पृथ्वी की सुरक्षा पृथ्वी दिवस मनानें से नहीं, बल्कि हिन्दुत्व के विचारों से ही संभव हैं Earth Day
रामचरित्र मानस के प्रारम्भ में पृथ्वी एक देवी के रूप में , भगवान विष्णुजी के समक्ष पहुंच कर, विनती करती है कि पृथ्वी लोक में पापाचार,अनाचार और हिंसक लीलायें बहुत बड गई है। आप इनसे मेरी रक्षा कर पृथ्वी पर शांती सदभाव की स्थापना करें। इसीक्रम में भगवान विष्णु जी श्रीराम के स्वरूप में पृथ्वी पर अवतार लेते हैं और पृथ्वी को अत्याचारियों से मुक्त कर रामराज जैसी लोककल्याणकारी उत्तम व्यवस्था देते हैं।
हिन्दू जीवन पद्यती पृथ्वी को एक देवी मानती है। उसमें प्राण होनें कष्ट होने दुखी होनें के भाव से परिचित है। यह संस्कृति प्रकृति में 84 लाख प्रकार के शरीरों को प्राणवान मानती है। नदियों पर्वतों जलाशयों को जीवन्त मानती है। इस लिये हिन्दू जीवन दर्शन में ही यह ताकत है कि वह पृथ्वी पर पर्यावरण की रक्षा एवं प्रदूषण से मुक्ति करवा सकती है, नियंत्रित करवा सकती है। पृथ्वी की सुरक्षा पृथ्वी दिवस मनानें से नहीं बल्कि हिन्दुत्व के विचारों से ही संभव हैं ।
प्रदूषण चाहे मानव व्यवहार का हो, जीवन पद्धती का हो या आद्धोगिकीकरण का हो । इसके लिये जिम्मेवार तो सरकारी तंत्र ही है जिसनें पृथ्वी के संसाधनों का अनावश्यक दोहन कर उसे खतरनाक स्थिती में ला दिया है। उचित और अंधाधुंध के भेद को संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। किन्तु लाभ कमानें के मोह में सरकारों और प्रौ़द्धोगिकी पर कोई नियंत्रण और अनुशासन किसी का नहीं है। पृथ्वी दिवस मनानें मात्र से पृथ्वी नहीं बचनें वाली । यह तेजी से गर्मी की ओर बढ़ रही है जो अन्ततः मानव सभ्यता को नष्ट करने की ओर बढना ही है । पृथ्वी की सुरक्षा पृथ्वी दिवस मनानें से नहीं बल्कि हिन्दुत्व के विचारों से ही संभव हैं ।
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हमारी माता है पृथ्वी
वेदों का उद्घोष – अथर्ववेद में कहा गया है कि 'माता भूमि':, पुत्रो अहं पृथिव्या:। अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं… यजुर्वेद में भी कहा गया है- नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या:। अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है।
माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्या
(Mata Bhumi putroham prithivyah)
Meaning: – पृथ्वी मेरी माता है और मैंं उसका पुत्र हूँ “Earth is my mother I am her son”
वेदों के संहिता भाग में मंत्रों का शुद्ध रूप रहता है जो देवस्तुति एवं विभिन्न यज्ञों के समय पढ़ा जाता है। अभिलाषा प्रकट करने वाले मंत्रों तथा गीतों का संग्रह होने से संहिताओं को संग्रह कहा जाता है। इन संहिताओं में अनेक देवताओं से सम्बद्ध सूक्त प्राप्त होते हैं। सूक्त की परिभाषा करते हुए वृहद्देवताकार कहते हैं-
सम्पूर्णमृषिवाक्यं तु सूक्तमित्यsभिधीयतेअर्थात् मन्त्रद्रष्टा ऋषि के सम्पूर्ण वाक्य को सूक्त कहते हैँ, जिसमेँ एक अथवा अनेक मन्त्रों में देवताओं के नाम दिखलाई पड़ते हैैं।
सूक्त के चार भेद:- देवता, ऋषि, छन्द एवं अर्थ।
पृथ्वी सूक्त के 12.1.7 व 8 श्लोक कहते हैं "हे पृथ्वी माता आपके हिम आच्छादित पर्वत और वन शत्रुरहित हों। आपके शरीर के पोषक तत्व हमें प्रतिष्ठा दें। यह पृथ्वी हमारी माता है और हम इसके पुत्र- माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या:। (वही 11-12) स्तुति है "हे माता!
आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ।।-(यजु० २२/२२)*
इस मन्त्र में एक आदर्श राष्ट्र का वर्णन है। हमारा राष्ट्र कैसा हो?~~मन्त्र का पद्यानुवाद~~?~प्रभु राष्ट्र में कुशल हों ब्राह्मण,ब्रह्म वर्चस् सिखलाने वाले|क्षत्रिय हों बहु शूरवीर,दुष्टों से राष्ट्र बचाने वाले| तीव्र गति वाले घोड़े हों,बैल समर्थ हों बलशाली| गौ माताएं हृष्ट पुष्ट हों,बहे दूध दहियों की नाली|नारी हो आधार राष्ट्र की,जिस पर सबको नाज रहे| शूरवीर जय शील हो संतति, उन्नत सभ्य स्वराज रहे| अतिवृष्टि ना अनावृष्टि हो,पके अन्न औषधि फल बाली| प्रभो आपकी कृपादृष्टि में, झम झम मेघ करें दे ताली| योगक्षेम हो सिद्ध हमारा, सुकर्तव्य पर हमें चलाओ| बढ़े नित्य प्रति राष्ट्र हमारा,विमल मधुर अमृत बरसाओ|
ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी ।
क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥
होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही ।
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥
बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें ।
इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥
फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी ।
हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥
आदि काल से ही पृथ्वी को मातृभूमि की संज्ञा दी गई है... भारतीय अनुभूति में पृथ्वी आदरणीय बताई गई है… इसीलिए पृथ्वी को माता कहा गया… महाभारत के यक्ष प्रश्नों में इस अनुभूति का खुलासा होता है… यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि आकाश से भी ऊंचा क्या है और पृथ्वी से भी भारी क्या है? युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि पिता आकाश से ऊंचा है और माता पृथ्वी से भी भारी है… हम उनके अंश हैं… यही नहीं इसका साक्ष्य वेदों (अथर्ववेद और यजुर्वेद) में भी मिलता हैं… यही नहीं सिंधु घाटी सभ्यता जो 3300-1700 ई.पू. की मानी जाती है… विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी… सिंधु सभ्यता के लोग भी धरती को उर्वरता की देवी मानते थे और पूजा करते थे…
वेदों का उद्घोष – अथर्ववेद में कहा गया है कि ‘माता भूमि’:, पुत्रो अहं पृथिव्या:। अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं… यजुर्वेद में भी कहा गया है- नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या:। अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है।
वाल्मीकि रामायण- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ (जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।)
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पृथ्वी की सुरक्षा हिन्दुत्व से ही संभव
हिन्दुत्व एवं पर्यावरण सुरक्षा
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धर्म और पर्यावरणीय संरक्षण
वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में पर्यावरण एक अहम मुद्दा है तथा बढ़ता भूमंडलीय उष्मन (Global Warming), ग्रीनहाउस गैसों का प्रभाव, जैव विविधता संकट तथा प्रदूषण को नियंत्रित करना आज के दौर की मुख्य चुनौतियाँ हैं। पर्यावरण संरक्षण हेतु वैश्विक स्तर पर देशों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं, गैर-सरकारी संगठनों तथा स्थानीय समूहों द्वारा लगातार प्रयास किये जा रहे हैं।
