कविता - रावण के दस सर हमारे भीतर
कविता - रावण के दस सर हमारे भीतर हैँ
- अरविन्द सिसोदिया
94141 80151
रावण के दस सर हमारे भीतर हैँ
वे सभी अवगुणों के अग्रचर भी हैँ,
इसीलिए रावण के सर जलते हर साल हैँ ,
पर वे हमारे मन में फिर भी बसते रहते हैँ,
इसी से हर वर्ष रावण का कद ऊँचा होता है ,
क्या कभी हमने अपने रावण को मारा है,
सच यही के कि हर मनुष्य अपने रावण से हारा है ¡
काम की आग जो विवेक को भस्म करे,
संयम की वर्षा से उसे शीतल करें।
क्रोध की लपटें जो शांति जलाए,
क्षमा के दीप से उसका अंधकार मिटाएँ।
लोभ जो संतोष को छीनें ,
त्याग से उसे रोकें।
मोह जो अंधा बनाये ,
सत्य उसे मार्ग दिखाये।
मद जो अहंकार की नशा है ,
विनम्रता से स्वयं को बचाएँ
मत्सर जो द्वेष है ,
स्नेह से उसका अंत करें
स्वार्थ जो दृष्टि को अंधा करे,
कर्तव्य की रोशनी से स्वयं प्रकाशित हों ।
अपनी मर्जी ही असत्य का जंजाल,
सत्य मार्ग से उसे काटें।
अन्याय जो मन को अधम बनाए,
धर्म की शक्ति से उसे सुधारें।
अविवेक जो राह भटकाए,
ज्ञान की किरण से उसे भगाएं ।
आओ, आज जलाएँ वे दस सिर,
जो हमारे मन में पलते रहे
राम को जागृत करें हृदय में,
अवगुण स्वयं ही मरते हैँ।
राम रावण युद्ध यही है,
सदगुणों से अवगुणों को मार भगाएं
कम इच्छाओं के राम जगा कर,
मन विजय की विजयादसमी मनाएँ।
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