भरत जी का जीवन पूजनीय, अनुकरणीय और भ्रातृत्व धर्मपथ की सर्वोच्चता

 
 
भगवान श्री राम जी की तरह भरत जी का जीवन भी पूजनीय एवं अनुकरणीय

🚩संसार के इतिहास में सबसे प्राचीन इतिहासिक ग्रन्थ महर्षि वाल्मीकि रामायण है। इस ग्रन्थ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सहित भरत जी के पावन जीवन का भी चरित्र चित्रण है। राम के अनुज भरत जी ने भी भ्रातृत्व वा भ्रातृ-प्रेम की ऐसी मर्यादायें स्थापित की हैं कि उसके बाद संसार के इतिहास में अन्य कोई उसका पालन नहीं कर सका। 

🚩यद्यपि महाभारत में युधिष्ठिर जी के चारों भाईयों व माता द्रोपदी ने अपने बड़े भाई के लिए अनेक कष्ट सहन किये हैं, जो कि आदर्श हैं, परन्तु भरत का आदर्श देश काल व परिस्थितियों के भिन्न होने के कारण कुछ अलग व महत्तम है। श्री राम व भरत जी से सम्बन्धित घटनायें वैदिक काल में घटी थी। यह घटनायें सहस्रों व लाखों वर्ष पुरानी हैं। 

🚩आज वैदिक धर्म व संस्कृति अपने मूल व यथार्थ स्वरूप में देश व संसार में विद्यमान नहीं है। आज वेद कथित मानव मूल्यों का कितना पतन हुआ है, यह हम सभी जानते हैं। वर्तमान समय में बड़े शिक्षित लोग बड़ी सफाई के साथ झूठ बोलते हैं और प्रमाणों के अभाव में सत्य को जानते हुए भी उन्हें सहन करना पड़ता है। आज पद व प्रतिष्ठा तथा धन ही लोगों के लिए सब कुछ हो गया है। जिनसे देश की रक्षा की अपेक्षा की जाती है वह भी अपने स्वार्थों के कारण सच्ची बातों को तोड़ते मरोड़ते हैं। राष्ट्र  के हित में भी सभी एकमत नहीं हो पाते और एक दूसरे की टांग खींचना आम बात दिखाई देती है।

🚩 ऐसे समय में श्री राम व श्री भरत जी की बातें करना कुछ लोगों को हो सकता है कि उचित प्रतीत न लगे। इस पर भी देश के सामान्य अल्पशिक्षित वा अशिक्षित लोग आज भी श्री राम व भरत जैसे भाई के महान व्यक्तित्व से प्रभावित व प्रेरित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। यह सत्य की ही विजय कही जा सकती है। आज हम आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वान व संन्यासी स्वामी ब्रह्ममुनि जी की पुस्तक 'रामायण की विशेष शिक्षाएं' के आधार पर भरत जी के जीवन की कुछ महत्वपूर्ण एवं स्तुत्य चारित्रिक घटनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं।

🚩आदिकवि महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में ''भरत" जी का स्थान बहुत ऊंचा है। भरत जी में मर्यादा का, धार्मिकता, राम के प्रति आदर व स्नेह और ज्येष्ठानुवृति अत्यधिक थी। जिस भरत को राज्य दिलाने के लिये कैकेयी ने राम को वनवास दिलाया, पुनः राम के वनवास-शोक में दशरथ का प्राणान्त हो जाने पर मन्त्रियों ने राजसिंहासन पर बैठाने के लिये राम के वनवास आदि वृतान्त को गुप्त रख पिता दशरथ की ओर से भरत को मातुलगृह से बुलाया, पुनः भरत के अयोध्या पहुंचने पर मंत्रियों ने उसे राम के वनवास और पिता के देहान्त को सुनाकर राजसिंहासन पर बैठने की अनुमति दी तो वह भरत राज्य-प्राप्ति में प्रसन्न नहीं होते किन्तु विलाप करते हुए अचेत हो भूमि पर गिर पड़ते हैं।

