निर्धन का धन भगवान,मत करो उनका अपमान !


निर्धन का धन भगवान,मत करो उनका अपमान !

निर्धन का सम्मान कीजिये -  युधिष्ठिर सिंह कौशिक

एक निर्धन व्यक्ति था। वह नित्य भगवान विष्णुजी और लक्ष्मीजी की पूजा करता था। एक बार जब दीपावली के दिन उसने भगवती लक्ष्मी की श्रद्धाभक्ति से पूजा अर्चना की, तो उसकी आराधना से लक्ष्मी प्रसन्न होकर उसके सामने प्रकट हुईं और उसे एक अंगूठी भेंट देकर अदृश्य हो गईं।

अंगूठी सामान्य नहीं थी। उसे पहनकर जैसे ही अगले दिन उसने धन पाने की कामना की तो उसके सामने धन का ढेर लग गया। वह ख़ुशी के मारे झूम उठा। इसी बीच उसे भूख लगी, तो मन में अच्छे पकवान खाने की इच्छा हुई। कुछ ही पल में उसके सामने पकवान आ गए।

अंगूठी का चमत्कार मालूम पड़ते ही उसने अपने लिए आलीशान बंगला, नौकर-चाकर आदि तमाम सुविधाएं प्राप्त कर लीं। 

वह भगवती लक्ष्मी की कृपा से प्राप्त उस अंगूठी के कारण अब सुख से रहने लगा। अब उसे किसी प्रकार का कोई दु:ख, कष्ट या चिंता नहीं थी। नगर में उसका बहुत नाम भी हो गया।

एक दिन उस नगर में जोरदार तूफ़ान के साथ बारिश होने लगी। कई निर्धन लोगों के मकानों के छप्पर उड़ गए। लोग इधर-उधर भागने लगे। 

तभी एक बुढ़िया उसके बंगले में आई। उसे देख वह व्यक्ति गरज कर बोला- 'ऐ बुढ़िया कहां चली आ रही है बिना पूछे।' बुढ़िया ने कहा, 'कुछ देर के लिए तुम्हारे यहां रहना चाहती हूं।' लेकिन उसने उसे बुरी तरह डांट-डपट दिया।

उस बुढ़िया ने कहा, 'मेरा कोई आसरा नहीं है। इतनी तेज बारिश में मैं कहां जाऊंगी? थोड़ी देर की ही तो बात है।'

लेकिन उसकी किसी भी बात का असर उस व्यक्ति पर नहीं पड़ा। जैसे ही सेवकों ने उसे द्वार से बाहर किया, वैसे ही जोरदार बिजली कौंधी।

देखते ही देखते उस व्यक्ति का मकान जलकर खाक़ हो गया। उसके हाथों की अंगूठी भी गायब हो गई। सारा वैभव पल भर में राख के ढेर में बदल गया।

उसने आंख खोल कर जब देखा, तो सामने लक्ष्मीजी खड़ी थीं। जो बुढ़िया कुछ देर पहले उसके सामने दीन-हीन होकर गिड़गिड़ा रही थीं, वही अब लक्ष्मीजी के रूप में उसके सामने मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं।

वह समझ गया उसने बुढ़िया को नहीं, साक्षात लक्ष्मीजी को घर से निकाल दिया था। वह भगवती के चरणों में गिर पड़ा। देवी बोलीं, 'तुम इस योग्य नहीं हो। जहां निर्धनों का सम्मान नहीं होता, मैं वहां निवास नहीं कर सकती।'

यह कहकर लक्ष्मीजी उसकी आंखों से ओझल हो गईं।
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मान, सम्मान, बहुमान और अपमान - मुनिश्री प्रमाणसागर जी
मैंने देखा- एक अंगीठी सुलग रही थी। लाल-लाल अंगारे उसमें दमक रहे थे। इसी मध्य एक अंगार के मन में ख्याल आया कि जब मैं इतना कान्तिमान, इतना द्युतिमान हूँ। मुझमें इतनी आभा, प्रकाश और तेज है तो मैं इस अंगीठी में क्यों रहूँ? और इसी विचार से क्या था, थोड़ी ही देर में उस अंगारे की चमक, कान्ति फीकी पड़ने लगी। उसके ऊपर राख की परत जमने लगी। देखते ही देखते उसका दम घुट गया और मुँह काला हो गया। जो अभी तक अपनी कान्ति को बिखेर रहा था अब वह कालिमा से ग्रस्त हो गया। बंधुओं! आज के संदर्भ में ये बात बहुत उपयोगी है। जब तक वह अंगारा अगौटी में था तब तक उसमें चमक थी, दमक थी, कांति थी, प्रकाश था और आभा भी थी पर जैसे ही वह अंगीठी से अलग हुआ उसकी सारी शोभा, उसका सौंदर्य, उसकी चमक फीकी पड़ गई |

सन्त कहते हैं यदि अपने जीवन की शोभा को बढ़ाना चाहते ही अपने जीवन की चमक को वृद्धिगत करना चाहते हो तो साथ रहने का अभ्यास करो। अकड़ने की कोशिश कभी मत करो। एक है समष्टि एक है व्यष्टि। अगर हम अपने आपकी ही सोचते हैं तो हम अपनी क्षमताओं को सीमित करना शुरु कर देते हैं और अपने साथ औरों के विषय में भी सोचने लगते हैं तो हमारी क्षमताएँ बडने लगती हैं। आज मार्दव धर्म का दिन है।मृदोभवि: मार्दवम्। मृदुता के भाव का नाम मार्दव है जो हमारे अंदर के अहं के विसर्जन के बाद प्रकट होता है। अहम् नहीं हम का भाव

ये अहं क्या है। थोड़ा इसे समझे। जिस अहं के अभाव में हमारे भीतर की मृदुता प्रकट होती है वह अहं क्या है। अपने आप को सच्चा और अपने आप को अच्छा मानने की वृत्ति, अपने ही विषय में सोचने की वृत्ति, अपने ही आप को प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति ये सब अहं है।

मनुष्य के मन में जब तक 'मैं' भरी रहेगी तब तक वह अपना उत्थान नहीं कर सकता। संत कहते हैं- जिस मनुष्य के हृदय में जो अपने अहं को विसर्जित कर लेता है उसकी चेतना का उत्थान होने लगता है। आज मैं आप से चार बाते कहना चाहता हूँ। वैसे देखा जाए तो दस लक्षण धमों में से प्रारम्भ के चार धर्म हमारी चार कषायों के अभाव में प्रकट होने वाले गुण के रूप में होते हैं। कल हमने क्षमा की चर्चा की थी जो क्रोध के अभाव में प्रकट होती है। आज मार्दव धर्म की चर्चा है जो मान के अभाव में प्रकट होता है।

हम समझें ये मार्दव है क्या? चार बातें और उस संदर्भ में आज की उपयोगी चर्चा। मान, सम्मान, बहुमान और अपमान। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसके मन में मान न हो। हर व्यक्ति के भीतर मान है। बिना मान के कोई जीता नहीं। कर्म शास्त्र की भाषा में अगर हम बात करें तो मनुष्य के अंदर सबसे ज्यादा मान की बहुलता होती है। क्रोध मान माया लोभ ये चार कषाय हैं। इनमें से नारकियों में क्रोध की बहुलता होती है। मनुष्यों में मान की, तिर्यच्चों में माया की और देवों में लोभ की। मान है तो सबके अन्दर पर हीनाधि क रूप में हो सकता है। मान चाहते भी सब हैं पर मैं आप से कहता हूँ कि मान की एक सीमा बांधे कि मान क्या है? आप उसे कितना जिएँ और कितना त्यागें ये आज हमें समझना है।

संत कहते हैं- मान से बचो। मान का मतलब है अपने अंदर अतिरिक्त समान की चाहत जिसे गर्व, घमण्ड और मद के रूप में जाना जाता है। ऐसा व्यक्ति जिसके मन में ऐसा विचार आता है अपने आप को श्रेष्ठ बनाने और बताने की जिसके अंदर प्रवृत्ति होती है वह मान का अविकसित रूप है।

लोग आपका आदर करे, सत्कार करे, सम्मान करे, वहे अलग बात लेकिन लोग मुझे ही आदर दें, मुझे ही सम्मान दें, मेरा ही सत्कार करें -ये अलग बात। लोग आपको अच्छा मानें ये अलग बात पर मैं ही अच्छा हूँ ये अलग बात। लोग आपको श्रेष्ठ बताएँ अलग बात पर मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं ये अलग बात। आज बचना है मान के उस विकृत रूप से जो मनुष्य को सबसे अलग-थलग कर देता है। वह क्या है? अपने आप को ऊँचा मानने की प्रवृत्ति बाकी सबको ओछा साबित करने की दृष्टि -ये मान का एक बड़ा विकृत रूप है।

अपने अंदर झाँककर देखो कि ऐसा कोई मान आपके भीतर जो नहीं है जिसे दूसरे शब्दों में गुमान भी कहा जाता है। मुझसे अच्छा इस दुनिया में कोई नहीं यदि ये परिणति है तो समझ लेना दुम धर्म को क्षेत्र से बहुत दूर हो।

सन्त कहते है जो अपने आप को बड़ा मानता है परमार्थ की निगाह में वह सबसे छोटा होता है। बड़ा मानने से कोई बड़ा नहीं होता; बडप्पन के कार्य करने से ही इंसान बड़ा होता है। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि ये मत सोचो कि मैं सबसे बड़ा हूँ ऐसा कुछ करो कि दुनिया खुद तुम्हें बड़ा मानने को तैयार हो जाए। मानी (मान से युक्त) व्यक्ति की प्रवृत्ति कुछ अलग प्रकार की होती है। उसके मन में ऐसी लालसा और ललक होती है कि सारी दुनिया मुझे अपने सिर पर बैठाए।

सन्त कहते है जो दुनिया के सिर पर बैठने की चाहत रखते हैं दुनिया उन्हें पाँव तले रौद डालती है। दुनिया के सिर पर बैठने की कोशिश करने की जगह ऐसे कर्म करो कि लोग तुम्हें सिर पर बैठाने के लिए लालायित हो उठे। किसी के सिर पर बैठने की कोशिश करोगे तो नियमत: दबा दिए जाओगे और उच्च आचरण करोगे तो दुनिया तुम्हें अपने आप सिर पर बैठा लेगी। जो अपने कार्य करता है दुनिया उसे कभी भूलती नहीं।

अच्छा कर्म करो परिणाम अपने आप अच्छा मिलेगा। मान मत करो माननीय बनने का यत्न करो। तुम्हारे अंदर कितनी भी अच्छाई हो, कितने भी गुण हों, कितनी भी शक्ति और साधन हो कभी भी उनका मान मत करो क्योंकि तुम्हारी अच्छाईयाँ, तुम्हारे गुण, तुम्हारी शक्ति और तुम्हारे साधन मान करने लायक हैं ही नहीं।

किनका मान करते हो आप? मेरे पास पैसा है इसका मान, मेरा रूप है इसका मान, मेरे पास शक्ति है इसका मान, मेरी प्रतिष्ठा है इसका मान, अगर साधक जीवन हो गया तो मैं बड़ा तपस्वी हूँ इसका मान, थोड़ा ज्ञान पा लिया तो मैं ज्ञानी हूँ इसका मान? यही न मान के रूप और आधार हैं?

पैसे का मान करते हो? पैसा किसी के भी साथ स्थायी नहीं रहा। आज तक किसी की सम्पदा किसी के साथ स्थायी नहीं रही। चक्रवर्तियों को भी इस दुनिया से खाली हाथ जाना पड़ा। तुम किसका मान करते हो? ये तो कर्म के उदय से अनुकूल संयोग तुम्हें मिले हैं इसलिए ये सब तुम्हारे पास है। जब तक कर्म की अनुकूलता है जब तक ये सब चीजें हैं। जिस दिन कर्म करवट बदलेगा सब "क-दफा हो जाएगा। टायर के अंदर जब तक हवा भरी रहती है जब तक वह बजन उठाने में समर्थ होता है। 50-50 टन तक का वजन उठाने में ट्रक का टायर समर्थ रहता है। लेकिन कब तक? जब तक उसमें हवा हो। टायर वजन उठाते समय यह भ्रम पाल ने कि मैं कितना ताकतवर हूँ, इतना-इतना वजन उठाने की क्षमता = पास है तो इसे टायर का भ्रम ही कहा जाएगा क्योंकि वजन टायर अपने दम पर नहीं उठा पा रहा है वह तभी उठा रहा है जब तक कि उसमें हवा है।

बंधुओं मैं भी आपसे कहता हूँ तुम्हारे ठाट-बाट तभी तक हैं जब तक अनुकूल संयोंगों की हवा है। हवा बदलते ही तुम्हारी हवा डिस्क जाएगी। कब किसके साथ क्या हो जाए इसका कोई भरोसा नही है जो इस सच्चाई को जानते हैं वे कभी मान नहीं करते हैं।

 मान करने योग्य है ही नहीं। किसका मान करूं? जिसका मैं मान करता हूँ वह मेरा है ही नहीं। ये सब कर्म के संयोग से प्राप्त परिणतियाँ हैं जो तुम्हें प्राप्त हुई; तुम उनका मान करते हो। ये मान करने योग्य ही नहीं है। इसमें किसी प्रकार का मान करना भी नहीं चाहिए |

अहम से मान
एक बार कागज का एक टुकड़ा हवा के वेग से उड़ा और चवत के शिखर पर जा पहुँचा। पर्वत ने उसका आत्मीय स्वागत किया और कहा- भाई! यहाँ कैसे पधारे? कागज ने कहा- अपने दन पर। जैसे ही कागज ने अकड़कर कहा अपने दम पर और तभी डवा का एक दूसरा झोंका आया और कागज को उड़ा ले गया। अगले ही पल वह कागज नाली में गिरकर गल-सड़ गया। बन्धुओं जो दशा एक कागज की है वही दशा तुम्हारी है। पुण्य की अनुकूल वायु का वेग आता है तो तुम्हें शिखर पर पहुँचा देता है और पाप का झोंका आता है तो रसातल पर पहुँचा देता है।

किसका मान? किसका गुमान? संत कहते हैं जीवन की सच्चाई को समझो। संसार के सारे संयोग मेरे अधीन नहीं हैं। कर्म के अधीन हैं और कर्म कब केसा करवट बदल ले भरोसा नहीं। इसलिए कर्माधीन परिस्थितियों का मान केसा?

मान अज्ञानता की पहचान है। जिसके हृदय में अज्ञान होता है वही मान करता है। जो वास्तविकता जानता है वह कहता है किसका मान करूं? राजा को रंक और रंक को राजा बनते, करोड़पति को रोड़पति और रोड़पति को करोड़पति बनते, पंडित को पागल और मूर्ख को पंडित बनते, रूपवान को कुरूप और कुरूप को रूपवान बनते देर नहीं लगती। ये दुनिया है, पल-पल बदलती है। कब किसके साथ क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता। कब किसकी लॉटरी खुले और कब किसकी लुटिया डूबे कोई गारंटी नहीं। खेल है। चक्र है, चल रहा है। तुम किसका अभिमान करते ही दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो वैभव के शिखर पर पहुँचे पर फिर भी वह उनके साथ नहीं रहा। उन्हें अपने जीवन में दुर्दिनों का सामना करना पड़ा। जिन्होंने खूब अच्छा रूप पाया लेकिन वे भी विद्रुप हो गए।

मानव के जीवन में बहुत सारी चीजें होती है। आज मुझे चार बाते करनी हैं। पहली बात जिन संयोंगों के कारण आप मान करते हो उनमें मान करने जैसा कुछ भी नहीं और जो आज स्वयं को बड़ा मान रहे हो कल छोटा बनने में देर नहीं लगेगी। जो आज तुम्हें छोटा दिखाई पड़ रहा है कल वह तुमसे भी उच्च बन सकता है।

