चीन को ललकारते भारत को, हमेशा चीन के विरूद्ध तैयार रहना होगा - अरविन्द सिसौदिया Challenging China, India will always

 Challenging China, India will always

चीन को ललकारते भारत को, हमेशा चीन के विरूद्ध तैयार रहना होगा . अरविन्द सिसौदिया

हाल ही में दिसम्बर 2022 माह में भारत के विद्वान विदेश मंत्री एस जयशंकर के चीन को उसका आईना
साइप्रस के लारनाका में भारतीय प्रवासियों के साथ अपनी बातचीत के दौरान और  संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में दिखाया है। भारत - चीन के लगभग 70 वर्ष से अधिक के इतिहास में चीन को जवाब देनें का साहस और साफ साफ तौर अपनी बात कहनें की हिम्मत 2014 के बाद के भारत ने ही दिखाई है।

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जैसे को तैसा की नीति से चीन को परेशानी तो होगी ही, निश्चित रूप से चीन एक बडा देश है, शक्ति सम्पन्न देश है। उससे युद्ध का खतरा है। हार का खतरा भी है,यह स्थितियां तो हमेशा ही रहनी है। इसलिये मेवाड की तरह  सिर पर केसरिया बांध कर युद्ध को तैयार तो रहना ही होगा। भारत को यह मान लेना चाहिये कि दिन प्रतिदिन चीन से टकराव होगा, हमें उससे जानबूझ कर भी बार बार टकराना चाहिये, इससे कोई नुकसान नहीं होना, किर किरी चीन की होगी । हमें चीन का प्रवल प्रतिद्वंदी बनना होगा । जितनी जल्दी हम चीन के मुकाबले अपनी शक्ति विकसित करते जायेंगे। उतने ही सुरक्षित होते जायेंगे।

 यदि नेहरूजी ने तिब्बत को ब्रिटिश शासन की ही तरह भारत के साथ रखा होता तो, भारत चीन की सीमा कभी मिलती ही नहीं। भारत चीन के बीच में तिब्बत रूपी एक स्वतंत्र बहुत बडा राष्ट्र होता, जो भारत की रक्षा भी करता और भारत को सुरक्षित भी रखता ।

भारत के प्राथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अनेकानेक गलतियों के कारण समस्यायें तो खडी हैं, “लम्हों ने खता की है सदियों ने सजा पाई” नेहरू की गलतियों की सजा देश आज तक भुगत रहा है। अब उनसे लडना , संभव विजयों को प्राप्त करना है तो एक जुट राष्ट्र की जरूरत है। जो कांग्रेस के रहते संभव नहीं लगती । इसीलिये देश को कांग्रेस मुक्त करना जरूरी है।

नहेरू जी के द्वारा तिब्बत चीन को दिया जाना
माओ त्से तुंग ने मुख्य भूमि चीन को समृद्धि प्रदान करने के लिए तिब्बत, झिंझियांग और इनर मंगोलिया को हड़प लिया। माओ ने तिब्बत को चीन की हथेली और लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और नेफा को इसकी पाँच ऊँगलियाँ कहा था। लेकिन भारत कभी भी माओ त्से तुंग के इस स्टेटमेंट की गहराई नहीं पहचान पाया। जैसे नेहरू तिब्बत के सामरिक महत्व, अपने और चीन के बीच एक बफर स्टेट के रूप में पहचानने में विफल रहे।


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एलएसी के चलते चीन के साथ संबंध सामान्य नहीं - एस जयशंकर

पाकिस्तान को भी दी नसीहत 

S jayshankar

31 Dec 2022
जयशंकर ने कहा, भारत को लेकर दुनिया को काफी उम्मीदें हैं क्योंकि हमें एक ऐसे देश के रूप में देखा जाता है जो समस्याओं को हल करता है। हमें एक मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देश के रूप में देखा जाता है।

विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने भारत-चीन संबंधों को लेकर भारत का नजरिया एक बार फिर साफ किया। साइप्रस के लारनाका में भारतीय प्रवासियों के साथ अपनी बातचीत के दौरान जयशंकर ने कहा कि हमारी सीमाओं पर चुनौतियां हैं जो कोविड के दौरान बढ़ गई हैं। चीन के साथ संबंध सामान्य नहीं हैं क्योंकि हम ( भारत ) एलएसी को एकतरफा बदलने के किसी भी प्रयास के लिए सहमत नहीं हैं।