🚩 महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है- 'अभिषेक्ष्यति रामं तु राजा यज्ञं नु यक्ष्यते। इत्यहं कृतसंकल्पो हृष्टो यात्रामयासिषम्।।' अर्थात् मेरा पिता राजा दशरथ राम का राज्याभिषेक करने के हेतु राजसूय यज्ञ करेगा यह संकल्प मन में रखकर प्रसन्न हो रहा मैं चला था। हाय ! यह क्या हुआ। यह है भरत के सौजन्य का प्रथम दृश्य। राज्यश्री को प्राप्त करने के लिये आजकल लोग भ्राता का वध तक कर देते हैं, परन्तु जिसमें निरपराध भरत ऐसे राज्य प्राप्ति में भी प्रसन्नता के स्थान पर विलाप करता है, अचेत हो जाता है, पुनः चेतना प्राप्त करके अपनी माता कैकेयी को धिक्कारते हुए कहता है कि 'हे माता ! तूने दुःख में दुःख दिया, घाव पर नमक छिड़का, पिता को मृत्यु के मुख में पहुंचाया और राम को वनवासी बनाया। इस कुल के नाशार्थ तू काल-रात्रि बनी।' अब भरत केवल इतने पर ही सन्तोष करके नहीं रह जाता कि जो होना था सो हो गया, राम तो चले गये, राज्यभार तो संभालना ही पड़ेगा। 

🚩परन्तु भरत तो राम की खोज में घर से बाहर निकल पड़ता है, मार्ग में एक स्थान पर गंगा के किनारे इंगुदिवृक्ष के नीचे घास पर राम के रात बिताने-सोने के सम्बन्ध में विलाप करता है जिसका वर्णन कर बाल्मीकि जी लिखते हैं कि 'हा ! मैं मरा। मैं हत्यारा हूं जो मेरे कारण पत्नीसहित राम अनाथ की भांति ऐसी धरती रूप शय्या पर सोता है।'

🚩भरत का कार्य केवल विलाप करने तक ही समाप्त नही होता किन्तु उसने राम की खोज कर उनकी सेवा में पहुंच अयोध्या लौटने का बहुत आग्रह किया, पर अति प्रयत्न करने पर भी राम नहीं लौट पाए तब भरत विवश हो क्या राज्यलक्ष्मी का उपभोग करता है? नहीं, नहीं, किन्तु राम की पादुकाएं प्रतिनिधिरूप में लेकर स्वयं वानप्रस्थी का रूप धारण कर नन्दी-ग्राम नाम के आश्रम में राम के लौटने की प्रतीक्षा करता हुआ 14 वर्ष बिताता है। (यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि भरत की इस स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है? इसका उत्तर हमें यही प्रतीत होता है कि भरत की इस स्थिति के लिए भी उनकी अपनी सगी माता कैकेयी जो भरत को अयोध्यापति के रूप में देखना चाहतीं थी, वही उत्तरदायीं हैं।

🚩 भरत की इस स्थिति का अनुमान कैकेयी ने स्वप्न में भी नहीं किया होगा। विपरीत परिस्थितियों से बचने के लिए हमें अपने जीवन में महर्षि दयानन्द के इस नियम का पालन करना ही चाहिये कि 'सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये।'-लेखक) वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड 1/2/23-25 में कहा गया है कि भरत ने राम की चरण-पादुकाएं लेकर कहा कि हे राम! चैदह वर्ष तक जटावल्कलधारी वानप्रस्थ बन कर फल, मूल खाता हुआ आपके आगमन की आकांक्षा रखता हुआ नगर से बाहर वसता हुआ रहूंगा, चैदहवें वर्ष के पूर्ण होने के दिन यदि मैं आपको न देख सका तो अग्नि में जल जाऊंगा।