सड़क के किनारे एक पत्थर पड़ा था। पत्थर के बगल में गुलाब का फूल था, गुलाब का फूल हमेशा उस पत्थर का उपहास करता, मजाक करता- तुम्हारी भी क्या जिंदगी है, तुम्हें कोई पूछता भी नहीं। बस एक जगह ठहर कर ही रह गए हो। ज्यादा से ज्यादा लोग तुम पर आकर बैठ जाते हैं। इसके अलावा तुम्हारा कोई उपयोग नहीं। गुलाब की बात सुनकर पत्थर मन मसोसकर रह जाता। एक दिन एक राहगीर की नजर उस पत्थर पर पड़ी। वह राहगीर एक शिल्पी था। उसने उस पत्थर की सलीके से निकाला, अपने घर लाया और घर लाकर उसे तरासना शुरू कर दिया। तरासते-तरासते उसे सुंदर प्रतिमा का रूप प्रदान कर दिया। उस भव्य प्रतिमा में भगवान का रूप मानकर उसने अपने पूजा घर में उसे विराजमान किया। अगले दिन जब पूजा के लिए भगवान के चरणों में जो फूल-चढ़ाया गया वह वही फूल था जो कुछ दिन पहले तक उस पत्थर का उपहास कर रहा था। पत्थर की प्रतिमा ने उस फूल को देखा तो मुस्कुराकर रह गई। बंधुओं! यह कहानी, हर एक इंसान की कहानी है।

जो आज एक अनाथ है नर-नाथ कल होता वही।
जो आज उत्सव मग्न है कल शोक कर रोता वही।

जितने भी संयोग हैं वे सभी नश्वर हैं। रूपवान कुरूप बन सकता है, धनवान निर्धन बन सकता है, और जिसका रसूख है, साख है, रुतबा है ऐसा नामचीन व्यक्ति भी गुमनामी का शिकार बन सकता है। यह सब कर्म का खेल है। किस पर भरोसा और किसका मद? ये तुम्हारे अज्ञानता की पहचान है।

दो मित्र थे। एक बहुत गोरा और रूपवान था तथा दूसरा काला और कुरूप था। दोनो के स्वभाव में भी बड़ा अंतर था। जो सुंदर गोरा था वह बड़ा अभिमानी था और जो काला था वह बड़ा विनम्र था। गोरा जब भी काले से मिलता तो उसका उपहास करता, मजाक उड़ाता और कभी उसका वास्तविक नाम लेकर भी नहीं बुलाता। हमेशा कालिया-कालिया कहकर पुकारता। लेकिन काला गोरे की सब बातों को बहुत सहज भाव से स्वीकार कर लेता। दोनों में परस्पर विरुद्ध विचार होने के बाद भी दोनों की मित्रता चलती रही। इस मित्रता का मूल कारण काले की विनम्रता थी। लेकिन एक दिन गोरे ने काले से कहा कि तुम मेरे साथ मत रहा करो। बोला क्यों? क्योंकि तुम मेरे साथ रहते हो तो मेरा सौंदर्य प्रभावित हो जाता है। तुम बड़े कुरूप हो। मेरे साथ मत रहा करो।

गोरे की बात सुनकर काले ने जो बात कही वह बहुत गम्भीर और महत्वपूर्ण है। उसने कहा- भाई ठीक कहते हो, यदि मेरे और तुम्हारे साथ रहने से तुम्हारा सौंदर्य प्रभावित होता है तो मैं ऐसा नहीं करूंगा। अब अलग रहा करूंगा। लेकिन एक बात मुझे समझ नहीं आती तुम कहते हो कि मैं तुम्हारे साथ रहता हूँ तो तुम्हारा सौंदर्य बिगड़ता है जबकि मेरी धारणा ये है कि मेरे तुम्हारे साथ रहने से तुम्हारा सौंदर्य और निखरता ही है। अपितु तुम मेरे साथ रहो तो मेरा सौंदर्य बिगड़ सकता है। गोरा तमतमा गया। ये क्या बकते हो? बदसूरत सी शकल और ऊपर से मुँह लड़ाते हो। शर्म नहीं आती। उसने कहा ऐसी बात नहीं है। दरअसल बात ये है कि तुम्हारे गोरे बदन पर मेरे शरीर का एक छोटा सा कण भी लग जाएगा तो तिल बनकर तुम्हारा सौंदर्य निखार देगा लेकिन तुम्हारे गोरे शरीर का एक कण मेरे काले शरीर में लग जाए तो कोढ़ बनकर मेरे सारे सौंदर्य को नष्ट कर देगा।

बंधुओं बात बहुत सोचने की है। ये गोरा-काला चलता रहता है। किसका मद करना? कर्म के संयोग को समझने वाले व्यक्ति के मन में मान नहीं होता। दूसरी बात मान करने वाला सदैव अज्ञानी होता है। आप जिस किसी भी चीज का मान करते हो वह बाह्य संयोगों का मान है। ये अज्ञानता की ही तो पहचान है। ये तो ठीक वैसा है जैसे किसी व्यक्ति ने किसी से कहा कि भैया ये मेरा पस पकड़ी; मैं अभी पूजा में बैठ रहा हूँ जब आऊँगा तो वापिस लौटा बात मान लो उसने उसमें कुछ बहुमूल्य जेवर और कुछ रुपए रखे | दस-बीस लाख रुपए उस आदमी को सम्हालने के लिए मिले था किन्तु वह तो अपने आप को उसका मालिक मान बैठा और अभिमान करने लगा कि मेरे पास इतना माल है। उस आदमी को आप क्या कहोगे जो ऐसा सौच कर अभीमान करने लगे कि देखो मेरे पास इतना धन है, मेरे पास इतना पैसा है, मेरे था ये साधन हैं। उस व्यक्ति को आप पैसे वाला बोलोगे या मूर्ख बोलोगे |

कहा है वह मुर्ख? वह मुर्ख कौन है? तुम्हारे पास जो भी दौलत है जितनी भी शोहरत है और तुम्हारी जो ये सेहत है किसने दी? या बाह तुम्हारी है? किसकी है? ईमानदारी से बोलो तो ये सब था कम की धरोहर है। किसी की धरोहर को अपना मानकर उस या वाचमान करना कौन सी बुद्धिमत्ता है? यह अज्ञानता का परिचय जो बुरा तो नहीं लगेगा?

अपनी मुर्खता पर तनिक विचार करो। अपनी अज्ञानता के बारे बाचो इस नादानी पर सोचो। ये नादानी जिस मनुष्य के मन या बाइनो है वह कभी अपने जीवन का कल्याण नहीं कर सकता। याजक पदार्थ कर्म के संयोग हैं, पुण्य की धरोहर हैं और नश्वर ड को भी नष्ट हो जाने वाले हैं। संसार में देखें तो मुझसे भी बाड-बड़े लोग बैठे हैं, मैं तो बहुत छोटा हूँ यदि ये बात तुम्हारे या में आ जाए तो तुम्हारे मन में कभी मान प्रकट नहीं होगा।

चार बातों से मान का शमन होता है। संसार के सभी संयोगों कर्मायत(कर्म को अधीन) मानो, संसार को सभी संयोगो कर्म को धरोहर मानो संसार के सारे संयोगों को नश्वर मानो और या ने पास जो है उसे अपने से अधिक वालों से मिलाकर देखो जी तो समझ में आएगा कि औरों के सामने तो मैं बहुत कम हूँ। मेरे पास कितना सा धन है? इस दुनिया में मुझसे बड़े-बड़े धनवान चक्रवर्ती जैसे आए और चले गए। मेरा क्या रूप है? मुझसे भी बड़े-बड़े रूपवान इस दुनिया में आकर चले गए और आज भी रहते हैं। मेरे पास ज्ञान का कितना सा अंश है? मुझसे भी बड़े-बडे ज्ञानवान इस दुनिया में हैं। मैं जितना मशहूर हूँ उससे भी ज्यादा प्रतिष्ठित लोग इस दुनिया में हैं। मेरा जितना नाम है उससे ज्यादा नामचीन लोग इस दुनिया में हैं। मुझे तो बहुत थोड़े लोग जानते हैं, दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जिनको सारे लोग जानते हैं पर दुनिया कितना भी जाने और कितना भी पहचाने कोई सदा के लिए टिकने वाला नहीं है। यदि चार बातों को ध्यान में रखोगे तो मन में कभी मान नहीं आएगा।

बंधुओं! मान से बचिए। मान व्यक्ति के रग-रग में भरा हुआ है। मान का ही एक विरोधी पक्ष है जिसको बोलते है दीनता। मान और दीनता दोनों मन के विकार हैं। न मान करो, न अभिमान करो और न ही दीनता का भाव मन में आने दो। अभिमान मनुष्य की सोच को संकीर्ण बनाता है और दीनता के कारण मनुष्य के मन में हीन भावना आती है। अभिमानी व्यक्ति दूसरों का अनादर और तिरस्कार करता है तथा दीन-हीन व्यक्ति अपने आप में बहुत हीन-भावना से ग्रसित हो जाता है। मनोविज्ञान की भाषा में दो शब्द हैं- सुपीरियारिटी कॉम्प्लेक्स और इन्फीरियारिटी कॉम्प्लेक्स। ये कॉम्प्लेक्सही ग्रंथियाँ हैं। शाखा ग्रंथि और राघव ग्रंथि। सुपीरियारिटी का भाव ही अभिमान है और इन्फीरियारिटी का भाव ही दीनता है। दोनों खतरनाक हैं।

