देवलोक में आयोजित होते हैँ 8 कुंभ kumbh

धार्मिक मान्यतानुसार, स्वर्ग और पृथ्वी पर किस समय एक साथ "कुंभ" आयोजित होता है? प्रत्येक "कुंभ" मेले के साथ ऐसा क्यों नहीं होता है?

क्यों मनाया जाता है कुंभ?

'कुंभ' शब्द का अर्थ है घड़ा या कलश। दरअसल यह शब्द समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश से जुड़ा है और समुद्र मंथन से ही जुड़ीं हैं इस विशाल धार्मिक आयोजन की मान्यताएं।

इसके अनुसार, ऋषि दुर्वाषा के शाप से देवताओं की सारी शक्तियां चली गईं। ऐसे में असुर शक्तिशाली हो गए और राजा बलि के नेतृत्व में उन्होंने संपूर्ण लोकों पर आधिपत्य जमा लिया। इससे व्याकुल देवताओं ने विष्णु से मदद मांगी। देवताओं की शक्ति को दोबारा पाने के लिए विष्णु ने उन्हें अमृत पान का सुझाव दिया। अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन जरूरी था, लिहाजा देवताओं और विष्णु की मध्यस्थता के बाद तैयार असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन करने का निश्चय किया।


विशाल कछुए के रूप में विष्णु की पीठ पर रखकर मंदराचल पर्वत और शिव के गले में पड़े वासुकी नाग के जरिए समुद्र मंथन शुरू किया गया। देवताओं ने वासुकी की पूंछ पकड़ी जबकि असुरों को उसके सिर की तरफ हिस्सा पकड़ने के लिए कहा गया। समुद्र मंथन से निकले 14 रत्नों में से एक अमृत को लेकर देवताओं और असुरों में विवाद शुरू हो गया, क्योंकि जहां एक ओर इससे देवताओं को उनकी शक्ति वापस मिल सकती थी, वहीं असुर इसे पीकर अमर हो सकते थे। लेकिन विष्णु ऐसा बिल्कुल नहीं चाहते थे कि अमृत असुरों के हाथ लगे।

