जब होगा अपनी भाषा में ज्ञान और विज्ञान, तब विश्व बोलेगा जय हिन्दुस्तान
14 सितम्बर, हिन्दी दिवस के अवसर पर विशेष
(यह आलेख काफी पहले (2002 में) लिखा गया था, कृपया इसे अपडेट करनें में मदद करें, सुझाव दें।)
जब होगा अपनी भाषा में ज्ञान और विज्ञान, तब विश्व बोलेगा जय हिन्दुस्तान !
मैं देशी भाषाओं की उपेक्षा और नजरअंदाजी के कारण देश को होने वाली हानियों और विदेशियों द्वारा उठाये जाने वाले लाभ का वह सारगर्भित उदाहरण पेश करना चाहता हूं, जो संसद की कार्यवाही में आज से दस साल पहले 1997 में दर्ज हुआ था और इसके बाद भी खास ध्यान नहीं दिया गया।
वाक्या है देश की स्वतंत्रता की 50वीं वर्षगांठ का, तब इन्द्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री थे और इस महान अवसर पर स्वतंत्रता के बाद क्या पाया-क्या खोया, इसकी जांच पड़ताल सांसदों के द्वारा की गई थी। उसी कार्यवाही में भाग लेते हुए 30 अगस्त 1997 को हुगली के सांसद रूपचंद पाल ने कहा वह बहुत ही महत्वपूर्ण है:-
रूपचंद पाल
महोदय,
हम जैव विधिता के क्षैत्र में अत्यंत सम्पन्न हैं और इससे 60- 70 बिलियन रूपया अर्जित किया जा सकता है। आज मैं केवल एक सप्ताह पहले की बात का उल्लेख कर रहा हूं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में हमारे वैज्ञानिकों ने एक महत्वपूर्ण लड़ाई जीती है और हल्दी चूर्ण की घाव भरने की क्षमता के संबंध में अमेरिका की चुनौती को स्वीकार करते हुए, हमारे देश ने पेटेंट का अधिकार हासिल कर लिया है। यह एक मामूली जीत लगती है, लेकिन भारतीय अनुसंधान परिषद के महानिदेशक तथा अनेक वैज्ञानिकों ने इस संबंध में यह निष्कर्ष निकाला है कि यह एक महत्वपूर्ण जीत है। जिस चीज को हम नीम के मामले में प्राप्त नहीं कर सके, उसे हमने हल्दी के संबंध में प्राप्त कर लिया है।
इससे क्या पता चलता है, हम जैव विविधता के क्षैत्र में सम्पन्न हैं। हमारे पास सैंकडों किस्म के पेड़- पौधे तथा जडी-बूटियां है। जिनको यदि हम जैव प्रौद्यौगिकी ज्ञान के माध्यम से धन में बदल सकेत तो हम विश्व के सम्पन्नतम देशों में एक हो सकते है। लेकिन हमने अभी अपनी बु द्ध का उपयुक्त तरीके से इस्तेमाल नहीं किया है। लेकिन कुछ विकसित देश, विशेषकर कि संयुक्त राज्य अमरीका ने अभी तक 1993 के जैव विविधता समझौते की पुष्टि नहीं की है।
इसके साथ-साथ जैव सम्पदा की चोरी जारी है। हमारे जैसे अन्य देश अपने-अपने देश के कानून के अनुसार दावे कर रहे है। उनका कानून यह है कि यदि कुछ जानकारी व्यवहार में है तो इसके पेटेंट की अनुमति दी जा सकती है। लेकिन हमारे मामले में उनका कहना है कि प्रलेखन तथा प्रस्तुतीकरण करना होगा। सैंकडों तथा हजारों पोधौं और जडी-बूटियों का ज्ञान केवल जनजातीय लोगों के जनजीवन तथा परम्परा में देखने में मिलता है। उनका प्रलेखन करना बहुत बडा काम है। लेकिन हम उनका प्रलेखन नहीं सकते। वियतनाम में ऐसा किया गया है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हाराव उनका उल्लेख कर रहे थे। चीन में तथा अनेक अन्य एशिया के देशों में भी ऐसा किया गया है। लेकिन आज तक हम पेटेंट ज्ञान के संबंध में बहुत पीछे है।