🚩राम के आगमन की प्रतीक्षा में भरत की क्या दशा थी यह हनुमान् के मुख से भी सुनिये जब कि लंका विजय कर श्रीराम ने अयोध्या लौटते हुए हनुमान को भरत का हाल जानने के लिये भेजा था। इसका वर्णन करते हुए वाल्मीकि जी युद्धकाण्ड 125/27, 29, 31 श्लोकों में कहते हैं कि अयोध्या नगरी से कोश भर की दूरी पर वल्कल और कृष्णाजिन धारण किये हुए दुःखी, कृश, जटिल, धूलिधूसरित, श्रृगारहीन, भातृशोक में व्याकुल, फलमूलाहारी, दयानीय, तपस्वी, धर्मचारी, खुले केश वाले, वृक्षछाल और अजिन पर बैठे हुए, नियतेन्द्रिय, भावुक, ब्रह्मर्षिसदृश भरत को राम के आदेश से हनुमान ने देखा।  

🚩यहां भरत का आदर्श कितना ऊंचा है?, राम ने राज्य त्यागा और वनवास लिया बलात् अर्थात् पिता की आज्ञा से परन्तु भरत ने राज्यश्री को त्यागा और वानप्रस्थी बना स्वेच्छा से, राम के प्रति ज्येष्ठानुवृत्तिधर्म एवं मर्यादा के पालनार्थ भरत का त्याग राम के त्याग से कम नहीं है किन्तु इस दृष्टि से ऊंचा ही है।

🚩इतना ही नहीं, भरत के विचार तो और भी ऊंचे थे जैसे वह अपनी माता कैकेयी को सम्मुख कर कहते हैं कि हे पापे, मैं उस महाबलवान् राम को लाकर स्वयं वन में चला जाऊंगा, तूने बड़ा पाप किया है, मैं आंसूभरे प्रजाजनों के दृष्टिपथ होते हुए राम को छोड़ नहीं सकता, वह तू अग्नि में प्रविष्ट हो जा या स्वयं दण्डक वन में चली जा या कण्ठ में रज्जु बान्ध कर फांसी ले ले। भरत में राम के प्रति भक्तिप्रेम व ज्येष्ठानुवृति का परिचय इससे भी मिलता है कि जब लंकाविजय कर हनुमान् राम के आगमन का कुशल सन्देश भरत को देने आता है। 

🚩इसका वर्णन करते हुए वाल्मीकि जी ने लिखा है कि इस प्रकार राम के आगमन कुशल सन्देश को सुनकर भरत प्रसन्न एवं हर्ष से मोहित हो भूमि पर गिर पड़ा, पुनः कुछ देर में संभल कर आश्वासन के साथ प्रियवादी हनुमान् को आलिंगन कर आदर से बोला और हर्षजनक प्रीतिभरे बहुत आंसुओं से उसे सिंचित किया।

🚩यहां तक तो भरत ऊंचे जीवन वाला है। यह उसके निजी जीवन वृतान्तों से स्पष्ट हुआ। अब इसके सम्बन्ध में साक्षी रूप से राम तथा दशरथ के वचन भी सुनिये। 'न भ्रातरस्तात भवन्ति भरतोपमाः।' (वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड 18/15)। राम सुग्रीव से कहते हैं कि भरत जैसे भ्राता सभी नहीं होते। कैकेयी को समझाते और मनाते हुए दशरथ  (वा.रा. अयो. 12/62 में) कहते है कि 'न कथंचिद् ऋते रामाद् भरतो राज्यमावसेत्। रामादपि हि तं मन्ये धर्मतो बलवत्तरम्।।' ऐ कैकेयी ! तू जिस भरत के लिये राज्य के निमित्त राम को वनवास दिला रही है वह विना राम के किसी प्रकार भी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकता क्योंकि वह राम से भी धर्म में अधिक प्रबल है, ऐसा मैं मानता हूं। 

🚩इस प्रकार भरत का जीवन राम से कम आदर्श नहीं था। राम के जीवन की विशेषताएं और ही हैं। भरत जैसे भाई यदि परिवार में हों तो परिवार बहुत सुखमय बन सके और कभी भी दुःख तथा कलह का स्थान न मिले। स्वामी ब्रह्मुनि जी ने यह भी ऐतिहासिक तथ्य सूचित किया है कि भरत के दो पुत्र थे एक 'तक्ष' दूसरा 'पुष्कल।' तक्ष ने तक्षशिला (पंजाब में रावलपिण्डी के अन्तर्गत टैक्सिला नाम से प्रसिद्ध)  और पुष्कल ने गन्धर्व (गान्धार-कन्धार) देश में पुष्कलावत नगर को बसाया था वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड का श्लोक 101/11 प्रमाण देते हुए कहता है कि 'तक्षं तक्षशिलायां पुष्कलं पुष्कलावते। गन्धर्वदेशे रुचिरे गन्धारनिलये च सः।।'

