10 मई, 1857 की क्रांति की वर्षगांठ के अवसर पर : जनक्रांति: 1857

यह वह धरती है जहाँ वीर उगाये  जाते हैं ,
तलवारों की धारों पर शीश चढ़ाये जाते हैं ।
क्या कोई जीतेगा इसका,यहाँ बलिदानों से विजय बुलाई जाती है ,
शौर्य - तेज की हर सुबह हुंकार लगाई  जाती है ,
जौहर और बलिदानों के सतत मंजर, युग युग से हमनें देखे है ,
यहां जीवन देकर,राष्ट्र जीवन को अमरता संभलाई जाती है !
                                              - अरविन्द सिसोदिया


10 मई, 1857 की क्रांति की वर्षगांठ के अवसर पर
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 जनक्रांति: 1857 

- अरविंद सीसौदिया 
उस दिन देखा था तारों ने, 
हिन्दुस्तानी विश्वास नया,
जिस दिन लिखा था रणवीरों ने, 
खूं से अपना इतिहास नया।।
    : गोपाल प्रसाद व्यास
ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौजी हुकूमत के विस्तारवादी मंसूबों के विरूद्ध 1857 की जनक्रांति को वीर विनायक दामोदर सावरकर ने ‘‘भारतीय स्वतंत्रता का युद्ध’’ नामक पुस्तक लिख कर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम नाम दिया है, तो अशोक मेहता ने ‘‘1857 का महान विद्रोह’’ पुस्तक में इस संघर्ष की राष्ट्रीय विशेषताओं को उजागर किया है। मेरा मत सिर्फ इतना है कि भारतीय प्रायद्वीप पर दो हजार वर्षों से चल रहे पश्चिमी दिशा के हमलों के विरूद्ध इस हिन्दुत्व की माटी के सपूतों की संघर्ष यात्रा का एक महत्वपूर्ण पुरूषार्थ 1857 भी था। इस संघर्ष ने हिन्दुत्व के स्वाभिमान के सामने ब्रिटिश कम्पनी सरकार को झुकाया था।
हिमालय की हिम नदियों के तटों पर उपजी हिन्दू मानव सभ्यता की यह संस्कृति रही है कि वह शांतिपूर्ण शिष्टाचारमय जीवन को जिये,जीने दे और उसे सृष्टा से जोड़कर परमात्मा से सीधे संवाद करे। दूसरे के हक हड़पने में इस सभ्यता ने कभी कोई रूचि नहीं दिखाई। मगर विश्व की अन्यान्य अशिष्ट सभ्यताओं ने इस पर निरंतर आक्रमण कर निगल जाने के प्रयास किये। हूण, कुषाण, शक, यूनानी, इस्लामी और ईसाईयों के घोर अमानवीय आक्रमण इस सभ्यता पर हुए और उनका दृढ़ता से प्रतिकार भी हुआ। दो हजार वर्षों के इस महासमर में हिन्दुत्व का पुरूषार्थ निरंतर आहुती देकर अपने जीवन मूल्यों के साथ खड़ा रहा है, जबकि अन्य सभ्यताओं का आज दुनिया में अता-पता नहीं है। इसीलिए कवि इकबाल ने कहा है:
यूनां, रोमां, मिस्र सब मिट गये जहां से,
    बाकी मगर है फिर भी नामो निशां हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
    सदियों रहा है दुश्मन दौर ए जहां हमारा।।

दो कमजोरियां
हमारी दो कमजोरियां हैं कि एक आपस में फूट, दूसरी बिना सोचे समझे विश्वास कर लेना। इस्लामिक आक्रमणकारियों को भी इन्हीं दो कमजोरियों ने विजेता बनाया। ईसाई आक्रमणकारी यथा पुर्तगाली, फ्रांसिसी और ब्रिटिशों को भी इन्हीं दो कमजोरियों ने विजेता बनाया। जब-जब भी हममें से थोड़े बहुत एकजुट होकर जंगे मैदान में उतरे, दुश्मन के न केवल दांत खट्टे कर दिये, बल्कि उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