पर्यावरणीय संरक्षण के लिये विश्व में कार्य कर रही इन संस्थाओं के अलावा कई धार्मिक समूह भी इसमें प्रमुख भागीदारी दे रहे हैं। विश्व के प्रत्येक 10 में से 8 व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में धर्म से संबंधित हैं तथा विश्व के प्रमुख धर्मों में इसाई, मुसलमान, हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, यहूदी, बहाई आदि शामिल हैं।
हालाँकि विश्व के सभी धर्म पर्यावरण के प्रति सद्भाव व नैतिकता का पालन करने की प्रेरणा देते हैं लेकिन वर्तमान में धार्मिक ग्रंथों और समाज के व्यवहार में अंतर देखने को मिल रहा है।
पर्यावरण संरक्षण में धर्म की भूमिका:
धर्म और पर्यावरण में एक गहरा संबंध है तथा सभी धर्मों का दृष्टिकोण प्रकृति के प्रति सकारात्मक रहा है। उदाहरण के तौर पर बौद्ध धर्म का मत है कि सभी जीव-जंतुओं, वनस्पतियों व मनुष्यों का जीवन एक दूसरे से संबंधित हैं इसलिये व्यक्ति को सभी जीवों का सम्मान करना चाहिये। इसी प्रकार बहाई धर्म का मानना है कि प्राकृतिक ऐश्वर्य और विविधता मानव जाति पर ईश्वर की कृपा है, अतः हमे इसकी रक्षा करनी चाहिये।
वर्तमान में पर्यावरण संरक्षण तथा भूमंडलीय उष्मन के नियंत्रण हेतु व्यापक प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन इसके माध्यम से पर्यावरणीय लक्ष्यों को प्राप्त करने की राह अभी भी काफी दूर है। अतः इन लक्ष्यों को जन सामान्य की भागीदारी के माध्यम से संभाव्य बनाया जा सकता है।
विश्व के सभी समुदायों में धर्म एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है और बड़ी संख्या में लोग धर्म में आस्था रखते हैं। इसलिये पर्यावरण संरक्षण में धर्म अहम भूमिका निभा सकता है और पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने में मदद मिल सकती है।
विभिन्न धर्मों में पर्यावरण संरक्षण हेतु अलग-अलग सुझाव दिये गए हैं जो कि इस प्रकार है-
हिंदू:
हिंदू धर्म में प्रकृति को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है तथा प्रकृति के विभिन्न रूपों को देवी देवताओं का रूप माना गया है। हिंदू धर्म के अनुसार, जीवन पाँच तत्त्वों- क्षिति (पृथ्वी), जल, पावक (अग्नि), गगन (आकाश), समीर (वायु) से मिलकर बना है।
हिंदू धर्म में पृथ्वी को देवी का रूप माना गया है। इसके अलावा इसके विभिन्न अवयव जैसे- पर्वत, नदी, जंगल, तालाब, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि सभी को दैवीय कथाओं व पुराणों से जोड़कर देखा जाता है।
हिंदू ग्रंथ जैसे- भगवद्गीता में अनेक स्थानों पर कहा गया है कि ईश्वर सर्वव्यापी है तथा विभिन्न रूपों में सभी प्राणियों में विद्यमान है इसलिये व्यक्ति को सभी जीवों की रक्षा करनी चाहिये।
हिंदू धर्म में कर्म की प्रधानता पर बल दिया जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त होता है। इसके अलावा व्यक्ति के कर्मों का प्रभाव प्रकृति पर भी पड़ता है अतः मानव जाति को प्रकृति तथा उसके विभिन्न जीवों की रक्षा करना चाहिये।
हिंदू धर्म में पुनर्जन्म (Reincarnation) पर विश्वास किया जाता है। इसके अनुसार, मृत्यु के बाद कोई व्यक्ति पृथ्वी पर विद्यमान किस जीव के रूप में जन्म लेगा यह उसके कर्मों पर निर्भर करता है। इसलिये सभी जीवों के प्रति अहिंसा हिंदू धर्म का मुख्य सिद्धांत है।
बौद्ध:
बौद्ध धर्म पूर्णतः प्रेम, सद्भाव तथा अहिंसा पर आधारित है।
बौद्ध
धर्म ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ पर आधारित है जिसे करण-कारण का सिद्धांत भी कहते
हैं। इसके अनुसार, प्रत्येक कार्य का प्रभाव होता है। इसे हिंदू धर्म के