तुम सोचो धन का मद उन्हें होता है जिनके पास धन है; तो निर्धन को मद रहित होना चाहिए। उनके अंदर मार्दव धर्म आ जाना चाहिए। ज्ञान का मद उन्हें होता है जिनके पास ज्ञान है तो फिर अज्ञानियों को मद होना ही नहीं चाहिए। ज्ञान का मद ज्ञान से होता है या अज्ञान से होता है? सच्चे अर्थों में ज्ञानी को मद नहीं होता अज्ञानी ही मद करता है। ये हीन भावना भी एक प्रकार की नकारात्मक विचारधारा है। जो मनुष्य को अंदर से कमजोर करती है। इससे भी अपने आप को बचाकर रखना चाहिए।
 
व्यक्ति के पास दो आँखें होती हैं। किसी की आँखे ऐसी होती हैं जो पास का देखती हैं दूर का नहीं देख पातीं और किसी की आँखे ऐसी होती हैं जो केवल दूर का देखती हैं पास का नहीं देख पातीं। मैं समझता हूँ अभिमानी की आँखे पास का देखती हैं दूर का नहीं देख पातीं। वह खुद को देखता है और अपने आस-पास की दुनिया को नहीं देख पाता। जो आत्मविमुग्धता में जीता रहता है वह अभिमानी है। दीन व्यक्ति की आँखें केवल दूर का देखती हैं पास का नहीं देख पातीं। उसे दूसरे लोगों की चीज दिखती है, दूसरे लोगों की सफलताएँ दिखती हैं, अपने अतीत की बातें दिखती हैं, अपने भविष्य की बातें दिखती हैं, वर्तमान की नहीं दिखतीं इसलिए वह हीनता की ग्रंथि से ग्रसित हो जाता है।
मार्दव धर्म को प्राप्त करने का मतलब अपनी आँख में एक का भी दिखा सके और पास का भी दिखा सके। जब आत्मविमुग्ध ता की भावना आए तो औरों को देखकर विचार करो कि उनके आगे मैं बहुत छोटा हूँ और जब मन में हीनता की भावना आने लगे तो अपने भीतर के गुणों को देखो मैं तो अनंतगुणों का धाम हूँ पर मैं नश्वर हूँ। मुझमें कोई अंतर नहीं है तथा मैं समान हूँ। आपके अंदर की हीनता की ग्रंथि भी खत्म होगी और अभिमान भी नष्ट होगा। मान मत करो। जब-जब मान करोगे तो दुखी होगे। मानवजीवन के दु:ख का कारण मान ही है। मनुष्य अपने मान के कारण ज्यादा दुखी होता है।

अब मैं आपसे कह रहा हूँ मान की सीमा कितनी बड़ी होती है। जो चार बातें अभी मैंने आपसे कहीं यदि आप उन्हें विचारपूर्वक अपने हृदय में स्थापित कर लोगे तो मन शांत होगा। फिर भी यदि आपके अंदर मान है तो मान को सीमित करो। मान के लिए एक शब्द चल पड़ा 'ईगो'(अह) हर बात में ईगो प्रॉब्लम्। सभी व्यक्तियों के बीच ईगो प्रॉब्लम् आ जाती है।

सन्त कहते हैं ईगो प्रॉब्लम् नहीं, ईगो ही प्रॉब्लम् है। छोटी-छोटी बातों पर मन में जो प्रॉब्लम् आती है वह ईगो के कारण आती है। मैं आपको कुछ सीमा बाँधने के लिए कहता हूँ। जिस जगह आपके संबंध खराब होने लगें वहाँ अपने मान की तिलांजलि देना शुरु कर दी। संबंध खराब हों इससे अच्छा है आप अपने मान को तिलान्जलि दे दो। पिता–पुत्र की बात हो, पति-पत्नी की बात हो, भाई-भाई की बात हो और अड़ोसी-पड़ोसी की बात हो, समाज में किसी भी व्यक्ति की बात ही आप उसकी शांत करो। क्या करें? मनुष्य के मन की दुर्बलता है। कोई बात हो जाए तो हम कैसे कहें? हम नहीं कह सकते। व्यक्ति खोटा बनने को तैयार है पर छोटा बनना नहीं चाहता। मैं कैसे कहूँ ये बात छोड़ी। अगर कहीं कुछ गड़बड़ है तो तुरंत उसका समाधान निकाल लो, संबंध खराब मत करो। अपने थोड़े से मान की पुष्टि के पीछे अपने संबंध बिगाड़ रहे हो तो समझ लो अपने जीवन को बर्बाद कर रहे हो। जिनसे मेरे संबंध हैं उनके आगे मैं मान को आड़े नहीं आने दूँगा। यदि मुझे अपने मान को विसर्जित करना पड़े तो मैं विसर्जित करूंगा पर अपने संबंध बिगाड़ने की कोशिश नहीं करूंगा।

महाराज! ऐसा करने में बड़ी तकलीफ होती है। एक पति-पत्नी थे। संयोग ऐसा कि पत्नी का पैकेज ज्यादा था पति का पैकेज कम। जब दोनों जॉब वाले, नौकरी पेशा वाले हों तो उन लोगों की हालत बड़ी खराब हो जाती है। पति-पत्नी का सम्बन्ध नितांन भावात्मक सम्बन्ध होना चाहिए। लेकिन वहाँ दोनों के बीच पैसा आ गया।

पत्नी कुछ इगोइस्ट(घमण्डी) हो गई। कोई भी बात हो तो कहती मैं तुमसे कम थोड़ी हूँ। वह पत्नी हमेशा अपने पति को कमतर औाँकने की कोशिश करती पर पति ऐसा था कि वह अपने आपको कभी भी कम साबित नहीं होने देता, सदा पत्नी पर हावी रहने की कोशिश करता। एक बार किसी मुद्दे पर दोनों के बीच में बड़ी तकरार हो गई और तकरार ऐसी हुई कि दोनों की बातचीत तक बंद हो गई।

दोनों धार्मिक थे। एक दिन पति ने एकांत में मुझसे कहा- महाराज जी! आप थोड़ा मेरी धर्मपत्नी को समझाओ कि पत्नी का धर्म क्या होता है। मैंने कहा- भैया! ये तेरा धर्म नहीं की तुम मुझसे अपनी पत्नी की शिकायत करो। तुम कहते हो पत्नी का धर्म क्या होता है। मैं तो तुम्हें अभी तुम्हारा धर्म समझाता हूँ कि पति का धर्म क्या होता है। पहला धर्म तो पति का यह है कि पत्नी की शिकायत किसी के पास न करे और तू मेरे पास आया है कि पत्नी का धर्म बताओ क्या बात है?

