स्वामी श्रद्धानंद बलिदान दिवस swami-shraddhanand-ji-balidan-diwas
परावर्तन के अग्रदूत #स्वामी_श्रद्धानन्द_जी का #बलिदान_दिवस / 23 दिसम्बर, 1926
भारत में आज जो मुसलमान हैं, उन सबके पूर्वज हिन्दू ही थे। उन्हें अपने पूर्वजों के पवित्र धर्म में वापस लाने का सर्वाधिक सफल प्रयास स्वामी श्रद्धानन्द ने किया। संन्यास से पूर्व उनका नाम मुंशीराम था। उनका जन्म 1856 में ग्राम तलबन (जिला जालन्धर, पंजाब) में एक पुलिस अधिकारी नानकचन्द जी के घर में हुआ था। 12 वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह हो गया।
बरेली में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द के प्रवचनों से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने अस्पृश्यता तथा जातीय भेदभाव के विरुद्ध प्रबल संघर्ष करते हुए अपनी पुत्री अमृतकला तथा पुत्रों पंडित हरिश्चन्द्र विद्यालंकार व पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति का अंतरजातीय विवाह किया।
1917 में संन्यास लेने पर उनका नाम स्वामी श्रद्धानन्द हो गया। स्वामी जी और गांधी जी एक दूसरे से बहुत प्रभावित थे। गांधी जी को सबसे पहले 'महात्मा' सम्बोधन स्वामी जी ने ही दिया था, जो उनके नाम के साथ जुड़ गया। 30 मार्च, 1919 को चाँदनी चौक, दिल्ली में रौलट एक्ट के विरुद्ध हुए सत्याग्रह का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानंद जी ने ही किया।
वहां सैनिकों ने सत्याग्रहियों पर लाठियाँ बरसायीं। इस पर स्वामी जी उनसे भिड़ गये। सैनिक अधिकारी ने उनका सीना छलनी कर देने की धमकी दी। इस पर स्वामी जी ने अपना सीना खोल दिया। सेना डर कर पीछे हट गयी।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें एक वर्ष चार माह की सजा दी गयी। जेल से आकर वे अछूतोद्धार तथा मुसलमानों के शुद्धिकरण में लग गये। 1924 में शुद्धि सभा की स्थापना कर उन्होंने 30,000 मुस्लिम (मलकाना राजपूतों) को फिर से हिन्दू बनाया।
इससे कठमुल्ले नाराज हो गये; पर स्वामी जी निर्भीकता से परावर्तन के काम में लगे रहे। 1924 में स्वामी जी 'अखिल भारत हिन्दू महासभा' के भी राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। मुसलमानों में देशप्रेम जगाने के लिए खिलाफत आन्दोलन के समय वे चार अपै्रल, 1919 को दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण देने गये।
स्वामी जी ने हरिद्वार के पास 21 मार्च, 1902 को होली के शुभ अवसर पर 'गुरुकुल कांगड़ी' की स्थापना की। इसके लिए नजीबाबाद (जिला बिजनौर, उ.प्र.) के चौधरी अमनसिंह ने 120 बीघे भूमि और 11,000 रु. दिये। इसकी व्यवस्था के लिए स्वामी श्रद्धानंद जी ने अपना घर बेच दिया और सर्वप्रथम अपने दोनों लड़कों को प्रवेश दिलवाया। उन्होंने जालन्धर और देहरादून में कन्या पाठशाला की भी स्थापना की।
'जलियाँवाला बाग नरसंहार' के बाद जब पंजाब में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन करने का निर्णय हुआ, तो भयवश कोई कांग्रेसी उसका स्वागताध्यक्ष बनने को तैयार नहीं था। ऐसे में स्वामी श्रद्धानन्द जी आगे आये और 1920 में अमृतसर में अधिवेशन हो सका। इसमें स्वामी जी ने हिन्दी में भाषण दिया। इससे पूर्व अधिवेशनों में अंग्रेजी में भाषण होते थे। इसी प्रकार भाई परमानन्द और लाला लाजपतराय जी निर्वासन के बाद जब स्वदेश लौटे, तो स्वामी जी ने लाहौर में उनका सम्मान जुलूस निकलवाया।
