कांग्रेस का आपातकाल : जनता पर 10 तरह के अत्याचार black day of emergency & MISA

आपातकाल की मार, सरकार ने जनता पर किए ये 10 वार
Posted on: June 24, 2015
25 जून 1975 वो तारीख है जब भारतीय लोकतंत्र को 28 साल की भरी जवानी में इमरजेंसी के चाकू से हलाक कर दिया गया। ये चाकू किसी सैन्य जनरल के नहीं, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथ में था।

नई दिल्ली। 25 जून 1975 वो तारीख है जब भारतीय लोकतंत्र को 28 साल की भरी जवानी में इमरजेंसी के चाकू से हलाक कर दिया गया। ये चाकू किसी सैन्य जनरल के नहीं, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथ में था। 1971 में बांग्लादेश बनवाकर शोहरत के शिखर पर पहुंचीं इंदिरा को अब अपने खिलाफ उठी हर आवाज एक साजिश लग रही थी। लाखों लोग जेल में डाल दिए गए। लिखने-बोलने पर पाबंदी लग गई।
मीडिया पर सेंसरशिपः आपातकाल में सरकार विरोधी लेखों की वजह से कई पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया। उस समय कई अखबारों ने मीडिया पर सेंसरशिप के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की, पर उन्हें बलपूर्वक कुचल दिया गया। आपातकाल की घोषणा के बाद एक प्रमुख अखबार ने अपने पहले पन्ने पर पूरी तरह से कालिख पोतकर आपातकाल का विरोध किया। आपातकाल के दौर पर जेल में भेजे जाने वाले पत्रकारों में केवल रतन मलकानी, कुलदीप नैयर, दीनानाथ मिश्र,वीरेंद्र कपूर और विक्रमराव जैसे नाम प्रमुख थे। उस समय देश के 50 जाने माने पत्रकारों को नौकरी से निकलवाया गया, तो अनगिनत पत्रकारों को जेलों में ठूंस दिया गया।

जमकर हुई दादागीरी: आपातकाल से पहले विद्याचरण शुक्ल रक्षा राज्यमंत्री थे। इंद्र कुमार गुजराल सूचना मंत्री थे। 20 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने दिल्ली के बोट क्लब पर रैली की। दूरदर्शन पर उसका लाइव कवरेज नहीं हो पाया। दिल्ली के अखबारों और मीडिया में रैली की कम कवरेज से इंदिरा गांधी गुजराल से गुस्सा हो गईं। पांच दिन के अंदर उन्हें राजदूत बनाकर मॉस्को भेज दिया गया। इंद्र कुमार गुजराल की जगह पर वीसी शुक्ल को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया गया। मीडिया उनके नाम से कांपता था। शुक्ल कहते थे कि अब पुरानी आजादी फिर से नहीं मिलने वाली। कुछ अखबारों ने इसके विरोध में संपादकीय की जगह खाली छोड़नी शुरू कर दी। इसपर शुक्ला ने संपादकों की बैठक बुलाकर धमकाते हुए चेतावनी दी कि अगर संपादकीय की जगह खाली छोड़ी तो इसे अपराध माना जाएगा और इसके परिणाम भुगतने के लिए संपादकों को तैयार रहना होगा। यही नहीं, सरकार ने किसी भी खबर को बिना सूचित किए छापने पर प्रतिबंध लगा दिया। मीडिया को खबरों को छापने से पहले सरकारी अधिकारी को दिखाना पड़ता था।