यह सच है कि भारत में हिन्दू-मुस्लिम विभाजित रहे, मगर इनका मूल तत्व हिन्दुत्व ही है, चाहे वह हिन्दू हो, चाहे हिन्दू से जबरिया बना मुसलमान हो। इसलिये भारतीय प्रायद्वीप का मुसलमान ”राष्ट्रीयता व भौगौलिक दृष्टि से ‘‘हिन्दुत्व’’ में ही समाहित है।“
हिन्दुस्तान के जिस स्वतंत्रता संग्राम ने हिन्दुत्व के शौर्य, पराक्रम और पुरूषार्थ को अपने बलिदान से लिखा, जिसे पढ़कर गर्व से आंखें छलक जाती हैं, उस महासमर का नाम है ‘‘स्वतंत्रता संग्राम 1857’’ है।
सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भुकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी।
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में,वह तलवार पुरानी थी
  : सुभद्रा कुमारी चौहान
बहुत ही अल्प ज्ञात जिस सच्चे कथानक को पढ़कर, रोम-रोम खड़ा हो जाता है, स्वाभिमान से छाती फूल जाती है, शौर्य से ललाट चमक उठता है, जिस युद्ध में अपनी बलि चढ़ाने निकला हर व्यक्ति परमवीर था और हर महिला मर्दानी थी। जिनका नायकत्व हमें सतत पुरूषार्थ की प्रेरणा देता रहेगा।
बरछी,ढ़ाल,कृपाण,कटारी,उसकी यही सहेली थी, 
वीर शिवाजी की गाथाएं, उसको याद जुबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थी।।  
  : सुभद्रा कुमारी चौहान
यदि हम अपनी मातृभूमि की गौरवगाथा को देखें तो सहज शब्दबाण निकल पड़ते हैं:
‘‘यह वह धरती है, जहां वीर उगाये जाते हैं,
तलवारों की धारों पर, शीश चढ़ाये जाते हैं।
क्या कोई जीतेगा इसको, हार सुलाई जाती है,
शौय-तेज की हर सुबह,रक्त सींच  बुलाई जाती है।
युद्ध मृत्यु का सतत् मंजर, सारे जग ने देखा है,
अथक हिन्दू पथ है निरंतर, यह सब को संदेशा हैं।
    : अरविंद सीसौदिया
1857 का असर
सन् 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भले ही मामूली सा विद्रोह कहकर इतिहास से इस बड़े संघर्ष को बाहर करने की कोशिश की हो, मगर सच यह है कि इस विद्रोह के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी का साम्राज्य भारत से समाप्त हो गया था और ब्रिटिश सरकार ने भारत मंत्री और भारत कौंसिल के रूप में सीधे अपने हाथ में सत्ता ले ली। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए यह कभी पूरी न होने वाली अपूरणीय क्षति हुई। भारतीय रियासतों के प्रति दृष्टिकोण बदला, महारानी विक्टोरिया ने 1858 में वचन दिया कि भारतीय रियासतों की स्वायत्तता बरकरार रखी जायेगी।
1857 से पहले
गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी 1948 से 1956 तक भारत में बतौर शासक रहा। वह क्रूरतम साम्राज्यवादी और घोर निकृष्ट मुनाफाखोर था। उसने भारत की प्रजा के साथ पशु जैसा दुर्व्यवहार किया। उन्होंने बिना किसी अधिकार-औचित्य के स्वयंभू कानून बना दिया कि जिस राजा के संतान नहीं होगी, वह राज्य उसके मरते ही ब्रिटिश कम्पनी का हो जायेगा। इसे व्यपगत का सिद्धान्त ;क्वबजतपदम व् िस्ंचेमद्ध कहा गया। यह स्वयंभू कानून मात्र विस्तारवादी साजिश थी, आपराधिक षडयंत्र था, जिसके कारण इस प्रकार के कई राजघराने ब्रिटिश कम्पनी के विरूद्ध लामबंद हुए, उनकी म्यानों में तलवार निकल आई।
