बसन्त पंचमी याद दिलाती है धर्म पर अमर बलिदानी बालक हकीकतराय की शहादत को
Basant Panchami reminds of the martyrdom of the immortal child Haqeeqat Rai on religion
बसंत पंचमी इस शब्द से लगभग हर हिन्दू वाकिफ है लेकिन खत्री जो कि पंजाब के क्षत्रिय है उनके लिए यह दिन अलग ही अहमियत रखता है ।
आज की दिनचर्या में हम इतने व्यस्त हो चुके है की लभगभ हम सबने एक 14 वर्ष के महान अमर बलिदानी वीर हकीकत राय पूरी को भुला ही दिया है !! उस छोटे से नन्हे बालक के बलिदान का क्या यही मोल किया हम लोगों ने ??
हालांकि जब वो नन्हा बालक अपना बलिदान दे रहा था उसने ये सोच के अपना बलिदान नहीं दिया था की उसका नाम होगा, कोई प्रचार होगा !! बल्कि उसने अपने बलिदान से हिन्दू धर्म की ध्वजा को महान आयाम दिया था ।
अपने पुरखों और इतिहास को भुलाना आज की पीढ़ी का नया फैशन बन गया है !! लोगों को एक दूसरे के जन्मदिन ,शादी सालिग्राह वगरैह जैसे दिवस तो याद जरूर रहते है लेकिन इन जैसे शूरवीरों का नाम तक किसी को नहीं पता होता ,बहुत शर्म की बात है।
क्या आपने कभी सोचा है कि एक १४ साल के बच्चे को अपने धर्म की वजह से ही अपनी जान क्यों देनी पड़ती है ? इसकी केवल और केवल एक ही व्याख्या है और वो यह है कि उनके पूर्वजों की गरिमा उनके स्वयं से अधिक थी। जी हां, मैं बात कर रहा हूं वीर हकीकत राय पुरी नाम के एक पंजाबी क्षत्रिय की। हकीकत राय सियालकोट के अमीर भाग मल पुरी के इकलौते बेटे थे।
हकीकत न केवल आकर्षक थी, बल्कि बुद्धिमान भी थे । १२ वर्ष की आयु में उन्हें फ़ारसी सीखने के लिए एक मौलवी के पास भेजा गया, जो उस समय की आधिकारिक भाषा थी, जैसा कि प्रथागत था। वह इतने मेधावी थे कि उन्होंने शीघ्रता और सरलता से भाषा सीख ली। परिणामस्वरूप, कक्षा के मुस्लिम छात्र उससे ईर्ष्या करने लगे।
एक दिन, एक मौलवी के बेटे ने बातचीत में हकीकत को युक्त कर लिया ,यह घटना यह थी कि मस्जिद में कुछ मुस्लिम छात्रों ने माँ भवानी के बारे अपशब्द और गालियां बकने लगे , जिससे हकीकत राय और उनके अन्य छात्रों को बहस में शामिल होने के लिए क्रोधित किया और जब उन्हें एहसास हुआ कि वह हकीकत को हरा नहीं सकते , वह चिल्लाने लगा कि हकीकत ने मुहम्मद और फातिमा की निंदा की थी।
(वह इस मामले में पूरी तरह से झूठे आरोपी थे)
अर्थात बालक हकीकत राय को सैनिकों ने बन्दी बना लिया लाहौर को कूच कर गए ।
सियालकोट और आसपास के इलाकों से बड़ी संख्या में हिंदुओं ने भी लाहौर की यात्रा कर सैनिकों और हकीकत का पीछा किया।
उनके साथ जोशीले मुसलमानों का एक समूह था, जो इस बात पर दृढ़ थे कि काफिर हकीकत को माफ नहीं किया जाएगा।
हकीकत को लाहौर की अदालत में भी कोई न्याय नहीं मिला। प्रांतीय गवर्नर (जकारिया खान) ने मौलवियों के आग्रह पर सियालकोट के मौलवियों द्वारा जारी की गई सजा को मंजूरी दे दी।
उसने हकीकत से इस्लाम कबूल करने की भीख मांगने को कहा ।
किन्तु बालक हकीकत नें कहा अगर मैं मुसलमान बन जाऊं तो क्या मैं कभी नहीं मरूंगा?" हकीकत ने प्रतिउत्तर दिया।
राज्यपाल ने कहा कि कोई भी व्यक्ति कभी भी मृत्यु से मुक्त नहीं हो सकता है।
तब हकीकत नें कहा ...
"मैं इस्लाम की खातिर अपने अखण्ड विश्वास को क्यों छोड़ दूं, अगर मैं मुसलमान बनने के बाद भी मर जाऊ ?"
जकारिया खान ने उन्हें फिर से मनाने का प्रयास किया , लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।उसने हकीकत से इस्लाम कबूल करने की शर्त दोहराई ।
अगर मैं मुसलमान बन जाऊं तो क्या मैं कभी नहीं मरूंगा?" हकीकत ने प्रतिउत्तर दिया।
राज्यपाल ने कहा कि कोई भी व्यक्ति कभी भी मृत्यु से मुक्त नहीं हो सकता है।
"मैं इस्लाम की खातिर अपने अखण्ड विश्वास को क्यों छोड़ दूं, अगर मैं मुसलमान बनने के बाद भी मर जाऊ ?" हकीकत ने कहा। जकारिया खान ने उन्हें फिर से मनाने का प्रयास किया , लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
हकीकत को इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए प्रोत्साहित करने के अंतिम प्रयास में, पिता भागमल, उनकी पत्नी और उनके परिवार ने देर रात कारावास में उनसे मुलाकात की। "मेरे बेटे, अगर तुम मर गए, तो हम सभी का जीवन उदास हो जाएगा, और हमारे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होगा ।" भागमल ने उससे कहा। लेकिन अगर आप इस्लाम में परिवर्तित हो जाते हैं, तो कम से कम हम आपको जीवित देखेंगे, जो हमारे दिन को रोशन करेगा।"
"आदरणीय पिता, मैं नश्वर चीजों के लिए अपने नेक विश्वास को नहीं छोड़ सकता," हकीकत ने कहा।
इस्लाम में मेरे लिए कोई उद्धारक गुण नहीं है। वे गैर-मुसलमानों का वध करते हैं, उनकी संपत्ति को बर्बाद करते हैं, और अपने पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को उनसे पैसे वसूल कर और उसे जज़िया कहकर गुलाम बनाते हैं। उनका मानना है कि इस तरह के अपराधों को अंजाम देकर , वे अल्लाह को प्रसन्न करते हैं..मैं मरने को तैयार हूं, लेकिन इस भयानक विश्वास में परिवर्तित होने के लिए नहीं।"
अगले दिन, हकीकत को अदालत के सामने पेश किया गया और अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया, लेकिन उसने इनकार कर दिया। तब राज्यपाल ने उस नौजवान को शरीयत की सजा के लिए मुल्लाओं के पास जाने का आदेश दिया।
उसके चेहरे पर अथक मुस्कान थी और वह "राम, राम" कहकर प्रस्थान कर गया उस बच्चे को एक खुले क्षेत्र में ले जाया गया और उसकी कमर तक जमीन में दबा दिया गया। मौलवी, मुल्ला और मौलवी सहित हजारों मुसलमानों ने युवक को घेर लिया और "अल्लाह, अल्लाह" के नारे लगाते हुए उस पर पत्थर, पत्थर और ईंटें फेंकना शुरू कर दिया। जब हकीकत अधमरा था, तो एक सिपाही ने उसका सिर धड़ से अलग करने के लिए एक प्रहार किया। यह बसंत पंचमी का पवित्र दिन था।(यह सन् 1734 ई. का वर्ष था)।
वैदिक मंत्रों के पाठ सहित हिंदू परंपराओं के अनुसार लड़के के शरीर को जला दिया गया था। वहां हजारों की संख्या में हिंदू मौजूद थे। उन्होंने उसके शरीर को गुलाब की पंखुड़ियों से सजाया और उसके दाह संस्कार के लिए चंदन की लड़की लाई गई । वहाँ एक समाधि बनी थी, और पूरे पंजाब के हिंदू (1947 तक ) हर साल बसंत पंचमी के दिन लाहौर में हिंदू धर्म के लिए हकीकत राय के महान बलिदान का सम्मान करने के लिए इकट्ठा होते थे।
1947 में भारत के विभाजन से पहले, हिन्दू बसंत पंचमी उत्सव पर लाहौर स्थित उनकी समाधि पर इकट्ठा होते थे। विभाजन के बाद उनकी एक और समाधि होशियारपुर जिला के "ब्योली के बाबा भंडारी" में स्थित है। यहाँ लोगों बसंत पंचमी के दौरान इकट्ठा हो कर हकीकत राय को श्रद्धा देते हैं।
गुरदासपुर जिले में, हकीकत राय को समर्पित एक मंदिर बटाला में स्थित है। इसी शहर में हकीकत राय की पत्नी सती लक्ष्मी देवी को समर्पित एक समाधि है। भारत के कई क्षेत्रों का नाम शहीद हकीकत राय के नाम पर रखा गया जहाँ विभाजन के बाद शरणार्थी आकर बसे। इसका उदाहरण दिल्ली स्थित 'हकीकत नगर' है।
वर्ष 1782 में अग्गर सिंह (अग्र सिंह) नाम के एक कवि ने बालक हकीकत राय की शहादत पर एक पंजाबी लोकगीत लिखा। महाराजा रणजीत सिंह के मन में बालक हकीकत राय के लिए विशेष श्रद्धा थी। बीसवीं सदी के पहले दशक (1905-10) में, तीन बंगाली लेखकों ने निबन्ध के माध्यम से हकीकत राय की शहादत की कथा को लोकप्रिय बनाया। आर्य समाज, ने हकीकत राय हिन्दू धर्म के लिए गहरी वफादारी के एक नाटक 'धर्मवीर' में प्रस्तुत किया। इस कथा की मुद्रित प्रतियां नि:शुल्क वितरित की गयीं।
- खत्री शुभ मेहरोत्रा
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