभव नहीं हुए हैं। यह कितना सुखद आश्चर्य है कि दृश्य जगत् के जिस विस्तार का वर्णन श्रीमद्भागवत में किया गया है, वह अधुनातन प्राप्त तथ्यों से काफी मेल खाता है।
श्रीमद्भागवत में पदार्थ के सूक्ष्मतम अंश परमाणु का आकार नहीं बताया गया है। क्योंकि इसे सूक्ष्मतम अंश कहा गया है, अत: इसका और आगे विभाजन संभव नहीं है। सूक्ष्मतम होने के कारण वह इंद्रियातीत या अगोचर है, अत: वह मेय (मापने योग्य) नहीं है। यही कारण है कि परमाणु में व्याप्त काल का मापन संभव नहीं होगा। अत: सूक्ष्मकाल की मेय सीमा पदार्थ के सूक्ष्मतम नेत्रगोचर आकार में व्याप्त काल की मात्रा होगी। व्यासजी ने इस कण को त्रसरेणु के रूप में परिभाषित किया है, पर इसका परिमाप ज्ञात करने का कोई युक्तिसंगत सूत्र पुस्तक में उपलब्ध नहीं होता है। लेकिन यह समझना तो कठिन नहीं है कि भले ही भागवतकार को त्रसरेणु के यथार्थ परिमाप का ज्ञान न हो, पर नेत्रों से देखे जा सकने वाले सूक्ष्मतम कण के रूप में उसने त्रसरेणु की परिकल्पना अवश्य प्रस्तुत की थी और उसने यह भी बताया कि त्रसरेणु विभिन्न अणुओं के संयोग से बनता है। पदार्थ की आण्विक सरंचना (मॉलिक्यूलर स्ट्रक्चर) का यह वैज्ञानिक अवबोध अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा भागवतकार की पदार्थ सरंचना संबंधी वैज्ञानिक दृष्टि का उन्मीलन करता है।
अब हम कालगणना की युगपद्धति अथवा कल्पपद्धति पर भी थोड़ा विचार करें। इस पद्धति का प्रचलन आज भी भारत में है। पूजा, अनुष्ठान या धार्मिक आयोजनों में संकल्प धारण करते समय इसी पद्धति का अनुसरण किया जाता है। मनुस्मृति एवं महाभारत में तो इसका उल्लेख है ही, तैत्तिरीय संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्माण में भी चारों युगों के नाम पाये जाते हैं। एतरेय ब्राह्मण की हरिश्चन्द्र एवं रोहिताश्व की वह कथा तो सर्वविदित ही है, जिसमें कहा गया है कि सोनेवाला कलि, बैठनेवाला द्वापर एवं उठनेवाला त्रेता होता है। चलनेवाला होने के कारण कृत संपन्न होता है। अत: हे रोहित, चलते रहो, चलते रहो। ऋग्वेद में भी युगों का उल्लेख अनेक स्थलों पर किया गया है, यद्यपि यह कहना कठिन है कि उसमें वर्णित युग में इतने ही वर्ष होते थे जितने कि स्मृति ग्रंथों के अनुसार या श्रीमद्भागवत में वर्णित विभिन्न युगों में हैं। अत: यह तो निर्विवाद है कि कालगणना की युगपद्धति अथवा कल्पपद्धति हमारे देश के व्यावहारिक जगत में बहुप्रचलित एवं सर्वमान्य थी। तब प्रश्न यह उठता है कि मानव के पृथ्वी पर प्रादुर्भाव के इतने पूर्व की कालगणना का आधार क्या था? कल्पारंभ के समय से ही गणना करना और उसका अभिलेख रखना तो संभव नहीं लगता। सृष्टि के प्रथम दिन का साक्षी कौन है? शायद प्रजापति ही हों तो हों, मत्र्य तो कोई हो ही नहीं सकता। कल्पारंभ से गणना करना अथवा उसका हिसाब रखना संभव न हो सकने के कारण युगपद्धति की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं, परन्तु हमारे देश के गणितज्ञ एवं ज्योतिषी इस पद्धति का उल्लेख दीर्घकाल से करते चले आ रहे हैं।
भारतीय ज्योतिर्विदों में आर्यभट की ऐतिहासिकता तो निर्विवाद है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ आर्यभटीय में उन्होंने अपनी जन्मतिथि का उल्लेख करते हुए कहा है कि साठ वर्षों की साठ अवधियां तथा युगों के तीन पाद व्यतीत होने पर जन्म के तेईस वर्ष पूरे हो चुके थे। इसके अनुसार कलियुग के 3600 वर्ष पूरे हो चुकने पर आर्यभट तेईस वर्ष पूरे हो चुके थे। अत: कम से कम आर्यभट के समय तक 499 ई. कलियुग के प्रारंभ से कालगणना करने का प्रचलन था। आर्यभट ने यह भी कहा है युग, वर्ष, मास, दिवस सभी का प्रारंभ एक ही समय से हुआ है। काल अनंत एवं अनादि है, ग्रहों के आकाश में गमन करने से उसका अनुमान किया जा सकता है। प्राचीन भारतीय ज्योतिष ग्रंथों एवं पंचांगों में कलियुग के प्रारंभ के समय की ग्रहस्थिति का उल्लेख किया जाता है। उन लोगों को यह मान कैसे प्राप्त हुए? या तो उन्होंने प्रत्यक्ष निरीक्षण वेध द्वारा इन स्थितियों को देखा या गणित की सहायता से प्राप्त किया। यह भी जानना रोचक होगा कि ये मान किस सीमा तक शुद्ध हैं? आधुनिक खगोलशास्त्र तो इतना विकसित हो चुका है कि इन तथ्यों की जांच सरलता से की जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि इस प्रश्न पर आधुनिक खगोलशास्त्रियों का ध्यान नहीं गया। इस संबंध में जॉन प्लेफेयर एफ.