उन्होंने कहा, भारत को लेकर काफी उम्मीदें हैं क्योंकि हमें एक ऐसे देश के रूप में देखा जाता है जो समस्याओं को हल करता है। हमें एक मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देश के रूप में देखा जाता है और हमें एक स्वतंत्र देश के रूप में भी देखा जाता है।

आतंकवाद के मुद्दे पर जयशंकर ने कहा कि मूल मुद्दों पर कोई समझौता नहीं है क्योंकि कोई भी देश आतंकवाद से उतना पीड़ित नहीं है जितना हम हैं। हम बहुत स्पष्ट रहे हैं कि हम कभी भी आतंकवाद को सामान्य और तर्कसंगत नहीं बनाएंगे।  

पाक को दी नसीहत

वहीं, पाकिस्तान पर एक परोक्ष हमला बोलते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि भारत को बातचीत की मेज पर मजबूर करने के लिए आतंकवाद को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। जयशंकर ने साइप्रस में भारतीय प्रवासियों से बातचीत के दौरान पाकिस्तान का नाम लिए बगैर कहा, " हम इसे कभी भी सामान्य नहीं करेंगे। हम कभी भी आतंकवाद को बातचीत की मेज पर आने के लिए मजबूर नहीं होने देंगे। हम सभी के साथ अच्छे पड़ोसी संबंध चाहते हैं। लेकिन अच्छे पड़ोसी संबंध होने का यह मतलब बहाना बनाना या दूर से देखना या आतंकवाद को युक्तिसंगत बनाना है। हम इसे लेकर बहुत स्पष्ट हैं। "
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जयशंकर ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद  में पाकिस्तान और चीन को घेरा, कहा- कुछ देश दे रहे आतंकवाद को बढ़ावा
14 Dec, 2022
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बुधवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में एक खुली बहस के दौरान चीन और उसके करीबी सहयोगी पाकिस्तान पर परोक्ष रूप से निशाना साधते हुए कहा कि आतंकवाद को उचित ठहराने और साजिशकर्ताओं को बचाने के लिए बहुपक्षीय मंचों का दुरुपयोग किया जा रहा है। यूएनएससी में ‘अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा तथा सुधारित बहुपक्षवाद के लिए नयी दिशा' विषय पर खुली बहस की अध्यक्षता करते हुए जयशंकर ने यह भी कहा कि संघर्ष ने ऐसी स्थिति बना दी है कि बहुपक्षीय मंच पर चलताऊ रवैया नहीं रखा जा सकता।

जयशंकर ने कहा, ‘‘आतंकवाद की चुनौती पर, दुनिया अधिक एकजुट प्रतिक्रिया के साथ एक साथ आ रही है लेकिन साजिशकर्ताओं को उचित ठहराने और बचाने के लिए बहुपक्षीय मंचों का दुरुपयोग किया जा रहा है।'' जयशंकर परोक्ष रूप से चीन का जिक्र कर रहे थे, जिसने पाकिस्तान के जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर जैसे आतंकवादियों को सूचीबद्ध करने के लिए कई मौकों पर भारत और अमेरिका के प्रयासों को बाधित किया। मंत्री ने कहा कि जब जलवायु कार्रवाई और जलवायु न्याय की बात आती है तो स्थिति बेहतर नहीं है।

जयशंकर ने कहा, ‘‘संबंधित मुद्दों को उचित मंच पर संबोधित करने के बजाय, हमने ध्यान भटकाने और भ्रमित करने के प्रयास देखे हैं।'' विदेश मंत्री ने कहा, ‘‘हमने बहुपक्षीय संस्थानों की स्थापना के 75 से अधिक वर्षों के बाद उनकी प्रभावशीलता के बारे में एक ईमानदार बातचीत के लिए आज यहां बैठक बुलाई है। हमारे सामने सवाल यह है कि उनमें सुधार कैसे किया जा सकता है क्योंकि प्रत्येक गुजरते साल के साथ इसकी जरूरत बढ़ती जा रही है।''

