आजाद भारत का पहला तिरंगा ध्वजारोहण : 30 दिसंबर 1943 अंडमान-निकोबार first tricolor hoisting on 30 December 1943

- अरविन्द सिसौदिया 9414180151
भारत को पहली आजादी 1943 में ही मिल गई थी जिसका नेतृत्व आजाद हिन्द फौज के प्रमुख नेताजी सुभाषचन्द्र बोस कर रहे थे। उनकी अंतरिम सरकार को 9 देशों से मान्यता भी मिल गई थी। नेताजी ने सबसे पहले 30 दिसम्बर 1943 को स्वतंत्र भारत की अधिकृत सरकार की ओर से पहला ध्वजारोहण अंडमान निकोबार दीप समूह की भूमि पर , तिरंगा ध्वज फहरा कर किया था। आजाद हिन्द सरकार का मंत्रीमण्डल था, सेना थी , बैंक था, मुद्रा थी। इतिहास में हमें यह सच पढ़ाया नहीं जाता, बताया नहीं जाता कि 30 दिसम्बर 1943 को जो स्वतंत्रता की यात्रा अंडमान से चली थी । वही 15 अगस्त 1947 को पूर्णाहूती हमें स्वतंत्रता दिवस के रूप में परिलक्षित हुई। 

आजाद भारत का पहला तिरंगा ध्वजारोहण  30 दिसंबर 1943 अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में।
Independent India's first tricolor hoisting on 30 December 1943 in the Andaman and Nicobar Islands.

आजाद भारत का पहला तिरंगा ध्वजारोहण : 30 दिसंबर 1943 अंडमान-निकोबार
79 वीं वर्ष गांठ (30 दिसंबर 2022)

आजाद भारत का पहला ध्वजारोहण : पहली बार नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने अंडमान निकोबार में किया था

 
 29 दिसंबर 1943 नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंडमान एंड निकोबार द्वीप के पोर्ट ब्लेयर पर पहुंचे. वो 03 दिनों के लिए यहां आए थे. 30 दिसंबर 1943 को जिमखाना ग्राउंड पर नेताजी ने तिरंगा फहराया. आज इसकी 78वीं वर्षगांठ है.

 30 दिसंबर 1943 में पहली बार नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने पोर्ट ब्लेयर के रॉस द्वीप में जिसे अब सुभाष दीप कहा जाता है वहां आजाद हिंद फौज का झंडा फहराया था। ज्ञात हो कि 30 दिसंबर 2018 को 75वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ध्वजारोहण किया था।

     नेताजी सुभाष चंद्र बोस  - मित्रों. अब मैं आपको एक दिलचस्प खबर सुनाता हूं. वो ये है कि जब मैं बर्मा आया तो वहां से अंडमान और निकोबार द्वीप समूह गया. आपको याद होगा कि 06 नवंबर 1943 को तोक्यो में हुए वृहत पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के सम्मेलन में महामहिम प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने एक ऐतिहासिक घोषणा की थी कि जापान अंडमान और निकोबार द्वीप समूह अंतरिम आजाद हिंद सरकार को सौंप देगा. इस घोषणा के बाद तोक्यो औऱ सियोनान दोनों जगह मेरी जापानी अधिकारियों के साथ बात हुई. इस बातचीत के बाद शाही नौसेना ने मेरे इन द्वीपों में जाने की व्यवस्था की, जिसमें मेरे साथ मेरी सरकार के सदस्य और मेरे लिए निजी कर्मचारी थे. उस दौरे के बाद मैं यहां लौटा हूं. अंडमान औऱ निकोबार द्वीप समूह जाने का मेरा उद्देश्य स्थानीय जापानी अधिकारियों से इन टापुओं को अंतरिम आजाद हिंद सरकार को सौंपने के लिए आवश्यक तैयारियां करनी होंगी. उनके बारे में बात करना था.