राष्ट्रहित और भाषा
इन चंद पेराग्राफों में जो कुछ कहा गया है वह प्रथम दृष्टया पेटेंट का मामला लगता है मगर असल में यह मामला राष्ट्रहित और भाषा का है, हमारा राष्ट्रीय नेतृत्व, उनके अधिकारी कर्मचारी सबके सब अंग्रेजी में फंसे हुए है। इन्हे हम यूरण्डपंथी कह सकते हैं, बादामी अंग्रेज कह सकते हैं। वे देशी भाषाओं के ज्ञान को समझते ही नहीं हैं, हीन भावना से देखते है। जब मन में ही प्रथम दृष्टया उपेक्षा और घृणा हो तो उसके पोजेटिव पक्ष पर क्या खाक काम करेंगे ! हम यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि हमारा देश आदिकाल से ही हर क्षैत्र में अग्रणी रहा है, हमनें अपने तमाम ज्ञान-विज्ञान की सार संभाल नहीं की,उसे लिपिबद्ध नहीं किया ! यह इसीलिए हुआ कि हमने अपनी निज भाषाओं की हमेशा ही उपेक्षा की। हमारे पूर्वर्जों के घोर परिश्रम से प्राप्त विविध ज्ञान-विज्ञान की कदर नहीं की, जबकि उसी ज्ञान-विज्ञान के आधार पर मार्ग और लक्ष्य, पश्चिम के लोगों ने तय किये और वे हमसे बहुत अधिक सम्पन्न बन गये।
पश्चिम के लोग आत्मा और पुर्नजन्म में विश्वास नहीं रखते थे मगर वे हमारे सम्पर्क में आने के बाद इसको मानने पर विवश हुए क्योंकि हम सत्य के पास थे। ब्रम्हांण में विविध लोकों का ज्ञान हमारा है, हमारे इन्द्रजाल और अन्य जादुई साहित्य का मजाक उडाने वाले आज हैरी पाटर के जादुई करिश्मे के पीछे पागल है।
सवाल वहीं खड़ा है कि हम अपने नेताओं को हीन भावना से बाहर कैसे निकालें, उनको अंग्रेजी के दलालों के चुंगल से बाहर कैसे लायें, जो झूठी राय और दलीलों से हमारे नेताओं को बहकाते रहते हैं कि अंग्रेजी के बिना काम नहीं चल सकता है।
भाषा सम्बंधी कुछ तथ्य यहां सबसे पहले हम लेते हैं ताकि कुछ भ्रम के बादल तो साफ हो सके:-
1. विश्व की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा “मंदारिन” है जिसे हम सामान्यतया चीनी भाषा कहते हैं, इसे चीन और ताईवान के 1075 मिलियन अर्थात 107 करोड़ से अधिक व्यक्ति बोलते है इसी में अपना काम करते हैं।
2. विश्व में सिर्फ 514 मिलियन अर्थात 51 करोड 40 लाख के लगभग व्यक्ति अंग्रेजी बोलते है। जबकि 496 मिलियन अर्थात लगभग 49 करोड 60 लाख व्यक्ति हिन्दी बोलते है। यह आंकडे 2001 की पुस्तक से है, सात साल गुजर चुके हैं, अगली जनगणना 2011 में होगी तब हिन्दी अंग्रेजी को पछाड़ चुकी होगी। वैसे तो अब हिन्दी अंग्रेजी से आगे निकल गई होगी। उस समय भी हमारी भाषा तीसरे क्रम पर थी और अंग्रेजी भाषा दूसरे क्रम पर थी। इसलिये हम क्यों भाषाई हीनता से नहीं निकल पा रहे है।
3. हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं का भी रिकार्ड कोई कमजोर नहीं है देखिये:-
क. बंगाली 215 मिलियन
ख. पंजाबी 96 मिलियन
ग. तेलगु 75 मिलियन (आंध्र)
घ. तमिल 75 मिलियन (तमिलनाडू,श्रीलंका, मलेशिया )
ङ. मराठी 72 मिलियन (महाराष्ट्र)
च. कन्नड 47 मिलियन (कर्नाटक)