विदेश मंत्री ने कहा, ‘‘संघर्ष की स्थितियों के प्रभावों ने अधिक व्यापक वैश्विक शासन की आवश्यकता को भी रेखांकित किया है। खाद्य, उर्वरक और ईंधन सुरक्षा पर हाल की चिंताओं को निर्णय लेने की उच्चतम परिषदों में पर्याप्त रूप से व्यक्त नहीं किया गया था। इसलिए दुनिया के अधिकांश भाग का मानना है कि उनके हित मायने नहीं रखते। हम इसे दोबारा नहीं होने दे सकते।'' जयशंकर मंगलवार को यूएनएससी में भारत की वर्तमान अध्यक्षता के तहत आतंकवाद और सुधारित बहुपक्षवाद पर दो कार्यक्रमों का नेतृत्व करने के लिए यहां पहुंचे। 15 सदस्यीय यूएनएससी के निर्वाचित सदस्य के रूप में भारत का दो साल का कार्यकाल इस महीने समाप्त हो जाएगा।

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दोनों देशों के बीच विवाद की वजह है 3440 किलोमीटर लंबी सीमा. इसको लेकर दोनों देशों के अपने-अपने दावे हैं.

इस इलाक़े की स्थिति ऐसी है कि कई बार नदियों, झील और बर्फ़ से घिरे पहाड़ों के कारण वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को लेकर विवाद होता रहता है और कई बार दोनों देशों के सैनिक आमने-सामने आ जाते हैं.

नहेरू जी के द्वारा तिब्बत चीन को दिया जाना
1954 में जवाहर लाल नेहरू ने समझौते के तहत तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया। हालांकि, 1962 के युद्ध में समझौता रद्द हो गया और भारत ने फिर से तिब्बत को स्वतंत्र देश बताना शुरू किया। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने पहले 1996 में सांकेतिक तौर पर और फिर 2003 में आधिकारिक तौर पर तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया।

चारी ने कहा, "वाजेपयी सरकार को रणनीतिक तौर पर इसे टालना चाहिए था. उस वक़्त हमने तिब्बत के बदले सिक्किम को सेट किया था. चीन ने सिक्किम को मान्यता नहीं दी थी लेकिन जब हमने तिब्बत को उसका हिस्सा माना तो उसने भी सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया."

जेएनयू में सेंटर फोर चाइनिज़ एंड साउथ ईस्ट एशिया स्टडीज के प्रोफ़ेसर बीआर दीपक का मानना है कि "तिब्बत के मामले में भारत की बड़ी लचर नीति रही है. साल 1914 में शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया लेकिन 1954 में नेहरू तिब्बत को एक समझौते के तहत चीन का हिस्सा मान लिए."

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नई दिल्ली: साठ साल पहले जब दुनिया घबराहट में अमेरिका और सोवियत संघ को क्यूबा मिसाइल संकट में घिसटता देख रही थी, तब चीन और भारत युद्ध की ओर चले गए. ‘भारत कहां गलत हुआ’ इसे लेकर भारतीय शिक्षाविदों, रक्षा विशेषज्ञों और राजनयिकों ने अलग-अलग नकारात्मक पहलुओं के बारे में काफी कुछ कहा है. लेकिन 1962 के युद्ध के पीछे चीन के इरादों को लेकर उसके सार्वजनिक क्षेत्र में ज्यादा कुछ लिखा या कहा नजर नहीं आता है.

अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ जॉन डब्ल्यू गार्वर बताते है कि चीनी प्रीमियर माओत्से तुंग ने युद्ध में जाने का फैसला क्यों किया, इसे लेकर चीन में बहुत कम प्रकाशित हुआ है. जबकि कोरियाई युद्ध, इंडोचीन युद्धों और 1950 के दशक में अपतटीय द्वीपों पर संघर्ष और 1974 के पैरासेल द्वीप अभियान के बारे में इसके विपरीत आपको काफी कुछ मिल जाएगा. तर्क दिया जा सकता है कि चीनी इरादे बहुत साफ न होने के कारण आज भी स्थिति में अस्पष्टता बनी हुई है, जिसका नतीजा 2020 में गलवान संघर्ष के तौर पर सामने भी आ चुका है.