1848 में सतारा, 1849 में जैतपुर और सम्बलपुर, 1850 में बघाट, 1852 में उदयपुर, 1853 में झांसी, 1854 में नागपुर और 1855 में कर्नाटक व तंजौर को इसी कानून से हड़पा गया। निजाम वसूली का धन नहीं दे पाया और उसका 1853 में बरार छीन लिया गया। इसी तरह अव्यवस्था के नाम पर 1856 में अवध को हथिया लिया गया।
क्रांति से पूर्व पांच वर्षों में इनाम आयोग ने अकेले बम्बई प्रांत में 20,000 जायदादों को जप्त किया। अवध में ही ज्यादातर ताल्लुकेदारों की जायदादें छीन ली और वे बिना किसी आजीविका के रह गये।
कुल मिलाकर जब भी कोई नया प्रदेश अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाता तो उसमें भूमि संबंधी झगड़े पैदा होते थे। जमींदारों को भी गोद लेने के अधिकारों से वंचित कर उनकी जायदादें भी हड़प ली जाती थी।
सैनिकांे का अपमान
कम्पनी राज में हिन्दुस्तानी सैनिकों और अंग्रेजी सैनिकों में वेतन और मान सम्मान में भारी अन्तर रहता था जबकि बलिदान की बली हिन्दुस्तानी सैनिकों को ही देनी पड़ती थी। उन्नति के अवसर कम होते थे, उन्हें अपमान भरे शब्दों और गाली-गलौच से सम्बोधित किया जाना आम था। समुद्र पार युद्धों में लड़ने भेजा जाता था, सैनिकों को ईसाई बनाने के प्रयत्न हुए और जो ईसाई बन गये उन्हें लाभ दिये गये।
अवध को अंग्रेजी कम्पनी राज्य में हड़पने के साथ वहां के 60 हजार सैनिकों को हटा दिया गया। बंगाल सेना के सैनिकों के अधिकार वापस ले लिये गये।

धार्मिक बेहुदगी
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के डायरेक्टरों के प्रधान मैग्लीज ने ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में वक्तव्य देते हुए कहा ‘‘परमेश्वर ने भारत के विस्तृत साम्राज्य को इंग्लैण्ड को इसलिये सौंपा है कि ईसा का झण्डा भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक सफलतापूर्वक लहराता रहे। प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये कि समस्त भारतीयों को ईसाई बनाने के महान कार्य को इस देश में जारी रखने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होनी चाहिए।’’
अंग्रेजों ने मिशनरियों की प्रगति को देश के प्रत्येक भाग में फैला दिया था। कई अवसरों पर मिशनरियों की सभाएं जिलों के मुख्य स्थानों पर की जाती थी, जिनकी कलेक्टर अध्यक्षता करते थे। सम्पत्ति के संबंध में हिन्दू कानून में परिवर्तन किया गया, जिससे हिन्दुओं को ईसाई बनाने में सुविधा प्राप्त हो। इस तरह ईसाई बने हिन्दुस्तानियों को नौकरियों में आगे बढ़ाकर प्रतिष्ठा प्रदान की जाती थी।
जहां-जहां भी यूरोपियन गये, ईसाई धर्म प्रचारक उनकी एक अतिरिक्त फौज के रूप में साथ गये। वही भारत में भी हुआ, सन् 1813 के पश्चात ईसाई पादरियों का भारत में वृहद पैमाने पर आगमन हुआ, इन पादरियों ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों को निशाना बनाया, धर्मान्तरण की प्रवृत्ति को बढ़ाया, इसका असर हिन्दुओं पर अधिक हुआ। हालांकि इसके मुकाबले के लिए धार्मिक आंदोलन भी प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुए। ब्रह्य समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसायटी, प्रार्थना समाज, वेद समाज इस तरह के अनेकानेक आंदोलन ईसाई धर्मान्तरण नीति की ही प्रतिक्रिया थे।
