संघ है तो भारत सुरक्षित है, सनातन सुव्यवस्थित है, स्वाभिमान प्रफुल्लित है

संघ है तो भारत सुरक्षित है, सनातन सुव्यवस्थित है, स्वाभिमान प्रफुल्लित है

आरएसएस के स्थापना दिवस विजयादसमी पर विशेष आलेख

संघ है तो भारत सुरक्षित है, सनातन सुव्यवस्थित है, स्वाभिमान प्रफुल्लित है

लेखक – अरविन्द सिसोदिया, कोटा

हिंदुस्तान लगभग तीन हजार सालों से विदेशी हमलावरों के आक्रमण झेलता रहा है। इनमें से कुछ ने हमें पराधीन बनाया, कुछ लूटकर चले गए और कुछ हममें ही विलीन हो गए। इस दौरान जबरन हिंसक और क्रूर धर्मांतरण ने हिंदुस्तान को बहुत नुकसान पहुंचाया। अखंड भारत के लगभग 95 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम और ईसाई हिंदुओं की ही संतानें हैं। उनके पुरखे हिंदू ही थे। जबरन उनकी पूजा पद्धति भले ही बदली, मगर उनके पूर्वज कभी नहीं बदले जा सकते। एक समय भविष्य में आएगा जब सब कुछ फिर से एकात्म होगा। किन्तु जहाँ-जहाँ हिंदू जनसंख्या कम हुई, वह हिस्सा देश से अलग हो गया। 

हिंदू संस्कृति में वीरता और पुरुषार्थ को ही सुरक्षा के लिए सर्वोपरी माना गया है, प्रथम महत्व दिया गया है। इसी कारण अधिकांश सनातन देवी-देवताओं के हाथों में शस्त्र और शास्त्र हैं। इसी वीरता के कारण हमारी संस्कृति का अस्तित्व आज भी बना हुआ है, अन्यथा हमारी समकक्ष सभी संस्कृतियों के अवशेष भी शेष नहीं हैं। किन्तु हमारी सबसे बड़ी समस्या आपसी फूट और सामाजिक बिखराव है, जिसके कारण हम धीरे-धीरे काफी कमजोर भी हुए, पराजित भी हुए और हमारा स्वाभिमान समाप्तप्राय हो गया था। हम पर मुठ्ठीभर लोगों ने शासन किया और हम उनके अधीन रहे। इस मलिनता के भाव का अनुभव हमने स्वतंत्रता आंदोलन में भी किया। तब सभी ताकतें मुस्लिम लीग की बातें मानती थीं या उनसे डरती थीं। उस विषम परिस्थिति में हिंदू समाज को, या यूँ कहें कि सनातन संस्कृति को पुनः सबल और स्वाभिमानी बनाने के साथ संगठित करने के महान कार्य हेतु संघ के संस्थापक परमपूज्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी को ईश्वरीय विधान ने अग्रेषित किया।

भारत भूमि देवभूमि है। इस संस्कृति के पुनरुत्थान हेतु दिव्य शक्तियाँ समय-समय पर आती रही हैं। अकबर के एकछत्र राज में गोस्वामी तुलसीदास जन्मे, जिन्होंने अवधी भाषा में रामचरितमानस लिखकर बहुत बड़ी हिंदू क्रांति की। इससे रामायण घर-घर पहुंची, सनातन पुनः प्रशफुटित हुआ, रामलीलाएँ प्रारंभ हुईं और अखाड़ों का अस्तित्व समाज में खड़ा हुआ। यह अघोषित था, मगर स्व के भाव का पुनः जागरण था। महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, स्वामी श्रद्धानंद, बाल गंगाधर तिलक, महर्षि अरविंद घोष और सरदार वल्लभ भाई पटेल सहित एक श्रंखला बनी जो देवयोग से विपरीत परिस्थितियों में भी भारत के स्वाभिमान, तेज, सम्मान और सांस्कृतिक उत्थान के लिए काम कर रही थी। इसी क्रम को पूर्ण प्रखरता प्रदान करने हेतु डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म ईश्वरीय व्यवस्था से नागपुर में हुआ। उन्होंने क्रांतिकारियों, कांग्रेस के गरम दल और नरम दल में भी प्रभावी भूमिका निभाई। वे स्वतंत्रता सेनानी थे,आंदोलन किये,जेल यात्राएँ कीं, आजीवन अविवाहित रहे और संपूर्ण जीवन राष्ट्रहित को समर्पित किया। इन सभी कार्यों का एक निष्कर्ष उनके सामने था – “जब तक सबल और संगठित हिंदू समाज नहीं होगा, तब तक अपने देश का भला नहीं हो सकता। इसलिये समाज को स्वाभिमान से भरपूर सबल करना होगा। ” क्योंकि उस दौर में हिंदू की बात कोई नहीं सुनता था।
इसी ध्येय हेतु उन्होंने सनातन धर्म की ऋषि परंपरा को आधार बनाकर प्रचारक व्यवस्था पर आधारित स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना विजयादशमी 1925 को नागपुर में बहुत लघुरूप में की। किन्तु पवित्र उद्देश्य होने से संघ तेजी से बढ़ता गया। संघ के प्रचारक आज की आधुनिक ऋषि परंपरा माने जाते हैं। वे अविवाहित रहते हैं, जीवन का एक-एक पल देशहित के लिए जीते हैं। यह सिर्फ राष्ट्रहित के ध्येयपथ पर चलते हुए, आज सौ वर्षों में विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन आर एस एस है, जिसका अस्तित्व और प्रभाव पूरा विश्व महसूस करता है। भारत के सभी प्रमुख क्षेत्रों में सर्वोच्च स्वीकार्यता संघ और उसकी प्रेरणा से गठित संगठनों को प्राप्त है। संघ, जो आर एस एस के नाम से विख्यात है, सनातन हिंदू संस्कृति के लिए परमपूज्य, आदरणीय और अनुकरणीय है। ईश्वर में जैसी श्रद्धा और विश्वास भारत का हिंदू जन रखता है, वही भाव और श्रद्धा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी रखता है और वही विश्वास है।