छ. मलयालम 36 मिलियन (केरल)
यदि इन भाषाओं में हिन्दी बोलने वालों की संख्या का जोड़ भी हिन्दी भाषा के आंकड़े में डाल दिया जाये तो यह आंकड़ा अंग्रेजी से डेढ़ गुना होगा।
कुल मिलाकर दुनिया में 4000 से कुछ अधिक भाषायें हैं इसमें से हमारे देश में ही 2000 से अधिक भाषायें हैं, इसका सीधा सा अर्थ है कि दुनिया को भाषा संबंधी ज्ञान हमने दिया और आज भी हम इसकी विविधता में भी सबसे आगे है। इसलिए इस भ्रम को सबसे पहले निकाला जाये कि सब कुछ अंग्रेजी ही है, और बाकी कुछ भी नहीं है। इस संदर्भ में भी कुछ उदाहरण मैं यहां दर्ज करना चाहूंगा:-
1. स्पेन व लैटिन अमरीका में स्पेनिश भाषा बोली और पढ़ी जाती है, कुल संख्या 425 मिलियन।
2. रूस में रूसी भाषा बोली और पढ़ी जाती है, कुल संख्या 275 मिलियन।
3. जर्मनी व ऑस्ट्रिया में जर्मनी भाषा बोली और पढ़ी जाती है, कुल संख्या 128 मिलियन।
4. जापान व स्विटजरलैंड में जापान भाषा बोली और पढ़ी जाती है, कुल संख्या 126 मिलियन।
इन चार उदाहरणों से अब समझ में आ जायेगा कि अंग्रेजी का हुल्लड मात्र है, अन्यथा विश्व के अन्य विकसित देशों ने बिना अंग्रेजी के ही अपनी तरक्की की है। क्योंकि निज भाषा में ज्ञान को बढाने और विस्तार देने से समाज विकसित व परिपक्व होता है, ज्ञानवान होता है। जबकि उसी ज्ञान को विदेशी भाषा में रखने से वह उन चंद लागों के एकाधिकार में रहता है जो उसे जानते है। अर्थात भारत में अंग्रेजी को बनाये रखने का सीधा सा अर्थ है कि देश के आम नागरिक को अंग्रेजी के जानकारों की कैदगाह में रखना। इसीलिए तो महात्मा गांधी कहा करते थे कि जो देश अपनी भाषा नहीं बोल सकता वह गूंगा है।
यूं तो हिन्दी से सहानुभूति रखने वाले और सहानुभूति का दिखावा करने वाले बहुत से मिल जायेंगे, मैं हिन्दी के पक्ष में प्रसिद्ध लेखक व पत्रकार एवं हिन्दी समाचार एजेंसी भाषा के पूर्व सम्पादक रहे डॉ. वेद प्रताप वैदिक के शब्दों को उद्धत करता हूं:-
‘‘संविधान का जैसा उल्लंघन भारत में होता है, दुनिया में कहीं भी नहीं होता। संविधान में हिन्दी को राजभाषा बनाया गया और कहा गया कि धीरे - धीरे अंग्रेजी को हटाया जाये। संविधान को बने हुए पचपन सालों (2002 में) में हुआ क्या ? प्रयत्न यह हुआ कि अंग्रेजी को जमाया जाए। हटने के बजाए, धीरे-धीरे वह जम गई। ऐसी जम गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति की हिम्मत नहीं कि उसे छेड़ सके। उन्हें अंग्रेजी का इस्तेमाल करते जरा भी लज्जा नहीं होती, जरा भी शर्म नहीं आती, जरा भी डर नहीं लगता। एक क्षण के लिए भी नहीं सोचते कि भारत आजाद देश है और वे आजाद देश के प्रतिनिधि हैं। जब वे अंग्रेजी में बोलते हैं तो वे अपने आचरण से देश के लगभग 100 करोड़ लोगों को गूंगा-बहरा बना देते हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या उन्हें समझ-बूझ नहीं पाती। सिर्फ तीन से पांच प्रतिशत लोगों के लिए वे रेडियो, आकाशवाणी, संसद, सरकार और देश का समय खराब करते हैं।’’