सबसे घृणित तथ्य यह था कि हिंदू और मुसलमानों को अपमानित करने के लिए अहंकार में चूर ब्रिटिश कम्पनी सरकार ने गाय और सुअर की चर्बी से युक्त कारतूसों को चलाने के लिए हिंदुस्तान सैनिकों को मजबूर किया। इस सैनिक क्रांति का यह भी एक अहम घटक तत्व था।
स्वतंत्रता का मूल सतत् सतर्कता
1857 का स्वतंत्रता संग्राम भले ही दबा दिया गया हो, मगर इस संघर्ष ने भारतीयों को सिखा दिया था कि जमकर लड़ो तो अंग्रेज भी झुकेगा, इस बिगुल की आवाज शांत होते होते, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय के रूप में ‘‘स्वराज हमारा  जन्मसिद्ध अधिकार’’ के रूप में नये बिगुल बजने लगे। बंगभंग के विरूद्ध हुए जनआंदोलन ने एक बार फिर अंग्रेजों को झुकाया। क्रांतिकारी युग आया, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद से वीर सावरकर तक अनन्त श्रृंखला बनी। हिन्दू तत्ववेत्ता महात्मा गांधी और परम राष्ट्रभक्त सुभाषचन्द्र बोस ने नई आजादी को अपने कर्म कौशल से लिखा।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान सभा में हमें सावधान करते हुए कहा है ‘‘हमने अपनी फूट से कई बार आजादी खोई है, यदि अब भी आजादी खोती है तो शायद फिर कभी स्वतंत्रता न मिले।’’ इसलिए सावधान भी रहें।
मां तो जन्म देती है, मगर मातृभूमि देती जीवन है।
दोनों का ऋण रोम-रोम पर, श्वांस-श्वांस पर,
आओ ऐसा कुछ कर जायें, जो ये मातायें हर्षायें,
कहें गर्व से, यह मेरा सपूत है, जिसने नई दिशायें,
नई बुलंदी से, हम सबको नवाजा है...!
आओ ऐसा कुछ कर जायें,
जो मातृभूमि को याद में आये।
पुरूषार्थ का ऐसा तत्व बना जाये,
जो सबको युग-युग राह दिखाये।।
    : अरविंद सीसौदिया
      राधाकृश्ण मंदिर रोड़, डडवाड़ा, कोटा जंक्षन



अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति की घटनाओं का ब्यौरा
2 फरवरी 1857 19वीं स्थानीय पैदल सेना का बहरामपुर में विद्रोह
29 मार्च 1857 बैरकपुर में सैनिकों ने चर्बीयुक्त कारतूसों के प्रयोग करने से इन्कार कर दिया, मंगल पाण्डेय नामक सैनिक ने अपने एजुटेंट पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी
10 मई 1857 मेरठ में सैनिकों का विद्रोह
10-30मई 1857 दिल्ली, फिरोजपुर, बम्बई, अलीगढ़, इटावा, बुलन्दशहर, नसीराबाद, बरेली, मुरादाबाद, शाहजहांपुर एवं अन्य उत्तर प्रदेश के शहरों में विद्रोह का भड़कना
12 मई 1857 बहादुर शाह द्वितीय को भारत का सम्राट घोषित किया गया,दिल्ली पर अधिकार
जून 1857 ग्वालियर, भरतपुर, झांसी, इलाहाबाद, फैजाबाद, सुल्तानपुर, लखनऊ आदि में विद्रोह
5 जून 1857 नाना साहिब को कानपुर का पेशवा घोषित किया गया
जुलाई 1857 इन्दौर, सागर, महू, जेहलम एवं स्यालकोट के कुछ स्थानों पर विद्रोह
अगस्त 1857 सागर एवं नर्मदा घाटी के सम्पूर्ण प्रदेश में असैन्य विद्रोह
20 सितम्बर 1857 दिल्ली पर अंग्रेजों का निकलसन के नेतृत्व में पुनः अधिकार हो गया
अक्टूबर 1857 कोटा में विद्रोह का विस्तार
नवम्बर 1857 क्रांति वीरों ने जनरल विण्डहम को कानपुर के निकट परास्त किया
6 दिसम्बर 1857 कानपुर का युद्ध सर कॉलिन कैम्बल ने जीता, तांत्या टोपे बच निकले और झांसी की रानी से जा मिले