उन्होंने कहा, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि तिब्बत की स्वायत्तता पर सवालों के अलावा, चीनी नेतृत्व को कुछ हद तक तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लेकर बनी उनकी धारणाओं ने इस ओर जाने के लिए निर्देशित किया था. गार्वर के अनुसार, नेहरू को – साम्यवाद के लेंस से देखते हुए – भारतीय पूंजीपति वर्ग के एक ऐसे सदस्य के रूप में देखा जाता था, जो ‘महान भारतीय साम्राज्य’ बनाने और अंग्रेजों द्वारा छोड़े गए शून्य को भरने की ओर देख रहे थे.’

1959 तक, बीजिंग को भारत के साथ अपने तनाव के अंतर्राष्ट्रीय नतीजों के बारे में कुछ चिंताएं थीं. खासकर ये कि क्या इसमें अमेरिकी अपनी दखलंदाजी करेगा,  सोवियत प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चेव संघर्ष के दौरान चीन के उठाए गए कदमों को किस तरह से लेंगे और बदले में ये सभी कारक वैश्विक कम्युनिस्ट आंदोलन में चीन की स्थिति को कैसे प्रभावित कर सकते हैं.

CIA के अधिकारिक तौर पर घोषित पोलो अभिलेखागार पर ध्यान देने से पता चलता है कि चीनी नीति हालांकि 1961 तक परस्पर विरोधी धारणाओं पर आधारित थी. इसके मुताबिक, जबकि चीनियों ने महसूस किया कि नेहरू के साथ ‘एकजुट’ होना जरूरी है क्योंकि भारत को ‘समाजवादी’ और ‘साम्राज्यवादी’ शिविरों की तरफ पैर फैलाते हुए देखा जा रहा था. उनका यह भी मानना था कि पड़ोसी देश के साथ लड़ाई चीन की ताकत को साबित करने में एक लंबा रास्ता तय करेगी.


विशेषज्ञों ने नोट किया है कि यहां भारत को ‘एक सबक’ सिखाने की इच्छा भी दिखाई दी.


नेहरू को ‘विस्तारवादी’ समझना
नेहरू को लेकर बनी चीनियों की अवधारणा ने 1959 और 1962 के बीच बीजिंग के उठाए गए कदमों के समर्थन में एक प्रमुख भूमिका निभाई.

सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के अनुसार, मार्च 1959 में तिब्बती विद्रोह से पहले चीनी नेताओं की यह सोच थी कि नेहरू उनके प्रति भारतीय विपक्ष, प्रेस और यहां तक कि उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों की तुलना में अधिक मिलनसार थे.

लेकिन तिब्बती विद्रोह के बाद, जब भारत में ‘चीन-विरोधी’ स्वर उठे तो यह महसूस किया गया कि नेहरू ने इसे प्रोत्साहित किया होगा. इससे यह धारणा भी बनी तटस्थता के मामले में नेहरू के ‘दो चेहरे’ हैं – जिन्होंने एक तरफ तो तटस्थता का दावा किया लेकिन वास्तव में प्रमुख मुद्दों पर चीन के विरोधी हैं.

18 अप्रैल 1959 को तेजपुर में दलाई लामा के बयान ने मामले को और उलझा दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने ल्हासा छोड़ दिया क्योंकि चीनी कम्युनिस्टों के अधीन तिब्बत की कोई स्वायत्तता नहीं है.

27 अप्रैल 1959 को संसद में नेहरू के भाषण में स्थिति को साफ करने की कोशिश की गई थी. उन्होंने कहा, ‘मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि दलाई लामा इस बयान के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं. हमारे अधिकारियों का इन बयानों की ड्राफ्टिंग करने या तैयार करने से कोई लेना-देना नहीं है.’

लेकिन उनका ये भाषण भी उनके प्रति चीनी सोच को बदलने के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया. सीआईए के ऐतिहासिक अभिलेख में नोट किया गया है, ‘कुछ भी हो, भाषण ने नेहरू को ‘वास्तविक तिब्बती स्वायत्तता’ के आह्वान के प्रति अधिक ‘सहमत’ बना दिया.’

