भगवा न्यायपालिका शब्द...? मानसिकपतन का परिचय - अरविन्द सिसौदिया Bhagva nyaypalika



भगवा न्यायपालिका शब्द...? मानसिकपतन का परिचय - अरविन्द सिसौदिया

कांग्रेस के वरिष्ठनेता रहे वर्तमान में समाजवादी पार्टी से राज्य सभा में सांसद कपिल सिब्बल ने एक बार फिर से भारत के परम पवित्र भगवा रंग का अपमान करते हुये कहा है कि ’मैं नहीं चाहता कि अदालत भगवा हो’ और उन्होने कहा कि “सरकार का न्यायाधीशों की नियुक्ति पर नियंत्रण होने से बेहतर है कोलेजियम सिस्टम है।”
अर्थात कांग्रेस मानसिकता के ये वरिष्ठ वकील साहब कांग्रेस जनित शब्द भगवा आतंकवाद से भगवा न्याय तक पहुंच गये हैं। मुझे नहीं लगता कि भारत में न्यायपालिका पर कोई दबाव कभी किसी हिन्दू की तरफ से आया हो, बल्कि सच तो यह है कि न्यायपालिका स्वयं विफलपालिका या अन्यायपालिका में तब्दील हो गई है। इस तथ्य पर कभी भी गंभीरता से विचार नहीं करती है। वहीं भारत का सुप्रीम कोर्ट कई बार जिला न्यायालयों जैसा दिखता है। जिस देश की न्यायपालिका आतंकवादी के लिये आधी रात में खुले , उससे बड कर और क्या स्वतंत्रता हो सकती है।
मेरा मानना है कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री ने न्यायपालिका के भगवाकरण जैसे शब्द को उठा कर भारत का अपमान किया है। वे किसे खुश करना चाहते हैं, यह सब जानते है। मगर उसके लिये कुछ तो भी बोलना पूरी तरह बनुचित है। यह उनके मानसिक स्तर के पतित होनें का प्रमाण है। वे खुद हिन्दू होकर इस तरह का दूसित सोच रखते है। यह बहुत ही गिरे दर्जे की बात है।
कांग्रेस की सरकारें 1947 से 1977 तक एक तरफा राज्य किया तब केन्द्रीय प्रशासन के तमाम निर्णय उन्होने अपनी मर्जी से किये, अधिकार था इसलिये किये । लगभग दुनिया के सभी देशों में यही होता है। भारत की विविध संस्थाओं को चलानें के निर्णय के लिये ही तो भारतीय संसद बनीं है। यह तो कोई तर्क नहीं हुआ कि केन्द्र में नरेन्द्र मोदी जी की सरकार है, इसलिये न्यायपालिका में कॉलेजियम सिस्टम रहना चाहिये। अन्यथा नियुक्तियां मोदी सरकार के अधिकार क्षेत्र में आ जायेंगी। यह तर्क सिर्फ कुतर्क के सिवाय क्या हो सकते हैं।
मेरा तो स्पष्ट मानना है कि सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था पर देश में खुली बहस होनी चाहिये। न्यायाधीश एक तरफा स्वंयभू कैसे हो सकते है। इसमें चार पात्र हैं । जैसे कि न्यायाधीश, न्यायालय के कर्मचारीगण, अधिवक्तागण और वादी-प्रतिवादी ।
न्यायपालिका के चारों वर्गों की अपनी अपनी शिकायतें भी हैं और सुझाव भी है। खुली बहस जनता के बीच करो, डर किस बात का ।
अभी सर्वोच्च न्यायालय ने 9बार बिजली चोरी के मुकदमें 18 साल की सजा वाले प्रकरण में संज्ञान लिया । बहुत अच्छी बात है कि अपराधी की सजा की अवधी एक अपराध के बराबर कर दी गई। मगर यह सोचा कि इससे आदतन अपराधियों का संरक्षण हो गया। 9 बार हेलमेट नहीं पहने पकडे जानें पर 9 बार जुर्माना क्यों ? मेरा बहुत स्पष्ट मानना है कि “ प्रत्येक अपराध की सजा को पूरा करवाया जाना ही चाहिये, इसे मॉफ करनें का अधिकार किसी को है ही नहीं। अपराध हुआ तो दण्ड भी सुनिश्चित है।अन्यथा पहाड बराबर बना रखे कानूनों का कोई अर्थ नहीं है। ”
न्यायपालिका स्वतंत्र है, आम नागरिक भी स्वतंत्र है। स्वच्छंदता का पट्टा किसी को भी नहीं दिया जा सकता । जब न्यायालय एक अपराधी को 20 - 25 बार तक जमानतें दे देती है। तब वह समाज में अपराध करनें का प्रोत्साहन करती है। जमानत पर पूर्व अपराधों का इतिहास ठीक से देखा जाये तो कम से कम 20 प्रतिशत आपराधिक मुकदमें कम हो सकते हैं । यह मेरा अनुमान है।
यह इसलिये नहीं हो पा रहा कि न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया कालेजियम है। जहां देशहित,समाजहित पीछे छूट जाता है।
मेरे अपने,मेरे प्रिय पहले आ जाते हैं।
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कांग्रेस सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे कपिल सिब्बल ने “मिरर नाउ चैनल” को दिए एक साक्षात्कार में कहा है कि “ भले ही कॉलेजियम प्रणाली सही नहीं है, लेकिन यह इससे बेहतर है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सरकार का पूरा नियंत्रण हो। ” उन्होंने कहा कि “वर्तमान सरकार का सभी सार्वजनिक कार्यालयों पर नियंत्रण है और यदि वह “अपने स्वयं के न्यायाधीशों“ की नियुक्ति करके न्यायपालिका पर भी कब्जा कर लेती है तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक होगा। ”