आर.एस. के एडिनबरो रॉयल सोसायटी के ट्रांजेक्शंस सन् 1790 की द्वितीय पुस्तक, खंड एक, पृष्ठ 135 से 192 में प्रकाशित शोध लेख रिमाक्र्स ऑन द ऐस्ट्रोनोमी ऑफ ब्राह्मिंस द्रष्टव्य है। इस लेख में भारतीय ब्राह्मणों द्वारा प्राप्त कुछ खगोल सारणियों या पंचांगों की विस्तृत समीक्षा की गयी है। जॉन प्लेफेयर महोदय ने अपने लेख में एक फ्रेंच विद्वान द्वारा स्याम (थाइलैंड) से 1687 में लायी गयी एक पांडुलिपि एवं ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत से प्रेषित तीन खगोल सारणियों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। ये पंचांग नरसापुर एवं कर्नाटक के कृष्णपुरम से 1750 ई. में तथा कोरोमंडल तट पर स्थित तिरुवलूर नामक स्थान से 1772 में भेजे गए थे। विद्वान प्रोफेसर का कथन है कि भारतीय खगोलशास्त्र में इतनी परिशुद्धता विद्यमान है, जो इसके उद्गम एवं प्राचीनता संबंधी समस्त शंकाओं का निवारण करने में सक्षम है और इस शास्त्र को किसी भी दृष्टि से (अन्य देशों के) उस प्राचीन ज्ञान की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जो मात्र अटकलबाजी या पौराणिक गाथाओं से अधिक कुछ नहीं कहे जा सकते ।
इस पांडित्यपूर्ण लेख में विभिन्न खगोलशास्त्रियों के अभिमतों की विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए विद्वान लेखक ने कहा है कि भारतीय ज्योतिष के बारे में विवेचित तर्को एवं साक्ष्य के आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि उन प्रेक्षणों के मान, विशेषकर तिरुवलूर पंचांग में वर्णित कलियुगारंभ की सूर्य एवं चंद्र की स्थिति, जिन पर भारतीय खगोलशास्त्र आधारित है, ईस्वी संवत् से प्रारंभ होने के तीन हजार वर्ष से भी कहीं पहले वास्तविक निरीक्षण (वैध) द्वारा निर्धारित किये गये थे। प्लेफेयर ने यह भी कहा है कि प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्र में वर्णित दो तत्वों, प्रथम – सूर्य की मध्यम स्थिति साधन करने का संस्कार जिसे आधुनिक खगोलशास्त्र में सूर्य के केन्द्र का समीकरण कहते हैं तथा द्वितीय – क्रांतिवृत्त की तिर्यकता की तुलना, जब आधुनिक काल के इन दोनों तत्वों से की जाती है, तब वे भारतीय ज्योतिषशास्त्र के और अधिक प्राचीन होने का संकेत करते हैं। और तब यह स्वीकार करना पड़ता है कि भारत में इस शास्त्र का उद्गम ईसा से कम से कम 4300 वर्ष पुराना है, क्योंकि कलियुग के प्रारंभ की ग्रहस्थिति का इतना शुद्ध निर्धारण करने योग्य वेधकौशल विकसित होने में 1000 या 1200 वर्ष से कम तो क्या लगेंगे।
यह एक महत्वपूर्ण अभिलेख है, जो भारतीय खगोलशास्त्र की प्राचीनता, वैज्ञानिकता आदि सिद्ध करते हुए कलियुग के प्रारंभ को ज्योतिषशास्त्र के बलवान साक्ष्य के आधार पर निर्धारित करता है। इस प्रकार कलियुगारंभ से कालगणना की वैज्ञानिक संभावनाओं के संकेत तो मिलते हैं, पर कल्पारंभ अथवा परार्ध के प्रारंभ से जिस कालगणना का उल्लेख भागवत में किया गया है, उसकी वैज्ञानिकता के विषय में अभी कुछ कह पाना कठिन है। परन्तु अधिक अनुशीलता एवं अनुसंधान की आवश्यकता को नकारा नहीं जाना चाहिए। इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हुए प्रसिद्ध प्राच्यविद् डॉ. गोविंदचंद्र पांडे ने श्री के.डी. सेठना की पुस्तक प्रागैतिहासिक भारत में कपास की समीक्षा करते हुए लिखा है कि प्राचीन भारतीय साहित्य की रचना का कालनिर्णय करते समय उन ग्रंथों में उपलब्ध ज्योतिषीय साक्ष्य की अकारण ही उपेक्षा कर दी जाती है।
विचारणीय है कि श्रीमद्भागवत का मुख्य विषय गणित, विज्ञान किंवा खगोलशास्त्र नहीं है, उसकी रचना का उद्देश्य तो सर्वमान्य में कर्म,ज्ञान,भक्ति मर्यादामार्ग, अनुग्रहणमार्ग, द्वैत, अद्वैत, अद्वैताद्वैत आदि के लिए समन्वयमूलक दृष्टि विकसित करना प्रतीत होता है। ऐसे ग्रंथों में उच्चस्तरीय वैज्ञानिक अवधारणाओं का समावेश एक नयी जिज्ञासा उत्पन्न कर देता है। द्रष्टव्य है कि श्रीमद्भागवत का श्रवण किसी वर्ण अथवा लिंग के आधार पर प्रतिबंधित नहीं था। पद्मपुराण में भागवत सप्ताह में आमंत्रित श्रोताओं के बैठने की जो व्यवस्था बतायी है, उसमें सभी वर्णो के लिए बैठने के उचित स्थान का प्रबंध करने का निर्देश दिया गया है। क्या इससे तत्कालीन भारतीय समाज के बौद्धिक स्तर का अनुमान नहीं लगता? सामान्यत: कोई भी ग्रंथकार सर्वसाधारण के लिए लिखी पुस्तक में ऐसी बातें नहीं लिखेगा, जिन्हें पाठकों अथवा श्रोताओं का बहुसंख्यक वर्ग बिल्कुल ही न समझ पाये। जो भी हो, धर्म एवं विज्ञान का ऐसा समन्वय भारत के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है।
