भाजपा : डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी : जनसंघ के संस्थापक Shyama Prasad Mukherjee

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डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी




डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी महान शिक्षाविद, चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। भारतवर्ष की जनता उन्हें स्मरण करती है - एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में। उनकी मिसाल दी जाती है - एक कट्टर राष्ट्र भक्त के रूप में।भारतीय इतिहास उन्हें सम्मान से स्वीकार करता है - एक जुझारू, कर्मठ, विचारक और चिंतक के रूप में। भारतवर्ष के लाखों लोगों के मन में उनकी गहरी छबि अंकित है- एक निरभिमानी, देशभक्त की। वे आज भी आदर्श हैं - बुद्धजीवियों और मनीषियों के। वे आज भी समाए हुए हैं - लाखों भारतवासियों के मन में एक पथप्रदर्शक एवं प्रेरणापुंज के रूप में।

जीवन वृत्त
6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी का जन्म हुआ। उनके पिता श्री आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। यह कहा जाता है कि होनहार बिरवान के होत चिकने पात पात। इस कहावत को डॉ श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने चरितार्थ कर दिया। बाल्यकाल से ही उनकी अप्रतिम प्रतिभा की छाप दिखने लग गई थी। कुशाग्र बुद्धि और जन्मजात प्रतिभासम्पन्न डॉ मुकर्जी ने 1917 में मेट्रिक तथा 1921 में बी ए की उपाधि प्राप्त की, पश्चात् 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित की एवं 1926 में वे इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बन स्वदेश लौटे। अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कीं, और शीघ्र ही उनकी ख्याति एक शिक्षाविद् और लोकप्रिय प्रशासक के रूप में चहुँ ओर फैलती गई। उन्होंने अपने ज्ञान से, अपने विचारों से तथा तात्कालिक परिदृश्य की ज्वलंत परिस्थितियों का इतना सटीक विश्लेषण व विवेचन किया कि समाज के हर वर्ग, तबके और बुिद्धजीवियों को उनकी बुिद्ध का कायल होना पड़ा। उनकी ख्याति और कीर्तिमानों को मान्यता मिली, सम्मान मिला और मात्र 33 वर्ष की अल्पायु में उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति के अत्यन्त प्रतििष्ठत पद पर नियुक्ति दी गई। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक, एक चिन्तक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरंतर आगे बढ़ती गई।

राजनीतिक जीवन
तत्कालीन शासन व्यवस्था सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के विशद् जानकार के रूप में उन्होंने समाज में अपना विशिष्ट स्थान अर्जित कर लिया था। एक राजनैतिक दल की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति के कारण जब बंगाल की सत्ता मुस्लिम लीग की गोद में डाल दी गई और 1938 में आठ प्रदेशों में अपनी सत्ता छोड़ने की आत्मघाती और देश विरोधी नीति अपनाई गई तब डॉ श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने स्वेच्छा से देशप्रेम और राष्ट्रप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया और राष्ट्रप्रेम का संदेश जन-जन में फैलाने की अपनी पावन यात्रा का श्रीगणेश किया। डॉ मुकर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतवादी थे। इसलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति कुछ आदर्शों और सिद्धांतों के साथ प्रारंभ की। राजनीति में प्रवेश पूर्व देश सेवा के प्रति उनकी आसक्ति की झलक उनकी डायरी में 07 जनवरी, 1939 को उनके द्वारा लिखे गए निम्न उद्गारों से मिलती है :

हे प्रभु मुझे निष्ठा, साहस, शक्ति और मन की शांति दीजिए।
मुझे दूसरों की भला करने की हिम्मत और दृढ़ संकल्प दीजिए।
मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए कि मैं सुख में भी और दुख में
भी आपको याद करता रहूँ और आपके स्नेह में पलता रहूँ।
हे प्रभु मुझसे हुई गलतियों के लिए क्षमा करो और मुझे सद्प्ररेणा देते रहिए।

उन्होंने अपना जीवन अक्षरश: इन उद्गारों के अनुरूप व्यतीत किया। सार्वजनिक जीवन में पदार्पण करने के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रखर विचारधारा से, सम्मेलनों, जनसमपर्क एवं सभाओं के माध्यम से, अपने ज्वलंत उद्बोधनों से, जनता के मन में एक नई ऊर्जा, नए प्राण का संचार किया। उनकी लोकप्रियता, उनकी ख्याति दिनोंदिन बढ़ती गई। डॉ मुकर्जी ने यह भांप लिया था कि यदि मुस्लिम लीग को निरंकुश रहने दिया गया तो उससे बंगाल और हिन्दू हितों को भयंकर क्षति पहुंचेगी। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लीग सरकार का तख्ता पलटने का निश्चय किया और बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबंधन का गठन किया। इस सरकार में वे वित्तमंत्री बने। इसी समय वे वीर सांवरकर के प्रखर राष्ट्रवाद के प्रति आकिर्षत हुए, और हिन्दू महासभा में सिम्मलित हुए।

मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहाँ साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। और साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग केप्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। उनके प्रयत्नों से हिन्दुओं के हितों की रक्षा हुई। 1942 में जब ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में ठूस दिया और देश नेतृत्व विहीन और दिशा विहीन नज़र आने लगा उन परिस्थितियों में डॉ मुकर्जी ने बंगाल के हक मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र देकर भारत को नई दिशा दी।

डॉ मुकर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन संबंधी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अंतर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। डॉ मुकर्जी ने अल्प आयु में ही बहुत बड़ी राजनैतिक ऊँचाइयों को पा लिया था। भविष्य का भारत उनकी ओर एक आशा भरी दृष्टि से देख रहा था। उस समय लोग यह अनुभव कर रहे थे कि भारत एक संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है। उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति के साथ भारत के विभाजन की पूर्व स्थितियों का डटकर सामना किया। देशभर में विप्लव, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के लिए भाषाई, दलीय आधार पर बलवे की घटनाओं से पूरा देश आक्रान्त था। उधर इन विषम परिस्थितियों में भी डटकर, सीना तानकर एकला चलो के सिद्धान्त का पालन करते हुए डॉ मुकर्जी अखण्ड राष्ट्रवाद का पावन नारा लेकर महासमर में संघर्ष करते रहे। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट की गई। उस समय कांग्रेस का नेतृवृंद सामुहिक रूप से आतंकित था। मुस्लिम लीग की हर मांग को पूरा कर उससे छुटकारा पाना चाहता था। लोग आशंकित और भयभीत थे। किन्तु डॉ श्यामाप्रसाद उस माहौल में चट्टान की तरह अडिग डटे रहे। वे अकेले एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने अपने पुरूषार्थ से देश हित की वाणी को मुखर किया, और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का विरोध किया।

जनसंघ की स्थापना
ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षडयंत्र को एक दलविशेष के नेताओं ने अखण्ड भारत संबंधी अपने वादों को ताक पर रखकर विभाजन स्वीकार कर लिया। तब डॉ मुकर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खंडित भारत के लिए बचा लिया। गांधी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे खंडित भारत के पहले मंत्रिमण्डल में शामिल हुए, और उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गई। संविधान सभा और प्रांतीय संसद के सदस्य और केंद्रीय मंत्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिंतन के साथ-साथ अन्य नेताओं से मतभेद बने रहे। फलत: राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने प्रतिपक्ष के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया, और शीघ्र ही अन्य राष्ट्रवादी दलों और तत्वों को मिलाकर एक नई पार्टी बनाई जो कि विरोधी पक्ष में सबसे बडा दल था। उन्हें पं जवाहरलाल नेहरू का सशक्त विकल्प माने जाने लगा। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ। जिसके संस्थापक अध्यक्ष, डॉ श्यामाप्रसाद मुकर्जी रहे।

संसद में
संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को प्रथम लक्ष्य रखा। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि राष्ट्रीय एकता की शिला पर ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है। देश के राष्ट्रीय जीवन में इन तत्वों को स्थान देकर ही एकता स्थापित करनी चाहिए। क्योंकि इस समय इनका बहुत महत्व है। इन्हें आत्म सम्मान तथा पारस्परिक सामंजस्य के साथ सजीव रखने की आवश्यकता है। है। डॉ मुकर्जी जम्मू काश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू काश्मीर का अलग झंडा था, अलग संविधान था, वहा¡ का मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री कहलाता था। डॉ मुकर्जी ने जोरदार नारा बुलंद किया कि - एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें। संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ मुकर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की थी। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उदे्दश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपनी दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू काश्मीरकी यात्रा पर निकल पड़े। जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबंद कर लिया गया। 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। वे भारत के लिए शहीद हो गए, और भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया जो हिन्दुस्तान को नई दिशा दे सकता था।


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