कहानी - अमर विश्वास
*एक कहानी * एक विश्वास*
मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था.
उस दिन सफ़र से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया.
लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.
'अमर विश्वास' एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे.
मैंने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी.
इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर.
मैंने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला.
पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया.
लिखा था :
आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं.
मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा.
ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है.
घर पर सभी को मेरा प्रणाम.
आपका अमर.
मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गये.
एक दिन मैं कोलकाता में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलट_पलट रहा था
कि मेरी नज़र बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी.
वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनय विनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता.
मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नज़ारान देखता रहा.
पहली नज़र में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी.
वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता और फिर वही निराशा.
मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया.
वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था.
मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं.
मैंने उस लड़के को ध्यान से देखा.
साफ_सुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण.
ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था.
पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैंने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उससे पूछा, 'बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?'
'आप कितना दे सकते हैं, सर?'
'अरे, कुछ तुमने सोचा तो होगा.'
'आप जो दे देंगे,' लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.
'तुम्हें कितना चाहिए?' उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुज़ार रहा हूं.
'5 हजार रुपए,' वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.
'इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,'
मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.
अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था.
जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो.
मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ.
मैंने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उससे सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, 'देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते,
क्या बात है.? साफ साफ बताओ कि क्या ज़रूरत है?'
वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा.
शायद काफी समय निराशा का उतार चढ़ाव अब उसके बरदाश्त के बाहर था.
'सर, मैं 10+2 कर चुका हूं.
मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं.
मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है.
अब उसमें प्रवेश के लिए मुझे पैसे की ज़रूरत है.
कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं,
कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,'
लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंग्रेज़ी में कहा.
'तुम्हारा नाम क्या है?' मैंने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.
'अमर विश्वास.'
'तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो.
कितना पैसा चाहिए?'
'5 हजार,' अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.
'अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे?
इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,' इस बार मैंने थोड़ा हँस कर पूछा.
'सर, आपने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं.
आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं.
मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं,
आप पहले आदमी हैं जिसने इतना पूछा.
अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आपको किसी होटल में कप प्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,'
उसके स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.
उसके स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उसके लिए सहयोग की भावना तैरने लगी.
मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था जबकि दिल में उसकी बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था.
आखिर में दिल जीत गया.
मैंने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले जिनको मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था और उसे पकड़ा दिए.
वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी मायने रखते थे लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.
'देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में * तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए,
इसीलिये मैं ये कर रहा हूं.
तुमसे 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी.
सोचूंगा उसके लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,'
मैंने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.
अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उसकी आंखों में आंसू तैर आये.
उसने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.
'ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?'
'कोई ज़रूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो.
यह मेरा कार्ड है * जब भी कोई ज़रूरत हो तो मुझे बताना.'
वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैंने उस का कंधा थपथपाया * कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.
कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था जिसमें अनिश्चितता ही ज्यादा थी.
कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा.
अत: मैंने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.
दिन गुजरते गए.
अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी.
मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नज़र आई.
एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उसके पते पर फिर भेज दूं.
भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गये. उसका संक्षिप्त सा पत्र आता जिसमें 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए
जिसे वह अपनी बहन बोलता था.
मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता.
मैंने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उसके पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं और न कभी वह मेरे घर आया.
कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा.
एक दिन उसका पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है.
छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.
मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ,
बिना उस पत्र की सचाई जाने.
समय पंख लगा कर उड़ता रहा.
अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा.
वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था.
मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी.
एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था.
अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी.
एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है.
शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?
मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया.
मैंने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.
शादी की गहमागहमी चल रही थी.
मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में.
एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी.एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिसकी गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.
मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है.
उसने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.
''सर, मैं अमर…'' वह बड़ी श्रद्धा से बोला.
मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी.
मैंने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया.
उसका बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था.
मिनी अब भी संशय में थी.
अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था.
मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया.
मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.
अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा.
उसने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया.
उसके भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गये.
इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उसको विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं.
हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया
और उसी के साथ साथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.
मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान और हमारा विश्वास ही है.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें