मानसिक अवसाद की तरफ बढ़ती मानवता : संयुक्त परिवार बनाम विभक्त परिवार




🌿 संयुक्त परिवार बनाम विभक्त परिवार
- अरविन्द सिसोदिया 9414180151
भारतीय संस्कृति की आत्मा यदि किसी संस्था में बसती है, तो वह है परिवार। परिवार ही वह इकाई है जो व्यक्ति को संस्कार, सुरक्षा और सामाजिकता प्रदान करती है। भारतीय समाज का पारंपरिक स्वरूप सदैव संयुक्त परिवार पर आधारित रहा है — एक ऐसा तंत्र जिसमें तीन या अधिक पीढ़ियाँ एक साथ रहती हैं, जहाँ सामूहिकता, सहयोग और परस्पर सम्मान की भावना जीवन का आधार होती है। किंतु बदलते समय के साथ यह स्वरूप तेज़ी से विभक्त परिवारों की दिशा में बदलता जा रहा है। यह परिवर्तन केवल भौतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक स्तर पर भी गहरा प्रभाव छोड़ रहा है।

🌸 संयुक्त परिवार की संकल्पना और उसकी विशेषताएँ

संयुक्त परिवार का तात्पर्य ऐसे परिवार से है, जिसमें दादा-दादी, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची और अन्य सदस्य एक ही छत के नीचे रहते हैं। इस व्यवस्था में संसाधनों का उपयोग सामूहिक रूप से होता है। घर के बड़े बुज़ुर्ग मार्गदर्शन देते हैं, मध्यम पीढ़ी दायित्व निभाती है और नई पीढ़ी संस्कार सीखती है।
इस व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इसमें हर व्यक्ति को अपनापन और सुरक्षा का अनुभव होता था। कोई भी सदस्य अकेला नहीं रहता था। जीवन के उतार-चढ़ाव में परिवार ही ढाल बनकर खड़ा होता था।

संयुक्त परिवार केवल आर्थिक सहयोग का माध्यम नहीं था, बल्कि यह भावनात्मक सहारा भी था। यह एक ऐसी सामाजिक सुरक्षा प्रणाली थी, जिसमें पेंशन, इंश्योरेंस या काउंसलर की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। बुज़ुर्गों का स्नेह और अनुभव ही मार्गदर्शक होते थे, और बच्चों के लिए यही जीवन का विद्यालय था।

🌼 विभक्त परिवार : आधुनिकता की देन या सामाजिक विघटन?

वर्तमान युग में औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और वैश्वीकरण ने मनुष्य की जीवनशैली को पूरी तरह बदल दिया है। लोग बेहतर शिक्षा, रोजगार और स्वतंत्र जीवन की तलाश में महानगरों की ओर बढ़े। परिणामस्वरूप संयुक्त परिवार टूटने लगे और उनकी जगह विभक्त परिवारों ने ले ली।
विभक्त परिवार को आधुनिकता और स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाने लगा। युवा पीढ़ी ने इसे “फ्रीडम”, “पर्सनल स्पेस” और “सेल्फ-डिपेंडेंस” के रूप में स्वीकार किया। मीडिया और विज्ञापनों ने भी इस सोच को प्रोत्साहित किया। टीवी धारावाहिकों में संयुक्त परिवारों को कलह का केंद्र बताया गया, जबकि अलग रहने वाले जोड़ों को “सफल” और “प्रगतिशील” दिखाया गया।

परंतु इस बाहरी चमक के पीछे समाज की आत्मा बिखरने लगी। अलगाव ने रिश्तों की गर्माहट छीन ली। संवाद की जगह संदेशों ने ले ली, और साथ की जगह स्क्रीन ने ले ली।

💰 उपभोक्तावाद और पारिवारिक विघटन

संयुक्त परिवारों के विघटन के पीछे उपभोक्तावाद एक प्रमुख कारण बनकर उभरा।
जब परिवार एक था, तो एक घर, एक रसोई, एक वाहन, एक टीवी पर्याप्त था।
पर जब हर जोड़ा अलग रहने लगा, तो वही आवश्यकताएँ कई गुना बढ़ गईं।
बाज़ार के लिए यह वरदान साबित हुआ — उपभोक्ता बढ़े, बिक्री बढ़ी, और मुनाफ़ा बढ़ा।

लेकिन समाज के स्तर पर यह गहरी हानि थी —
रिश्तों में दूरी, संवाद में कमी और अपनापन का लोप।
आज हर भावना का एक बाज़ार बन गया है।
अकेलेपन का इलाज “सोशल मीडिया” में, मानसिक पीड़ा का समाधान “काउंसलर” में, और उत्सव का आनंद “ऑनलाइन शॉपिंग” में ढूँढा जाने लगा है।

जहाँ कभी दादी की कहानी से नींद आती थी, वहाँ अब नेटफ्लिक्स चलता है।
जहाँ माँ के हाथ का खाना सुकून देता था, वहाँ ज़ोमैटो का ऑर्डर आता है।
पर क्या इन सबके बीच वह आत्मीयता, वह भावनात्मक संतुलन बचा है? शायद नहीं।