महाराज! हर चीज में बहस करती है और जो मन में आए बोल देती है। कुछ दिनों से जब वह इस तरह की बातें ज्यादा करने लगी तो मैंने बात करना बंद कर दिया। मैंने कहा- भैया! समाध न करो, आपस में बात करो। पति-पत्नी हो, जिंदगी भर लड़ने के लिए थोड़ी न शादी किए हो, जीवन को अच्छे से जीने के लिए शादी किए हो, आपस में निभाओ। बोला- महाराज! मैं सोचता तो हूँ पर मन में ये बात आ जाती है कि मैं क्यों जाऊँ वह आ जाए। मैं बोला- अशांत तुम ज्यादा हो कि वह? बोला- महाराज! वह तो बड़ी मस्त दिखती है, अशांति मुझे होती है। महाराज! क्या करूं बहुत सारे काम ऐसे हैं जो उसके बिना होते ही नहीं हैं। मैंने कहातो जाकर बात कर ली। बोला महाराज! मैं क्यों जाऊँ उसके पास? हमने कहा- समाधान चाहिए तुझे और आए वह। ये कैसे होगा? मैंने उसे समझाया- एक बात बताओ यदि कोई जेबकतरा तुम्हारी जेब काट ले तो समाधान के लिए तुम जेबकतरे के पास जाओगे कि उल्टा जेबकतरा तुम्हारे पास आएगा। क्या करोगे आप? जेबकतरे के पास भागोगे कि जेबकतरा आपके पास आएगा। जिसे समाधान चाहिए उसे सामने वाले के पास जाना चाहिए। मैंने उसे समझाया और कहा- जाओ जाकर अपनी धर्म पत्नी से क्षमा माँगों और कही गुस्से में मैंने जो कुछ कह दिया सो कह दिया। ठीक है तुम्हारी सैलरी(तनख्वाह) अधिक है, तुम्हारा पैकेज अधिक है और तुम मेरा बहुत ध्यान भी रखती हो। मैं आज से तुम्हें श्रेष्ठता प्रदान करता हूँ और अपनी लघुता को स्वीकार करता हूँ।

काम हो सकता है पर बहुत कठिन है। अहंकार साधना के लिए तैयार हो जाएगा पर समर्पण के लिए तैयार नहीं होता। महाराज! आप कोई व्रत उपवास बता दी, कोई नियम दे दो वह हम निभा लेंगे लेकिन सामने वाले के आगे झुकेंगे नहीं। झुकना बहुत मुश्किल है। ध्यान रखना झुकोगे तो मजबूत बनोगे और अकड़ोगे तो टूट जाओगे।

जहाँ संबंध खराब होने लगें वहाँ अपने अभिमान को गौण कर दो। लेकिन क्या करें 'मैं' तो आज कल बच्चे-बच्चे में भरा पड़ा है। छोटा सा बच्चा भी बड़ा इगोइस्ट(घमण्डी) होता है। उसके मन के विरुद्ध कुछ कर दो तो देखो बच्चा कैसे पैतरा बदलता है। एक बच्चा अचानक रोना शुरु कर दिया और रोया तो माँ ने पूछा- बेटा क्यों रो रहे हो? बोला मैं गिर गया था। कब गिरा था? 9 बजे। तो अभी क्यों रो रहे हो? बच्चा बोला- उस समय कोई देखने वाला नहीं था। बच्चा तभी रोता है जब कोई देखने वाला होता है।

ये मान बहुत खतरनाक होता है। इससे अपने आप को बचाना चाहिए। जहाँ मन की शांति भंग होने लगे वहाँ अहंकार की पुष्टि मत करो। धर्म का कार्य जहाँ करना हो वहाँ अहंकार को पुष्ट मत करो। यदि सम्बन्धों में खलल आए तो अहकार को तिलांजलि दे दो, मन की शांति खण्डित होने लगे तो अहकार को तिलांजलि दे दी, धर्म कार्य में बाधा आने लगे तो अहकार को तिलांजलि दे दो। यदि इन तीन जगह में आप अपने अहम की पुष्टि बंद कर दोगे तो आपके जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन घटित हो सकता है।

हम से सम्मान
पहली बात कभी मान न करें। दूसरा है सम्मान। सम्मान मतलब आदर। क्या करें मार्दव धर्म कहता है औरों का सम्मान करो, खुद सम्मान की चाह मत करो। दूसरों का सम्मान करना मतलब आदर करना, विनय करना। यदि कोई तुमसे छोटा भी हो पर किसी तरह किसी गुण में तुमसे श्रेष्ठ है तो विनम्र बन जाओ, उसका सम्मान करो, उसका सत्कार करो, उसका आदर करो। जो महान लोग होते हैं वे खुद का कभी मान नहीं करते। चाहे कितने ऊँचे क्यों न हो जाएँ पर दूसरों का सदैव सम्मान करते हैं। सम्मान करना विनम्रता की पहचान है। जो एक अच्छे मनुष्य के भीतर अनिवार्यत: होती है।

मान नहीं करना और सम्मान में पीछे नहीं हटना। खुद का सम्मान नहीं चाहना, औरों का सम्मान करना। ध्यान रखना सम्मान देने वाला खुद सम्मानित हो जाता है लेकिन सम्मान की चाह रखने वाले को कोई नहीं चाहता। अत: गुणवानों का सम्मान करो। किसी के अंदर कोई गुण है तो उसका आदर करो, उसका सत्कार करो, उसे प्रोत्साहित करो चाहे वह छोटा हो तो और बड़ा हो तो। दूसरों को श्रेय देने की आदत अपनाइए। दूसरों को क्रेडिट(श्रेय) देने का स्वभाव बनाइए। अहकारी व्यक्ति कभी किसी को श्रेय नहीं दे सकता। वह सारा श्रेय अपने ऊपर लेना चाहता है। कभी-कभी तो उसकी स्थिति बड़ी हास्यास्पद हो जाती है। अहम को पुष्ट करने के लिए तरह-तरह कर लेता है।

एक पिता अपने बेटे के साथ माउंट आबू गया। दोनों सनसेट पॉइन्ट पर थे। सूरज डूबने ही वाला था। पिता बड़ा अभिमानी था उसने अपने चार साल के बेटे से कहा- बेटा! देख मेरी ताकत देखना चाहता है? बेटा बोला- दिखाइए न पापा। मेरी ताकत देखना चाहता है न? देख सामने सूरज है न, अभी मैं उससे कहूँगा डूब जाओ तो सूरज डूब जाएगा। बेटे को बड़ा अच्छा लगा मेरे पिता जी इतने शक्तिसम्पन्न हैं कि सूरज को भी डुबा सकते हैं। वह बोला- पापा करके बताओ। सूरज डूबने वाला था, पिता ने दूर से कहा 'go dwon' और इतना कहते ही सूरज डूब गया। पिता ने बड़े अभिमान से अकड़ते हुए कहा- बेटा देख ली मेरी ताकत। बेटे ने कहा हाँ पापा बहोत अछि ताकत है Please ones again, Please Try ones again दुबारा करके बताओ। अब पिता क्या बताए? सब धरा रह गया।

इसलिए कभी भी अभिमान मत करो और सम्मान में कभी चूक मत करो। छोटा बच्चा हो या बड़ा व्यक्ति यदि किसी में कोई गुण है तो उस गुण का मूल्यांकन करो, किसी के द्वारा कोई भी अच्छाई दिखती है तो उसका क्रेडिट उसको दो। क्रेडिट खुद मत लो हमेशा दूसरों को दी। श्रेय लेने वाले को कोई नहीं पूछता और श्रेय देने वाले के सब कायल हो जाते हैं।

मैं एक स्थान पर था। वहाँ के एक प्रमुख कार्यकर्ता की एक बड़ी अच्छी विशेषता देखी कि वह छोटे से छोटे कार्यकर्ताओं को लेकर हमारे पास आते, परिचय कराते और कहते महाराज ये आदमी बहुत अच्छा काम करता है। प्रोत्साहन और श्रेय देते और कहते ये काम इसके द्वारा हुआ, ये काम इसके द्वारा हुआ और ये काम इसके द्वारा हुआ। यद्यपि सबको पता है कि सब कार्यों में केन्द्रीय भूमिका किसकी है लेकिन वह सारा क्रेडिट(श्रेय) औरों को बांटता।

औरों को बांटने का नतीजा ये निकलता कि उन सबकी क्रेडिट इस अकेले को मिल जाती। जो बाँटता है वह पा जाता है और जो बटोरता है उसका सब लूट लिया जाता है। अत: क्रेडिट देना सीखिए घर परिवार से लेकर समाज तक। आपके परिवार में चार सदस्य हैं। मानता हूँ परिवार के संचालन में तुम्हारी केन्द्रीय भूमिका होगी लेकिन कितनी भी कोन्द्रीय भूमिका हो, कितनी भी बडी भूमिका क्यों न हो, उस भूमिका के मध्य भी आप इतने मतवाले मत बनिए कि जो कुछ हूँ सो मैं ही हूँ। जो कुछ हूँ सो मैं ही हूँ ये अज्ञान है। 'मैं' के साथ 'भी' लग जाए तो ज्ञान होगा। मैं नहीं तुम भी।

मैं तो बहुत छोटा हूँ और लोग भी हैं, मुझे सबको देखना है और सबके साथ चलना है। ये परिणति अपने अंदर होनी चाहिए। यदि आप दूसरों को श्रेय बाँटोगे तो लोग आपके कायल बनेंगे, आपके प्रशंसक बनेंगे। और यदि सारा श्रेय खुद लूटने की कोशिश करोगे तो लोग कहेंगे बड़ा विचित्र आदमी है, करते हम हैं और माला खुद पहनते हैं।

