जनहित में चिकित्सा क्षेत्र, हिन्दी का उपयोग अनिवार्य करें - अरविन्द सिसोदिया
चिकित्सा क्षेत्र संवैधानिक राजभाषा हिन्दी को अपनाये - अरविन्द सिसोदिया
कोटा, 9 अक्टूबर 2025। राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल के शिक्षा प्रोत्साहन प्रन्यासी अरविन्द सिसोदिया ने कहा है कि एलोपैथिक एवं आधुनिक चिकित्सा क्षेत्र में आमजन की समझ में आने वाली स्वदेशी हिन्दी सहित प्रमुख भारतीय भाषाओं को अपनाना अब राष्ट्रीय आवश्यकता है। यह हेतु चरणबद्ध प्रभावी सुधार कार्यक्रम अपनाया जाना चाहिए। "
सिसोदिया ने " केंद्र सरकार के माननीय प्रधानमंत्री, माननीय गृह मंत्री, माननीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री, माननीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री, औषधि महानियंत्रक भारत सरकार तथा मुख्यमंत्री राजस्थान को ध्यानाकर्षण पत्र लिखकर आग्रह किया है कि एलोपैथिक दवाओं की पैकेजिंग, लेबलिंग, मात्रा निर्देश, सावधानियाँ एवं उपयोग संबंधी समस्त सूचनाएँ हिन्दी सहित प्रमुख प्रांतीय भाषाओं में अनिवार्य किया जाये ।"
उन्होंने कहा कि “भारत को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष से अधिक हो चुके हैं, किंतु स्वदेशी भाषाओं की सामर्थ्य, समृद्धि और सक्षम होनें के बावजूद उन्हें अपनाने में लगातार हिचकिचाहट दिखाई है। इसी कारण भारत आज भी अंग्रेज़ी भाषा की अप्रत्यक्ष अधीनता में बँधा हुआ है, जबकि चीन सहित विश्व के अधिकांश देश अपनी मातृभाषा में चिकित्सा और वैज्ञानिक कार्य करते हैं।”
सिसोदिया ने कहा कि “ भारतीय चिकित्सा क्षेत्र में, आम व्यक्ति के पढ़ने में नहीं आने वाली भाषा का होना रोगी और उसके परिजनों को असहज करता है। यह उनके साथ अनावश्यक शोषण है। रोगी की पर्ची में रोगी के नाम सहित,दवा की पर्ची, जाँच रिपोर्ट और उपचार संबंधी जानकारी अंग्रेज़ी में होने से सामान्य व्यक्ति उसे समझ ही नहीं पाता, जिससे कई बार गंभीर चूकें हो जाती हैं।"
उन्होंने कहा कि " यदि यह जानकारीयां पठनीय भाषा हिन्दी या अन्य प्रांतीय भाषाओं में उपलब्ध हो, तो रोगी और चिकित्सक के बीच संवाद अधिक मानवीय, सहज और प्रभावी बने। रोगी के ठीक होनें में कम समय लगे और वह स्वयं भी जानकारियों को जानने में सक्षम हो।”
उन्होंने कहा कि “चिकित्सक के पर्चे से लेकर दवाओं पर लिखी सूचना, निर्देश व सावधानियाँ तक केवल अंग्रेज़ी में होना भाषाई दासता का प्रतीक है। जबकि इन्हें स्वदेशी भाषाओं में प्रस्तुत करना न केवल संभव है बल्कि बहुत आसान भी है और आवश्यक भी होना चाहिए ।”
सिसोदिया ने कहा कि " यह केवल भाषा का प्रश्न नहीं, बल्कि नागरिक अधिकार, रोगी सुरक्षा और राष्ट्रीय सम्मान से जुड़ा विषय है। उन्होंने माँग की है कि दवा कंपनियों, राज्य सरकारों, अस्पतालों और औषधालयों में हिन्दी सहित प्रांतीय भाषाओं में जानकारी उपलब्ध कराना अनिवार्य किया जाए और स्थानीय भाषाओं में चिकित्सा सूचना सामग्री प्रदान करने की नीति लागू की जाए।"