सीआईए अभिलेख में आगे कहा गया कि लगभग एक महीने बाद चीन सरकार द्वारा चलाये जा रहे समाचार पत्र पीपुल्स डेली ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) और जनता से नेहरू के भाषण का ‘अध्ययन’ करने का आह्वान किया, जिसके बाद चीनियों ने भारतीय प्रधानमंत्री की अपनी आलोचना और तेज कर दी.

इसके अलावा माओ ने नेहरू को भारतीय पूंजीपति वर्ग के सदस्य के रूप में देखा, जिन्हें ब्रिटिश ‘विस्तारवादी’ रणनीतियां विरासत में मिली थीं और उन्होंने तिब्बत को ‘बफर जोन’ में बदलने की मांग की, ताकि बाद में यह भारत का संरक्षक या उपनिवेश बन सके.

गार्वर कहते हैं, ‘इस तरह के बफर जोन का निर्माण ब्रिटिश साम्राज्यवादी रणनीति का उद्देश्य था और नेहरू इस संबंध में ब्रिटेन के ‘पूर्ण उत्तराधिकारी’ थे. नेहरू का उद्देश्य दक्षिण एशिया में उस क्षेत्र से ब्रिटिशों द्वारा छोड़े गए ‘शून्य को भरकर’ एक ‘महान भारतीय साम्राज्य’ का निर्माण करना था.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हालांकि यह एक गहरी गलत धारणा थी.’

यकीनन सटीक धारणा यह नजर आती है कि नेहरू ने बातचीत को प्राथमिकता दी और युद्ध में जाने के लिए तैयार नहीं थे. यह मानचित्रों पर चीनी और भारतीय दावों के बीच व्यापक अंतर को लेकर बीजिंग की जान बूझकर बनाई गई दोहरी सोच को बढ़ावा देने और सैन्य कार्रवाई की वजह बनी.

सीआईए के अनुसार, चीनी जानबूझकर नक्शों को लेकर भ्रामक थे, उन्हें लगा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को सीमांकित करने की जरूरत नहीं है, मामला ‘अधर’ में लटका रहेगा और नेहरू को इसके बारे में सचेत करने की कोई आवश्यकता नहीं है. सीआईए ने कहा, ‘चीन ने नेहरू को इसे स्वीकार करने के लिए मजबूर करने के स्पष्ट लक्ष्य के साथ एक निश्चित सीमा स्थिति को लिखित रूप में स्थापित करने का काम किया. उन्होंने शायद अनुमान लगाया कि सैन्य कार्रवाई के लिए उनकी लगातार सुलह प्रतिक्रिया सशस्त्र संघर्ष को जोखिम में डालने की उनकी अनिच्छा को दर्शाती है.’


भारत को सबक सिखाना
युद्ध के दौरान जिस चीज ने चीन को प्रभावित किया, वह थी भारत को ‘नए चीन’ की शक्ति को स्वीकार करने की जरूरत. ‘नया चीन’ नवनिर्मित पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) को संदर्भित करता है, जो 1962 के युद्ध से बमुश्किल 13 साल पहले चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के तहत बनाई गई थी और अभी भी संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में जाने के लिए होड़ में थी.

यह चीन की ताकत साबित करने की चाहत का भाव था. भारत की फॉरवर्ड पॉलिसी पर कैसे प्रतिक्रिया दी जाए, इस बारे में चीनी सोच में यह स्पष्ट तौर पर नजर आता है.

गार्वर कहते हैं, ‘भारतीय सेना को एक बड़ी और दर्दनाक हार देने का अंतिम चीनी निर्णय इस भावना से काफी हद तक प्रभावित था कि सिर्फ इस तरह का झटका ही भारत को चीनी शक्ति को गंभीरता से लेने के लिए मजबूर कर सकता है.’

25-26 अगस्त 1959 की झड़पों ने चीनी राष्ट्रीय भावनाओं को भी आहत किया क्योंकि बीजिंग का मानना था कि भारत तिब्बती विद्रोहियों को तिब्बत में फिर से प्रवेश करने में मदद कर रहा है, खासकर मिग्युटुन क्षेत्र में.

भारत और चीन की एक-दूसरे के प्रति धारणाओं के बीच की खाई, और कैसे एक-दूसरे की विदेश नीति में शामिल हुई, यह चीनी विदेश मंत्रालय की जनवरी 1961 की रिपोर्ट में स्पष्ट था.

रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन ने अमेरिका को अपने प्रमुख विश्व शत्रु के रूप में देखा, उसके बाद भारत और इंडोनेशिया उस सूची में कहीं नीचे आते हैं. हालांकि, जैसा कि सीआईए ने बताया, भारत इस पदानुक्रम से अंजान नहीं था और भारतीयों के लिए, यहां तक कि चीनी दुश्मनी की सबसे छोटा से कृत्य भी संबंधों में उत्तेजना पैदा कर सकता था.
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mao & neharu
 

चीनी सेना तिब्बत को तबाह कर रही थी तो उसके खाने के लिए चावलों की सप्लाई भारत से हो रही थी।

क्या आप जानते हैं कि कभी तिब्बत एक आजाद मुल्क था। लेकिन 1949 में ब्रिटेन से आजाद होने बाद चीन ने 1950 में तिब्बत पर आक्रमण कर दिया और तिब्बत से एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा छीन लिया। जब एक बार चीन फिर से हमारी सीमा पर अपनी आर्मी इकठ्ठा कर रहा है तो एतिहासिक दस्तावेजों को खॅंगालने की जरूरत है।

चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने जब 1950 में तिब्बत पर हमला किया उस वक्त पंडित जवाहर लाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे। कई ऐतिहासिक भूल पंडित नेहरू के जिम्मे है। उनमें से एक तिब्बत भी है। भारत की तत्कालीन सरकार चाहती तो तिब्बत आज भारत और चीन के मध्य एक बफर स्टेट के रूप में रह सकता था।

फ्रांसीसी मूल के लेखक, पत्रकार और तिब्बत की इतिहास के जानकार क्लाउडे अर्पी (Claude Arpi) ने ‘विल तिब्बत एवर फाइंड हर सोल अगेन (Will Tibet find her soul again)’ नाम की एक पुस्तक लिखी है। इसमें उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों के हवाले से लिखा है कि जब चीनी सेना तिब्बत को तबाह कर रही थी तो उसके खाने के लिए चावलों की सप्लाई भारत से हो रही थी। हिंदी-चीनी भाई-भाई के दौर में भारत के सप्लाई किए हुए चावल खाकर चीनी सेना ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया।

तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे में खोए रहे। उन्होंने इस पुस्तक में स्पष्ट रूप से चीन के आक्रमण, छल-प्रपंच और तिब्बत को अजगर की तरह निगल जाने के बारे में व्यापक रूप से जानकारी दी है। नेहरू द्वारा मूर्खतापूर्ण तरीके से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को चावल की आपूर्ति करने का भी जिक्र किया है।


यह चावल कूटनीति चार वर्षों तक जारी रही। चीन से परिवहन की कठिनाइयों को देखते हुए वह भारत से इस खरीद को अंजाम दे रहा था। 20 अक्टूबर 1954 को इस बात पर फिर से जोर दिया गया कि भारत तिब्बत में तैनात पीएलए को चावल की आपूर्ति जारी रखेगा। चीन जो चावल भारत से खरीद रहा था वो विशेष रूप पर तिब्बत के लिए था, इस खबर को द हिंदू ने रिपोर्ट किया था। दस महीने बाद जब पहला चीनी ट्रक चीन की तरफ से ल्हासा तक रसद सामग्री लेकर पहुॅंचा तो फिर चीन की निर्भरता भारत पर चावल के लिए नहीं रही। वे लिखते हैं कि तिब्बतियों के लिए चावल कभी भी उनका परम्परागत भोजन नहीं रहा था। तिब्बती जौ से बने खाना खाते थे जिसे वो तत्स्यो कहते थे।

नेहरू का चीन प्रेम यहीं समाप्त नहीं होता। बहुत कम लोगों जानकारी होगी कि नेहरू ने संसद को सूचित किए बिना तिब्बत के ल्हासा और झिंझि‍यांग के कासगर में भारतीय मिशनों को बंद कर दिया था। नेहरू ने क्या सोच कर इन मिशनों को बंद किया था? वो भी बगैर भारतीय संसद को सूचित किए। नेहरू की आत्ममुग्धता और विश्वनेता बनने की इच्छा ने चीन की सभी इच्छाएँ पूरी की थी। इसका परिणाम आज तक भारत और तिब्बती भुगत रहे हैं।