जीवन में ऐसा काम करो कि लोग तुम्हें माला पहनाने के लिए पागल हो जाएँ। ध्यान से सुनना जीवन में ऐसा काम करो कि लोग तुम्हें माला पहनाने के लिए पागल हो उठे पर ऐसा काम कभी मत करो कि लोग तुम्हें माला पहनाएँ। लोग मुझे माला पहनाएँ इस भाव से काम कभी मत करो ऐसा काम कर दो कि लोग पागल हो उठे माला पहनाने को। बहुत अंतर है। माला पहनने की चाह रखोगे तो लोग माला भी पहनाएँगे और गाली भी देंगे। दूसरों को श्रेय देने वाले को खुद श्रेय मिलता है और सारा श्रेय खुद ले लेने वाले लोग प्राय: आलोचना के पात्र बनते हैं।

एक स्थान पर चातुर्मास चल रहा था। चातुर्मास में बहुत सारे कार्यकर्ताओं की जरूरत पड़ती है। यहाँ भी पूरी टीम लगी हुई है, सैकड़ों लोग लगे हुए हैं तब ये सारी व्यवस्था है। नजर में तो दो-चार लोग ही आ रहे हैं। ये मत सोचना कि जो दो चार लोग सामने नजर आ रहे हैं उनके बलबूते सारा काम हो रहा है। मार्गदर्शन उनका है, उनकी केन्द्रीय भूमिका है लेकिन बहुत सारे लोग मिलते हैं तब कोई कार्य सम्पन्न होता है। उस स्थान की चातुर्मास कमेटी के अध्यक्ष के मन में एक भावना जगी कि मुझे इस चातुर्मास में सम्मानित किया जाए। दरअसल वह किसी जगह गए थे तो वहाँ देखा कि वहाँ के मुख्य व्यक्ति ने बहुत अच्छा काम किया तो वहाँ की पूरी स्थानीय समाज ने मिलकर उनका बहुमान किया, सम्मान किया। उसे देखकर एक भावना उनके मन में आ गई कि मेरा भी सम्मान होना चाहिए।

जिसको सम्मान की चाह है वह बहुत बड़ा मानी है। मानी की दो पहचान हैं- जो सम्मान की चाह करे वह मानी और जो थोड़ा भी अपमान बर्दाश्त न कर सके वह भी मानी। सम्मान की चाह रखने वाला मानी है। उनके मन में यह चाहत थी। अब वह चाहे कि यहाँ भी वैसा ही एक कार्यक्रम हो पर अपने मुँह से कैसे कहें? अपने एक साथी से कहा कि महाराज से कहो कि ऐसा कार्यक्रम यहाँ रखा जाए। मैं देखता था कि इस आदमी में क्या दुर्बलता है। इस कार्यक्रम की यहाँ आवश्यकता नहीं क्यों कि यह व्यक्ति उस लायक नहीं है इसलिए मैंने बात टाल दी। तीन-चार दिन बाद पिच्छी परिवर्तन का कार्यक्रम था। वह आदमी चाहता था कि उस आयोजन में मेरा सम्मान हो। अब तो उसने खुद ही आकर बोल दिया। मान में आदमी को शर्म नहीं लगती। जिसको मान की चाह होती है वह अपना अपमान खुद करवा लेता है। और बोलते-बोलते बोल दिया महाराज लोग मुझे बहुत चाहते हैं। आप अभी हमको जानते नहीं हैं। मैंने कहा- अभी तक तो नहीं जानता था पर आज जान गया। आपको कार्यक्रम कराने की इच्छा है करा लीजिए पर मेरा सोचना तो ये था कि आप आयोजक हैं; आपको पहले औरों को श्रेय देना चाहिए, औरों का सम्मान कराना चाहिए और फिर उस दिन इतना समय नहीं रहेगा इसलिए फिर किसी दिन ऐसा आयोजन करके अपने सारे कार्यकर्ताओं का सम्मान करो, तुम सम्मान दो; सम्मान लो मत। बात जैंची नहीं और उन्होंने येन-केन उपायेन अपना कार्यक्रम जुड़वा लिया। मैं भी न्यूट्रल (तटस्थ) हो गया। आप सुनकर ताजुब्ब करोगे दस हजार लोगों की उपस्थिति में उस व्यक्ति का सम्मान किया गया पर एक आदमी ने भी उस व्यक्ति के सम्मान में ताली नहीं बजाई। अब बताओ ये सम्मान था कि अपमान?

सम्मान करोगे सम्मानित होओगे। सम्मान चाहोगे अपमानित होना पड़ेगा। सूत्र अपने जीवन में ले लो- श्रेय बाँटोगे तो तुम्हें भी श्रेय मिलेगा और सारा श्रेय खुद लेने का प्रयास करोगे तो सब चला जाएगा। सीख लो आज से चाहे समाज की बात हो या घर परिवार की परिवार में अगर कोई काम हो तो में कुछ नहीं करने वाला करने वाला तो ये है | चाहे तुम्हारे भाई बंदु हो, चाहे तुम्हारे बेटे हो, चाहे तुम्हारी बहु हो, चाहे तुम्हारी बेटी हो, चाहे कोई भी हो | इनने किया में तो बस पीछे रहा , श्रेय दुसरो को दो देखो कितना मजा आता है | सामने ओ का तुम्हारे प्रति द्रष्टिकोण ही बदल जायेगा और सब र लोगे तू वो लोग र्तुम्हारे सामने कुछ नहीं बोले पर पिट पीछे कोसने में चुकेंगे नहीं बन्दुओ मेने कहा मान कभी नहीं करना, सम्मान की अपेक्षा मत करना और ओरो के सम्मान में कभी पीछे नहीं रहेना |

करी विनय बहुगुण बड़े जन की
नम्बर तीन बहुमान। मान सम्मान बहुमान। बहुमान का मतलब उत्कृष्ट आदर, सर्वोच्च विनय। बहुमान किनका, गुरुजनों का, माता-पिता का और जिन्होंने जीवन में तुम्हें आश्रय दिया उनका। इन तीन का पूर्णत: बहुमान करो, सपने में भी इनका अनादर न हो ऐसी प्रतिज्ञा मन में रखो ये बहुमान है। क्योंकि उनका तुम्हारे जीवन पर बड़ा उपकार है। माँ-बाप नहीं होते तो आज तुम्हारे जीवन में जो कुछ भी है वह होता? तुम चाहे कितने भी ऊँचे क्यों न बन जाओ माँ-बाप को कभी मत भूलना, सदैव उनका बहुमान करना क्योंकि बच्चा चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए माँ-बाप के सामने तो बच्चा ही है। उनका बहुमान करो, उन्हें कभी भूलों मत, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट मत होने दो और अपने जीवन में होने वाली बड़ी से बड़ी उपलब्धि को भी उनके चरणों में अर्पित करते हुए यह कहो- ये आपकी कृपा से मुझे मिला है। ये आपके आशीर्वाद का फल है। आप आशीर्वाद दें कि मैं ऐसे ही आपके नाम को रोशन करता चलें। ये बहुमान का भाव माँ-बाप के प्रति है। अपने अंदर भाव जगाओ जिसने तुम्हें आश्रय दिया, जिसके निमित से तुमने व्यापार किया, कारोबार किया, अपने परिवार को चलाने में सक्षम कितने भी बड़े क्यों न बन जाओ।

मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जो आज अरबपतियों में शुमार हैं। एक दिन वह व्यक्ति एक व्यक्ति को मेरे पास लाए और कहामहाराज जी! मेरे पिता जी इनके पिता जी के यहाँ नौकरी करते थे, इनका बड़ा उपकार है हमारे परिवार। पर हम लोग देश से यहाँ आए; अगर इनका परिवार नहीं होता तो आज हमारे पास कुछ भी नहीं होता। आज अरबपति बना हुआ है और जिस व्यक्ति से मेरा परिचय करा रहा है उस व्यक्ति की साधारण सी हालत। आज वह खुद नोकरी कर रहा है लेकिन सामने वाला अपना बड़प्पन दिखाते हुए कहे रहा है की महाराज हमारे पिताजी ने इनके यहाँ नोकरी करते हुए अपने कैरियर की शुरुआत की थी। आज हम जो कुछ भी हैं इनकी बदौलत हैं। की बात तो जाने दो अगर तुम्हारा कोई सगा भी होगा और यदि वह कमजोर हो गया तो बहुमान करने की बात तो बहुत दूर है, पहचानने में भी तुम पीछे हट जाओगे। बहुमान करो उनका जिनका तुम्हारे जीवन के निर्माण में किचित भी योगदान है। ये हमारा धर्म है। ये हमारा कर्तव्य है। ऐसी भावना हृदय में विकसित होनी चाहिए।