🚩भरत जी का जीवन भी श्री राम की ही तरह महान व अनुकरणीय है। वह भी सभी देशवासियों के आदर, सम्मान, पूजा, अनुकरण, व्रत व संकल्प के अधिकारी हं। हमें श्री रामचन्द्र जी को स्मरण करते हुए उनके साथ भरतजी को भी स्मरण करते हुए उनका गुणानुवाद करना चाहिये जिससे हमारा जीवन भी उन जैसा बन सके। 
 
🍃🌷देवभूमि भारतम्🌷🍃
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श्री राम-भरत-संवाद, पादुका प्रदान, भरतजी की बिदाई
September 26, 2020 by parmender yadav

 
श्री राम-भरत-संवाद, पादुका प्रदान, भरतजी की बिदाई

चौपाई :
* भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू॥
भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं॥1॥
भावार्थ:-(अगले छठे दिन) सबेरे स्नान करके भरतजी, ब्राह्मण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करने के लिए अच्छा दिन है, यह मन में जानकर भी कृपालु श्री रामजी कहने में सकुचा रहे हैं॥1॥
 
* गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी॥
सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने गुरु वशिष्ठजी, राजा जनकजी, भरतजी और सारी सभा की ओर देखा, किन्तु फिर सकुचाकर दृष्टि फेरकर वे पृथ्वी की ओर ताकने लगे। सभा उनके शील की सराहना करके सोचती है कि श्री रामचन्द्रजी के समान संकोची स्वामी कहीं नहीं है॥2॥
 
* भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी॥
करि दंडवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी॥3॥
भावार्थ:-सुजान भरतजी श्री रामचन्द्रजी का रुख देखकर प्रेमपूर्वक उठकर, विशेष रूप से धीरज धारण कर दण्डवत करके हाथ जोड़कर कहने लगे- हे नाथ! आपने मेरी सभी रुचियाँ रखीं॥3॥
 
* मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई॥4॥
भावार्थ:-मेरे लिए सब लोगों ने संताप सहा और आपने भी बहुत प्रकार से दुःख पाया। अब स्वामी मुझे आज्ञा दें। मैं जाकर अवधि भर (चौदह वर्ष तक) अवध का सेवन करूँ॥4॥
 
दोहा :
* जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल॥313॥
भावार्थ:-हे दीनदयालु! जिस उपाय से यह दास फिर चरणों का दर्शन करे- हे कोसलाधीश! हे कृपालु! अवधिभर के लिए मुझे वही शिक्षा दीजिए॥313॥
 
चौपाई : 
* पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं। सब सुचि सरस सनेहँ सगाईं॥
राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥1॥
भावार्थ:-हे गोसाईं! आपके प्रेम और संबंध में अवधपुर वासी, कुटुम्बी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनंद) से युक्त हैं। आपके लिए भवदुःख (जन्म-मरण के दुःख) की ज्वाला में जलना भी अच्छा है और प्रभु (आप) के बिना परमपद (मोक्ष) का लाभ भी व्यर्थ है॥1॥
 
* स्वामि सुजानु जानि सब ही की। रुचि लालसा रहनि जन जी की॥
प्रनतपालु पालिहि सब काहू। देउ दुहू दिसि ओर निबाहू॥2॥
भावार्थ:-हे स्वामी! आप सुजान हैं, सभी के हृदय की और मुझ सेवक के मन की रुचि, लालसा (अभिलाषा) और रहनी जानकर, हे प्रणतपाल! आप सब किसी का पालन करेंगे और हे देव! दोनों ओर अन्त तक निबाहेंगे॥2॥