विष्णु ने अमृत के साथ प्रकट हुए धन्वंतरि को अमृत कलश लेकर आकाश में उड़ जाने का इशारा किया लेकिन असुरों ने उनका पीछा शुरू कर दिया। अमृत कलश को लेकर होने वाली छीना-झपटी के दौरान ही उसकी कुछ बूंदें धरती पर गिर गईं। जहां-जहां ये बूंदें गिरीं वहीं आज वहीं पर कुंभ का आयोजन किया जाता है।
अमृत की बूंदें हरिद्वार में गंगा नदी, प्रयाग के संगम, उज्जैन के क्षिप्रा और नासिक में गोदावरी नदी में गिरीं। लिहाजा देश के इन्हीं चार स्थानों पर कुंभ का आयोजन किया जाता है।
पौराणिक मान्यता है कि अमृत कलश को लेकर देवताओं और असुरों के बीच 12 दिनों तक विवाद चला। यही कारण है कि कुंभ का आयोजन प्रत्येक 12 वर्ष के अंतराल पर किया जाता है। हालांकि हरिद्वार और प्रयाग में प्रत्येक 6 वर्ष पर अर्धकुंभ का भी आयोजन होता है।
इसके अलावा एक मान्यता यह भी है कि देवताओं और असुरों के बीच 12 दिनों तक चले युद्ध के कारण कुल 12 कुंभ का आयोजन किया जाता है। लेकिन इनमें से पृथ्वी पर केवल 4 ही कुंभ आयोजित होते हैं, बाकी 8 कुंभों का आयोजन स्वर्ग में देवताओं द्वारा किया जाता है।
इस कथा के अनुसार अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में पूरे बारह दिन तक युद्ध हुआ था, लेकिन पृथ्वी लोक में स्वर्ग लोक का एक दिन एक वर्ष के बराबर माना जाता है। इसलिए कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं।
मनुष्य जाति को अन्य आठ कुंभ मनाने का अधिकार नहीं है। यह कुंभ वही मना सकता है जिसमें देवताओं के समान शक्ति एवं यश प्राप्त हो। यही कारण है कि शेष आठ कुंभ केवल देवलोक में ही मनाए जाते हैं।
कहते हैं उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। इस कलह को शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया और यथाधिकार सबको अमृत बांटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।
कुंभ मेले में सूर्य एवं बृहस्पति का खास योगदान माना जाता है। सूर्य देव और गुरु बृहस्पति के एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करने पर ही कुंभ मेले को मनाने का स्थान और तिथि का चुनाव किया जाता है। इसी के अनुसार:
हरिद्वार- जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में आता है, तब यह धार्मिक आयोजन हरिद्वार में किया जाता है।
प्रयाग- जब बृहस्पति वृषभ राशि में प्रवेश करता है और सूर्य मकर राशि में होता है, तो यह उत्सव प्रयाग में मनाया जाता है।
नासिक- जब बृहस्पति और सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश हो तो, यह महान कुंभ मेला महाराष्ट्र के नासिक में मनाया जाता है। इसके अलावा यदि बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा तीनों कर्क राशि में प्रवेश करें और साथ ही अमावस्या का समय हो, तब भी कुंभ नासिक में ही मनाया जाता है।
उज्जैन- जबकि अंत में कुंभ मेला उज्जैन में तब मनाया जाता है, जब बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करे और सूर्य मेष राशि में प्रवेश कर रहा हो।
उज्जैन में आयोजित कुंभ को सिंहस्थ कुंभ भी कहा जाता है। दरअसल सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश होने के कारण ही मध्य प्रदेश के उज्जैन में मनाया जाने वाला कुंभ 'सिंहस्थ कुंभ' कहलाता है।
उज्जैन में कुंभ का आयोजन क्षिप्रा नदी के तट पर होता है। क्षिप्रा नदी को पहाड़ों से बहने वाली नदी कहा जाता है लेकिन मान्यतानुसार यह नदी धरती की कोख से जन्मी है। इसका एक नाम लोक सरिता भी है, क्योंकि यह नदी ममत्व को प्रदर्शित करती है। मान्यता है कि इस पवित्र नदी में स्नान करने वालों के दुख-कष्ट सभी दूर हो जाते हैं।
महान धार्मिक ग्रंथ स्कंद पुराण में यह उल्लेख मिलता है कि भारत की सभी पवित्र नदियां उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं लेकिन क्षिप्रा एक ऐसी नदी है जो उत्तरगामी है, यानी कि उत्तर दिशा की ओर बहने वाली नदी। यह नदी आगे जाकर चंबल उपनदी में मिल जाती है।
कुंभ मेले में स्नान करने से मोक्ष प्राप्ति होती है। कूर्म पुराण के अनुसार इस उत्सव में स्नान करने से सभी पापों का विनाश होता है और मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं। यहां स्नान से देवलोक भी प्राप्त होता है।

अखाड़े:
कुंभ मेले की शुरुआत जूना अखाड़ा के साधु-संतों के शाही स्नान के साथ होती है। इसके बाद एक-एक करके कुल 13 अखाड़े अपने निर्धारित क्रम में स्नान करते हैं। ये सभी अखाड़े इस प्रकार हैं:

शैव संप्रदाय- आवाह्न, अटल, आनंद, निरंजनी, महानिर्वाणी, अग्नि, जूना, गुदद
वैष्णव संप्रदाय- निर्मोही, दिगंबर, निर्वाणी
उदासीन संप्रदाय- बड़ा उदासीन, नया उदासीन निर्मल संप्रदाय- निर्मल अखाड़ा
महाकुंभ

महाकुंभ 144 साल के बाद आयोजित होता है जो केवल प्रयाग में लगता है।

धार्मिक मान्यता के अनुसार महाकुंभ जब पृथ्वी पर लगता है उस समय देवलोक में भी कुंभ आयोजित किया जाता है। यह एक मात्र अवसर होता है जब स्वर्ग और पृथ्वी दोनों स्थानों पर कुंभ लगता है।

कुंभ का आयोजन प्रयाग में मकर संक्रांति से लेकर महाशिवरात्रि तक करीब 50 दिनों तक चलता है। इस दौरान देश भर के साधु संत और श्रद्धालुओं का यहां तांता लगा रहता है।

प्रयाग में 2025 में पूर्ण कुंभ का आयोजन होगा क्योंकि शास्त्रों के नियम के अनुसार प्रयाग में उस समय कुंभ लगता है जब अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरु मेष राशि में।

महाकुंभ के संबंध में मान्यता

शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि 144 वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है।[3]

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