गुरुजनों का बहुमान। गुरुओं का बहुमान क्या है? उनकी जय-जयकार करो, उनकी पूजा करो, उनकी भक्ति करो, उनके आगे-पीछे फिरो? गुरु का ये बहुमान नहीं है। ये बड़ा उथला बहुमान है, ऊपरी बहुमान है। गुरु का सच्चा बहुमान ये है कि गुरु के द्वारा दिए गए निर्देशों के विरुद्ध कोई आचरण मत करो। ये है गुरु का सच्चा बहुमान। तुम्हारे मन में गुरु के प्रति बहुमान है तो हमेशा इस बात का मन में भाव होना चाहिए कि मैं कोई काम करूं और बात गुरु के पास पहुँचे तो उनको अच्छा न लगे ऐसा काम मैं नहीं करूंगा। मेरे किसी कृत्य से मेरे गुरु को कोई तकलीफ हो ऐसा कोई भी काम मैं नहीं करूंगा। ऐसा कोई काम नहीं करूंगा कि मेरे गुरु के पास जाकर किसी को कहना पड़े कि वह व्यक्ति आपका बहुत भक्त बनता है न, वह ऐसा काम कर रहा है।

मैं एक स्थान पर था। दिन में शादी, दिन में भोज का कार्यक्रम घोषित किया गया। पूरी समाज ने दिन में शादी, दिन में भोज, सारे वैवाहिक कार्यक्रम दिन में सम्पन्न करने का निर्णय लिया। निर्णय के एक माह बाद मैं बगल के गाँव में था जिसकी अध्यक्षता में ये सारा कार्यक्रम सम्पन्न हुआ उसके पोते का जन्मदिन था और उसने रात्रि-भोज दिया। कार्ड बंट गए। मेरे पास एक युवक आया। उसने कहा- महाराज! आपने इतना अच्छा नियम बनवाया और पूरे समाज में इसको लेकर बहुत अच्छी प्रतिक्रिया है। लेकिन महाराज जी! शायद आपने सुना होगा, नहीं सुना हो तो ये कार्ड मैं आपको दिखा रहा हूँ देखिए ये अध्यक्ष जी आपके बड़े भक्त माने जाते हैं, उनके घर का कार्यक्रम है। वह अपने बेटे के जन्मदिन पर रात्रि में भोज दे रहे है। मैंने कार्ड पढ़ा। मुझे थोड़ा अचम्भा हुआ कि ऐसा होना तो नहीं चाहिए पर मैं देख रहा हूँ। संयोगत: थोड़ी देर बाद वह सज्जन मेरे पास आए। मैंने उस कार्ड को उनकी तरफ रखते हुए कहा- ये कार्ड तुमने छपवाए? जी महाराज छपवाए तो हैं। तो क्या तुम्हारे यहाँ ऐसा आयोजन है? दोनों हाथ जोड़कर बोले महाराज! आयोजन तो था पर अब नहीं होगा। मैंने पूछा- बात क्या है? बोले महाराज जी! बिल्कुल सही बात है। पोते के जन्मदिन का कार्यक्रम था और बेटा माना नहीं। उसने कार्ड छपा लिए मुझे तो बाद में मालूम पड़ा। पोते और बेटे, दोनों ने यही कहा कि विवाह के भोज के लिए प्रतिबंध है जन्मदिन के लिए थोड़ी है। इसलिए ये कार्य कर लेंगे। लेकिन महाराज जी! ये बात आप तक पहुँच जाएगी मुझे इसकी कल्पना भी नहीं थी। मैं आज आपके पास आया हूँ जिस कार्य से मेरे गुरु को तकलीफ हो वह कार्य मैं सपने में भी नहीं करूंगा। ये कार्ड निरस्त करता हूँ।

पाँच दिन बाद कार्यक्रम था। उस व्यक्ति ने कहा कि मैं प्रेस विज्ञप्ति जारी करके अखबारों में विज्ञापन देकर इस कार्यक्रम को चेंज करूंगा(बदलेंगा)। कार्यक्रमस्थल बदल दिया, उसका समय बदल दिया और सफलता पूर्वक उनका आयोजन सम्पन्न हो गया। ये होता है गुरु का बहुमान। मुझे कहना भी नहीं पड़ा केवल उन्हें कार्ड दिखाना पडा। मैंने केवल इतना ही कहा कि ये आपका कार्ड है और इस कार्ड को अभी एक युवा लेकर आया है। तुम सोच लो तुम्हें क्या करना है। पल में परिवर्तन कर दिया। गुरु के प्रति तुम्हारे मन में बहुमान होगा तो एक इशारे पर जान देने को तैयार हो जाओगे और गुरु के प्रति तुम्हारे मन में सच्चा बहुमान नहीं होगा तो इधर से सुनोगे उधर से निकाल दोगे। कर कुछ भी नहीं पाओगे। गुरु को मानो या न मानो पर गुरु की जरूर मानो, उनका सच्चा बहुमान करो। यही तुम्हारे जीवन के गौरव को बढ़ाने वाला है। मान बिल्कुल मत करो। सम्मान औरों को दो और बहुमान उनका करो जिन्होंने तुम्हारे जीवन का निर्माण किया। चाहे माता-पिता हों या जीविका–दाता हो या गुरु हो।

महाभारत के वृक्ष उगे अपमान के छींटो से

चौथी बात अपमान किसी का मत करो। जीवन में कभी किसी का अपमान मत करो। तुम किसी का सम्मान न कर सको, चलेगा लेकिन कभी किसी का अपमान मत करो क्योंकि कोई मनुष्य एक बार अपमानित हो जाता है तो गांठ बाँध लेता है बैर की, विरोध की और फिर प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की भावना से झुलस कर वह सर्वनाश करने पर उतारू हो जाता है। दुर्योधन थोड़ी देर के लिए अपमानित हुआ महाभारत मच गया।

वह महाभारत तो कुरुक्षेत्र की भूमि में लड़ा गया। अठारह दिन में खत्म हो गया। उसका जो अंजाम था लोगों ने एक बार देख लिया और भोग लिया पर तुम अपने इस प्रकार के व्यवहार के कारण रोज अपने घर में कितनी बार महाभारत मचाते ही इसका कुछ अंदाज है। तय करो हम किसी को अपमानित नहीं करेंगे। किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे जिससे सामने वाला तिरस्कृत, अनादृत, उपेक्षित या अपमानित महसूस करे।

मनुष्य कब अपने आप को अपमानित महसूस करता है। जब उसकी संवेदनाओं पर गहरा आघात पहुँचता है। बड़े पद पर हैं लेकिन उनकी प्रवृत्ति में विनम्रता झलकती है, ऐसे लोग नौकर-चाकरों से भी जी लगाकर बोलते हैं। बंधुओं भद्रपुरुष की पहचान यही होती है। जिसकी भाषा में नम्रता और व्यवहार में विनम्रता हो वह व्यक्ति भद्र व्यक्ति कहलाता है। वह व्यक्ति किसी का भी अपमान नहीं करता। और जो भी व्यक्ति मिलता है उसका सम्मान करता है। अपमान से बचो और सम्मान में लगी। ये तुम्हारे जीवन का सबसे अच्छा सूत्र है। कभी किसी का अपमान मत करो और यदि कोई तुम्हारा अपमान कर भी दे तो अपने आप को अपमानित महसूस मत करो। लेकिन लोग हैं जो अपने आप को बड़ा मानते हैं, दूसरे को अपमानित करने में ही स्वयं को गौरवान्वित समझते हैं।

पिता अपने बेटे को पीट रहा था। गुस्से में गालियाँ देते हुए बोला- बेटा मैं तुझे इसलिए पीट रहा हूँ क्योंकि मेरे मन में तेरे प्रति प्रेम है। बेटे ने कहा अच्छा पापा आपके पिता जी ने भी आपको पीटा था? बोले हाँ तभी तो अच्छा हूँ। अच्छा पिता जी के पिताजी ने भी पीटा था? बोले हाँ और उनके पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी ने भी उनको पीटा था? बोले हाँ, उनने भी पीटा था। कहते-कहते सात पीढ़ी तक चला गया। बाद में पिता ने पूछा- बेटा इतने दूर तक जाने की क्या जरूरत पडी? बोले पापा मैं तो यह देखना चाहता हूँ कि हमारे खानदान में गुण्डागर्दी कब से चली आ रही है।

बंधुओं! ये प्रवृत्ति बड़ी ओछी प्रवृत्ति है। इससे अपने आपको बचाना चाहिए। मानी व्यक्ति की एक बड़ी विचित्रता होती है। अपमान होने पर वह अपमानित महसूस न करे ये बहुत दूर की बात है, कोई उसे समुचित सम्मान न दे तो भी वह अपना अपमान मान लेता है। एक कार्यक्रम में चार व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाए और चार व्यक्तियों को सम्मान करते हुए तीन को माला पहना दी जाए और चौथे को केवल टीका लगाकर अलग कर दिया जाए तो उसे टीका करवाने की खुशी नहीं होती, मुझे माला नहीं पहनाई गई इसका कष्ट होता है। किसी के अपमान का कोई भाव नहीं है, हो सकता है व्यवस्था की कमी हो। व्यवस्था तीन की थी और आ गए चार। अब चौथी माला नहीं है। इरादतन आपके साथ ऐसा नहीं किया गया लेकिन फिर भी व्यक्ति उसे अपना अपमान मान लेता है। किसी को बुला लिया गया और बुलाने के बाद उससे कमतर व्यक्ति को पहले बुलाकर सम्मान कर दिया गया और उससे बड़े आदमी को बाद में बुलाया गया, वह उसको ही अपना अपमान मान लेता है। अरे मेरे को उसके बाद बुलाया। पहले तो बुलाया नहीं किसी ने ध्यान दिलाया तो बुलाया।

एक जगह की बात है विमल जी संचालन कर रहे थे। बड़ा कार्यक्रम था। एक महानुभाव आए। देखो मानी को सदैव अपनी उपस्थिति का एहसास कराना पड़ता है। एक समाज के भारी भरकम तथाकथित बड़े आदमी आए। अच्छा आपके सामने मैं प्रश्न उपस्थित करूं आप बड़ा आदमी किसे मानते हो? बड़ा आदमी शब्द सुनते ही आपकी ऑखों के सामने एक ऐसे व्यक्ति की छवि उभरेगी जिसका बड़ा रुतबा है, जिसके पास खूब रुपया-पैसा है, बड़े ठाट-बाट हों, हाई प्रोफाईल(बड़े नाम वाले), शो कार्ड व्यक्ति को आप बड़े आदमी की निगाह से देखते हो। ठीक है न? मेरी दृष्टि में बड़ा आदमी वह नहीं है। बड़ा आदमी कौन? एक लाइन मैं बता दूँ बड़ा आदमी वह जिसके पास जाने के बाद सामने वाला अपने आप को छोटा महसूस न करे तो समझ लो वह बड़ा आदमी है। समझ में नहीं आया? जिसके पास खड़े होने के बाद तुम्हें ऐसा न लगे कि मैं छोटा हूँ समझ लो वह बड़ा आदमी है और जिसके पास जाने के बाद तुम्हें ऐसा लगे कि मैं छोटा आदमी हूँ तो समझ लेना वह रसूखदार व्यक्ति है पर उसके भीतर रस नहीं है क्योंकि बड़ा आदमी सबकी कद्र करना जानता है। छोटे को भी बड़प्पन देता है। छोटे का भी बहुमान करता है, सत्कार करता है।

कार्यक्रम चल रहा था एक महाशय थोड़े लेट आए। लेट आने के बाद उन्होंने अपनी पूरी विरुदावली लिखकर एक पचीं भेजी कि मुझे बुलाया जाए। कार्यक्रम बहुत टाइट था। विमल जी पचीं लेकर मेरे पास आए, महाराज जी अमुक महानुभाव आए हैं क्या करना है? समय भी चाहते हैं। कार्यक्रम टाइट था मैंने कहा सीधे-सीध नाम लेकर बुलवा लो और कुछ नहीं करना। जैसे सब कर रहे हैं श्री फल चढ़ा लें। इन्होंने बुला लिया। अब विमल जी को तो मुझे फालो करना है(मेरी बात माननी है)। जो महाराज कहेंगे वही करना है। अब इस बात को सामने वाले ने अपनी इन्सल्ट(बेइज्जती) मान ली। अरे! हमको महत्व नहीं दिया गया। हमको सामान्य रूप से बुलाया गया जैसे और लोगों को बुलाया जाता है। क्या मैं कोई साधारण आदमी हूँ? क्या मुझे पहचानते नहीं हो? मैं कमरे में था विमल जी से बातचीत चल रही थी। मैं अन्दर आवाज सुन रहा था मैंने बुला लिया, अंदर आओ। आज तक मैं भी तुम्हें नहीं पहचानता था आज अच्छे से पहचान गया। क्या है ये? मान है। इससे अपने आपको बचाओ। तुम्हारा कहीं अपमान नहीं किया जा रहा है पर तुमने अपने मन में सम्मान की इतनी अधिक अपेक्षा पाल रखी है कि अपने आप को अपमानित महसूस कर रहे हो। बड़ी गड़बड़ियाँ होती हैं ऐसे अभिमानियों के साथ।

एक बड़ा अभिमानी आदमी था। एक जगह पंगत में गया। भोजन में पापड़ परोसने का नम्बर आया। पापड परोसते-परोसते जब उसकी थाल में पापड परोसने का नम्बर आया तब एक टूटा हुआ पापड बचा तो परोसने वाले ने वही परोस दिया। अगला (व्यक्ति) पापड़ परोसकर चला गया। इस आदमी ने इसे अपना अपमान मान लिया। हूँ. मुझे टूटा हुआ पापड़ परोसा और सबको साबुत। क्या समझता है मेरे को? मैं इस अपमान का बदला लेकर रहूँगा। वहाँ से चला गया। अब दिमाग लगाया कैसे इससे बदला लिया जाए।

एक दिन उसने अपने घर में भोज दिया। तीस हजार रुपया कर्जा लेकर। कर्जा लिया, भोज दिया, भोज में सबको बुलाया। गाँव भर के लोग आए जब पापड़ परोसने की बारी आई तो खुद अपने हाथ से पापड़ परोसने लगा। पापड़ परोसते-परोसते जब उस आदमी का नम्बर आया तो उसको तोडकर पापड़ दे दिया। सामने वाला सहज भाव से पापड़ खाने लगा जब देखा इसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की तो कुछ क्षण रुककर कहा- बस आज हिसाब चुकता हो गया। तुमने मुझे टूटा पापड़ देकर मेरा अपमान किया था आज मैंने तुम्हें टूटा पापड़ देकर अपने अपमान का बदला ले लिया।

उस व्यक्ति ने अपना सिर पकड़ लिया और बोला- भैया! मुझे तो पता ही नहीं कि मैंने तुम्हें कब टूटा पापड़ दिया लेकिन मेरे टूटे पापड़ से तुम्हारा अपमान हुआ मुझसे कह देते मैं उसी दिन क्षमा मांग लेता, इतनी सारी मशक्कत करने की क्या जरूरत थी। ये परिणति है मनुष्य की। अपने आपको ऐसी परिणतियों से बचाने की कोशिश कीजिए। अपमान किसी का कीजिए मत, अपने आपको कभी अपमानित मत होने दीजिए। कोई अपमान करे तो सहन करो और कदाचित उचित सम्मान न मिले तो भी इसे अपमान मत मानो क्योंकि ये प्रवृत्ति सिवाय अशांति के और कुछ भी नहीं देने वाली।

आज मार्दव धर्म के संदर्भ में चार बातों को याद रखना है। मान करना नहीं। सम्मान औरों को देना। जिनका मेरे जीवन पर उपकार है, जिनका मेरे जीवन के निर्माण में योगदान है उनका बहुमान करना तथा अपमान किसी का नहीं करना और खुद को कभी अपमानित महसूस नहीं करना। यदि ये बातें जीवन में घटित हो गई तो समझ लेना आपका ये मार्दव धर्म सार्थक हो गया।


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