प्राचीन भारतीय वाड्मय का इस दृष्टि से भी अनुशीलन आवश्यक है कि उनमें समाविष्ट वैज्ञानिक अवबोधों के आधार पर तत्कालीन समाज की स्थिति का आकलन किया जा सके। इस तथ्य की भी खोज की जानी चाहिए कि कहीं विभिन्न मत-मतांतरों के समन्वय के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टि का विकास करना भी भागवत के रचनाकार का उद्देश्य तो नहीं था? कुल मिलाकर भागवतकार ने सृष्टि-वैचित्रय को सरल, सुस्पष्ट एवं सुलझी दृष्टि से देखते हुए उसके जटिल रहस्यों का उन्मीलन करते हुए सर्वजन सुलभ, सरस एवं प्रवाहमान भाषा में काव्यात्मक कौशल के साथ दर्शन, विज्ञान, भक्ति, कर्म एवं ज्ञान के पंचतत्वों से एक अद्भुत कथावस्तु का सृजन कर दिखाया है।
----------------------------
वैदिक काल गणना, सृष्टि की उत्पत्ति और आधुनिक विज्ञान!
2022/08/23
दीपक कुमार द्विवेदी.
वैदिक काल गणना और सृष्टि के उत्पत्ति के आधुनिक और वैदिक सिद्धान्त में क्या अंतर है मैं जिस विषय पर बात करने जा रहा हू उसे आज के आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करने लग गया है जब पृथ्वी के आयु के निर्धारण की बात बात आती है तो जब धार्मिक मान्यता की बात आती है तो आब्रहिक पंथ मानते हैं कि पृथ्वी की उत्पत्ति 6000 हजार वर्ष पूर्व है और सनातन वैदिक धर्म के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति 1 ,96,08,53,124 वर्ष वर्तमान में चल रहा है आज के वैज्ञानिक पृथ्वी की उत्पत्ति आयु 2 अरब वर्ष मान रहे हैं हमे वैदिक काल गणना के विषय बात करना है तो हमे सृष्टि उत्पत्ति कैसे हुई आधुनिक सिद्धान्त और वेदों उपनिषदों में दिए गए सिद्धान्तो की बात करनी होगी और आधुनिक सिद्धान्त के सामने वैदिक सिद्धान्त कहा ठहराता है
आधुनिक महा विस्फोट या बिग बैंग थ्योरी क्या है
बिग बैंग सिद्धान्त के अनुसार लगभग १३.७ अरब वर्ष पूर्व(13.7 Billion year ago) ब्रह्मांड सिमटा हुआ था।[1] इसमें हुए एक विस्फोट के कारण इसमें सिमटा हर एक कण फैलता गया जिसके फलस्वरूप ब्रह्मांड की रचना हुई। यह विस्तार आज भी जारी है जिसके चलते ब्रह्मांड आज भी फैल रहा है।[2] इस धमाके में अत्यधिक ऊर्जा का उत्सजर्न हुआ। यह ऊर्जा इतनी अधिक थी जिसके प्रभाव से आज तक ब्रह्मांड फैलता ही जा रहा है। सारी भौतिक मान्यताएं इस एक ही घटना से परिभाषित होती हैं जिसे बिग बैंग सिद्धान्त कहा जाता है। महाविस्फोट नामक इस महाविस्फोट के धमाके के मात्र १.४३ सेकेंड अंतराल के बाद समय, अंतरिक्ष की वर्तमान मान्यताएं अस्तित्व में आ चुकी थीं। भौतिकी के नियम लागू होने लग गये थे। १.३४वें सेकेंड में ब्रह्मांड १०३० गुणा फैल चुका था और क्वार्क, लैप्टान और फोटोन का गर्म द्रव्य बन चुका था। १.४ सेकेंड पर क्वार्क मिलकर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन बनाने लगे और ब्रह्मांड अब कुछ ठंडा हो चुका था। हाइड्रोजन, हीलियम आदि के अस्तित्त्व का आरंभ होने लगा था और अन्य भौतिक तत्व बनने लगे थे।
ब्रह्मांड का जन्म एक महाविस्फोट के परिणामस्वरूप हुआ। इसी को महाविस्फोट सिद्धान्त या बिग बैंग सिद्धान्त कहते हैं।जिसके अनुसार लगभग बारह से चौदह अरब वर्ष पूर्व संपूर्ण ब्रह्मांड एक परमाण्विक इकाई के रूप में था। उस समय मानवीय समय और स्थान जैसी कोई अवधारणा अस्तित्व में नहीं थी।
बिग बैंग सिद्धांत के आरंभ का इतिहास आधुनिक भौतिकी में जॉर्ज लेमैत्रे ने लिखा हुआ है।[7] लैमेंन्तेयर एक रोमन कैथोलिक पादरी थे और साथ ही वैज्ञानिक भी। उनका यह सिद्धान्त अल्बर्ट आइंसटीन के प्रसिद्ध सामान्य सापेक्षवाद के सिद्धांत पर आधारित था।
More Read
सनातन हिन्दू धर्म और संस्कृति पर खतरा को लेकर एक दर्शक का पत्र संदीप देव के नाम !