मार्च 1858 लखनऊ पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार हो गया
3 अप्रैल 1858 सर ह्यूरोज ने झांसी पर आक्रमण कर पुनः अपने अधिकार में कर लिया
अप्रैल 1858 जगदीशपुर (बिहार) के कुंवर सिंह ने विद्रोह किया
मई 1858 अंग्रेजों ने बरेली, जगदीशपुर, काल्पीको पुनः जीता, भारतीय क्रांतिवीरों ने
रूहेलखण्ड में छापामार आक्रमण प्रारम्भ किया
जून 1858 ग्वालियर पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार
जुलाई-दिसम्बर1858 सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजी सत्ता पुनः स्थापित

कहां, किसने स्वातंत्र्य संग्राम का नेतृत्व किया

दिल्ली बहादुर शाह जफर (प्रमुख नेतृत्वकर्ता)
लखनऊ बेगम हजरत महल वक्त खां (सैन्य नेतृत्व)
कानपुर नाना साहब, अजीमुल्ला
झांसी रानी लक्ष्मी बाई
इलाहाबाद लियाकत अली
बिहार पटना, दानापुर, शाहबाद, जगदीशपुर,
ग्वालियर, तात्यां टोपे
छोटा नागपुर कुंवर सिंह
कालपी
मथुरा देवी सिंह
हरियाणा राव तुलाराम
मेरठ कदम सिंह
सम्बलपुर सुरेन्द्र सांई
फैजाबाद मौलवी मुहम्मद अल्ला
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1857 से 1947 तक अंगेजों ने अपनाई,फूट डालो राज करो की कूटनीति।
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1857 से पूर्व के पुरूषार्थपूर्ण संघर्ष
आन्दोलन  समय सम्बन्धित क्षेत्र सम्बन्धित नेता
सन्यासी विद्रोह 1760-1800 ई. बिहार, उत्तर बंगाल केना सरकार, दिर्जिनारायण
चोपाड़ विद्रोह 1798 ई. बांकुडा (बंगाल) दुर्जन सिंह
पालिगार विद्रोह 1799-1801 तमिलनाडु वीर पी. काट्टावाम्मान
थाम्पी विद्रोह 1808-09 ई. ट्रावनकोर मेलू थाम्पी
लायेक विद्रोह 1816 ई. मेदिनीपुर (बंगाल) दुर्जन सिंह
भील विद्रोह 1817-19 ई.
1825-31 ई. पश्चिमी घाट सेवा राम
पाइक अभ्युदय 1817-25 ई. उड़ीसा बक्शी जगबंधु
रामोसी विद्रोह 1822,25,28,29 ई. पश्चिमी घाट चित्तर सिंह
पागलपंथी विद्रोह 1825-27 ई. असम टीपू (गारो)
अहोम विद्रोह 1828 ई असम गोमधर कुंवर
वहाबी आन्दोलन 1831 उ.प्र., बिहार, बंगाल सैयद अहमद, तूती मीर
कोल आन्दोलन 1831-32 ई. छोटा नागपुर (बिहार) गोमधर कुंवर
खासी विद्रोह 1833 ई. असम तिरूत सिंह
फरायजी आन्दोलन 1838-48 बंगाल शरीयातुल्ला, दूदू मियां
नील विद्रोह 1854-62 ई. बंगाल/बिहार तिरूत सिंह
संथाल विद्रोह 1855-56 ई. बंगाल, बिहार सिंधु, कानू



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1857 की क्रांति का महत्व
-डा. अमित कुमार शर्मा

29मार्च 1857 को मंगल पांडे ने ईस्ट इंडिया कंपनी के विरूद्ध बैरकपुर में जो बिगुल फूंका, उसकी परिणति 10 मई 1857 को मेरठ में हुई। मेरठ के सैनिकों ने कंपनी राज के खिलाफ एक अभियान छेड़ दिया।
11 मई 1857 को मेरठ छावनी के सैनिक दिल्ली पहुंच गए और उन्होंने बूढ़े मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को अपना नेता और हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया। इतिहासकारों का कहना है कि यह कंपनी सरकार और इंग्लैंड के शासकों के लिए यह जितना अप्रत्याशित था उतना ही बहादुरशाह के लिए भी अप्रत्याशित था।
