कविता और व्यंग " हर साल रावण कद बढ़ाता है "
कविता और व्यंग " हर साल रावण कद बढ़ाता है "
- अरविन्द सिसोदिया
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हर साल रावण कद बढ़ाता है, कमीशन के चक़्कर में!
हर साल रावण जलता है, रंग-बिरंगी लपटों के आँगन में,
रावण को लेकर छपती खबरें चुटकीले अंदाजों में,
हर साल रावण कद बढ़ाता है, कमीशन के चक़्कर में!
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राम ठिठके छोटे से, सोचते यह कैसा रावण दहन है!
भ्रष्टाचार की विजय का यह महिमामंडन है,
बिलिंग और पेमेंट की धधकती ज्वाला है,
इसी का यह रंग-बिरंगा उजियारा है।
---2---
सुनहरे दावे, मीठे भाषण, पर काम असली रावण का,
अट्टहास करता रावण कहता, राम कहां? सब कुछ मेरे पाले का ।
रिश्वत, लालच, स्वार्थ अब बसता, अब आयोजन में,
सत्य की आँखें झपकती हैं, धर्म चुपचाप खड़ा धमाकों में।
---3---
चलो आज प्रतिज्ञा करें,
बाहर और भीतर के रावण को जलाएँंगे,
भ्रष्टाचार और लालच को पोल खोल मिटाएँंगे।
राम का कद बढ़े, लक्ष्मण सा हो भाईचारा,
अब न कोई दशरथ मरें, न भटके सीता माता।
अपनत्व के बंधन को बढ़ाएँ, यही धर्म की गाथा।
----4---
हर साल रावण क्यों बढ़े?
हम देखें कद श्रीराम का,
सत्य, धर्म और ईमानदारी के राजसिंहासन का।
विजय तो अवगुणों पर पानी है,
यही दशहरे की सच्ची वाणी है।
दसों अवगुण मिटाने के जतन से कद बढ़ाएँ,
अच्छाई के गुणों से उत्सव को खूब मनाएँ।
---समाप्त----
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