श्रीराम जी के चरण चिह्न
सनातन संस्कृति की राह चलकर ही भारत बन सकता है विश्वगुरु, अन्यथा नहीं!
“क्या है शिवलिंग का वास्तविक अर्थ और क्यों मनाएँ महाशिवरात्रि?”
यह ऍडविन हबल थे जिन्होंने वर्ष 1929 में यह बताया कि सभी गैलेक्सी एक दूसरे से सिकुड़ रहे हैं। महाविस्फोट सिद्धांत दो मुख्य धारणाओं पर आधारित होता है। पहला भौतिक नियम और दूसरा ब्रह्माण्डीय सिद्धांत। ब्रह्माण्डीय सिद्वांत के मुताबिक ब्रह्मांड सजातीय और समदैशिक (आइसोट्रॉपिक) होता है। १९६४ में ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्गस ने महाविस्फोट के बाद एक सेकेंड के अरबें भाग में ब्रह्मांड के द्रव्यों को मिलने वाले भार का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जो भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस के बोसोन सिद्धांत पर ही आधारित था। इसे बाद में ‘हिग्गस-बोसोन’ के नाम से जाना गया। इस सिद्धांत ने जहां ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्यों पर से पर्दा उठाया, वहीं उसके स्वरूप को परिभाषित करने में भी मदद की
इस ब्रह्माण्ड उत्पति कैसे हुई वेदों के अनुसार सृष्टि की रचना भगवान ने किया है और ब्रह्राण्ड बनने का क्रम क्या है यह प्रश्न प्रायः हिंदू सनातन धर्म से पूछा जाता है इसका सरल तथा वैज्ञानिक आधार पर भी है हिंदू धर्म के अनुसार कैसे बना इस पर भौतिक वैज्ञानिक अगर शोध करें तो शायद सिद्ध भी कर दे सबसे पहले के अनुसार यह समझिए की तीन नित्य सदा थे है और रहेंगे तत्व है वेद ने कहा
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नात: पर वेदितव्यं हि किञ्चित
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्व प्रोक्तं त्रिविध ब्रह्ममेतत् “
श्वेतांश्वतर उपनिषद १.१२
भावार्थ तीन तत्व है अनादि जिसका प्रारंभ न हो अनंत शाश्वत सदैव के लिए एक ब्रह्मा एक जीव माया है माया ब्रह्मांड की शक्ति है या ऐसा भी कह सकते हैं कि भौतिक ऊर्जा शक्ति है जिससे यह संपूर्ण ब्रह्मांड बना है आत्मा का निर्माण माया से नहीं हुआ है और न ही ईश्वर से हुआ है क्योंकि उपयुक्त वेद मंत्र से यही कहा गया है की तीन नित्य तत्व है आनदि जिसका प्रारंभ नहीं हुआ है लेकिन यह अवश्य है कि आत्मा और माया की सत्ता भगवान कारण है
श्वेतांश्वतर उपनिषद १.१० क्षरं प्रधानममृताक्षरं हर: क्षरात्मानावीशते देव एक अर्थात क्षर माया है अक्षर जीव दोनों का शासन करने वाला है भगवान है है अतएव माया और जीव भगवान का अध्यक्ष हैं भूमिरापोऽनलो वायु:खं बुद्धिरेव च अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृति प्रकृतिरष्टधा अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्
जीवभूतः महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्
भावार्थ पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार भी इस प्रकार से विभाजित मेरी जड़ प्रकृति माया है और महाबाहो इससे दूसरी को जिससे संपूर्ण जगत में धारण किया जाता है मेरी जीव रुप परा अर्थात चेतना प्रकृति आत्मा जान
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई जैसे उपर बताया गया है माया भगवान की शक्ति है तथा वो दिन किसी दिन नहीं बनी है और वो अनादि है तो उसी माया की शक्ति से संसार प्रकट हुआ है वैसे तो माया जड़ है अर्थात माया आप कुछ नहीं कर सकती हैं परन्तु भगवान अपनी इच्छानुसार माया को सक्रिय कर देते हैं हालांकि माया एक शाश्वत ऊर्जा है और भगवान की शक्ति है इसलिए सक्रिय करने की आवश्यकता है दूसरे शब्दों माया दिमाग रहित है और निर्जीव ऊर्जा है यह ब्रह्मांड प्रकट करने के लिए स्वयं निर्णय नहीं ले सकती है परन्तु भगवान माया को सक्रिय करते हैं तो स्वयं अंतर्निहित भोतिक गुणो के अनुसार माया ब्रह्मांड के रूप प्रकट करती है
ब्रह्माण्ड बनने का क्रम
तस्माद्वा एतास्मादात्मना आकाश सम्भूतं: आकाशाद्वयुः वायेरग्रिःअग्रेरापः अद्वयंः पृथिवी पृथिव्या ओषधयः ओषधीभ्योन्नम् अन्नात्पुरूषः स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः तस्येमेव शिरः अयं दक्षिण पक्ष अयमुत्तर :पक्ष अयमात्मा इदं पुच्छ प्रतिष्ठा तदप्येष श्लोकों भवति तैतिरोयोपनिषद २. १