उन्होंने कहा कि “स्वदेशी भाषा में चिकित्सा सेवा केवल भाषाई सुधार मात्र नहीं, यह जनसामान्य के अधिकार,स्वास्थ्य सुरक्षा और सम्मान की पुनर्स्थापना भी है। इसलिए इस और गंभीरता से ध्यान दिया जाना चाहिए।”
भवदीय,
अरविन्द सिसोदिया
शिक्षा प्रोत्साहन प्रन्यासी,
राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल, जयपुर
9414180151
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दिनांक: 9 / 10 / 2025
स्थान: कोटा, राजस्थान
सेवा में,
माननीय प्रधानमंत्री महोदय
प्रधानमंत्री कार्यालय,
दक्षिण ब्लॉक, नई दिल्ली – 110011
माननीय गृह मंत्री महोदय
गृह मंत्रालय,
नॉर्थ ब्लॉक, नई दिल्ली – 110001
माननीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री महोदय
रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय,
नई दिल्ली – 110001
माननीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री महोदय
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय,
नई दिल्ली – 110011
श्रीमान औषधि महानियंत्रक महोदय,
भारत सरकार, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO), FDA भवन, कोटला रोड, नई दिल्ली - 110002
माननीय मुख्यमंत्री महोदय
CMO राजस्थान, जयपुर।
विषय: - एलोपैथिक दवाओं एवं चिकित्सा संबंधी सूचनाओं को हिन्दी सहित प्रमुख भारतीय भाषाओं में, उपयोगकर्ता को उपलब्ध कराने हेतु निवेदन।
आदरणीय ,
स्वतंत्रता के 75 वर्ष के पश्चात् भी भारत की संवेधानिक राज भाषा हिन्दी सहित प्रमुख प्रांतीय भाषाओं के समृद्ध और सक्षम होनें पर भी उपेक्षा कर अंग्रेजी को गैर जरूरी महत्व दिया जाना अनुचित है। अर्थात स्व का बोध कराने वाले इस सुझाव पर अमृतकाल में व्यापक सुधार करना चाहिए।
सविनय निवेदन है कि वर्तमान समय में भारत में एलोपैथिक / आधुनिक चिकित्सा पद्धति से संबंधित समस्त सूचनाएं, जैसे - दवा की जानकारी, लेबलिंग, सावधानियाँ, मात्रा निर्देश एवं उपयोग-विधि — लगभग पूर्णतः अंग्रेजी भाषा में ही लिखी होती हैं। इतने छोटे आकार में यह सब होता है कि उसे पड़ा भी नहीं जा सकता। यहाँ तक कि चिकित्सक के पर्चे और जांच रिपोर्ट तक अंग्रेजी में होती हैं, जो मरीजों और उनके परिजनों के लिए अबूझ पहेली जैसी बन जाती हैं। यह न केवल एक व्यावहारिक कठिनाई है, बल्कि एक अघोषित अन्याय है। वहीं देश की स्वतंत्रता पर भाषाई गुलामी का प्रमाण है।
यह स्थिति देश के अधिकांश गैर-अंग्रेज़ी भाषी नागरिकों के लिए अत्यंत कठिन है और यह रोगी तथा उनके अभिभावकों को आवश्यक जानकारी से वंचित करती है। जो मूलतः असमानता और अन्याय है।
वहीं दूसरी ओर,आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली में सभी सूचनाएँ हिन्दी या प्रांतीय भाषाओं में दी जाती हैं। परंतु एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली में ऐसा न होना जनसाधारण के हितों के विपरीत है। इससे न केवल दवाओं के गलत उपयोग की संभावना बढ़ जाती है, बल्कि यह स्वास्थ्य संबंधी समानता एवं पारदर्शिता के सिद्धांत के भी प्रतिकूल है। इससे अनेक अव्यावहारिक चुक व हानियाँ भी होती हैं।
मुख्य कारण एवं तर्क:-
1. भाषा की बाधा: अधिकांश मरीज अंग्रेजी नहीं समझ पाते, जिससे दवाओं का सही उपयोग नहीं हो पाता।
2. गलत उपयोग का जोखिम: भाषा की कठिनाई के कारण दवा का गलत सेवन गंभीर परिणाम दे सकता है।
3. सूचना से वंचितता: स्थानीय भाषाओं में जानकारी न होने से मरीज अपने उपचार से अनभिज्ञ रहते हैं।
4. समान अवसर का अधिकार: सभी नागरिकों को अपनी मातृभाषा में स्वास्थ्य-संबंधी जानकारी प्राप्त करने का समान अधिकार है।
निम्न उपायों द्वारा इस समस्या का समाधान किया जा सकता है:-
1. सभी एलोपैथिक दवाओं की पैकेजिंग, लेबल एवं दिशा-निर्देश हिन्दी सहित प्रमुख भारतीय भाषाओं में अनिवार्य किए जाएं।
2. दवा कंपनियों को निर्देश दिया जाए कि वे सभी सूचनाओं का अनुवाद मान्यता प्राप्त भारतीय भाषाओं में प्रस्तुत करें।
3. सरकारी अस्पतालों, औषधालयों एवं स्वास्थ्य केंद्रों में प्रांतीय भाषाओं में ब्रोशर, पंपलेट एवं सूचना सामग्री उपलब्ध कराई जाए।
4. स्वास्थ्य सेवाओं में स्थानीय भाषा जानने वाले कर्मचारियों की नियुक्ति एवं प्रशिक्षण को प्रोत्साहन दिया जाए।
5. सभी राज्यों की राज्य सरकारों एवं संघ शासित क्षेत्रों को अपेक्षित आदेश निर्देश प्रदान करते हुये, इस जन अपेक्षा पर पूर्ण कार्यवाही होनी चाहिए।
संदर्भ संस्थाएं :- वर्तमान में भारत में एलोपैथिक दवाओं के निर्माण, गुणवत्ता, अनुमति एवं वितरण का नियमन केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन (Central Drugs Standard Control Organization – CDSCO) द्वारा किया जाता है, जो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन कार्यरत है।
इस संगठन के प्रमुख अधिकारी भारत के औषध नियंत्रक महानियंत्रक (Drug Controller General of India – DCGI) हैं।
इसके अतिरिक्त, दवा उद्योग से संबंधित नीति एवं विकास की जिम्मेदारी रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के Department of Pharmaceuticals (DoP) के पास है, जबकि दवाओं के मूल्य निर्धारण एवं नियंत्रण का कार्य राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (National Pharmaceutical Pricing Authority – NPPA) द्वारा किया जाता है।
अतः यह विषय सीधे केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र (Union Subject) में आता है, और इन मंत्रालयों द्वारा आवश्यक दिशा-निर्देश जारी कर दवाओं की पैकेजिंग, लेबलिंग एवं सूचनाओं को हिन्दी सहित प्रमुख भारतीय भाषाओं में अनिवार्य किया जा सकता है।
यह कदम न केवल रोगी सुरक्षा को सुदृढ़ करेगा, बल्कि प्रधानमंत्री जी के “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” के विचार को भाषाई समानता एवं जनकल्याण के माध्यम से सशक्त बनाएगा।
अतः आपसे सविनय अनुरोध है कि इस विषय पर गंभीरता से विचार कर देशभर में चिकित्सा क्षेत्र में हिन्दी सहित प्रमुख भारतीय भाषाओं के प्रयोग को अनिवार्य करने हेतु आवश्यक नीति बनाई जाए। सादर,
भवदीय,
(अरविन्द सिसोदिया)
प्रदेश सह संयोजक,
भाजपा मीडिया संपर्क विभाग, राजस्थान।
📞 मोबाइल: 9414180151