💔 विभक्त परिवारों के परिणाम

विभक्त परिवारों ने जीवन में सुविधा और स्वतंत्रता तो दी, पर इसके दुष्परिणाम भी गंभीर रहे।

बुज़ुर्गों का अकेलापन: जो कभी घर के निर्णयकर्ता और आशीर्वाददाता थे, आज ओल्ड ऐज होम में रहने को विवश हैं।

बच्चों की भावनात्मक रिक्तता: माता-पिता काम में व्यस्त, बच्चे मोबाइल में गुम — परिणामस्वरूप उनमें संस्कारों की कमी और एकाकीपन बढ़ गया है।

मानसिक तनाव: पारिवारिक समर्थन न होने से डिप्रेशन, एंग्ज़ायटी और मानसिक थकान जैसी समस्याएँ आम हो गई हैं।

सामाजिक अलगाव: अब रिश्ते निभाए नहीं जाते, बल्कि “फॉलो” और “अनफॉलो” के आधार पर तय होते हैं।

यह सब दर्शाता है कि भौतिक प्रगति के बावजूद मनुष्य भीतर से असुरक्षित और अकेला होता जा रहा है।

🌺 संयुक्त परिवार : आज भी समाधान का आधार

संयुक्त परिवार केवल अतीत की व्यवस्था नहीं, बल्कि आज के समाज की आवश्यकता है।
यह बच्चों को संस्कार देता है, बुज़ुर्गों को सम्मान देता है और समाज को स्थिरता प्रदान करता है।
आज जब मानसिक स्वास्थ्य संकट, सामाजिक अलगाव और मूल्यहीनता जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं, संयुक्त परिवार ही इन सबका समाधान हो सकता है।

इसलिए अब समय है कि हम अपने पारिवारिक ढाँचे की पुनर्समीक्षा करें।
हमें आधुनिकता के साथ-साथ अपने संस्कारों और सामूहिक जीवन की परंपरा को भी सहेजना होगा।
संयुक्त परिवार को “पुराना ढर्रा” नहीं, बल्कि “भारतीयता की पहचान” समझना होगा।

🌿 निष्कर्ष

संयुक्त परिवार और विभक्त परिवार के बीच का अंतर केवल रहने के ढंग का नहीं, बल्कि जीवन दृष्टि का है।
संयुक्त परिवार “हम” की भावना पर आधारित है, जबकि विभक्त परिवार “मैं” की सोच पर।
जहाँ संयुक्त परिवार आत्मीयता का पर्याय है, वहीं विभक्त परिवार सुविधाओं का प्रतीक।

भारत की असली ताकत उसकी सामूहिकता, परंपरा और भावनात्मक समृद्धि में रही है। अगर हमने इस दिशा में पुनः प्रयास नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं जब “संयुक्त परिवार” केवल पुस्तकों और इंटरनेट के शब्दकोशों में रह जाएगा।

अतः आवश्यकता है कि हम अपनी जड़ों की ओर लौटें —
संयुक्त परिवार को बोझ नहीं, वरदान समझें,
बुज़ुर्गों को सम्मान दें,
और बच्चों में संस्कारों का दीप पुनः जलाएँ।

यही भारतीय समाज की आत्मा को पुनर्जीवित करने का एकमात्र मार्ग है।
--------==--------
🌿 संयुक्त परिवार बनाम विभक्त परिवार

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी पारिवारिक व्यवस्था रही है। संयुक्त परिवार भारतीय समाज की आत्मा माने जाते थे, जहाँ कई पीढ़ियाँ एक साथ रहती थीं। यह व्यवस्था केवल रहने का ढंग नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन थी। इसमें बुज़ुर्गों का अनुभव, बड़ों का स्नेह और बच्चों के संस्कार – सभी एक ही छत के नीचे पनपते थे।

संयुक्त परिवार में जीवन सामूहिक था। खर्च, जिम्मेदारियाँ और खुशियाँ – सब बाँटी जाती थीं। किसी को अकेलापन नहीं होता था और न ही “मेंटल हेल्थ” जैसी समस्या। यह व्यवस्था अपने आप में एक सामाजिक सुरक्षा तंत्र थी, जिसमें बुज़ुर्गों का सहारा और बच्चों का स्नेह स्वाभाविक रूप से शामिल था।

लेकिन आधुनिकता, शहरीकरण और उपभोक्तावाद के प्रभाव से यह ढाँचा टूटने लगा। विभक्त परिवार या न्यूक्लियर फैमिली को “स्वतंत्र” और “आधुनिक” बताया गया। मीडिया ने संयुक्त परिवारों को झगड़ों और बोझ का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया। जब परिवार अलग हुए, तो हर व्यक्ति उपभोक्ता बन गया — एक घर की जगह चार घर, एक टीवी की जगह चार टीवी। इससे बाजार तो फले-फूले, पर समाज बिखर गया।

आज विभक्त परिवारों में रिश्तों की गर्माहट खो गई है। बुज़ुर्ग अकेले हैं, बच्चे मोबाइल में गुम हैं और अपनापन कम होता जा रहा है। जीवन सुविधाजनक तो हुआ, पर भावनात्मक रूप से रिक्त भी।

अतः समय की मांग है कि हम संयुक्त परिवार की परंपरा को पुनः अपनाएँ। बुज़ुर्गों को सम्मान दें, बच्चों में संस्कार जगाएँ और रिश्तों को बनाए रखें। आधुनिकता का अर्थ संबंधों से दूरी नहीं, बल्कि संतुलन होना चाहिए।

संयुक्त परिवार ही भारतीय समाज की असली ताकत और उसकी सांस्कृतिक पहचान है।
---

🇮🇳 राष्ट्रीय संयुक्त परिवार सशक्तिकरण नीति – 2025

(National Joint Family Empowerment Policy – 2025)

1. पृष्ठभूमि

भारतीय समाज की आत्मा उसकी संयुक्त परिवार प्रणाली रही है — जहाँ तीन पीढ़ियाँ एक छत के नीचे सहयोग, संस्कार और संवेदना से जीवन जीती थीं।
परंतु शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और उपभोक्तावाद के प्रभाव से यह प्रणाली टूट रही है।
परिणामस्वरूप —

बुज़ुर्गों का अकेलापन,

बच्चों में संस्कारों की कमी,

मानसिक तनाव,

और सामाजिक अलगाव जैसी समस्याएँ बढ़ी हैं।


इन चुनौतियों के समाधान हेतु यह नीति संयुक्त परिवारों को प्रोत्साहित करने और विभक्त परिवार प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने के उद्देश्य से तैयार की गई है।

2. नीति का उद्देश्य

संयुक्त परिवार प्रणाली को सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त बनाना।

बुज़ुर्गों की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करना।

बच्चों में पारिवारिक संस्कारों का पुनर्संवर्धन।

सामाजिक एकता और भावनात्मक संतुलन स्थापित करना।

3. प्रमुख प्रावधान

(A) प्रोत्साहन उपाय

1. कर लाभ: तीन पीढ़ियों के साथ रहने वाले परिवारों को अतिरिक्त कर छूट।

2. आवास सहयोग: संयुक्त परिवारों के लिए कम ब्याज पर ऋण और आवास सब्सिडी।

3. संस्कार शिक्षा: विद्यालयों में “पारिवारिक मूल्य शिक्षा” विषय की शुरुआत।

4. मीडिया प्रोत्साहन: संयुक्त परिवारों पर सकारात्मक कार्यक्रमों को प्रोत्साहन निधि।

5. बुज़ुर्ग सम्मान योजना: परिवार में बुज़ुर्गों की देखभाल करने वालों को विशेष भत्ता।

(B) हतोत्साहन उपाय

1. पारिवारिक परामर्श: विभक्त होने वाले परिवारों के लिए अनिवार्य काउंसलिंग सत्र।

2. सामाजिक दायित्व शुल्क: ऐसे एकल नागरिकों से नाममात्र शुल्क जो माता-पिता की देखभाल नहीं करते।

3. जनजागरण अभियान: “संयुक्त रहो, सशक्त बनो” राष्ट्रीय अभियान।


4. कार्यान्वयन तंत्र

मुख्य मंत्रालय: महिला एवं बाल विकास, सामाजिक न्याय, ग्रामीण विकास।

राज्य इकाइयाँ: “संयुक्त परिवार प्रकोष्ठ” का गठन।

स्थानीय स्तर: पंचायतों और नगरपालिकाओं में परिवार समितियाँ।

5. अपेक्षित परिणाम

पारिवारिक विघटन दर में कमी।

वृद्धाश्रमों की संख्या में गिरावट।

मानसिक स्वास्थ्य व सामाजिक स्थिरता में सुधार।

बच्चों में संस्कार और सामाजिक जिम्मेदारी का विकास।

6. निष्कर्ष

यह नीति केवल एक प्रशासनिक पहल नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण का अभियान है।
संयुक्त परिवार को पुनः समाज का केंद्र बनाकर ही भारत अपनी आत्मा को सशक्त बना सकता है।

> “संयुक्त परिवार – सशक्त समाज – सशक्त भारत”
---



 

टिप्पणियाँ

इन्हे भी पढे़....

तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहे।

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

कण कण सूं गूंजे, जय जय राजस्थान

कांग्रेस स्वप्न में भी सत्ता वापसी नहीं कर सकती - अरविन्द सिसोदिया

छत्रपति शिवाजी : सिसोदिया राजपूत वंश

खींची राजवंश : गागरोण दुर्ग

हमें वीर केशव मिले आप जबसे : संघ गीत

बाजारवाद में टूटते संयुक्त परिवार

‘‘भूरेटिया नी मानू रे’’: अंग्रेजों तुम्हारी नहीं मानूंगा - गोविन्द गुरू

My Gov संवैधानिक व्यवस्था की हत्या ही राजनैतिक क्षेत्र करता है, इसे बचाने के कठोर उपाय जरूरी - अरविन्द सिसोदिया