11 मई 1857 से 20 सितम्बर 1857 तक अंग्रेजों की स्थिति कमजोर थी। उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों में कंपनी राज छावनियों तक सीमित हो गया और लगा कि कंपनी राज समाप्त हो जाएगा। किन्तु 20 सितम्बर 1857 से स्थिति बदलने लगी।
20 सितम्बर 1857 को बहादुरशाह जफर बंदी बना लिए गए। अक्टूबर 1857 में कलकत्ता में ब्रिटिश सिपाहियों का बड़ा जत्था आया और 18 अप्रैल 1859 तक अंग्रेजी प्रभुता का विरोध करने वाले सभी नेता या तो बंदी बना लिए गए या वीर गति को प्राप्त हो गए या फिर नेपाल के जंगलों के रास्ते पलायन कर गए। 2 अगस्त, 1858 को ब्रिटिश संसद ने एक कानून पास कर भारत में कंपनी राज को समाप्त कर दिया। फलस्वरूप 2 अगस्त, 1858 से भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया।
1 नवम्बर 1858 को भारत की साम्राज्ञी के रूप में लंदन से महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणापत्र जारी किया, जिससे भारत का शासन चलने लगा। अंग्रेज इतिहासकारों ने घोषणा की कि अब अंग्रेज भारत में ‘बाहरी’ नहीं रहे बल्कि भारत ब्रिटिश साम्राज्य के ‘भीतर’ आ गया और अभिन्न अंग बन गया। 1885 में कांग्रेस की स्थापना की गई।
ए.ओ. ह्यूम द्वारा स्थापित कांग्रेस में भारतीय मध्यवर्ग, जमींदार और अंग्रेजों के साझीदार भारतीय व्यवसायी ‘नरम दल’ के अंतर्गत अंग्रेजी राज को मानवीय, उत्तरदायी और न्यायपूर्ण बनाने के लिए प्रार्थना, आवेदन और संवाद करने लगे। 1885 से 1906 तक यही सब चलता रहा। 1906 के बाद कांग्रेस का ‘नरम दल’ कमजोर पड़ने लगा और ‘गरम दल’ का प्रभुत्व बढ़ा।
बाल गंगाधार तिलक, बिपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय के साथ श्री अरविन्दो गरमदल के प्रमुख नेता बने। 1906 से 1920 तक गरम दल भारतीय राजनीति का केंद्र रहा। इसी दौरान 1909 में दो महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। वीर सावरकर लिखित ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857)’ और महात्मा गांधी द्वारा गुजराती में लिखित पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ और इसी का महात्मा गांधी द्वारा ही अंग्रेजी में किया गया अनुवाद।
दोनों पुस्तकों में कांग्रेस के गरम दल और नरम दल की दृष्टि से भारत में अंग्रेजी राज और इससे मुक्ति के उपाय पर विमर्श प्रस्तुत किया गया है। सावरकर को गरमदल का और महात्मा गांधी को नरम दल का तत्कालीन प्रतिनिधि माना गया था। सावरकर की पुस्तक 1857 पर केंद्रित है और वे गरम दल के समर्थक थे।
महात्मा गांधी ने 1857 की सीधी चर्चा तो नहीं की है लेकिन 1857-59 के संदर्भ को ध्यान में रखे बिना हिन्द स्वराज में वर्णित गरम दल के प्रतिनिधि ‘पाठक’ और नरमदल के प्रतिनिधि ‘संपादक’ के संवाद को ठीक से समझा नहीं जा सकता। ‘हिन्द स्वराज’ में पहली बार 1857 की असफल क्रांति को परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व के रूप में सभ्यतामूलक दृष्टि से देखा गया है।
