उच्च उसीको जानिए जिसके कर्म महान

*अज्ञानता*

   *"उच्च नीच के भेद की जन्म नही पहचान*
    *उच्च उसीको जानिए जिसके कर्म महान"*

     जब सारी सृष्टि का सृजन निराकार ब्रह्म शिवजी से हुवा ओर विविध ऋषियो से वंश चले तो फिर ये जात पात , उच्च नीच का भेद ही अज्ञान है । धर्मग्रंथों के श्लोक मंत्र ऋचाओ का अर्थघटन सबने अपने अपने ज्ञान मुजब किया जो उनके खुदके विचार है । किसी ऋषियो ने धर्मग्रंथोमे कही भी जाति का उल्लेख नही किया । मनुस्मृति ग्रंथमे वर्ण व्यवस्था की बात है कोई जाति या उच्च नीच की बात ही नही है।

1  ब्राह्मण - जो वेदाध्यन करे , नीति धर्म की शिक्षा दे , जनकल्याण के मार्ग निरूपण करे , सर्व जगत के कल्याण केलिए कर्म करे वो ब्राह्मण।
2  क्षत्रिय - जो आसुरी शक्तिओ से रक्षा करे । अधर्मियो को दंड करे और जीव मात्र की रक्षा करे वो क्षत्रिय।
3  वैश्य - मानव जीवन केलिए जरूरी हरेक पदार्थ  दूर दराजसे लेकर उपलब्ध कराए वो वैश्य।
4  शुद्र - सोना , चांदी , धातु बर्तन , औजार , लोहे लकड़े के काम , बांधकाम , कृषि बिगेरा बिगेरा कला कारीगिरी का कार्य करे वो शुद्र।

     हरेक मनुष्य अपनी अपनी रुचि अनुसार कार्य करता है वो वर्ण व्यवस्था है कोई जाति नहीं। मनु स्मृति की रचना के समय हरेक व्यक्ति की पहचान गोत्र - शाखा से थी तब कोई जाति थी ही नही । कोई भी मनुष्य कभी भी अपना वर्ण बदल सकता था ऐसे सेकड़ो दृष्टांत है । धर्माचरण धर्म कार्यमे कोइ भेदभाव नही होता।
यदि हम भारतीय ऐतिहासिक ग्रंथों को देखें तो हमें बड़ी संख्या में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनका जन्म किसी और वर्ण में हुआ, परंतु बाद में वे किसी और वर्ण के हो गए। उदाहरण के लिए ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु वेदाध्यायन के द्वारा वे उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है। इसी प्रकार सत्यकाम जाबाल एक गणिका के पुत्र थे और उनके पिता का पता ही नहीं था, परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

विष्णु पुराण में वर्णन आता है कि राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुन: इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। आगे उनके वंश में ही पुन: कुछ ब्राह्मण हुए। क्षत्रियकुल में जन्मे शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण के अनुसार शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए।
इस प्रकार हम पाते हैं कि मनु के विधान केवल सैद्धांतिक नहीं थे, वरन् लंबे समय तक इनका पालन भी होता रहा था।

*वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के प्रमाण*
1. ऐतरेय ऋषि -  दास पुत्र से ब्राह्मण  बने- ऐतरेय उपनिषद की रचना की।
2. ऐलूष ऋषि -- दासी पुत्र से ब्राह्मण बने - आचार्य पद पर आसीन हुय - ऋग्वेद पर अनुसंधान किया।                3. सत्यकाम --- गणिका पुत्र से ऋषि बने।