स्वामी जी द्वारा प्रारम्भ परावर्तन का कार्य क्रमशः पूरे देश में जोर पकड़ रहा था। भारत के मुस्लिमों में अपने देश, धर्म और पूर्वजों का अभिमान जाग्रत होते देख कुछ मुस्लिम नेताओं ने उनके विरुद्ध फतवा जारी कर दिया। 23 दिसम्बर, 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक कट्टरपन्थी युवक ने उनके सीने में तीन गोलियाँ उतार दीं। स्वामी जी के मुख से 'ओम्' की ध्वनि निकली और उन्होंने प्राण त्याग दिये।
भारत में आज जो मुसलमान हैं, उन सबके पूर्वज हिन्दू ही थे। उन्हें अपने पूर्वजों के पवित्र धर्म में वापस लाने का सर्वाधिक सफल प्रयास स्वामी श्रद्धानन्द ने किया। संन्यास से पूर्व उनका नाम मुंशीराम था। उनका जन्म 1856 में ग्राम तलबन (जिला जालन्धर, पंजाब) में एक पुलिस अधिकारी नानकचन्द जी के घर में हुआ था। 12 वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह हो गया।
बरेली में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द के प्रवचनों से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने अस्पृश्यता तथा जातीय भेदभाव के विरुद्ध प्रबल संघर्ष करते हुए अपनी पुत्री अमृतकला तथा पुत्रों पंडित हरिश्चन्द्र विद्यालंकार व पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति का अंतरजातीय विवाह किया।
1917 में संन्यास लेने पर उनका नाम स्वामी श्रद्धानन्द हो गया। स्वामी जी और गांधी जी एक दूसरे से बहुत प्रभावित थे। गांधी जी को सबसे पहले 'महात्मा' सम्बोधन स्वामी जी ने ही दिया था, जो उनके नाम के साथ जुड़ गया। 30 मार्च, 1919 को चाँदनी चौक, दिल्ली में रौलट एक्ट के विरुद्ध हुए सत्याग्रह का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानंद जी ने ही किया।
वहां सैनिकों ने सत्याग्रहियों पर लाठियाँ बरसायीं। इस पर स्वामी जी उनसे भिड़ गये। सैनिक अधिकारी ने उनका सीना छलनी कर देने की धमकी दी। इस पर स्वामी जी ने अपना सीना खोल दिया। सेना डर कर पीछे हट गयी।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें एक वर्ष चार माह की सजा दी गयी। जेल से आकर वे अछूतोद्धार तथा मुसलमानों के शुद्धिकरण में लग गये। 1924 में शुद्धि सभा की स्थापना कर उन्होंने 30,000 मुस्लिम (मलकाना राजपूतों) को फिर से हिन्दू बनाया।
इससे कठमुल्ले नाराज हो गये; पर स्वामी जी निर्भीकता से परावर्तन के काम में लगे रहे। 1924 में स्वामी जी 'अखिल भारत हिन्दू महासभा' के भी राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। मुसलमानों में देशप्रेम जगाने के लिए खिलाफत आन्दोलन के समय वे चार अपै्रल, 1919 को दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण देने गये।
स्वामी जी ने हरिद्वार के पास 21 मार्च, 1902 को होली के शुभ अवसर पर 'गुरुकुल कांगड़ी' की स्थापना की। इसके लिए नजीबाबाद (जिला बिजनौर, उ.प्र.) के चौधरी अमनसिंह ने 120 बीघे भूमि और 11,000 रु. दिये। इसकी व्यवस्था के लिए स्वामी श्रद्धानंद जी ने अपना घर बेच दिया और सर्वप्रथम अपने दोनों लड़कों को प्रवेश दिलवाया। उन्होंने जालन्धर और देहरादून में कन्या पाठशाला की भी स्थापना की।