संघ की इस महान सफलता के पीछे लाखों प्रचारकों का जीवन-समर्पण है। कठिन और अनुशासित जीवन पद्धति और ध्येयनिष्ठ व्यवस्था है। यह वह संगठन है, जिसमें जातिवाद, व्यक्तिवाद और पूंजीवाद को पूरी तरह त्यागा गया और मूल्यों पर आधारित आदर्श अपनाए गए। जैसे संघ का गुरु कोई व्यक्ति नहीं, परमपूज्य भगवा ध्वज है, जो अनादिकाल से भारतभूमि का नेतृत्वकर्ता है। स्वयंसेवकों की गुरुदक्षिणा से खर्च चलाना और स्वावलंबी रहना, न्यूनतम व्यय में गुजारा करना, ये संघ की विशेषताएँ हैं। सभी स्वयंसेवकों की एक ही धुन है, जय जय भारत, और एक ही कर्तव्य, भला हो जिसमें देश का, वही काम किए चलो। इन्हीं भावों से भरे स्वयंसेवक चरैवेति चरैवेति की तरह कई पीढ़ियों से निरंतर चलते रहे हैं। एक ही लक्ष्य है " भारतमाता को परम वैभव के सिंहासन पर आरूढ़ करना।"

विश्व में यदि किसी संगठन को सबसे ज्यादा बाधाएँ, आलोचनाएँ और झूठे आरोप झेलने पड़े, तो वह भी संघ है। मगर कार्य पूर्ण करने की संकल्पना ने सभी बाधाओं पर विजय प्राप्त कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भारत में विशाल वटवृक्ष बना दिया, जिसकी शाखाएँ दूर-दूर तक फैलकर देशहित के समग्र चिंतन में रत हैं। इसीलिए अब हिंदू जन विश्वास रखता है कि " संघ है तो भारत सुरक्षित है, सनातन सुव्यवस्थित है, स्वाभिमान प्रफुल्लित है।"

प्रथम सरसंघचालक ड़ा केशव बलिराम हेडगेवार जी नें संघ को स्थापित कर विचार, ध्येय, लक्ष्य,व्यवस्था और पद्धति से जहां रोपित किया, सिंचित किया,तो उसे सबल और मजबूत संगठन बनाने का कार्य द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलबलकर जी जो गुरूजी के नाम से विख्यात थे,ने किया।

विजयादशमी 1925 को जन्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस विजयादशमी 2025 को 100 वर्ष पूर्ण कर लेगा और अपने 101वें वर्ष में प्रवेश करेगा। यह अवसर सभी राष्ट्रप्रेमियों और सनातन धर्मावलंबियों के लिए अद्भुत आनंद का है। प्रत्येक हिंदूजन को इस शुभ अवसर पर गौरवान्वित होना चाहिए।

नोट – यह विचार लेख के लेखक अरविन्द सिसोदिया के निजी विचार हैं।

 भवदीय 
अरविन्द सिसोदिया 
9414180151


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