1950 के दशक की शुरुआत पीएलए की टुकड़ियों को चावल खिलाना सबसे अधिक घटिया घटना थी। अर्पी लिखते हैं “दिल्ली के सक्रिय समर्थन के बिना, चीनी सैनिक तिब्बत में जीवित नहीं रह सकते थे।” उन्होंने लिखा कि तत्कालीन भारतीय नेतृत्व दीवार पर लिखी साफ इबारत को नहीं पढ़ पाया। अर्पी ने आगे लिखा है कि हिमालय के आर-पार भारत-चीन व्यापार के फलने-फूलने के बाद चीन ने उस समय तवांग और नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) पर कभी दावा नहीं किया, जो साबित करता है कि चीन अरुणाचल प्रदेश (भारतीय क्षेत्र का 90,000 वर्ग किलोमीटर) पर जो दावा करता है, दुश्मनी में ऐसा करता है और ‘दक्षिण तिब्बत’ की अवधारणा निर्मित की गई है।

अर्पी ने अपनी किताब में उस समय चीन में तैनात भारतीय राजदूत केएम पन्निकर के बारे में लिखा है कि वो नेहरू के बजाय माओ के राजदूत ज्यादा नजर आते थे। उन्होंने चीन का हर मौके पर बचाव किया। जब चीनी सेना तिब्बत की संस्कृति और लोगों को तबाह कर रही थी तो उन्होंने भारत सरकार को लिखे अपने नोट में कहा- बहुत समय से तिब्बत के बारे में कोई खबर नहीं आई है और आशा है कि तिब्बत को फिर से सही होने में समय लगेगा और चीनी अधिकारी उसकी अच्छे से देखभाल करेंगे।


पुस्तक में तत्कालीन रक्षामंत्री वीके कृष्णा मेनन का भी जिक्र है। उनकी बायोग्राफी लिखने वाले टीजेएस जॉर्ज के हवाले से जिक्र किया गया है कि उनको आत्मनिर्भरता की ऐसी सनक थी कि उन्होंने सेना के लिए साजो-समान बनाने वाले कारखानों को हेयरकिल्प्स और प्रेशर कुकर बनाने वाले कारखानों में तब्दील कर दिया। सेना के लिए युद्ध सामान आयात करने से मना कर दिया था। सेना मानती थी कि मेनन रक्षामंत्री लायक नहीं हैं। वे सेल्फ प्रोमोशन में ज्यादा व्यस्त रहते थे। लगातार विदेशी यात्राएँ करते थे। लेकिन नेहरू की कृपा से वो लगातार मंत्री बने रहे।

माओ त्से तुंग ने मुख्य भूमि चीन को समृद्धि प्रदान करने के लिए तिब्बत, झिंझियांग और इनर मंगोलिया को हड़प लिया। माओ ने तिब्बत को चीन की हथेली और लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और नेफा को इसकी पाँच ऊँगलियाँ कहा था। लेकिन भारत कभी भी माओ त्से तुंग के इस स्टेटमेंट की गहराई नहीं पहचान पाया। जैसे नेहरू तिब्बत के सामरिक महत्व, अपने और चीन के बीच एक बफर स्टेट के रूप में पहचानने में विफल रहे।

“लम्हों ने खता की है सदियों ने सजा पाई” नेहरू की गलतियों की सजा देश आज तक भुगत रहा है। हमें नेहरू की महानता का जो इतिहास पढ़ाया गया है, उसे पुर्नावलोकन की जरूरत है। क्या सही, क्या गलत हुआ था, उसको जानने की जरूरत है ताकि इतिहास से सबक लेकर चीन जैसे जमीन के भूखे देश के बारे में दुनिया जान सके, और चीन को चीन के ही तरीके से मात दी जा सके।

माओ की बात चीन को आज भी याद है, लेकिन शायद भारत भूल गया है। हमें चीन की व्यवहार और उसके विचारों को अच्छे से अध्ययन करने की जरूरत है। वामपंथी अध्ययनवेत्ताओं का चीन से वैचारिक भाईचारा है। इस बात का ख्याल रखते हुए चीन को समझने की जरूरत है।


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