'जलियाँवाला बाग नरसंहार' के बाद जब पंजाब में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन करने का निर्णय हुआ, तो भयवश कोई कांग्रेसी उसका स्वागताध्यक्ष बनने को तैयार नहीं था। ऐसे में स्वामी श्रद्धानन्द जी आगे आये और 1920 में अमृतसर में अधिवेशन हो सका। इसमें स्वामी जी ने हिन्दी में भाषण दिया। इससे पूर्व अधिवेशनों में अंग्रेजी में भाषण होते थे। इसी प्रकार भाई परमानन्द और लाला लाजपतराय जी निर्वासन के बाद जब स्वदेश लौटे, तो स्वामी जी ने लाहौर में उनका सम्मान जुलूस निकलवाया।
स्वामी जी द्वारा प्रारम्भ परावर्तन का कार्य क्रमशः पूरे देश में जोर पकड़ रहा था। भारत के मुस्लिमों में अपने देश, धर्म और पूर्वजों का अभिमान जाग्रत होते देख कुछ मुस्लिम नेताओं ने उनके विरुद्ध फतवा जारी कर दिया। 23 दिसम्बर, 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक कट्टरपन्थी युवक ने उनके सीने में तीन गोलियाँ उतार दीं। स्वामी जी के मुख से 'ओम्' की ध्वनि निकली और उन्होंने प्राण त्याग दिये।
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इतिहासकार डॉ. मंगाराम की पुस्तक ‘क्या गांधी महात्मा थे?’ के तथ्यों के प्रकाश में देखें तो गांधीजी को आर्य समाजियों से बेहद चिढ़ थी। डाक्टर साहब के अनुसार -‘‘गांधीजी ने आर्य समाज, सत्यार्थ प्रकाश, महर्षि दयानंद और स्वामी श्रद्धानंद की विभिन्न प्रकार से आलोचना की। गांधीजी ने कहा-‘‘स्वामी श्रद्धानंद पर भी लोग विश्वास नहीं करते हैं। मैं जानता हूँ कि उनकी तकरीरें ऐसी होती हैं जिनसे कई बार बहुतों को गुस्सा आता है। दयानंद सरस्वती को मैं बड़े आदर की दृष्टि से देखता हूँ, पर उन्होंने अपने हिन्दू-धर्म को संकुचित और तंग बना दिया है। आर्य समाज की बाइबिल ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को मैंने दो बार पढ़ा है। यह निराशा और मायूसी प्रदान करने वाली किताब है।’’
डॉ. मंगा राम ने पुस्तक में आगे लिखा है-‘‘स्वामी श्रद्धानंद को 23 दिसम्बर 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक युवक ने उस समय गोली से मार दिया, जब वे रुग्ण शैया पर पड़े हुए थे। गांधीजी ने स्वामीजी के हत्यारे को ‘प्यारे भाई रशीद’ कहकर सम्बोधित किया। उसके द्वारा की गयी जघन्य हत्या की निन्दा करने के स्थान पर उस हत्यारे के प्रति बरती गयी उदारता क्या गांधी जी की नैतिकता गिरावट को प्रकट नहीं करती? भले ही ब्रिटिश सरकार ने अब्दुल रशीद को फाँसी पर लटका दिया किन्तु उसको बचाने का प्रत्यत्न करने वाले वकील आसफअली गांधीजी के भक्त और कांग्रेस के नेता थे।
स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के समय गांधीजी कांग्रेस के 1926 के गोहाटी अधिवेशन में भाग ले रहे थे। जब उन्हें स्वामीजी की हत्या का समाचार मिला तो गांधीजी ने कहा-‘‘ऐसा तो होना ही था। अब आप शायद समझ गये होंगे कि किस कारण मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा है और मैं पुनः उसे भाई कहता हूँ। मैं तो उसे स्वामीजी का हत्या का दोषी नहीं मानता। वास्तव में दोषी तो वे हैं जिन्होंने एक-दूसरे के विरुद्ध घृणा फैलायी।’’
स्वामी श्रद्धानंद के अतिरिक्त प्रख्यात आर्य उपदेशक पं. लेखराम, दिल्ली के प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता लाल नानक चंद, महाशय राजपाल, सिन्ध के आर्य नेता नाथूरमल शर्मा आदि भी कट्टरपंथियों द्वारा मारे गये किन्तु गांधीजी ने इन आर्य विद्वानों और नेताओं की हत्या की निंदा में कभी भी कोई शब्द व्यक्त नहीं किया। जिस प्रकार स्वामी श्रद्धानंद जैसे मूर्धन्य नेता की हत्या किये जाने पर गांधीजी ने उनके हत्यारे अब्दुल रशीद की आलोचना नहीं की, उसी प्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या किये जाने पर भी उन्होंने हत्यारों की निंदा नहीं की।