उस बातचीत के बात मैं घोषणा कर सकता हूं कि मैने आजाद हिंद फौज के एक उच्चाधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल एजी लोगनादन को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का चीफ कमिश्नर नियुक्त किया है. जैसे ही वहां जाने की सारी व्यवस्था हो जाती है, नवनिर्वाचित चीफ कमिश्नर उस द्वीप समूह पर जाकर अपना पद भार ग्रहण कर लेंगे. वहां जाने पर मुझे और मेरेदल के सदस्यों को एक अनोखा अनुभव हुआ, जब हम पहली बार आजाद हिंदुस्तान की मिट्टी पर खड़े हुए. रॉस द्वीप पर एक भूतपूर्व चीफ कमिश्नर के आवास पर तिरंगे को फहराते देखना एक कभी नहीं भूलने वाला अनुभव था. जब तक हम वहां थे, हम पूर्व अंग्रेज चीफ कमिश्नर के आवास में रहे. सारे समय ये सोचते रहे कि विजय के पहिए किस तरह हिंदुस्तान के पक्ष में घूम रहे हैं. चीफ कमिश्नर आवास पर फहराते तिरंगे को देखकर हम सोचने लगे कि किसी दिन दिल्ली के वाइसराय भवन पर भी हमारा तिरंगा फहराएगा.


मेरे देशवासियों. आपको याद होगा कि पिछले साल अगस्त में मैं अपनी इस आशा और विश्वास को व्यक्त करता रहा हूं कि 1943 के अंत तक हम लोग आजाद हिंदुस्तान की धरती पर खड़े होंगे. मुझे सबसे अधिक खुशी इस बात की हो रही है कि 31 दिसंबर 1943 के पहले ही मेरा वो सपना पूरा हो गया. जब हम लोग अंडमान द्वीप पर थे तो हम पोर्ट ब्लेयर की कुख्यात सेल्यूलर जेल देखने गए. जहां हमने उन देशभ्कत हिंदुस्तानियों को अपनी मौन श्रृद्धांजलि दी. जिन्होंने वहां बीते समय में अवर्णनीय अत्याचार  और यातना सही थी. कुछ ने तो अंग्रेजों के अत्याचारों औऱ क्रूरता के कारण अपने जीवन का बलिदान तक दे दिया था. जेल के भूतपूर्व अधीक्षक ने हमें बताया कि द्वीप पर जापानियों का कब्जा होने के ठीक पहले 200 राजनीतिक कैदी, जिनका कोर्ट मार्शल हुआ था, जो हिंदुस्तान भेजे जाने वाले कैदियों की आखिरी खेप थे, अंग्रेज अधिकारियों के साथ हिंदुस्तान भेज दिए गए.


30 दिसंबर 1943 को सुभाष चंद्र बोस पोर्ट ब्लेयर में सेल्यूलर जेल को देखते हुए.
उस द्वीप पर अपने दौरे में मैने खुद अपनी आंखों से वहां की स्थितियां देखीं औऱ स्थानीय लोगों से परिचय प्राप्त किया. मैने पाया कि वो इस बात से ज्यादा खुश हैं कि अंग्रेजों को वहां से निकाल बाहर किया गया और सबसे अधिक प्रसन्नता उन्हें जापानी सरकार द्वारा पिछले नवंबर में उन द्वीपों की बाबत की गई घोषणा से थी. वहां लोगों में एक राष्ट्रीय भावना दिखाई पड़ती है. उन्होंने निश्चय कर लिया है कि वे भविष्य में आजाद हिंदुस्तान के सबसे अच्छे और देशभक्त नागरिक बनेंगे.


वहां हुई एक जनसभा में मैने लोगों से कहा कि चूंकि बीते समय में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चलते बहुत कष्ट उठाए हैं इसलिए ईश्वर ने प्रसन्न होकर उन्हें आज की स्वतंत्रता और खुशी दी है. असल में अब उन्हें अपना दुख भरा अतीत भूल जाना चाहिए, उन्हें आजाद हिंदुस्तान का नागरिक बनकर परिश्रम करना चाहिए. खुद के लिए एक चमकते हुए और सुखद भविष्य का निर्माण करना चाहिए.