कर्म के सिद्धांत के समान माना जा सकता है अर्थात् मानव के व्यवहार का
प्रभाव उसके पर्यावरण पर पड़ता है।
बौद्ध धर्म साधारण जीवनशैली को बढ़ावा देता है, जो सतत-पोषणीय विकास के लिये आवश्यक है। यह संसाधनों के अतिदोहन को वर्जित करता है।
बौद्ध
धर्म सभी प्राकृतिक जीवों की परस्पर निर्भरता में विश्वास करता है और
इसमें सभी जीव-जंतु, वनस्पतियाँ, नदी, पर्वत, जंगल आदि शामिल हैं।
जैन:
जैन धर्म में अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है तथा किसी भी जीव-जंतु, वनस्पति आदि को नुकसान पहुँचाना वर्जित माना गया है।
जैन
धर्म में पंचमहाव्रत है- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
जैन धर्म को मानने वाले जीवन के सभी आयामों में इन पंचमहाव्रतों का अनुपालन
करते हैं।
अतः जैन धर्म के अनुयायियों के लिये प्रकृति व इसके सभी जीव
जंतुओं को सामान माना गया है तथा इनका संरक्षण और इनके प्रति समान व्यवहार
करना इस धर्म की मूल शिक्षा है।
सिक्ख:
सिक्ख धर्म के अनुसार,
संसार में स्थित सभी वस्तुएँ ईश्वर की इच्छा के अनुरूप ही कार्य करती हैं
तथा ईश्वर उनकी रक्षा करता है। सिक्ख धर्म की शिक्षा दिखावे के लिये किये
गए व्यय का निषेध करती है।
सिक्ख धर्म के पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ
साहिब’ के अनुसार, सभी जीव-जंतु, वृक्ष, नदी, पर्वत, समुद्र आदि को ईश्वर
का रूप माना गया है।
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इस्लाम:
इस्लाम के अनुसार, पृथ्वी का मालिक खुदा है तथा यहाँ इंसान की भूमिका खलीफा अर्थात् खुदा के न्यासी (Trustee of God) की है एवं इंसान का कार्य पृथ्वी और इसके विभिन्न अवयवों की रक्षा करना है।
इस्लाम की पवित्र पुस्तक कुरान के अनुसार, सृष्टि की रचना जल से हुई है तथा जल को व्यर्थ करना इस्राफ (पाप) है। इसके अलावा किसी भी प्राकृतिक संसाधन का व्यर्थ उपयोग करना इस्लाम में वर्जित माना गया है।
इसके अलावा इस्लाम में कुछ पर्यावरणीय संरक्षित क्षेत्र हैं जिसे ‘हरम’ कहते हैं, इन्हें इस्लाम में वर्जित माना गया है।
कुरान में 6,000 से अधिक आयते हैं जिनमें 500 से अधिक प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित है। इन घटनाओं में अधिकतर पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, पौधे, जल आदि की चर्चा की गई है। इस्लाम में जल के सीमित उपयोग पर ज़ोर दिया जाता है।
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इसाई:
इसाई धर्म का मत है कि सभी जीवों की रचना ईश्वर के प्रेम का रूप है तथा मानव को जैविक विविधता तथा ईश्वर के निर्माण को नष्ट करने का अधिकार नहीं है।
इस्लाम की भाँति ही इसाई धर्म के अनुसार भी मनुष्य को सृष्टि के अन्य जीवों की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
इसके अलावा यह संसाधनों के सीमित उपयोग और उनके संरक्षण पर ज़ोर देता है।
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यहूदी:
हिब्रू बाइबिल तोराह (Torah) में प्रकृति के संरक्षण के लिये अनेक नैतिक बाध्यताएँ दी गई हैं।
तोराह के अनुसार, “जब ईश्वर ने आदम को बनाया, उसने उसे स्वर्ग के बगीचे दिखाए और कहा मेरे कार्यों को देखो, कितना सुंदर है ये? मैंने जो भी बनाया है वह सब तुम्हारे लिये है। तुम्हें इसकी रक्षा करनी है और यदि तुमने इसे नष्ट किया तो तुम्हारे बाद इसे ठीक करने वाला कोई नहीं होगा।”
इस प्रकार यहूदी धर्म में भी पर्यावरण संरक्षण को विशेष महत्त्व दिया गया है।
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