भावार्थ निश्चय ही सर्वत्र प्रसिद्ध उस परामात्मा के पहल से आकाश तत्व उपन्न हुआ आकाश से वायु से अग्नि से जल और जल तत्व से पृथ्वी तत्व उपन्न पृथ्वी से समस्त औषधियां उत्पन्न औषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ अन्न से ही मनुष्य का शरीर उत्पन्न हुआ वह मनुष्य का शरीर निश्चय ही रसमय है उसका प्रत्यक्ष दिखने वाला सिर ही पक्षी कल्पना में सिर है यह दाहिनी भुजा में पंख है बायी भुजा में ही बाया पंख है यह शरीर का मध्यभाग है यह पर दोनों पैर ही पूछ है उसी विषय
आगे श्लोक कहा जाने वाला है इस मंत्र में ब्रह्राण्ड की उत्पत्ति के साथ मनुष्य के ह्रदय में गुफा वर्णन करने का उद्देश्य से पहले मनुष्य के शरीर की उत्पत्ति का प्रकार संक्षेप बताकर उसके अंगों की पक्षी के अंगों के रूप कल्पना की गई है इस मंत्र का भाव यह है कि परमात्मा से आकाश तत्व उपन्न हुआ आकाश से वायु तत्व वायु तत्व से अग्नि तत्व से जल तत्व और जल तत्व से पृथ्वी उत्पन्न हुई पृथ्वी से नाना प्रकार की औषधियां अनाज के पौधे हुए और औषधियों से मनुष्य का आहार अन्न उत्पन्न हुआ उस अन्न से यह स्थूल मनुष्य शरीर है उसकी पक्षी के रूप कल्पना की गई है उपयुक्त उपनिषद के मंत्र पृथ्वी जल से उपन्न होने की बात संक्षेप में की गई है । और पृथ्वी के प्राकट्य विस्तार ऋग्वेद में इस प्रकार से की गई है
भूर्जज्ञ उतानपदो भुवं आशा अजायन्त
ऋग्वेद १०. ७२.४
भावार्थ पृथ्वी सूर्य से उपन्न होती हैं अर्थात , भगवान की प्रेरणा से ब्रह्राण्ड बनता है और प्रलय होता है यह ब्रह्मांड का प्रलय बिल्कुल ब्रह्राण्ड उत्पत्ति के विपरित होता है अर्थात प्रलय कर्म है और पृथ्वी जल विलीन हो गई जल अग्नि में अग्नि वायु में आकाश और आकाश भगवान में अंत में केवल भगवान ही रहते हैं आत्मा महोदर् में रहती हैं तथा माया जड़ समान हो जाती है
वैदिक काल गणना
बिना संकल्प मंत्र के वैदिक काल गणना की बात अधूरी रहेगी क्योंकि संकल्प मंत्र में सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक के समय का जिक्र मिलता है
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य (अपने नगर/गांव का नाम लें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : 2071, तमेऽब्दे प्लवंग नाम संवत्सरे दक्षिणायने ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे मासे पक्षे तिथौ वासरे (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया- श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं श्री (जिस देवी.देवता की पूजा कर रहे हैं उनका नाम ले)पूजनं च अहं करिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन निर्विघ्नतापूर्वक कार्य सिद्धयर्थं यथामिलितोपचारे गणपति पूजनं करिष्ये
प्राचीन हिन्दू धार्मिक और पौराणिक वर्णित समय चक्र आश्चर्यजनक रूप से एक समान हैं। प्राचीन भारतीय मापन पद्धतियां, अभी भी प्रयोग में हैं (मुख्यतः मूल सनातन हिन्दू धर्म के धार्मिक उद्देश्यों में)। इसके साथ साथ ही हिन्दू वैदिक ग्रन्थों मॆं लम्बाई-क्षेत्र-भार मापन की भी इकाइयाँ परिमाण सहित उल्लेखित हैं।यह सभी योग में भी प्रयोग में हैं।
हिन्दू समय चक्र सूर्य सिद्धांत के पहले अध्याय के श्लोक 11–23 में आते हैं।[1]:
(श्लोक 11) वह जो कि श्वास (प्राण) से आरम्भ होता है, यथार्थ कहलाता है; और वह जो त्रुटि से आरम्भ होता है, अवास्तविक कहलाता है। छः श्वास से एक विनाड़ी बनती है। साठ श्वासों से एक नाड़ी बनती है।
(12) और साठ नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं। तीस दिवसों से एक मास (महीना) बनता है। एक नागरिक (सावन) मास सूर्योदयों की संख्याओं के बराबर होता है।
(13) एक चंद्र मास, उतनी चंद्र तिथियों से बनता है। एक सौर मास सूर्य के राशि में प्रवेश से निश्चित होता है। बारह मास एक वर्ष बनाते हैं। एक वर्ष को देवताओं का एक दिवस कहते हैं।