कुल मिलाकर डॉ. मंगा राम अपनी पुस्तक ‘क्या गांधी महात्मा थे?’ के माध्यम से अंहिसा के पुजारी महात्मा गांधी की हिंसा को बल प्रदान करने वाली इस सोच के पीछे यह तर्क देते हैं कि-‘‘गांधीजी समझते थे कि मुस्लिम हत्यारों की निंदा करने पर उनकी वांछित हिन्दू-मुस्लिम एकता सम्भव नहीं हो पायेगी तथा उन्हें साम्प्रदायिक कहकर बदनाम किया जायेगा।
डॉ. मंगा राम ने पुस्तक में आगे लिखा है-‘‘स्वामी श्रद्धानंद को 23 दिसम्बर 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक युवक ने उस समय गोली से मार दिया, जब वे रुग्ण शैया पर पड़े हुए थे। गांधीजी ने स्वामीजी के हत्यारे को ‘प्यारे भाई रशीद’ कहकर सम्बोधित किया। उसके द्वारा की गयी जघन्य हत्या की निन्दा करने के स्थान पर उस हत्यारे के प्रति बरती गयी उदारता क्या गांधी जी की नैतिकता गिरावट को प्रकट नहीं करती? भले ही ब्रिटिश सरकार ने अब्दुल रशीद को फाँसी पर लटका दिया किन्तु उसको बचाने का प्रत्यत्न करने वाले वकील आसफअली गांधीजी के भक्त और कांग्रेस के नेता थे।
स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के समय गांधीजी कांग्रेस के 1926 के गोहाटी अधिवेशन में भाग ले रहे थे। जब उन्हें स्वामीजी की हत्या का समाचार मिला तो गांधीजी ने कहा-‘‘ऐसा तो होना ही था। अब आप शायद समझ गये होंगे कि किस कारण मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा है और मैं पुनः उसे भाई कहता हूँ। मैं तो उसे स्वामीजी का हत्या का दोषी नहीं मानता। वास्तव में दोषी तो वे हैं जिन्होंने एक-दूसरे के विरुद्ध घृणा फैलायी।’’
स्वामी श्रद्धानंद के अतिरिक्त प्रख्यात आर्य उपदेशक पं. लेखराम, दिल्ली के प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता लाल नानक चंद, महाशय राजपाल, सिन्ध के आर्य नेता नाथूरमल शर्मा आदि भी कट्टरपंथियों द्वारा मारे गये किन्तु गांधीजी ने इन आर्य विद्वानों और नेताओं की हत्या की निंदा में कभी भी कोई शब्द व्यक्त नहीं किया। जिस प्रकार स्वामी श्रद्धानंद जैसे मूर्धन्य नेता की हत्या किये जाने पर गांधीजी ने उनके हत्यारे अब्दुल रशीद की आलोचना नहीं की, उसी प्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या किये जाने पर भी उन्होंने हत्यारों की निंदा नहीं की।
कुल मिलाकर डॉ. मंगा राम अपनी पुस्तक ‘क्या गांधी महात्मा थे?’ के माध्यम से अंहिसा के पुजारी महात्मा गांधी की हिंसा को बल प्रदान करने वाली इस सोच के पीछे यह तर्क देते हैं कि-‘‘गांधीजी समझते थे कि मुस्लिम हत्यारों की निंदा करने पर उनकी वांछित हिन्दू-मुस्लिम एकता सम्भव नहीं हो पायेगी तथा उन्हें साम्प्रदायिक कहकर बदनाम किया जायेगा।
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स्वामी श्रद्धानंद बलिदान दिवस 23 दिसंबर
बलिदान दिवस विशेष- पूज्यनीय स्वामी श्रद्धानंद जी के हत्यारे और स्वतंत्र भारत के पहले आतंकी अब्दुल रशीद को गांधी ने कहा था - "भाई"
ये सब कुछ हुआ था तथाकथित सेकुलरिज्म के नाम पर और नही हुआ था इसका विरोध.