जहां तक मैने उन द्वीपों और उनके प्राकृतिक संसाधनों को देखा है, उसके आधार पर मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हीं कि आजाद हिंदुस्तान के एक हिस्से के रूप में अंडमान औऱ निकोबार द्वीप समूह एक ऐसी जगह होनी चाहिए, जहां स्वतंत्र, सुसंस्कृत और तरक्की पसंद लोग निवास करेंगे. मुझे पूरा विश्वास है कि भविष्य में अगर अंग्रेज कभी इन टापुओं पर फिर से कब्जा करने की कोशिश करेंगे तो उन्हें लोगों का जबरदस्त विरोध झेलना होगा. क्योंकि एक बार आजादी का स्वाद चख लेने के बाद लोग फिर से पहले की तरह गुलाम नहीं बनना चाहेंगे.

लेकिन चूंकि अंतरिम आजाद हिंद सरकार की अपनी सेना तो है ही किंतु कोई नौसेना नहीं है, इसलिए इस द्वीप समूह का प्रशासन अपने हाथों में लेने के बाद भी हमें शाही नौसेना की मदद और सुरक्षा की जरूरत होगी. मुझे इस बात की खुशी है कि हमें शाही जापानी नौसेना से यह सहायता मिलती रहेगी, जिसके लिए मैं उनका शुक्रगुजार हूं. “


      अंडमान निकोबार द्वीप समूह भारत के स्वतंत्रता का एक अनमोल प्रतीक है। जिस तरह से यहां पर देश भक्तों को यातनाएं दी जाती थी, सजा दी जाती इसे सुन कर ही रूह कांप जाती है। यहां देशभक्तों का शरीर भले ही टूट जाता था, लेकिन हौसला नहीं। यहां आकर असीम ऊर्जा का अनुभव हो रहा है।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजादी के बहुमूल्य अनमोल नायक हैं। उन्होंने सर्वप्रथम आजादी का झंडा जिसे अब सुभाष चंद्र बोस ने द्वीप कहा जाता है वहां फहराया था, यह एक गौरवशाली और प्रेरणादायक पल रहा है ।


वीर सावरकर का कक्ष देख हुए भावुक
सेल्यूलर जेल जाकर स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर जी के कक्ष को नमन ।
शहीदों को श्रद्धांजलि दी व उन्हें नमन ।  
मन काफी उद्वेलित  जब 12'×7' फिट के कक्ष को देखा।
जिसमे केवल एक रोशनदान था।
उन्हें 10 वर्ष तक भयंकर यातनाएं दी गयी, जिसका स्मरण करते ही मन विचलित हो उठा।

ऐसा अमानवीय व्यवहार तो जानवरों के साथ भी नहीं होता है। उनके कक्ष में शांति का अनुभव हुआ। उन्हें याद करते हुए आंखों से अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी। ऐसे वीर भूमि जहां यातनाओं को सहन करके भी हमारे सेनानी कभी दिग्भ्रमित नहीं हुए और भारत माता की जय, वंदे मातरम् कहते हुए सूली पर चढ़ गए। इस पुण्य भूमि को नमन करके यहां की माटी का तिलक लगाया और संकल्प लिया कि अपने शरीर के रक्त का एक एक कतरा देश के लिए न्योछावर करूंगा।
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यहां जिमखाना मैदान में 30 दिसंबर 1943 को नेताजी ने फहराया था तिरंगा”
हमारे मुल्क का एक हिस्सा 15 अगस्त 1947 से पहले ही 30 दिसंबर 1943 को ही आजाद हो गया था। हर भारतवासी के हृदय में बसे महान स्वतंत्रता सेनानी और आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने सबसे पहले ‘स्वतंत्र भारत’ के इस अहम हिस्से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में राष्ट्र ध्वज तिरंगा फहराया था। नेताजी देश की पहली अंतरिम सरकार के मुखिया थे।