(14) देवताओं और दैत्यों के दिन और रात्रि पारस्परिक उलटे होते हैं। उनके छः गुणा साठ देवताओं के (दिव्य) वर्ष होते हैं। ऐसे ही दैत्यों के भी होते हैं।
(15) बारह सहस्र (हज़ार) दिव्य वर्षों को एक चतुर्युग कहते हैं। यह तैंतालीस लाख बीस हज़ार सौर वर्षों का होता है।
(16) चतुर्युगी की उषा और संध्या काल होते हैं। कॄतयुग या सतयुग और अन्य युगों का अन्तर, जैसे मापा जाता है, वह इस प्रकार है, जो कि चरणों में होता है:
(17) एक चतुर्युगी का दशांश को क्रमशः चार, तीन, दो और एक से गुणा करने पर कॄतयुग और अन्य युगों की अवधि मिलती है। इन सभी का छठा भाग इनकी उषा और संध्या होता है।
(18) इकहत्तर चतुर्युगी एक मन्वन्तर या एक मनु की आयु होती हैं। इसके अन्त पर संध्या होती है, जिसकी अवधि एक सतयुग के बराबर होती है और यह प्रलय होती है।
(19) एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं, अपनी संध्याओं के साथ; प्रत्येक कल्प के आरम्भ में पंद्रहवीं संध्या/उषा होती है। यह भी सतयुग के बराबर ही होती है।
(20) एक कल्प में, एक हज़ार चतुर्युगी होते हैं और फ़िर एक प्रलय होती है। यह ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसके बाद इतनी ही लम्बी रात्रि भी होती है।
(21) इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु एक सौ वर्ष होती है; उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।
(22) इस कल्प में, छः मनु अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब सातवें मनु (वैवस्वत: विवस्वान (सूर्य) के पुत्र) की सत्ताईसवीं चतुर्युगी बीत चुकी है।
(23) वर्तमान में, अट्ठाईसवीं चतुर्युगी का द्वापर युग बीत चुका है तथा भगवान कृष्ण के अवतार समाप्ति से ५१२३वाँ वर्ष (ईस्वी सन् २०२१ में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से) प्रगतिशील है। कलियुग की कुल अवधि ४,३२,००० वर्ष है।
नाक्षत्रीय मापन
संपादित करें
एक परमाणु मानवीय चक्षु के पलक झपकने का समय = लगभग ४ सैकिण्ड
एक विघटि = ६ परमाणु = २४ सैकिण्ड
एक घटि या घड़ी = ६० विघटि = २४ मिनट
एक मुहूर्त = २ घड़ियां = ४८ मिनट
एक नक्षत्र अहोरात्रम या नाक्षत्रीय दिवस = ३० मुहूर्त (दिवस का आरम्भ सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक, न कि अर्धरात्रि से)
शतपथ ब्राह्मण के आधार पर वैदिक कालमानम् -शतपथ.१२|३|२|५ इस प्रकार है –
द्वयोः (२) त्रुट्योः- एकः (१) लवः |
द्वयोः (२) लवयोः- एकः (१) निमेषः |
पंचशानाम् (१५) निमेषाणाम् एकम् (१) इदानि (कष्ठा) |
पंचदशानाम् (१५) इदानिनाम् एकम् (१) एतर्हि |
पंचदशानाम् (१५) एतर्हिणाम् एकम (१) क्षिप्रम् |
पंचदशानाम् (१५) क्षिप्राणां एकः (१) मुहूर्तः|
त्रिंशतः (३०) मुहूर्तानाम् एकः(१) मानुषोsहोरात्रः |
पंचदशानाम् (१५) अहोरात्राणाम् (१) अर्धःमासः |
त्रिंशतः (३०) अहोरात्राणाम् एकः (१) मासः |
द्वादशानाम् (१२) मासानाम् एकः (१) संवत्सरः |
पंचानाम् (५) संवत्सराणाम् एकम् (१) युगम् |
द्वादशानाम् (१२) युगानाम् एकः (१) युगसंघः भवति |
वैष्णवं प्रथमं तत्र बार्हस्पत्यं ततः परम् |
ऐन्द्रमाग्नेयंचत्वाष्ट्रं आहिर्बुध्न्यं पित्र्यकम्||
वैश्वदेवं सौम्यंचऐन्द्राग्नं चाssश्विनं तथा|
भाग्यं चेति द्वादशैवयुगानिकथितानि हि||
एके युगसंघे चान्द्राः षष्टिः संवत्सराः भवन्ति|
समय का मापन प्रारम्भ एक सूर्योदयसे और अहोरात्र का मापन का समापन अपर सूर्योदय से होता है |अर्धरात्री से नहीं होता है| जैसा कि कहा है-
सूर्योदयप्रमाणेन अहःप्रामाणिको भवेत्।
अर्धरात्रप्रमाणेन प्रपश्यन्तीतरे जनाः ॥
विष्णु पुराण में दी गई एक अन्य वैकल्पिक पद्धति समय मापन पद्धति अनुभाग, विष्णु पुराण, भाग-१, अध्याय तॄतीय निम्न है:
१० पलक झपकने का समय = १ काष्ठा
३५ काष्ठा= १ कला
२० कला= १ मुहूर्त
१० मुहूर्त= १ दिवस (२४ घंटे)
३० दिवस= १ मास
६ मास= १ अयन
२ अयन= १ वर्ष, = १ दिव्य दिवस
छोटी वैदिक समय इकाइयाँ
संपादित करें
एक तॄसरेणु = 6 ब्रह्माण्डीय ‘.
एक त्रुटि = 3 तॄसरेणु, या सैकिण्ड का 1/1687.5 भाग
एक वेध =100 त्रुटि.