 
* अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किएँ बिचारु न सोचु खरो सो॥
आरति मोर नाथ कर छोहू। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू॥3॥
भावार्थ:-मुझे सब प्रकार से ऐसा बहुत बड़ा भरोसा है। विचार करने पर तिनके के बराबर (जरा सा) भी सोच नहीं रह जाता! मेरी दीनता और स्वामी का स्नेह दोनों ने मिलकर मुझे जबर्दस्ती ढीठ बना दिया है॥3॥
 
* यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी। तजि सकोच सिखइअ अनुगामी॥
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी। खीर नीर बिबरन गति हंसी॥4॥
भावार्थ:-हे स्वामी! इस बड़े दोष को दूर करके संकोच त्याग कर मुझ सेवक को शिक्षा दीजिए। दूध और जल को अलग-अलग करने में हंसिनी की सी गति वाली भरतजी की विनती सुनकर उसकी सभी ने प्रशंसा की॥4॥
 
दोहा : 
* दीनबंधु सुनि बंधु के वचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन॥314॥
भावार्थ:-दीनबन्धु और परम चतुर श्री रामजी ने भाई भरतजी के दीन और छलरहित वचन सुनकर देश, काल और अवसर के अनुकूल वचन बोले-॥314॥
चौपाई :
 
* तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की॥
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहूँ न कलेसू॥1॥
भावार्थ:-हे तात! तुम्हारी, मेरी, परिवार की, घर की और वन की सारी चिंता गुरु वशिष्ठजी और महाराज जनकजी को है। हमारे सिर पर जब गुरुजी, मुनि विश्वामित्रजी और मिथिलापति जनकजी हैं, तब हमें और तुम्हें स्वप्न नें भी क्लेश नहीं है॥1॥
 
* मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु॥
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाईं। लोक बेद भल भूप भलाईं॥2॥
भावार्थ:-मेरा और तुम्हारा तो परम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ इसी में है कि हम दोनों भाई पिताजी की आज्ञा का पालन करें। राजा की भलाई (उनके व्रत की रक्षा) से ही लोक और वेद दोनों में भला है॥2॥
 
* गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें। चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें॥
अस बिचारि सब सोच बिहाई। पालहु अवध अवधि भरि जाई॥3॥
भावार्थ:-गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा (आज्ञा) का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने पर पैर गड्ढे में नहीं पड़ता (पतन नहीं होता)। ऐसा विचार कर सब सोच छोड़कर अवध जाकर अवधिभर उसका पालन करो॥3॥
 
* देसु कोसु परिजन परिवारू। गुर पद रजहिं लाग छरुभारू॥
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी॥4॥
भावार्थ:-देश, खजाना, कुटुम्ब, परिवार आदि सबकी जिम्मेदारी तो गुरुजी की चरण रज पर है। तुम तो मुनि वशिष्ठजी, माताओं और मन्त्रियों की शिक्षा मानकर तदनुसार पृथ्वी, प्रजा और राजधानी का पालन (रक्षा) भर करते रहना॥4॥
 
दोहा :
* मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥315॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी कहते हैं- (श्री रामजी ने कहा-) मुखिया मुख के समान होना चाहिए, जो खाने-पीने को तो एक (अकेला) है, परन्तु विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है॥315॥
 
चौपाई :
* राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती॥1॥
भावार्थ:-राजधर्म का सर्वस्व (सार) भी इतना ही है। जैसे मन के भीतर मनोरथ छिपा रहता है। श्री रघुनाथजी ने भाई भरत को बहुत प्रकार से समझाया, परन्तु कोई अवलम्बन पाए बिना उनके मन में न संतोष हुआ, न शान्ति॥1॥
 
* भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥2॥
भावार्थ:-इधर तो भरतजी का शील (प्रेम) और उधर गुरुजनों, मंत्रियों तथा समाज की उपस्थिति! यह देखकर श्री रघुनाथजी संकोच तथा स्नेह के विशेष वशीभूत हो गए (अर्थात भरतजी के प्रेमवश उन्हें पाँवरी देना चाहते हैं, किन्तु साथ ही गुरु आदि का संकोच भी होता है।) आखिर (भरतजी के प्रेमवश) प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने कृपा कर खड़ाऊँ दे दीं और भरतजी ने उन्हें आदरपूर्वक सिर पर धारण कर लिया॥2॥
 
* चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जनु जीव जतन के॥3॥
भावार्थ:-करुणानिधान श्री रामचंद्रजी के दोनों ख़ड़ाऊँ प्रजा के प्राणों की रक्षा के लिए मानो दो पहरेदार हैं। भरतजी के प्रेमरूपी रत्न के लिए मानो डिब्बा है और जीव के साधन के लिए मानो राम-नाम के दो अक्षर हैं॥3॥
जनकजी का पहुँचना, कोल किरातादि की भेंट, सबका परस्पर मिलाप
 
* कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के॥
भरत मुदित अवलंब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें॥4॥
भावार्थ:-रघुकुल (की रक्षा) के लिए दो किवाड़ हैं। कुशल (श्रेष्ठ) कर्म करने के लिए दो हाथ की भाँति (सहायक) हैं और सेवा रूपी श्रेष्ठ धर्म के सुझाने के लिए निर्मल नेत्र हैं। भरतजी इस अवलंब के मिल जाने से परम आनंदित हैं। उन्हें ऐसा ही सुख हुआ, जैसा श्री सीता-रामजी के रहने से होता है॥4॥
 
दोहा :
* मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ॥316॥
भावार्थ:-भरतजी ने प्रणाम करके विदा माँगी, तब श्री रामचंद्रजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया। इधर कुटिल इंद्र ने बुरा मौका पाकर लोगों का उच्चाटन कर दिया॥316॥
 
चौपाई : 
* सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की॥
नतरु लखन सिय राम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥1॥
भावार्थ:-वह कुचाल भी सबके लिए हितकर हो गई। अवधि की आशा के समान ही वह जीवन के लिए संजीवनी हो गई। नहीं तो (उच्चाटन न होता तो) लक्ष्मणजी, सीताजी और श्री रामचंद्रजी के वियोग रूपी बुरे रोग से सब लोग घबड़ाकर (हाय-हाय करके) मर ही जाते॥1॥
 
* रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी॥
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु न कहि न परत सो॥2॥
भावार्थ:-श्री रामजी की कृपा ने सारी उलझन सुधार दी। देवताओं की सेना जो लूटने आई थी, वही गुणदायक (हितकरी) और रक्षक बन गई। श्री रामजी भुजाओं में भरकर भाई भरत से मिल रहे हैं। श्री रामजी के प्रेम का वह रस (आनंद) कहते नहीं बनता॥2॥
 
* तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरंधर धीरजु त्यागा॥
बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी॥3॥
भावार्थ:-तन, मन और वचन तीनों में प्रेम उमड़ पड़ा। धीरज की धुरी को धारण करने वाले श्री रघुनाथजी ने भी धीरज त्याग दिया। वे कमल सदृश नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहाने लगे। उनकी यह दशा देखकर देवताओं की सभा (समाज) दुःखी हो गई॥3॥
 
* मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से॥
जे बिरंचि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए॥4॥
भावार्थ:-मुनिगण, गुरु वशिष्ठजी और जनकजी सरीखे धीरधुरन्धर जो अपने मनों को ज्ञान रूपी अग्नि में सोने के समान कस चुके थे, जिनको ब्रह्माजी ने निर्लेप ही रचा और जो जगत्‌ रूपी जल में कमल के पत्ते की तरह ही (जगत्‌ में रहते हुए भी जगत्‌ से अनासक्त) पैदा हुए॥4॥
दोहा :
 
* तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार॥317॥
भावार्थ:-वे भी श्री रामजी और भरतजी के उपमारहित अपार प्रेम को देखकर वैराग्य और विवेक सहित तन, मन, वचन से उस प्रेम में मग्न हो गए॥317॥
 