4.राजा दक्ष पुत्र पृषध -- क्षत्रिय से शूद्र हुए।
5.राजा नेदिष्ट पुत्र नाभाग -- क्षत्रिय से वैश्य हुय तथा उनके पुत्र पुनः क्षत्रिय हुये।
6.नाभाग पुत्र दृष्ट - क्षत्रिय से ब्राह्मण हुय और उनके पुत्र पुनः क्षत्रिय हुये।
7. भगवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य - क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए।
8.रथोतर & हारित - क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए ।
9. ऋषि शौनक - क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए।उनके पुत्र कर्म भेद से क्षत्रिय ,वैश्य & शूद्र हुए ।
10. ऋषि मातंग -- चांडाल पुत्र से ब्राह्मण हुए।
11.ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण -- ब्राह्मण से राक्षस हुआ ।
12.राजा त्रिशंकु - क्षत्रिय से चांडाल बने ।
13.ऋषि विश्वामित्र - क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए ।उनके पुत्र शूद्र हुए ।
14. विदुर - दासी पुत्र से ब्राह्मण हुये और हस्तिनापुर के महामात्य बने ।
15. ऋषि व्यास जी -- निषाद माता से जन्म ले ब्राह्मण हुए तथा पुराणों को प्रकट किया ।
16. सूद पुत्र के रूप में समाज मे पहचान वाले कर्ण राज अधिकार से क्षत्रिय हुए ।अंग देश का शासक बने ।
17. ऋषि बाल्मीकि जी निम्न वर्ण में जन्म के भी महाऋषि हुए।

मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं | वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं | इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश |

महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर|
आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में समान गोत्र मिलते हैं। इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं | लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए | जन्म आधारित जातिवाद आर्यों की मूल संस्कृति नही।

   आज से हजारो साल पहले जब नगर और गाव छोटे छोटे हुआ करते थे और इनमे आपस में परिवहन व्यवस्था कमज़ोर होती थी तब ये संभव नहीं था हर छोटे छोटे काम के लिए लोग अलग अलग जगह पर यात्रा करे क्योकि तब के समय में यात्रा बेहद लम्बा खीच जाता था अतः इस कमी को पूरा करने के लिए प्रत्येक गाव और नगर को एक स्वतंत्र इकाई बनने पर मजबूर होना पढ़ा । एक ऐसी स्वतंत्र इकाई जिसमे उस समाज के हर आवश्यक काम को बिना अन्य जगह पर जाये पूरा किया जा सके अतः इस जरुरत को पूरा करने के लिए जाति नामक व्यवस्था का जन्म हुआ। एक ऐसी व्यवस्था जिसमे एक ही जगह पर अलग अलग कार्यो को जानने वाले विशेषज्ञ मील सके । जैसे की अध्ययन अध्यापन के लिए ब्राहमण, सुरक्छा हेतु छत्रिय, गोपालन हेतु ग्वाले ,भेड़ पालन हेतु गढ़ेरिये ,सुकर पालन हेतु पासी , सब्जी की खेती के लिए कोइरी , अनाज की खेती हेतु कुर्मी ,फूलो की खेती हेतु माली , वैदिक काल से ही प्रसिद्द पान की खेती हेतु चौरसिया , औसधी हेतु वैद्य , लोहा का काम करने के लिए लोहार ,लकड़ी का काम करने के लिए बढई,साज़ सज्जा का काम देखने के लिए नाइ ,कपडे का काम करने के लिए जुलाहे उनको रंगने के लिए बजाज उनको सिलने के लिए दरजी , तेल के काम करने वाले साहू , बाग़ देखने के लिए खटिक इत्यादि तमाम जातीय तैयार हो गयी ये वास्तव में वो लोग थे जो अपने अपने कार्यो में बेहद पारंगत थे। इस तरह से हम देख रहे है की तब की विशिस्ट आवश्यकता ने जाती नामक व्यवस्था को जनम दिया । परन्तु आज के तथा कथित बुद्धजीवी वर्ग पूरी जाती व्यवस्था को केवल आज के समस्याओ को देखकर गलत ठहरा देता है क्योकि आज वर्ण के आधार पर उच्च नीच का भेद शुरू हो गया क्योकि जो जाति व्यवस्था कर्म आधारित थी वो धीरे धीरे जन्म आधारित हो गयी। चुकी जाति का व्यवस्थित वर्णन गीता में मिलता है।

*अनंतअजय*
*चैतन्यमहाप्रभु अनुयाई, मां कामाख्या साधक*
*कोटा~वृंदावन*
9460816109
8209357415

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