मीसा कानूनः आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा कानून (Maintenance of Internal Security Act) यानी मीसा के तहत धड़ाधड़ गिरफ्तारियां की गईं। मीसा के तहत पुलिस द्वारा कैद में लिए गए लोगों को न्यायालय में पेश करने की जरूरत नहीं थी, न ही जमानत की कोई व्यवस्था थी। आपातकाल के दौरान एक लाख से ज्यादा लोगों को जेलों में डाला गया। सही संख्या एक लाख 10 हजार 806 थी। इनमें से 34 हजार 988 को मीसा कानून के तहत बंदी बनाया गया जिसमें उन्हें यह भी नहीं बताया गया कि बंदी बनाने के कारण क्या हैं। इन कैदियों में लगभग सभी राज्यों की नुमांइदगी थी। आंध्र प्रदेश से 1078, बिहार से 2360, उत्तर प्रदेश से 7049, पश्चिम बंगाल से 5320 राजनीतिक जेलों में बंद थे। सरकार ने जिनपर थोड़ी रियायत की उन्हें डीआईआर. (Defence of India Rule) के तहत गिरफ़्तार किया गया। यह थोड़ा नरम कानून था। इसके तहत गिरफ़्तार व्यक्ति को कोर्ट में पेश किया जाता था।
 विपक्ष की आवाज बंदः आपातकाल की घोषणा हुई और पौ फटने के पूर्व सभी विरोधी दलों (सीपीआई को छोड़कर) के नेता जेलों में ठूंस दिए गए। न उम्र का लिहाज रखा गया, न स्वास्थ्य का। 100 से अधिक बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई,जिनमें जयप्रकाश नारायण, विजयाराजे सिंधिया, राजनारायण, मुरारजी देसाई, चरण सिंह कृपलानी,अटल बिहारी वाजपेयी,लालकृष्ण आडवाणी,सत्येंद्र नारायण सिन्हा, जार्ज फर्नांडीस,मधु लिमये,ज्योति बसु,समर गुहा, चंद्रशेखर बालासाहेब देवरस और बड़ी संख्या में सांसद, विधायक शामिल थे। राष्ट्रीय स्तर के नेता आतंकवादियों की तरह रात के अंधेरे में घर से उठा लिए गए और मीसा के तहत अनजाने स्थान पर कैद कर किए गए।
पुलिस बनी खलनायक: पूरे देश में जिस पर भी इंदिरा के विरोधी विचार रखने का शक था वह सींखचों के पीछे कर दिया गया। इन कैदियों को कोई राजनीतिक दर्जा भी नहीं दिया गया था। उन्हें चोर, उठाईगीरों और गुंडों की तरह बस जेल में डाल दिया गया। जयपुर की राजमाता गायत्री सिंह और ग्वालियर की राजमाता विजया राजे सिंधिया तक को गिरफ्तार कर अत्यंत अस्वास्थ्यकर दशाओं में रखा गया। सरकार ने चंडीगढ़ में नजरबंद जेपी को उनके मनपसंद सहयोगी के साथ रहने से मना कर दिया था जबकि अंग्रेजीराज में भी सरकार ने उनकी राममनोहर लोहिया के साथ रहने की इच्छा पूरी की थी।
बॉलीवुड में खौफः आपातकाल के समय सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाए गए वीसी शुक्ला ने बॉलीवुड में एक खौफ का माहौल बना दिया था। फिल्मी गीतकारों और अभिनेताओं से इंदिरा और केंद्र सरकार की प्रशंसा के गीत गाने और इसी तरह की फिल्म बनाने के लिए दबाव डाला गया। मशहूर गायक किशोर कुमार ने जब मना कर दिया तो वीसी शुक्ला ने इसे व्यक्तिगत खुन्नस मानकर पहले तो रेडियो से उनके गानों का प्रसारण बंद करा दिया और फिर उनके घर पर इनकम टैक्स के छापे डलवाए। उन्हें रोज धमकियां दी जाने लगीं। अंत में परेशान होकर उन्होंने सरकार के आगे हार मान ली। इससे वीसी शुक्ला की हिम्मत और बढ़ गई।
किस्सा कुर्सी का और आंधीः आपातकाल के दौरान बनी अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का पर प्रतिबंध लगा दिया गया। फिल्म रिलीज होने से पहले इसके सारे प्रिंट जला दिए गए। प्रिंट की खोज के लिए कई स्थानों पर छापे डाले गए। अमृत नाहटा को जमकर प्रताड़ित किया गया। वीसी के इस कारनामे के बाद बॉलीवुड में एक अलग तरह का माहौल बन गया। कई फिल्म निर्माताओं ने अपने नए प्रोजेक्ट टाल दिए। कुछ ने अपनी फिल्मों का निर्माण धीमा कर दिया। मशहूर गीतकार गुलजार की फिल्म आंधी पर भी पाबंदी लगा दी गई। फिल्म धर्मवीर को रिलीज होने में पांच महीने लग गए। बताया जाता है कि इस फिल्म में जहां-जहां जनता शब्द का उपयोग संवादों में आया था उसे एडिट कराया गया। इसकी जगह प्रजा शब्द का उपयोग कराया गया। जब एडिटिंग हो गई तो वीसी के लिए विशेष शो का आयोजन किया गया। वीसी के ओके कहने के बाद फिल्म रिलीज हो सकी। वीसी शुक्ला के बंगले पर फिल्मी सितारों को विशेष कार्यक्रम पेश करने के लिए मजबूर किया जाने लगा। जो कार्यक्रम वीसी के बंगले पर होते उनमें संजय गांधी प्रमुखता से रहते।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्ण दमनः आपातकाल में अगर किसी एक संगठन का सबसे अधिक दमन हुआ तो वह था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। संघ के स्वयंसेवक, कार्यकर्ता और प्रचारक गिरफ्तार किए गए। पुलिस ने गिरफ्तार करने में उम्र का भी ख्याल नहीं रखा। आपातकाल के दौरान गिरफ्तार और प्रताड़ित होने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्धता ही काफी थी। एक अनुमान के मुताबिक आपातकाल का विरोध कर रहे 90 फीसदी लोग किसी न किसी तरह से संघ से जुड़े थे। वाराणसी के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ पर उस समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का कब्जा था। पुलिस ने आपातकाल की घोषणा होते ही सभी पदाधिकारियों को बंदी बना लिया। यही नहीं, पंडित मदन मोहन मालवीय ने आरएसएस को लॉ कालेज के परिसर में दो कमरों का एक भवन कार्यालय के लिए दिया था। पर प्रशासन ने उसे एक ही रात में बुलडोज़र लगा कर ध्वस्त कर दिया।
नसबंदीः आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने नसबंदी अभियान चलाया। शहर से लेकर गांव-गांव तक नसबंदी शिविर लगाकर लोगों के ऑपरेशन कर दिए गए। कई बार तो चलती बसों को रास्ते में रोककर नौजवानों की भी नसबंदी कर दी गई, यहां तक कि अविवाहित युवकों की भी। जबरन नसबंदी की वजह से पूरे देश में भय का माहौल हो गया। कई परिवारों पर नसबंदी कांड ने पूर्ण विराम लगा दिया।
अनुशासन का डंडाः इंदिरा गांधी की अगुवाई में सरकार ने अपने कर्मचारियों पर कठोरता से अंकुश लगाए रखा। उन्हें समय पर कार्यालय न पहुंचने पर दंडित किया गया। हालांकि ये एक तरह से अच्छा ही था कि पहले जहां सरकारी कर्मचारी कुर्सियां तोड़ने के लिए बदनाम थे, वो समय पर आकर काम करने लगे और तमाम नियमों का पालन होने लगा। ये आपातकाल का ही डर था, कि जो ट्रेनें हमेशा देरी से चलती थीं, वो समय पर एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का फासला तय करने लगीं। ऐसा पहली बार हुआ था कि देश की ट्रेनें समय पर चलीं।