चौपाई : 
* जहाँ जनक गुरु गति मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी॥
बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू॥1॥
भावार्थ:-जहाँ जनकजी और गुरु वशिष्ठजी की बुद्धि की गति कुण्ठित हो, उस दिव्य प्रेम को प्राकृत (लौकिक) कहने में बड़ा दोष है। श्री रामचंद्रजी और भरतजी के वियोग का वर्णन करते सुनकर लोग कवि को कठोर हृदय समझेंगे॥1॥
 
* सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी॥
भेंटि भरतु रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए॥2॥
भावार्थ:-वह संकोच रस अकथनीय है। अतएव कवि की सुंदर वाणी उस समय उसके प्रेम को स्मरण करके सकुचा गई। भरतजी को भेंट कर श्री रघुनाथजी ने उनको समझाया। फिर हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगा लिया॥2॥
 
* सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई॥
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा॥3॥
भावार्थ:-सेवक और मंत्री भरतजी का रुख पाकर सब अपने-अपने काम में जा लगे। यह सुनकर दोनों समाजों में दारुण दुःख छा गया। वे चलने की तैयारियाँ करने लगे॥3॥
 
* प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई॥
मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी॥4॥
भावार्थ:-प्रभु के चरणकमलों की वंदना करके तथा श्री रामजी की आज्ञा को सिर पर रखकर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले। मुनि, तपस्वी और वनदेवता सबका बार-बार सम्मान करके उनकी विनती की॥4॥
 
दोहा :
* लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि॥318॥
भावार्थ:-फिर लक्ष्मणजी को क्रमशः भेंटकर तथा प्रणाम करके और सीताजी के चरणों की धूलि को सिर पर धारण करके और समस्त मंगलों के मूल आशीर्वाद सुनकर वे प्रेमसहित चले॥318॥
चौपाई :
 
* सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई॥
देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ॥1॥
भावार्थ:-छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत श्री रामजी ने राजा जनकजी को सिर नवाकर उनकी बहुत प्रकार से विनती और बड़ाई की (और कहा-) हे देव! दयावश आपने बहुत दुःख पाया। आप समाज सहित वन में आए॥1॥
 
* पुर पगु धारिअ देइ असीसा। कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा॥
मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने॥2॥
भावार्थ:-अब आशीर्वाद देकर नगर को पधारिए। यह सुन राजा जनकजी ने धीरज धरकर गमन किया। फिर श्री रामचंद्रजी ने मुनि, ब्राह्मण और साधुओं को विष्णु और शिव के समान जानकर सम्मान करके उनको विदा किया॥2॥
 
* सासु समीप गए दोउ भाई। फिरे बंदि पग आसिष पाई॥
कौसिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली॥3॥
भावार्थ:-तब श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाई सास (सुनयनाजी) के पास गए और उनके चरणों की वंदना करके आशीर्वाद पाकर लौट आए। फिर विश्वामित्र, वामदेव, जाबालि और शुभ आचरण वाले कुटुम्बी, नगर निवासी और मंत्री-॥3॥
भरतजी का तीर्थ जल स्थापन तथा चित्रकूट भ्रमण
 
* जथा जोगु करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा॥
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे॥4॥
भावार्थ:-सबको छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित श्री रामचंद्रजी ने यथायोग्य विनय एवं प्रणाम करके विदा किया। कृपानिधान श्री रामचंद्रजी ने छोटे, मध्यम (मझले) और बड़े सभी श्रेणी के स्त्री-पुरुषों का सम्मान करके उनको लौटाया॥4॥
 
दोहा : 
* भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि॥319॥
भावार्थ:-भरत की माता कैकेयी के चरणों की वंदना करके प्रभु श्री रामचंद्रजी ने पवित्र (निश्छल) प्रेम के साथ उनसे मिल-भेंट कर तथा उनके सारे संकोच और सोच को मिटाकर पालकी सजाकर उनको विदा किया॥319॥
चौपाई :
 
* परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता॥
करि प्रनामु भेंटीं सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू॥1॥
भावार्थ:-प्राणप्रिय पति श्री रामचंद्रजी के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नैहर के कुटुम्बियों से तथा माता-पिता से मिलकर लौट आईं। फिर प्रणाम करके सब सासुओं से गले लगकर मिलीं। उनके प्रेम का वर्णन करने के लिए कवि के हृदय में हुलास (उत्साह) नहीं होता॥1॥
 
* सुनि सिख अभिमत आसिष पाई। रही सीय दुहु प्रीति समाई॥
रघुपति पटु पालकीं मगाईं। करि प्रबोध सब मातु चढ़ाईं॥2॥
भावार्थ:-उनकी शिक्षा सुनकर और मनचाहा आशीर्वाद पाकर सीताजी सासुओं तथा माता-पिता दोनों ओर की प्रीति में समाई (बहुत देर तक निमग्न) रहीं! (तब) श्री रघुनाथजी ने सुंदर पालकियाँ मँगवाईं और सब माताओं को आश्वासन देकर उन पर चढ़ाया॥2॥
 
* बार बार हिलि मिलि दुहु भाईं। सम सनेहँ जननीं पहुँचाईं॥
साजि बाजि गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीन्ह पयाना॥3॥
भावार्थ:-दोनों भाइयों ने माताओं से समान प्रेम से बार-बार मिल-जुलकर उनको पहुँचाया। भरतजी और राजा जनकजी के दलों ने घोड़े, हाथी और अनेकों तरह की सवारियाँ सजाकर प्रस्थान किया॥3॥
 
* हृदयँ रामु सिय लखन समेता। चले जाहिं सब लोग अचेता॥
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें। चले जाहिं परबस मन मारें॥4॥
भावार्थ:-सीताजी एवं लक्ष्मणजी सहित श्री रामचंद्रजी को हृदय में रखकर सब लोग बेसुध हुए चले जा रहे हैं। बैल-घोड़े, हाथी आदि पशु हृदय में हारे (शिथिल) हुए परवश मन मारे चले जा रहे हैं॥4॥
 
दोहा :
* गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत।
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत॥320॥
भावार्थ:-गुरु वशिष्ठजी और गुरु पत्नी अरुन्धतीजी के चरणों की वंदना करके सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी हर्ष और विषाद के साथ लौटकर पर्णकुटी पर आए॥320॥
 
चौपाई :
* बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू॥
कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी॥1॥
भावार्थ:-फिर सम्मान करके निषादराज को विदा किया। वह चला तो सही, किन्तु उसके हृदय में विरह का भारी विषाद था। फिर श्री रामजी ने कोल, किरात, भील आदि वनवासी लोगों को लौटाया। वे सब जोहार-जोहार कर (वंदना कर-करके) लौटे॥1॥
 
* प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं॥
भरत सनेह सुभाउ सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी॥2॥
भावार्थ:-प्रभु श्री रामचंद्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी बड़ की छाया में बैठकर प्रियजन एवं परिवार के वियोग से दुःखी हो रहे हैं। भरतजी के स्नेह, स्वभाव और सुंदर वाणी को बखान-बखान कर वे प्रिय पत्नी सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी से कहने लगे॥2॥
 
* प्रीति प्रतीति बचन मन करनी। श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी॥
तेहि अवसर खम मृग जल मीना। चित्रकूट चर अचर मलीना॥3॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी ने प्रेम के वश होकर भरतजी के वचन, मन, कर्म की प्रीति तथा विश्वास का अपने श्रीमुख से वर्णन किया। उस समय पक्षी, पशु और जल की मछलियाँ, चित्रकूट के सभी चेतन और जड़ जीव उदास हो गए॥3॥

* बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की। बरषि सुमन कहि गति घर घर की॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो। चले मुदित मन डर न खरो सो॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी की दशा देखकर देवताओं ने उन पर फूल बरसाकर अपनी घर-घर की दशा कही (दुखड़ा सुनाया)। प्रभु श्री रामचंद्रजी ने उन्हें प्रणाम कर आश्वासन दिया। तब वे प्रसन्न होकर चले, मन में जरा सा भी डर न रहा॥4

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