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“स्वदेशी भाषा चिकित्सा सूचना एवं रोगी अधिकार विधेयक, 2025”
का संविधानिक आधार सहित पूर्ण प्रारूप, जो संसद में प्रस्तुत करने योग्य शैली में तैयार किया गया है।
यह कानूनी दृष्टि से सुसंगत, व्यवहारिक और राष्ट्रभाषा नीति से सामंजस्यपूर्ण है।
स्वदेशी भाषा चिकित्सा सूचना एवं रोगी अधिकार विधेयक, 2025
(The Indigenous Language Medical Information and Patient Rights Bill, 2025)
प्रस्तावना (Preamble):
भारत का संविधान यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक नागरिक को जीवन, स्वास्थ्य और सूचना का अधिकार समान रूप से प्राप्त हो।
चिकित्सा क्षेत्र में भाषा अवरोध आम नागरिक को अपने स्वास्थ्य संबंधी अधिकारों से वंचित करता है, जो संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार) का उल्लंघन है।
साथ ही, संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक की धाराएँ हिन्दी को राजभाषा के रूप में और अन्य भारतीय भाषाओं को समान प्रोत्साहन देने का निर्देश देती हैं।
इन संवैधानिक प्रावधानों के अनुपालन में यह विधेयक प्रस्तुत किया जाता है।
विधेयक का नाम और विस्तार
- इस अधिनियम को “स्वदेशी भाषा चिकित्सा सूचना एवं रोगी अधिकार अधिनियम, 2025” कहा जाएगा।
- यह अधिनियम सम्पूर्ण भारत में लागू होगा।
- यह अधिनियम केंद्र सरकार की अधिसूचना के पश्चात लागू होगा।
उद्देश्य (Objectives):
- नागरिकों को चिकित्सा संबंधी जानकारी उनकी समझ की भाषा में उपलब्ध कराना।
- हिन्दी और अंग्रेज़ी को दवा एवं चिकित्सा सूचना की अनिवार्य द्विभाषी भाषा बनाना।
- प्रत्येक राज्य में स्थानीय प्रांतीय भाषा को सहायक सूचना भाषा के रूप में बढ़ावा देना।
- रोगी की सुरक्षा, अधिकार और स्वास्थ्य पारदर्शिता को सुदृढ़ बनाना।
- औषधि निर्माण, वितरण, पैकेजिंग एवं चिकित्सा सेवा प्रणाली को भाषाई समानता के दायरे में लाना।
धारा 1: परिभाषाएँ
- “स्वदेशी भाषा” का अर्थ — संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी भारतीय भाषाएँ।
- “चिकित्सा सूचना” में औषधि पैकेजिंग, लेबल, उपयोग निर्देश, चिकित्सकीय पर्चे, रिपोर्ट, सावधानियाँ, मात्रा विवरण, सूचना पुस्तिका आदि सम्मिलित हैं।
- “निर्माता” का अर्थ — औषधि अधिनियम, 1940 के अंतर्गत लाइसेंस प्राप्त संस्था।
- “चिकित्सा संस्था” — अस्पताल, नर्सिंग होम, प्रयोगशाला, औषधालय, मेडिकल कॉलेज आदि।
धारा 2: द्विभाषी अनिवार्यता
- भारत में निर्मित या आयातित सभी एलोपैथिक दवाओं की सूचना, लेबलिंग, पैकेजिंग, मात्रा निर्देश, सावधानियाँ और उपयोग-विधि हिन्दी एवं अंग्रेज़ी — दोनों भाषाओं में अनिवार्य रूप से प्रदर्शित की जाएंगी।
- प्रत्येक राज्य सरकार अपने राज्य की प्रांतीय भाषा में तीसरे भाषा विकल्प के रूप में जानकारी देने हेतु दिशा-निर्देश जारी कर सकेगी।
धारा 3: चिकित्सा संस्थानों में भाषा सुविधा
- प्रत्येक सरकारी और निजी अस्पताल, औषधालय और जाँच प्रयोगशाला यह सुनिश्चित करेगी कि:
- मरीजों को दिए जाने वाले पर्चे, रिपोर्ट और निर्देश हिन्दी व स्थानीय भाषा में उपलब्ध हों।
- अस्पताल में सूचना बोर्ड, संकेतक और सावधानियाँ द्विभाषी रूप में प्रदर्शित हों।
- डिजिटल चिकित्सा प्रणाली (जैसे ई-पर्ची, ई-रिपोर्ट) में भाषा चयन का विकल्प अनिवार्य होगा।
धारा 4: दवा कंपनियों की जिम्मेदारी
- प्रत्येक औषधि निर्माता कंपनी अपनी दवाओं की पैकेजिंग एवं सूचना पुस्तिका में हिन्दी व अंग्रेज़ी का उपयोग करेगी।
- अनुपालन न करने पर ₹10 लाख तक का आर्थिक दंड तथा बार-बार उल्लंघन की स्थिति में उत्पादक का लाइसेंस निलंबित किया जा सकेगा।
- विदेशी दवा आयातकों के लिए भी यह शर्त समान रूप से लागू होगी।
धारा 5: राष्ट्रीय स्वदेशी भाषा चिकित्सा आयोग (NSLMA)
- केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्वदेशी भाषा चिकित्सा आयोग का गठन किया जाएगा।
- आयोग के कार्य —
- चिकित्सा क्षेत्र में भाषा मानकीकरण व अनुपालन की निगरानी।
- राज्यों के लिए दिशा-निर्देश जारी करना।
- जन शिकायतों और उपभोक्ता अधिकारों से संबंधित मामलों की सुनवाई।
- चिकित्सा शब्दावली के हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं में मानकीकरण के लिए विशेष समिति गठित करना।
धारा 6: रोगी अधिकार
- प्रत्येक नागरिक को अपनी भाषा में उपचार संबंधी सूचना प्राप्त करने का अधिकार होगा।
- इस अधिकार का हनन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत अनुचित व्यवहार माना जाएगा।
- किसी भी अस्पताल या कंपनी द्वारा उल्लंघन पर रोगी मुआवज़ा प्राप्त कर सकेगा।
धारा 7: संक्रमण काल और प्रोत्साहन
- अधिनियम के लागू होने के पश्चात सभी कंपनियों को 18 माह का संक्रमण काल दिया जाएगा।
- समयपूर्व अनुपालन करने वाली कंपनियों को कर-रियायत, पुरस्कार या ब्रांड प्रोत्साहन प्रदान किया जाएगा।
धारा 8: नियम बनाने की शक्ति
केंद्र सरकार इस अधिनियम के उद्देश्यों को प्रभावी बनाने हेतु समय-समय पर नियम, दिशा-निर्देश और अधिसूचनाएँ जारी करेगी।
संविधानिक आधार
- अनुच्छेद 14: सभी नागरिकों के लिए समानता का अधिकार।
- अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार — जिसमें स्वास्थ्य और सूचना का अधिकार अंतर्भुक्त है।
- अनुच्छेद 343–351: राजभाषा हिन्दी के प्रयोग, विकास और भारतीय भाषाओं के प्रोत्साहन का संवैधानिक दायित्व।
- अनुच्छेद 51(A)(f): प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य कि वह भारत की समृद्ध विरासत और भाषा का सम्मान करे।
संक्षिप्त सारांश:
यह विधेयक भारत में चिकित्सा क्षेत्र को भाषाई समानता और जनहित के मार्ग पर लाने का ऐतिहासिक कदम होगा।
यह “आत्मनिर्भर भारत” और “एक भारत – श्रेष्ठ भारत” की भावना के अनुरूप
जनसामान्य को उनकी भाषा में स्वास्थ्य का अधिकार दिलाएगा।
📘 प्रेरित कानून:
- फ्रांस का Loi Toubon (1994)
- जापान का Pharmaceuticals and Medical Devices Act
- जर्मनी का Arzneimittelgesetz
- चीन का Drug Administration Law (2019)
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