 “वे (सरकार) अपने लोगों को वहां (न्यायपालिका) चाहते हैं। अब यूनिवर्सिटी में उनके अपने लोग हैं, चांसलर उनके हैं, राज्यों में राज्यपाल उनके हैं - जो उनकी प्रशंसा गाते हैं। चुनाव आयोग के बारे में कम बोलना ही बेहतर है। सभी सार्वजनिक कार्यालय उनके द्वारा नियंत्रित होते हैं। ईडी में उनके अपने लोग हैं, आयकर में उनके अपने लोग हैं, सीबीआई में उनके अपने लोग हैं। वे अपने स्वयं के न्यायाधीश भी चाहते हैं।“

 सिब्बल ने कहा कि मौजूदा सरकार के पास इतना पूर्ण बहुमत है कि वह सोचती है कि वह कुछ भी कर सकती है। हालांकि, पूर्व कानून मंत्री ने मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली पर भी अपनी आपत्ति जताई। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली सही नहीं है। फिर भी, यह अभी भी सरकार द्वारा न्यायाधीश नियुक्त करने से बेहतर है। सिब्बल ने कहा- “जिस तरह से कॉलेजियम प्रणाली काम करती है, उसके बारे में मुझे बहुत चिंता है, लेकिन मैं इस तथ्य के बारे में अधिक चिंतित हूं कि सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति पर भी कब्जा करना चाहती है और वहां अपने लोगों के साथ-साथ उनकी विशेष विचारधारा के बीच भी है। हालांकि, मैं कॉलेजियम प्रणाली को तरजीह दूंगा।“ ।
उन्होंने कहा कि न्यायपालिका पर कब्जा करने के सरकार के प्रयासों का विरोध किया जाना चाहिए क्योंकि “लोकतंत्र का अंतिम गढ़ न्यायालय है और यदि वह गिर जाता है तो हमारे पास कोई उम्मीद नहीं बचेगी।
कॉलेजियम प्रणाली पर कानून मंत्री किरेन रिजिजू की टिप्पणी पर असहमति जताते हुए सिब्बल ने कहा- “इस प्रकार के सार्वजनिक बयान देना किसी के लिए भी अनुचित है। मुझे लगता है कि अगर कुछ भी करने की आवश्यकता है तो अदालत को इसे अपनी प्रक्रिया पर देखना चाहिए। सरकार को यह सोचना चाहिए कि नियुक्ति के लिए एक नई प्रणाली आवश्यक है।“ न्यायाधीशों की, इसे कानून के माध्यम से नई प्रणाली का प्रस्ताव देना चाहिए। आगे बढ़ने का यही एकमात्र तरीका है। यदि वे एनजेएसी में निर्णय को स्वीकार नहीं करते हैं, तो उन्हें पुनर्विचार के लिए कहना चाहिए।“

उन्होंने यह भी कहा कि न्यायपालिका पर हमले केवल एकतरफा हैं। इस संदर्भ में उन्होंने कहा- “सुप्रीम कोर्ट के सभी बयान अदालत में दिए गए हैं और न्यायाधीशों द्वारा कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया गया है।“ वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली को संवैधानिक बताते हुए उन्होंने कहा कि पहले न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से होती थी। इस प्रकार- “अदालत ने कहा कि ’परामर्श ’ का मतलब है कि मुख्य न्यायाधीश बेहतर जानते हैं। इसलिए, यह न्यायपालिका है जो तय करेगी, क्योंकि वे जानते हैं कि वकील कौन हैं और न्यायाधीश कौन हैं या जिन्हें नियुक्त करने की आवश्यकता है। इसमें क्या गलत है वह? सरकार से परामर्श किया गया है। नाम भेजे गए हैं। यदि उन्हें कोई समस्या है तो वे नाम वापस भेज सकते हैं।“
सिब्बल ने कहा कि सरकार के पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि कौन सा वकील अच्छा है और कौन सा वकील बुरा।
उन्होंने कहा, “इन दिनों मंत्रियों... कानून मंत्रियों के पास केवल डिग्री होती है। वे प्रैक्टिस नहीं करते। वे अपने कार्यालयों में बैठकर कैसे जानेंगे कि कौन सा वकील कुशल है और कौन कुशल नहीं है?“ कॉलेजियम प्रणाली के साथ मुद्दों पर प्रकाश डालते हुए, सिब्बल ने कहा कि यह अपारदर्शी है, इसमें बहुत अधिक “भाईचारा“ है (ऐसा लगता है कि वह संकेत दे रहे थे कि नियुक्तियां अक्सर व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर होती हैं)। उन्होंने कहा- “इससे भी बुरी बात यह है कि हाईकोर्ट के न्यायाधीश अब अपनी नियुक्तियों के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की ओर देखते हैं। इसलिए इससे हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को भी प्रभावित किया है, क्योंकि वे लगातार सुप्रीम कोर्ट की ओर देखते हैं और सुप्रीम कोर्ट को खुश करना चाहते हैं और उन्हें दिखाना चाहते हैं कि वे न्यायाधीश हैं जिन्हें नियुक्त किया जाना चाहिए। यह अच्छा नहीं है। “ उन्होंने कहा कि फिर भी, वह नियुक्तियों को अपने हाथ में लेने वाली सरकार की तुलना में कॉलेजियम प्रणाली को तरजीह देंगे।

आखिर में सिब्बल ने कहा- “बाकी सब भगवा है। मैं नहीं चाहता कि अदालत भगवा हो।“

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