कई बार लगता है कि प्रसिद्ध लेखक व राजनैतिक सम्पर्कों के धनी माने जाने वाले जीवराज सिंधी के शब्द बहुत ज्यादा सत्य के निकट हैं:-
‘‘लगता है अंग्रेजों ने जाते-जाते इस देश में अपने एजेंट स्थापित कर दिए और उन्हें राजनीतिक उपनिवेश खत्म होने के बाद आर्थिक और सांस्कृतिक उपनिवेश चलाते रहने का काम सौंप दिया। ये एजेंट उन्हीं लोगों में से थे जो 1947 से पहले उपनिवेश के तंत्र को चला रहे थे। परिणाम स्वरूप वही नौकरशाही, वही पुलिस, वही कोर्ट-कचहरियों का तंत्र और वही शिक्षा प्रणाली बनी रही। जैसे कि विदेशी शासन चलता था वैसे ही देशी शासन भी चलने लगा। भीतर ही भीतर ये तत्व साजिश करते रहे कि जिन मूल्यों के लिए आजादी का आन्दोलन चला था, वे मूल्य धीरे-धीरे हास्यास्पद बनते जायें। उन्होंने राष्ट्रीय एकता के भूत को खड़ा करके राष्ट्रभाषा के प्रति लोगों में अरूचि पैदा की। इतना ही नहीं मैरिट का नारा देकर कमजोर वर्गों को दी गई सुविधाओं को विकृत रूप में पेश किया। फिर खुली खिड़की के नाम पर विदेशी भाषा और विदेशी संस्कृति को अनिवार्य बताया जाने लगा। हमारे नेता लोग भी साम्राज्यवाद के अवशिष्ट तत्वों के रंग में रंगते गए। उन्होंने ऐसी शिक्षा प्रणाली बनाई कि उच्च धनी वर्गों का पीढ़ी दर पीढ़ी नियंत्रण बना रहे। उच्च वर्गों के लिए अंग्रेजी माध्यम को शिक्षा और पदों के लिए अंग्रेजी की योग्यता अनिवार्य कर दी, जिससे गरीब और सामान्य वर्गों के बच्चे अधिकार वाले पदों पर न आ सकें।’’
कुछ लोग यह कह सकते हैं कि कांग्रेस व संविधान निर्माता ही दोषी हैं मगर ऐसा नहीं था, ज्यादातर पक्ष हिन्दी का होने के बावजूद मात्र पंडित नेहरू की कुटिलता का शिकार राजभाषा को किया गया, अन्यथा सरदार पटेल भाषा को मूल अधिकार बनाना चाहते थे। जिस आश्वासन के जरिये मूल अधिकारों से निकाल लिया गया और बाद में तमाम तमाशे हुए। मगर संविधान सभा के अध्यक्ष हिन्दी के साथ न्याय करने के लिये अग्रसर थे और उन्होंने किया भी वही। वे मूल अधिकारों की चर्चा में भी भाषाई गुलामी से मुक्ति का संकेत दे चुके थे जो यथावत ही मैं यहां रखना चाहता हूं ताकि आप सब भी समझ सकें:-
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, संविधान सभा के अध्यक्ष थे तथा वे ही देश के प्रथम राष्ट्रपति बने थे, उन्होंने संविधान सभा की अध्यक्षता करते हुए 2 मई 1947 को जो विचार व्यक्त किये वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि उनकी आशंका सत्य भी साबित हुई।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
...फिर एक बात और है जिसके बारे में मैं कुछ चिन्तित सा रहा हूं और मैं चाहता हूं कि सभा भी उस चिन्ता में भाग लें। इसलिए नहीं कि मैं तत्काल उसका कोई जवाब चाहता हूं, पर मैं यह चाहता हूं कि सदस्यगण उसे ध्यान में रखें। हमारी सभी कार्यवाईयां अंग्रेजी में इसलिए चल रही हैं कि बहुत से सदस्य ऐसे हैं, जो राष्ट्रभाषा से परिचित नहीं है - इसलिए मसविदा भी अंग्रेजी में ही बनाये जा रहे हैं। मसविदों में बहुत सी अभिव्यक्तियां ऐसी प्रयोग की गई हैं जो कला की शब्दावली अर्थात विशिष्ट