महात्मा गांधी ने पारम्परिक भारतीय सभ्यता और आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता के संघर्ष का जो खाका प्रस्तुत किया है उसकी पहली ऐतिहासिक अभिव्यक्ति 1857 के संग्राम में ही हुई थी। 1757 (प्लासी) या 1764 (बक्सर) की हार को गांधी जी न तो हार मानते हैं (उन्होंने कहा कि हम अंग्रेजों से पराजित नहीं हुए हैं, हमने अंग्रेजों को भारत उपहार या दान के रूप में दिया है, वे हमारे अतिथि हैं), न वे इसे सभ्यतामूलक संघर्ष मानते हैं। 1857 को वे सभ्यतामूलक संघर्ष तो मानते हैं लेकिन उस संघर्ष की रणनीति (हिंसा का सहारा) को वे दोषपूर्ण मानते हैं।
जब वे पाठक को यह कहते हें कि ”अंग्रेज गोला-बारूद से पूरी तरह लैस हैं, उसे इससे डर नहीं लगता । परंतु हिन्दुस्तानियों के पास अंग्रेजों से लड़ने के लिए हथियार आएगा कहां से? और किस तरह? और अगर उनके हथियारों से उन्हीं के खिलाफ लड़ना हो तो इसमें कितने साल लगेंगे? और तमाम हिन्दुस्तानियों को हथियारों से लैस करना हो तो हिन्दुस्तान को भी यूरोप की सभ्यता अपनानी होगी।” इसका संदर्भ सीधे-सीधे 1857-59 का समर है।
गांधीजी की स्पष्ट मान्यता थी कि शिवाजी का गुरिल्ला युद्ध औरंगजेब को हराने के लिए भले कारगर रहा हो परंतु रामचंद्र पांडुरंग (तात्या टोपे) का गुरिल्ला युद्ध (19 जून 1858- 18 अप्रैल 1859) अंग्रेजों को हराने के लिए पर्याप्त नहीं था। गांधी जी  कहते हैं कि हर सभ्यता पर आफतें आती हैं। जो सभ्यता अचल है यानी जो सनातनी मूल्यों पर टिकी हुई है वह आखिरकार आफतों को दूर कर देती है।
हिन्दुस्तान की सभ्यता में कमी आ गई थी, इसलिए यह सभ्यता आफतों से घिर गई। लेकिन इस घेरे से छूटने की ताकत उसमें है। सारा हिन्दुस्तान गुलामी में घिरा हुआ नहीं है। जिन्होंने पश्चिमी शिक्षा पाई है और जो उसके पाश में फंस गए हैं, वे ही गुलामी में घिरे हुए हैं हमारा स्वराज हमारी हथेली में है। स्वराज का आधार संकल्प शक्ति एवं नैतिक बल है, न कि आर्थिक, राजनैतिक या सैनिक स्थिति।
अंग्रेजों को यहां लाने वाले हम लोग ही हैं और वे हमारी बदौलत ही यहां रहते हैं। जिस दिन एक देश के रूप में हिन्दुस्तान का स्वाभिमान जाग गया और हमने आधुनिक शैतानी सभ्यता का आकर्षण त्याग दिया उसी क्षण हमें आजादी मिल जाएगी। अंग्रेजों की सेना धरी की धरी रह जाएगी। उन्हें इस देश में रहने का कोई आधार ही नहीं बचेगा। और वे तो व्यापारी लोग हैं। व्यावसायिक नुकसान सहने का तो उनमें साहस ही नहीं है। बिना लोभ-लालच की प्रेरणा के वे कहीं भी कुछ नहीं करते। अत: हमें अंग्रेजों को नहीं, उनके स्वार्थ को नुकसान पहुंचाना चाहिए। हमें अंग्रेजों से नहीं, उनकी सभ्यता से नफरत करनी चाहिए।
गांधीजी की उपरोक्त दृष्टि अंग्रेजी राज के दौरान और अंग्रेजी राज से पहले के भारतीय इतिहास के तुलनात्मक अध्ययन की उपज थी। गांधीजी की रणनीति तत्कालीन भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता और किसानों तथा कारीगरों में जागरुकता की संभावना पर आधारित थी। वे इसी रणनीति को 1920 से 1947 के दौरान अपने अभियानों के माध्यम से परखते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता की सबसे पहली सभ्यतामूलक अभिव्यक्ति 1857 की क्रांति में दिखी। उस वक्त के ज्यादातर सिपाही किसान परिवारों से आए थे। समकालीन इतिहासकारों ने उन्हें ‘वर्दी वाले किसान’ के रूप में संबोधित भी किया है।