दूसरी ओर, 15 अगस्त 1947 को भारत से अंग्रेजी शासन का अंत हुआ था और देश की बागडोर हमारे राजनेताओं के हाथों में आई थी। इस दिन पूरा देश बहुत शिद्दत के साथ अपने उन वीर सपूतों को याद करता है जिनकी कुर्बानी से हमें आजादी मिली। इसके पीछे अंग्रेजी सरकार से लोहा लेने वाले लाखों क्रांतिकारियों का गौरवपूर्ण इतिहास है। जिस आजाद मुल्क की आबोहवा में हम आज सांस ले रहे हैं उसकी मिट्टी में क्रांतिकारियों की खुशबू रची बसी है।

एशिया के कई मुल्कों में रहने वाले भारतीयों के सहयोग से नेताजी ने आजाद हिंद फौज का गठन किया था। 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजी सेना के साथ जापानी सेना का युद्ध चल रहा था। जापानी पूरे उत्साह के साथ नेताजी की आजाद हिंद सेना का सहयोग कर रहे थे। अंग्रेजों से लड़ते हुए जापानी सेना 1942 में अंडमान-निकोबार द्वीप समूह तक आ पहुंची और 23 मार्च 1942 को जापानी सेना ने अंडमान के द्वीपों पर कब्जा कर वहां से अंग्रेजी सेना को खदेड़ दिया। 25 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने भी अंग्रेजी सरकार के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी थी। तब तक नेताजी सुभाषचंद्र बोस अंतरिम आजाद हिंद सरकार का गठन कर चुके थे। जापानियों के साथ नेताजी के संबंध बहुत प्रगाढ़ थे। जापानियों ने नेताजी के पास संदेश पहुंचाया कि अंडमान-निकोबार पर उनका कब्जा हो चुका है। इस संदेश के बाद नेताजी ने अंडमान-निकोबार द्वीपों का दौरा करने का निश्चय किया।

तत्कालीन जापानी प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सात नवंबर 1943 को अंडमान-निकोबार द्वीपों को नेताजी की अंतरिम सरकार को सौंप दिया।

नेताजी ने 30 दिसंबर 1943 को पहली बार अंडमान-निकोबार की धरती पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराया और इन द्वीपों का नाम शहीद और स्वराज रखा। पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान (जिसे अब नेताजी स्टेडियम के नाम से जाना जाता है) पर तिरंगा फहराने के बाद नेताजी ने वहां क्रांतिकारियों, आजाद हिंद फौज के सिपाहियों और जनता से कहा कि हिंदुस्तान की आजादी की जो गाथा अंडमान की भूमि से शुरू हुई है वह दिल्ली में वायसराय के घर पर तिरंगा फहराने के बाद ही रुकेगी।

पोर्ट ब्लेयर के जिस जिमखाना मैदान पर नेताजी ने तिरंगा फहराया था वहां भारत सरकार ने उनकी याद में एक स्मारक का निर्माण किया है। हर वर्ष 30 दिसंबर को अंडमान प्रशासन द्वारा यहां कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।

बीते 30 दिसंबर को आयोजित हुए कार्यक्रम में भारतीय सेना के तीनों अंगों की टुकड़ियों, अंडमान-निकोबार पुलिस के जवानों, छात्रों और पांच हजार से ज्यादा लोगों की उपस्थिति में मैंने भी नेताजी सुभाषचंद्र बोस को याद किया और तिरंगे की सलामी ली। पोर्ट ब्लेयर जैसे छोटे से शहर में इस मौके पर जुटे पांच हजार लोगों की भीड़ इस बात का परिचायक थी कि अंडमान-निकोबार के निवासी सारे देशवासियों की तरह नेताजी को बहुत आदर के साथ याद करते हैं।

