कविता - जब वीर स्वयंसेवक बढ़ता है

कविता - पुरुषार्थ का गीत – जब वीर स्वयंसेवक बढ़ता है

(ध्रुवपंक्ति / मुखड़ा)
जब लक्ष्य लिए वीर स्वयंसेवक बढ़ता है,
वह भारत का बल बुद्धि शौर्य जगाता है।
पुरषार्थ का दीप बन, असंभव का अंधकार मिटाता है॥
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(अंतर 1)
विभाजन की वे पीड़ाएँ,
आशायें उनकी बुझी हुईं थीं ,
शिविर बनाकर सेवायें दी,
अपनत्व और ममत्व से उनको 
जीने की नई राह दिखाता है ।
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(अंतर 2)
जब दंगों की लपटें उठतीं,
विभाजन से रक्तरंजित धरती थी,
राहत-दल बन स्वयंसेवक,
गली गली का प्रहरी था ॥
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(अंतर 3)
आपातकाल के बंधन में,
जब सत्य-द्वार बंद हुआ,
भूमिगत रह संघर्ष किया,
नई सुबह का उदय किया ॥
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(अंतर 4)
कश्मीर से लेकर गोवा तक,
अखंडता का संघर्ष था 
बलिदानों की गाथाये है,
370 की बेड़ी टूटी,
यह संघ-पुरुषार्थ की गाथा है॥

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(अंतर 5)
रामलला का धाम खड़ा,
आस्था का आलंबन है,
अयोध्या की ध्वजा लहराती,
वीरत्व स्वयं का दर्पण है॥

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(अंतर 6)
न झुकेंगे, न रुकेंगे हम,
लक्ष्य पहले हांसिल करेंगे.
संघ-व्रत यही महान है,
भारत माँ की अखंड ज्योति,
हर स्वयंसेवक के प्राण ॥

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(अंतिम अंतरा)
जय-जय करती मां भारती ,
जन जन उतारे पावन आरती।
संघ अमर , स्वयंसेवक अनंत ,
कल्पमयी साधना सफल करें हनुमंत।

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