शनि जयंति Shani Jayanti

शनि जयंती

Shani Jayanti 2024 -  इस साल शनि जयंती 6 जून 2024, गुरुवार के दिन है इसी दिन वट-सावित्री व्रत भी है। हिन्दू पंचाग के अनुसार हर साल ज्येष्ठ अमावस्या के दिन शनिदेव का जन्मदिन मनाया जाता है।

शनि देव सूर्य पुत्र एवं सृष्टि चक्र में प्रणियों के न्याय के देवता है। जिसके उच्च के शनिदेव होते हैं वे उसे बहुत प्रतिष्ठा दिलाते हैं । जिस तरह न्यायाधीश से सब डरते हैं वेसे ही शनिदेव से भी सब डरते हैं। किन्तु शनि देव न्यायाधीश ही हैं। वे दयालू हैं कुपालू हैं। मानवीय दृष्टिकोंण से निर्णय करते है। किन्तु मानव अहंकार वश कर्म ही अत्यंत निंदनीय करता है, इसलिये दण्ड भी कठोर ही मिलता हैं। शनिदेव की पूजा अर्चना से कहीं अधिक महत्व व्यक्ति के अपने अच्छे व्यवहार पर निर्भर करता है। शनिदेव अच्छे व्यवहार पर ही कृपा करते है।

शनि जयंति
शनि जयंती -
Shani Jayanti
शनि जयंती

शनिश्चरी अमावस्‍या, सूर्यदेव और देवी छाया के पुत्र भगवान शनि के अवतरण दिवस के रूप में मनाया जाता है, इस उत्सव को शनि जयंती भी कहा जाता है। श्री शनि, शनि ग्रह को नियंत्रित करते हैं, और इनकी मुख्यतया शनिवार के दिन पूजा व अर्चना की जाती है। श्री शनिदेव को न्याय का देवता माना जाता है।

श्री हनुमान जी ने रावण की कैद से शनिदेव को मुक्त कराया था, इसलिए शनिदेव के कथनानुसार, जो भी भक्त श्री हनुमंत लाल की पूजा करते हैं, वे भक्त शनि देव के अति प्रिय और कृपा पात्र होते हैं। अतः शनिदेव के साथ-साथ हनुमान जी की पूजा का भी विधान माना गया है।

कुंडली में शनि दोष, शनि ढैय्या या साढ़ेसाती है, तो शनिश्चरी अमावस्‍या इन सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्ति दिलाएगी। शनि अमावस्या के दिन शनि देव की कृपा पाने हेतु शनि मंदिर अथवा नवग्रह धाम मंदिर जाएं और भगवान शनि की पूजा करें, तथा दशरथकृत शनि स्तोत्र का भी पाठ करना चाहिए।

संबंधित अन्य नाम     शनिश्चरी अमावस्‍या, शनि अमावस्या, शनिश्चरा जयंती
सुरुआत तिथि           ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्‍या
कारण                      श्री शनि देव की अवतरण।
उत्सव विधि             श्री शनि मंदिर में उपवास, दान, शनि तैलाभिषेकम, शनि शांति पूजा, प्रार्थना / हवन / यज्ञ।
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दशरथकृत शनि स्तोत्र
(Dashratha Shani Sotra)

दशरथ उवाच:
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः ॥
रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन् ।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी ॥

याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं ।
एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम् ॥

प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा ।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत ॥

दशरथकृत शनि स्तोत्र:
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च ।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥1॥

नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥2॥

नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम: ।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ॥3॥

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥4॥

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ॥5॥

अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥6॥

तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥7॥

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥8॥

देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ॥9॥

प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे ।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ॥10॥

दशरथ उवाच:
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम् ।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित् ॥


 

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