भाषा कही जा सकती है, जो किसी न किसी विधान से ली गई हैं। भविष्य में बहुत शीघ्र नहीं, पर आगे चलकर ऐसा समय आ सकता है, जब हम सम्भवतः अंग्रेजी पर निर्भर न रहें और अगर आज विधान अंग्रेजी में पास किया जाता है तो वहीं मौलिक विधान बना रहेगा और भावार्थ का कोई भी सवाल उसी भाषा के द्वारा हल होगा जिसमें आज यह विधान पास किया जा रहा है। प्रश्न यह है कि क्या भविष्य में सदा हमारे न्यायाधीशों को अंग्रेजी भाषा से परिचित होना आवश्यक होगा जिससे वह विधान की व्याख्या कर सके ? यदि विधान अंग्रेजी में पास किया जाता है तो स्वाभाविक रूप से यही परिणाम होगा। इस समय कोई ऐसा सुझाव पेश करना कठिन है जो इस कठिनाई को सुलझा सके। मैं सोच रहा था कि हम विधान का मसविदा तैयार होने पर जितना जल्दी हो सके उसका अनुवाद करा लें और अन्त में उसे अपने मौलिक विधान के रूप में पास करें।
(हर्षध्वनि)
यदि कहीं भावार्थ लगाने में कोई ‘‘अस्पष्टता या कठिनाई पेश आई तो अंग्रेजी प्रति भी हवाले के लिए सामने रहेगी, पर मैं व्यक्तिगत रूप से यह चाहता हूं कि विधान मौलिक रूप में हमारी मुख्य भाषा में हो, अंग्रेजी में नहीं। ( उच्च हर्षध्वनि)
जिससे हमारे भावी न्यायाधीश अपनी भाषा पर निर्भर हो सकें, विदेशी भाषा पर नहीं। (हर्षध्वनि) जैसा कि मैं कह चुका हूं मैं बात को कोई जवाब पाने की आशा से नहीं कह रहा हूं और मैं चाहता हूं कि सदस्यगण इस पर विचार करेंगे और इस बीच यदि आपकी आज्ञा हो तो जहां तक शीघ्र प्रभाव होगा, इस प्रस्तुत विधान का अनुवाद अपनी भाषा में करा लूंगा।....’’
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की सभी आशंकायें सत्य साबित हुईं। मगर हिन्दी आगे बड़ी और दम ठोक कर आगे बढ़ी, हिन्दी फिल्मों ने तमाम एशिया और रसिया में घूम मचाई हिन्दी गीत संगीत ने सब का मन मोह लिया। आज बाजार बाद आ रहा है, उपभोक्ताओं के संरक्षण कानून हैं, माल बेचने वाले को उपभोक्ता को उसकी भाषा में सारी बातें लिखनी होंगी, ज्यों - ज्यों सतर्कता बढ़ेगी त्यों-त्यों हिन्दी का प्रभाव और विकास तो बढ़ेगा ही, इसे कोई रोक नहीं सकता।
मगर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को भी समझना चाहिये कि देश को गुलामी की भाषा से मुक्त करवायें! कानून बनायें, जुर्माने लगायें, अनिवार्यता जाती करें। हम नहीं कहते किसी अन्य भारतीय भाषा पर हिन्दी लादो। हम तो सिर्फ इतना कहते हैं कि अंग्रेजी की जगह हिन्दी को अनिवार्य कर दीजिये। बस इतना भर पर्याप्त है। दवाई के लेबल अंग्रेजी में क्यों, जब खरीददार हिन्दी या अन्य भाषावाला है ? इस तरह से आप देखेंगे और बहस करेंगे तो हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं का भला होगा। यह हमें ही करना होगा आम चुनावों में मुद्दा बनाना होगा।
स्पष्ट कहना होगा कलक्टर, एसपी वही बनेगा जो भारतीय भाषा पढेगा! नहीं चाहिये अंग्रेजी जबान, जो देती कदम दर कदम नुकसान!
-राधाकृष्ण मंदिर रोड़,
डडवाड़ा, कोटा जंक्शन
9414180151
द्ध
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