1857 की क्रांति का नेतृत्व न बहादुशाह जफर के हाथ में था, न नाना साहब के, न रानी झांसी के हाथ में था और न ही अवध की बेगम के हाथ में। जैसा कि शेखर बंद्योपाध्याय जैसे इतिहासकारों ने कहा है, यह पूरी तरह आम सैनिकों, किसानों, कारीगरों एवं सामान्य जन का विद्रोह था, जिसमें कुछ नवाबों, जागीरदारों एवं सेनापतियों ने भी भाग लिया था। यह अपने समय से पहले शुरू हुए जन आंदोलन का प्रारंभिक रूप था जो 1906 के स्वदेशी आंदोलन और तिलक महाराज के उत्सवों से होता हुआ महात्मा गांधी के आंदोलनों में परिपक्व होता गया। संविद सरकारों या गठबंधन की राजनीति के बीज 1857 की क्रांति में ही छिपे हुए हैं।
महात्मा गांधी के जाने के बाद भी 1967 से गठबंधन की राजनीति और संविद सरकारों के गैर उपनिवेशवादी प्रयोग लगातार होते रहे हैं। इस राजनीति की प्रेरणा 1857 की क्रांति में ही निहित है, लेकिन खुद 1857 की क्रांति को भक्ति आंदोलन की अभिव्यक्ति माना जा सकता है। भक्ति आंदोलन ने मध्यकालीन भारतीय समाज को राजनीतिक उथल-पुथल के जमाने में भी स्थिरता एवं गतिशीलता का संतुलन सिखलाया।
देसी भाषाओं को क्षेत्रीय संस्कृति का समर्थ वाहक बनाया तथा हिन्दू-मुस्लिम अखण्डता एवं छुआछूत जैसी कुप्रथाओं से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया। भक्ति आंदोलन ने ही क्षेत्रीय स्तर पर हुए सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप मराठों, जाटों, गूजरों, लिंगायतों, खत्रियों, सतनामियों, मुंडाओं और पिंडारियों जैसे समुदायों को नई ऊर्जा एवं नए उत्साह से भर दिया। भक्ति आंदोलन ने ही हैदर अली और टीपू सुलतान को श्रृंगेरी मठ एवं लिंगायत मठों से सहयोग करना सिखलाया।
भक्ति आंदोलन ने ही सिखों और मराठों में सांसारिक युक्ति का नया मंत्र भरा। यह भक्ति आंदोलन ही था जिसने 29 मार्च, 1857 और 10 मई 1857 के बीच ‘चपातियों’ की कूट भाषा में क्रांतिकारियों के बीच संदेशों का सांकेतिक आदान-प्रदान किया। आज भी ‘चपातियों का संदेश’ इतिहासकारों के लिए एक रहस्य बना हुआ है।
एक अर्थ में 1885 में कांग्रेस की स्थापना से शुरू हुआ स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों द्वारा नियोजित संग्राम था। यह 1857 की आत्मा का निषेध था। लेकिन 1906 के स्वदेशी आंदोलन से गाड़ी फिर पटरी पर आ गई। 1947 में देश का बंटवारा और 1947 से 1966 तक की भारतीय राजनीति 1857 की आत्मा का निषेध था, लेकिन 1967 से भारतीय राजनीति धीरे-धीरे पटरी पर आ रही है। भारतीय सभ्यता के अनुकूल राजनीति, विकेन्द्रित राजनीति और स्वदेशी अर्थव्यवस्था ही हो सकती है। भारतीय एकता का आधार सांस्कृतिक भौगोलिक कारकों में रहा है।
राजनैतिक एकता सांस्कृतिक एकता की अभिव्यक्ति रही है। भक्ति आंदोलन ने इसे संभव बनाया था। आज भी गठबंधन की राजनीति का सैद्धांतिक आधार भक्ति आंदोलन के सूत्रों को विकसित करके ही मिल सकता है। महात्मा गांधी इसको बखूबी समझते थे। ‘हिन्द स्वराज’ इसी समझ की उपज थी। 1857 की स्मृति का उत्सव मनाने के लिए इस सूत्र को समझना आवश्यक है।

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