भारत के गौरवपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम के सुनहरे अध्याय के तौर पर अंडमान-निकोबार की भूमि जुड़ी है। अंडमान की सेल्यूलर जेल जिसे आज क्रांतिकारियों का पवित्र मंदिर कहा जाता है वहां भी नेताजी ने अनेक क्रांतिकारियों से मुलाकात कर उन्हें कारागार से मुक्त करने का आदेश दिया था। सेल्यूलर जेल में अंग्रेजी सरकार उन क्रांतिकारियों को भेजती थी जिन्हें आजीवन कारावास की सजा दी जाती थी। इस जेल को आज एक स्मारक के तौर पर विकसित कर यहां वीर सावरकर, पंडित परमानंद, उल्हासकर दत्त, बीरेंद्र कुमार घोष, पृथ्वी सिंह आजाद, पुलिन दास, त्रिलोक नाथ चक्रवर्ती और महावीर सिंह जैसे महान क्रांतिकारियों की यादों को संजो कर रखा गया है।

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पहली बार इस द्वीप पर फहराया गया था तिरंगा
अंडमान का पोर्ट ब्लेयर द्वीप,  जो भारत का पहला ऐसा भू भाग बना. जहां 30 दिसंबर 1943 को राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया.  इस अध्याय के एक एक गौरवमयी पन्ने को आज एक बार फिर समझना जरूरी है.  अंडमान का पोर्ट ब्लेयर द्वीप,  आजाद भारत का पहला भू भाग बना लेकिन साथ ही इस क्रम में ये जानना भी जरूरी है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजों से सीधी टक्कर लेने वाले महानायकों को इसके लिए कितनी यातनाएं झेलनी पड़ीं

यहां की जेल में स्वतंत्रता सेनानियों में से एक वीर सावरकर की कुछ पंक्तियां मुख्य प्रवेश द्वार पर ही अंकित हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियां उनके बलिदान को कभी भूले नहीं.

आज आपको ये भी समझना चाहिए कि तिरंगे के सम्मान के लिए हमारे महानायकों ने क्या कुछ सहा.

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वो दिन था 29 दिसंबर 1943 और जगह पोर्ट ब्लेयर। सुभाष अब आजाद हिंद सरकार के प्रधानमंत्री थे। अगले दिन, यानी 30 दिसंबर को उन्होंने पोर्ट ब्लेयर में झंडा फहराया। यह पहली बार था, जब अंग्रेजों से छीनी हुई भारत भूमि पर किसी भारतीय ने प्रधानमंत्री के रूप से झंडा फहराया हो।
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वर्ष 2018 में 21 अक्टूबर के दिन भारतवासियों ने एक अनूठा दृश्य देखा। 15 अगस्त को लालकिले पर ध्वजारोहण करने वाले भारत के माननीय प्रधानमंत्री ने वर्ष में दूसरी बार लालकिले पर तिरंगा फहराया। यह अवसर था आजाद हिंद सरकार की 75वीं वर्षगांठ का।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित आजाद हिंद फौज सरकार भारत की, भारतीयों द्वारा तथा भारत के लिए पहली सरकार थी। इससे पूर्व राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने भी 1915 में काबुल में अंग्रेजों से स्वतंत्र भारतीय सरकार की घोषणा की थी। किंतु 21 अक्तूबर, 1943 को नेता जी द्वारा सिंगापुर में गठित आजाद हिन्द सरकार ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ा। इस सरकार को जापान तथा जर्मनी सहित नौ देशों की मान्यता प्राप्त थी। 30 दिसंबर को अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पर भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा फहरा कर आजाद हिंद सरकार ने आजाद भारत की घोषणा की। अंडमान निकोबार के नाम बदल कर ‘शहीद’ और ‘स्वराज’ कर दिए गए।