सेकुलरिज्म के नाम पर जो कुछ भी आज देखा और सुना जा रहा है उस से कभी वीभत्स रूपों का गवाह इतिहास रहा है. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ही शायद भारत के सबसे पहले आतंकी का नाम छिपाया गया और जो नहीं है उसको जबरन थोपने का प्रयास किया गया.. पर कहावत सत्य ही साबित हो रही है कि सत्य परेशान हो सकता है पर पराजित नहीं..
विदित हो कि बहुत कम लोगों को आज के इतिहास के बारे में जानकारी होगी .. ये वो इतिहास है जो बताने पर ही शायद धर्मनिरपेक्षता को ठेस पहुचना घोषित हो जाएगा पर सच ये है कि भटको को राह दिखाने वाले और घर वापसी का मार्ग प्रसस्त करने वाले स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या से ही हिन्दू विरोधियो को डराने का मार्ग प्रशस्त हुआ था.
ये एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई थी जिसमे हिन्दुओ को डराना और हिन्दुओ की सबसे मजबूत दीवाल को गिराने का प्रयास किया गया था.. एक आंतकी ने सरेआम स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या कर डाली और जहाँ उसका घोर विरोध होना था तो वहीँ उसको महिमामंडित कर डाला गया था. ये करने वाले कोई और नहीं खुद सेकुलरिज्म के जनक माने जाने वाले गांधी थे.
स्वामी जी की हत्या के दो दिन बाद अर्थात 25 दिसम्बर, 1926 को गोहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में जो कुछ कहा वह स्तब्ध करने वाला था. गांधी के शोक प्रस्ताव के उद्बोधन का एक उद्धरण इस प्रकार है "मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ.
मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ. वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना पैदा किया. इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है." यहाँ यह बताना आवश्यक है कि स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेछा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलखान राजपूतों को शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में वापसी कराई.
शासन की तरफ से कोई रोक नहीं लगाई गई थी जबकि ब्रिटिश काल था. हत्या का कारण कुछ भी हो, हत्या हत्या होती है, अच्छी या बुरी नहीं. अब्दुल रशीद को भाई मानते हुए उसे निर्दोष कहा. इतना ही नहीं गांधी ने अपने भाषण में कहा,". मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता..
हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए. मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ." उन्होंने आगे कहा कि "समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है. स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है.
"अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी ने कहा कि ".ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया. स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली विभाजन को मजबूत कर सकेगा." (यंग इण्डिया, दिसम्बर 30, 1926).
आज स्वामी जी के बलिदान दिवस पर जहाँ स्वामी जी को याद करने का दिन है तो वहीँ उनको भी सोचने का समय निकाल लेना चाहिए जिन्होंने आज के हिन्दू समाज के हालात की नीव कई वर्ष पहले रख दी थी. मंथन करने का भी समय निकाल ही लेना चाहिए कि किस ने देश के लिए कब कब और क्या क्या किया है.
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