एक लावा = 3 वेध.[2]
एक निमेष = 3 लावा, या पलक झपकना
एक क्षण = 3 निमेष.
एक काष्ठा = 5 क्षण, = 8 सैकिण्ड
एक लघु =15 काष्ठा, = 2 मिनट.
15 लघु = एक नाड़ी, जिसे दण्ड भी कहते हैं। इसका मान उस समय के बराबर होता है, जिसमें कि छः पल भार के (चौदह आउन्स) के ताम्र पात्र से जल पूर्ण रूप से निकल जाये, जबकि उस पात्र में चार मासे की चार अंगुल लम्बी सूईं से छिद्र किया गया हो। ऐसा पात्र समय आकलन हेतु बनाया जाता है।
2 दण्ड = एक मुहूर्त.
6 या 7 मुहूर्त = एक याम, या एक चौथाई दिन या रत्रि.[2]
4 याम या प्रहर = एक दिन या रात्रि। [4]
चाँद्र मापन
संपादित करें एक तिथि वह समय होता है, जिसमें सूर्य और चंद्र के बीच का देशांतरीय कोण बारह अंश बढ़ जाता है। तिथिसिद्धान्त का खण्डतिथि और अखण्डतिथि के हिसाब से दो भेद है। वेदांगज्योतिष के अनुसार अखण्डतिथि माना जाता है। जिस दिन चान्द्रकला क्षीण हो जाता है उस दिन को अमावास्या माना जाता है। दुसरे दिन सूर्योदय होते ही शुक्लप्रतिपदा, तीसरे दिन सूर्योदय होते ही द्वितीया। इसी क्रम से १५ दिन में पूर्णिमा होती है। फिर दुसरे दिन सूर्योदय होते ही कृष्णप्रतिपदा। और फिर तीसरे दिन सूर्योदय होते ही द्वितीया,और इसी क्रम से तृतीया चतुर्थी आदि होते है।
१४ वें दिन में ही चन्द्रकला क्षीण हो तो उसी दिन कृष्णचतुर्दशी टूटा हुआ मानकर दर्शश्राद्धादि कृत्य किया जाता है। ऐसा न होकर १५ वें दिन में ही चन्द्रकला क्षीण हो तो तिथियाँ टूटे बिना ही पक्ष समाप्त होता है | इस कारण कभी २९ दिन का और कभी ३० दिन का चान्द्रमास माना जाता है। वेदांगज्योतिष भिन्न सूर्यसिद्धान्तादि लौकिक ज्योतिष का आधार में खण्डतिथि माना जाता है। उनके मत मे तिथियाँ दिन में किसी भी समय आरम्भ हो सकती हैं और इनकी अवधि उन्नीस दिन से अधिक छब्बीस घंटे तक हो सकती है।
एक पक्ष या पखवाड़ा = पंद्रह तिथियाँ
चान्द्रमास दो प्रकारका होता है -एक अमान्त और पूर्णिमान्त। पहला शुक्लप्रतिपदा से अमावास्या तक अर्थात् शुक्लादिकृष्णान्त मास वेदांग ज्योतिष मानता है। इसके अलावा सूर्यसिद्धान्तादि लौकिक ज्योतिष के पक्षधर दूसरा पक्ष मानते हैं पूर्णिमान्त। अर्थात् कृष्णप्रतिपदासे आरम्भ कर पूर्णिमा तक
वेदांग ज्योतिष के आधार पर पंचवर्षात्मक युग माना जाता है | प्रत्येक ६० वर्ष में १२ युग व्यतीत हो जाते हैं। १२ युगों के नाम आगे बताया जा चुके हैं। शुक्लयजुर्वेदसंहिता के मन्त्रों २७|४५,३०|१५ ,२२|२८,२७|४५ ,२२|३१ मे पंचसंवत्सरात्मक युग का वर्णन है | ब्रह्माण्डपुराण १|२४|१३९-१४३ , लिंगपुराण १|६१|५०-५४, वायुपुराण १|५३|१११-११५ म.भारत.आश्वमेधिक पर्व४४|२,४४|१८ कौटलीय अर्थशास्त्र २|२० सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान-६|३-९ पूर्वोक्त ग्रन्थ वेदांग ज्योतिष के अनुगामी है |
ऊष्ण कटिबन्धीय मापन
संपादित करें
एक याम = 7½ घटि
8 याम अर्ध दिवस = दिन या रात्रि
एक अहोरात्र = नाक्षत्रीय दिवस (जो कि सूर्योदय से आरम्भ होता है)
अन्य अस्तित्वों के सन्दर्भ में काल-गणना
संपादित करें
पितरों की समय गणना
15 मानव दिवस = एक पितृ दिवस
30 पितृ दिवस = 1 पितृ मास
12 पितृ मास = 1 पितृ वर्ष
पितृ जीवन काल = 100 पितृ वर्ष= 1200 पितृ मास = 36000 पितृ दिवस= 18000 मानव मास = 1500 मानव वर्ष
देवताओं की काल गणना
1 मानव वर्ष = एक दिव्य दिवस
30 दिव्य दिवस = 1 दिव्य मास
12 दिव्य मास = 1 दिव्य वर्ष
दिव्य जीवन काल = 100 दिव्य वर्ष= 36000
2 अयन (छः मास अवधि, ऊपर देखें) = 360 मानव वर्ष = एक दिव्य वर्ष
4,000 + 400 + 400 = 4,800 दिव्य वर्ष = 1 सत युग
3,000 + 300 + 300 = 3,600 दिव्य वर्ष = 1 त्रेता युग
2,000 + 200 + 200 = 2,400 दिव्य वर्ष = 1 द्वापर युग
1,000 + 100 + 100 = 1,200 दिव्य वर्ष = 1 कलि युग
12,000 दिव्य वर्ष = 4 युग = 1 महायुग (दिव्य युग भी कहते हैं)
ब्रह्मा की काल गणना
1000 महायुग= 1 कल्प = ब्रह्मा का 1 दिवस (केवल दिन) (चार अरब बत्तीस करोड़ मानव वर्ष; और यही सूर्य की खगोलीय वैज्ञानिक आयु भी है).