23 जनवरी 1897 को उच्च शिक्षित बंगाली परिवार में जन्मे सुभाष चंद्र बोस की प्रतिभा देखकर सब सोचते थे कि वे ब्रिटिश सरकार में बड़े सिविल अधिकारी बनेंगे। परिवार के आग्रह पर सुभाष बाबू ने सिविल परीक्षा में अपनी योग्यता सिद्ध भी की किंतु इसके पश्चात उन्होंने अंग्रेजी सरकार का नौकर बनने की अपेक्षा देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का मार्ग चुन लिया।

शीघ्र ही वे कॉंग्रेस के प्रमुख नेता बन गए। 1938 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। सुभाष युवाओं में लोकप्रिय हो रहे थे। उनका मानना था कि केवल अहिंसक सत्याग्रहों से देश स्वाधीन नहीं होगा। इस विषय पर महात्मा गांधी के साथ उनका मतभेद हुआ और 1939 में सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस की अध्यक्षता त्याग दी। 03 मई 1939 को उन्होंने फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की। सितंबर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। सुभाष ने इस अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास प्रारंभ कर दिए। उन्होंने वीर सावरकर, डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार तथा डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे अग्रणी राष्ट्रभक्तों से भेंट की तथा ब्रिटिश शासन पर निर्णायक प्रहार के उद्देश्य से काम करने लगे।

1940 में अंग्रेजों ने उन्हें गृहबंदी बना लिया। 1941 में वे अंग्रेजों से बच निकले और गुप्त रूप से अफगानिस्तान होते हुए विदेश चले गए। यूरोप के कई देशों में उन्होंने हजारों देशभक्त भारतीय युवाओं को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित किया।

इधर, वीर सावरकर देशभक्त युवकों को ब्रिटिश सेना में घुसाकर सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने और फिर साथी सैनिकों को देशभक्ति के लिए प्रेरित कर सेना में विद्रोह करवाने की योजना पर कार्य कर रहे थे। विएना में सुभाष को जीवन संगिनी के रुप में एमिली शैंकल मिलीं। 1942 में इन दोनों की पुत्री अनिता बोस का जन्म हुआ किंतु विपरीत परिस्थितियों के कारण 1943 में सुभाष चंद्र बोस को अपने परिवार से दूर सिंगापुर जाना पड़ा। यहाँ सुभाष के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज सफलता की ओर बढ़ने लगी। सुभाष चन्द्र बोस ने जैसे ही दिल्ली चलो का उद्घोष किया, ब्रिटिश भारतीय सेना में विद्रोह होने लगे।

1947 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे एटली ने 1965 में भारत की निजी यात्रा में सीडी चक्रवर्ती के सामने अनौपचारिक रूप से स्वीकारा था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की बड़ी भूमिका थी। नेताजी अपनी फौज के साथ बढ़ते-बढ़ते इंफाल तक आ चुके थे। आजाद हिंद फौज से प्रेरणा लेकर भारत की ब्रिटिश नौसेना तथा वायुसेना में विद्रोह हो गया था।

दुःखद तथ्य यह है कि जिस सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज को विदेशों से समर्थन प्राप्त हो रहा था। उनका अपने देश भारत में अहिंसा के नाम पर विरोध हो रहा था। इस विरोध के मूल में भारतीय वाममार्गी थे।

सुभाष ने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम प्रसारण जारी कर विजय के लिये उनका आशीर्वाद व शुभकामनाएं मांगी थीं, किंतु बर्मा और इम्फाल तक आ पहुँची आजाद हिंद फौज को अहिंसावादियों का समर्थन नहीं मिला। 1945 में जापान की पराजय के कारण नेताजी को अपना अभियान स्थगित करना पड़ा। 18 अगस्त 1945 को मंचूरिया के रास्ते में उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त होने का समाचार आया। उनकी मृत्यु को लेकर संशय आज भी बना हुआ है किंतु राष्ट्र के प्रति उनका अतुलनीय योगदान संदेह से परे है।

भारत माता की स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व अर्पित करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे महानायक के प्रति सारा राष्ट्र कृतज्ञ है, उन्हें नमन करता है।




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