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शक्तिशाली संघ के रहते ‘आपातकाल’ कैसे टिक सकता था?
- लखेश्वर चंद्रवंशी 'लखेश'

25 जून, 1975 की काली रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘आपातकाल’ (Emergency) लगाकर देश को लगभग 21 माह के लिए अराजकता और अत्याचार के घोर अंधकार में धकेल दिया। 21 मार्च, 1977 तक भारतीय लोकतंत्र ‘इंदिरा निरंकुश तंत्र’ बनकर रह गया। उस समय जिन्होंने आपातकाल की यातनाओं को सहा, उनकी वेदनाओं और अनुभवों को जब हम पढ़ते हैं या सुनते हैं तो बड़ी हैरत होती है। आपातकाल के दौरान समाचार-पत्रों पर तालाबंदी, मनमानी ढंग से जिसे चाहें उसे कैद कर लेना और उन्हें तरह-तरह की यातनाएं देना, न्यायालयों पर नियंत्रण, ‘न वकील न दलील’ जैसी स्थिति लगभग 21 माह तक बनी रही। आज की पीढ़ी ‘आपातकाल की स्थिति’ से अनभिज्ञ है, वह ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकती। क्योंकि हम लोग जो 80 के दशक के बाद पैदा हुए, हमें ‘इंदिरा के निरंकुश शासन’ के तथ्यों से दूर रखा गया। यही कारण है कि हमारी पीढ़ी ‘आपातकाल’ की जानकारी से सरोकार नहीं रख सके।

हम तो बचपन से एक ही बात सुनते आए हैं कि इंदिरा गांधी बहुत सक्षम और सुदृढ़ प्रधानमंत्री थीं। वे बहुत गरीब हितैषी, राष्ट्रीय सुरक्षा और बल इच्छाशक्ति वाली नारी थीं। ऐसे अनेक प्रशंसा के बोल अक्सर सुनने को मिलते रहे हैं। पर आज देश में भाजपानीत ‘एनडीए’ की मोदी सरकार का शासन है। यही कारण है तथ्यों से परदा उठना शुरू हो गया है। अब पता चल रहा है कि कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं ने किस तरह इंदिरा का महिमामंडन कर ‘आपातकाल’ के निरंकुश शासन के तथ्यों से देश को वंचित रखा।

आपातकाल लगाना जरुरी था या मज़बूरी?

कांग्रेस के नेता यह दलील देते हैं कि उस समय ‘आपातकाल’ लगाना बहुत जरुरी था, इसके आभाव में शासन करना कठिन हो गया था। पर तथ्य कुछ और है? कांग्रेस के कुशासन और भ्रष्टाचार से तंग आकर जनता ने भूराजस्व भी देना बंद कर दिया था। जनता ने अवैध सरकार के आदेशों की अवहेलना शुरू कर दी थी। पूरे देश में इन्दिरा सरकार इतनी अलोकप्रिय हो चुकी थी कि चारों ओर से बस एक ही आवाज़ आ रही थी - इन्दिरा गद्दी छोड़ो। इधर लोकनायक जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन अपने चरम पर था। बिहार में प्रत्येक कस्बे, तहसील, जिला और राजधानी में भी जनता सरकारों का गठन हो चुका था। जनता सरकार के प्रतिनिधियों की बात मानने के लिए ज़िला प्रशासन भी विवश था। ऐसे में इंदिरा गांधी के लिए शासन करना कठिन हो गया।

दूसरी ओर, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब इन्दिरा गांधी के रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से चुनाव को अवैध ठहराने तथा उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया तो इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता से बेदखल होने का दर सताने लगा। न्यायालय के इस निर्णय के बाद नैतिकता के आधार पर इंदिरा गांधी को इस्तीफा देना चाहिए था, लेकिन सत्ता के मोह ने उन्हें जकड लिया। सभी को किसी अनहोनी की आशंका तो थी ही, लेकिन इंदिरा ऐसी निरंकुश हो जाएंगी, इसका किसी को अंदाजा नहीं था। उन्होंने इस्तीफ़ा नहीं दिया, बल्कि लोकतंत्र का गला घोंटना ही उचित समझा।

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी से 25 जून, 1975 की रात को ‘आपातकाल (इमर्जेन्सी) की घोषणा कर दी और भोर होने से पूर्व ही सीपीआई को छोड़कर सभी विरोधी दलों के नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया। इस अराजक कार्रवाई में न किसी की उम्र का लिहाज किया गया और न किसी के स्वास्थ्य की फ़िक्र ही की गई, बस जिसे चाहा उसे कारावास में डाल दिया गया। आपातकाल के दौरान लोकनायक जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जार्ज फर्नांडिस जैसे नेताओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के तत्कालीन सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस सहित हजारों स्वयंसेवकों को कैद कर लिया गया। देश के इन राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को मीसा (Maintenance of Internal Security Act) के तहत अनजाने स्थान पर कैद कर रखा गया। मीसा वह काला कानून था जिसके तहत कैदी को कोर्ट में पेश करना आवश्यक नहीं था। इसमें ज़मानत का भी प्राविधान नहीं था। सरकार ने जिनपर थोड़ी रियायत की उन्हें डीआईआर (Defence of India Rule) के तहत गिरफ़्तार किया गया। यह थोड़ा नरम कानून था। इसके तहत गिरफ़्तार व्यक्ति को कोर्ट में पेश किया जाता था।

आपातकाल और मीडिया

उस समय शहरों को छोड़कर दूरदर्शन की सुविधा कहीं थी नहीं। समाचारों के लिए सभी को आकाशवाणी तथा समाचार पत्रों पर ही निर्भर रहना पड़ता था। 25 जून, 1975 को आकाशवाणी ने रात के अपने समाचार बुलेटिन में यह समाचार प्रसारित किया कि अनियंत्रित आन्तरिक स्थितियों के कारण सरकार ने पूरे देश में आपातकाल (Emergency) की घोषणा कर दी है। बुलेटिन में कहा गया कि आपातकाल के दौरान जनता के मौलिक अधिकार स्थगित रहेंगे और सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। समाचार पत्र विशेष आचार संहिता का पालन करेंगे जिसके तहत प्रकाशन के पूर्व सभी समाचारों और लेखों को सरकारी सेन्सर से गुजरना होगा।

आपातकाल के दौरान 250 भारतीय पत्रकारों को बंदी बनाया गया, वहीं 51 विदेशी पत्रकारों की मान्यता ही रद्द कर दी गई। इंदिरा गांधी के इस तानाशाही के आगे अधिकांश पत्रकारों ने घुटने ही टेक दिए, इतना ही नहीं तो पत्रकारों ने ‘आप जैसा कहें, वैसा लिखेंगे’ की तर्ज पर काम करने को राजी हो गए। उस दौरान ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ ने अपना सम्पादकीय कॉलम कोरा प्रकाशित किया और ‘जनसत्ता’ ने प्रथम पृष्ठ पर कोई समाचार न छापकर पूरे पृष्ठ को काली स्याही से रंग कर ‘आपातकाल’ के खिलाफ अपना विरोध जताया था।

आपातकाल का उद्देश्य

- कांग्रेस विरोधी दलों को समाप्त करना।

- देश में भय का वातावरण निर्माण करना।

- प्रसार माध्यमों पर नियंत्रण रखना।

- ‘इंदिरा विरोधी शक्तियों को विदेशी शक्तियों के साथ सम्बन्ध’ की झूठी अफवाहों से जनता को भ्रमित करना, तथा इस आधार पर उन्हें कारागार में डालना।

- लोक लुभावन घोषणा देकर जनमत को अपनी ओर खींचना।

- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समाप्त कर संगठित विरोध को पूरी तरह समाप्त करने का षड़यंत्र।

आपातकाल की समाप्ति में संघ की भूमिका

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने ‘आपातकाल’ के विरुद्ध देश में भूमिगत आन्दोलन, सत्याग्रह और सत्याग्रहियों के निर्माण के लिए एक व्यापक योजना बनाई। संघ की प्रेरणा से चलाया गया भूमिगत आन्दोलन अहिंसक था। जिसका उद्देश्य देश में लोकतंत्र को बहाल करना था, जिसका आधार मानवीय सभ्यता की रक्षा, लोकतंत्र की विजय, पूंजीवाद व अधिनायकवाद का पराभव, गुलामी और शोषण का नाश, वैश्विक बंधुभाव जैसे उदात्त भाव समाहित था। आपातकाल के दौरान संघ ने भूमिगत संगठन और प्रचार की यंत्रणा स्थापित की, जिसके अंतर्गत सही जानकारी और समाचार गुप्त रूप से जनता तक पहुंचाने के लिए सम्पादन, प्रकाशन और वितरण की प्रभावी व्यवस्था बनाई गई। साथ ही जेलों में बंद व्यक्तियों के परिवारजनों की सहायता के लिए भी व्यवस्थाएं विकसित की। संघ ने जनता के मनोधैर्य बना रहे, इसके लिए व्यापक कार्य किया। इस दौरान आपातकाल की सही जानकारी विदेशों में प्रसारित करने की भी योजना बनाई गई, इस कार्य के लिए सुब्रह्मण्यम स्वामी, मकरंद देसाई जैसे सक्षम लोग प्रयासरत थे।

आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह

आपातकाल के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जन आन्दोलन को सफल बनाने के लिए बहुत बहुत बड़ी भूमिका निभाई। 14 नवम्बर, 1975 से 14 जनवरी, 1976 तक पूरे देश में हजारों स्थानों पर सत्याग्रह हुए। तथ्यों के अनुसार देश में कुल 5349 स्थानों पर सत्याग्रह हुए, जिसमें 1,54,860 सत्याग्रही शामिल हुए। इन सत्याग्रहियों में 80 हजार संघ के स्वयंसेवकों का समावेश था। सत्याग्रह के दौरान कुल 44,965 संघ से जुड़े लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से 35,310 स्वयंसेवक थे तथा 9,655 संघ प्रेरित अन्य संगठनों के कार्यकर्ताओं का समावेश था।

संघ ने सत्याग्रहियों के निर्माण के लिए व्यापक अभियान चलाया। संघ समर्थक शक्तियों से सम्पर्क की यंत्रणा बनाई और सांकेतिक भाषा का उपयोग किया। देशभर में मनोधैर्य बनाए रखने तथा जागरूकता बहाल करने के लिए अनेक पत्रक बांटे गए। सारे देश में जन चेतना जाग्रत होने लगी। इसका ही परिणाम था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मन में जन विरोध का भय सताने लगा। अचानक तानाशाही बंद  हो गईं, गिरफ़्तारियां थम गईं। पर लोकतंत्र को कुचलने के वे काले दिन इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया, पर ‘आपातकाल’ का इतिहास विद्यार्थियों तक पहुंच न सका। ऐसी आपातकाल देश में दुबारा न आए, पर पाठ्यक्रम में जरुर आना चाहिए जिससे इस पीढ़ी को जानकारी मिल सके।



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