(दो कल्प ब्रह्मा के एक दिन और रात बनाते हैं)
30 ब्रह्मा के दिन = 1 ब्रह्मा का मास (दो खरब 59 अरब 20 करोड़ मानव वर्ष)
12 ब्रह्मा के मास = 1 ब्रह्मा के वर्ष (31 खरब 10 अरब 4 करोड़ मानव वर्ष)
50 ब्रह्मा के वर्ष = 1 परार्ध
2 परार्ध= 100 ब्रह्मा के वर्ष= 1 महाकल्प (ब्रह्मा का जीवन काल)(31 शंख 10 खरब 40अरब मानव वर्ष)
ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:
ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:
चारों युग
4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष) सत युग
3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग
2 चरण (864,000 सौर वर्ष) द्वापर युग
1 चरण (432,000 सौर वर्ष) कलि युग
यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं
एक उपरोक्त युगों का चक्र = एक महायुग (43 लाख 20 हजार सौर वर्ष)
श्रीमद्भग्वदगीता के अनुसार “सहस्र-युग अहर-यद ब्रह्मणो विदुः”, अर्थात ब्रह्मा का एक दिवस = 1000 महायुग. इसके अनुसार ब्रह्मा का एक दिवस = 4 अरब 32 करोड़ सौर वर्ष. इसी प्रकार इतनी ही अवधि ब्रह्मा की रात्रि की भी है. एक मन्वन्तर में 71 महायुग (306,720,000 सौर वर्ष) होते हैं. प्रत्येक मन्वन्तर के शासक एक मनु होते हैं. प्रत्येक मन्वन्तर के बाद, एक संधि-काल होता है, जो कि कॄतयुग के बराबर का होता है (1,728,000 = 4 चरण) (इस संधि-काल में प्रलय होने से पूर्ण पॄथ्वी जलमग्न हो जाती है.)
एक कल्प में 864,000,0000 – ८ अरब ६४ करोड़ सौर वर्ष होते हैं, जिसे आदि संधि कहते हैं, जिसके बाद 14 मन्वन्तर और संधि काल आते हैं
ब्रह्मा का एक दिन बराबर है:
(14 गुणा 71 महायुग) + (15 x 4 चरण)
= 994 महायुग + (60 चरण)
= 994 महायुग + (6 x 10) चरण
= 994 महायुग + 6 महायुग
= 1,000 महायुग
पाल्या
संपादित करें
‘पाल्या’ समय की एक इकाई है. यह इकाई, भेड़ की ऊन का एक योजन ऊंचा घन (यदि प्रत्येक सूत्र एक शताब्दी में चढ़ाया गया हो) बनाने में लगे समय के बराबर है। दूसरी परिभाषा अनुसार, यह एक छोटी चिड़िया (यदि वह प्रत्येक रेशे को प्रति सौ वर्ष में उठाती है) द्वारा किसी एक वर्गमील के सूक्ष्म रेशों से भरे कुएं को रिक्त करने में लगे समय के बराबर है. यह इकाई भगवान आदिनाथ के अवतरण के समय की है। यथार्थ में यह 100,000,000,000,000 पाल्य पहले था।
हम वर्तमान में वर्तमान ब्रह्मा के इक्यावनवें वर्ष में सातवें मनु, वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम संवत 2079 में हैं। इस प्रकार अबतक १५ नील, ५५ खरब, २१ अरब, ९७ करोड़, १९ लाख, ६१ हज़ार, ६२5 वर्ष इस ब्रह्मा को सॄजित हुए हो गये हैं।
ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार वर्तमान कलियुग दिनाँक 17 फरवरी / 18 फरवरी को 3102 ई० पू० में हुआ था। इस बात को वेदांग ज्योतिष के व्यख्याकार नहीं मानते। उनका कहना है कि यह समय महाभारत के युद्ध का है । इसके ३६ साल बाद यदुवंश का विनाश हुआ और उसी दिन से वास्तविक कलियुग प्रारम्भ हुुआ। इस गणित से आज वि॰ सं॰ २०७३|४|१५ दिनांक को कलिसंवत् ५०८१|८वें मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि चल रही है |
ब्रह्मा जी के एक दिन में १४ इन्द्र मर जाते हैं और इनकी जगह नए देवता इन्द्र का स्थान लेते हैं। इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि होती है। दिन की इस गणना के आधार पर ब्रह्मा की आयु १०० वर्ष होती है फिर ब्रह्मा मर जाते है और दूसरा देवता ब्रह्मा का स्थान ग्रहण करते हैं। ब्रह्मा की आयु के बराबर विष्णु का एक दिन होता है। इस आधार पर विष्णु जी की आयु १०० वर्ष है। विष्णु जी १०० वर्ष का शंकर जी का एक दिन होता है। इस दिन और रात के अनुसार शंकर जी की आयु १०० वर्ष होती है।
सोर्स आधरित लेख
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें