राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष - स्वामी विवेकानन्द Swami Vivekananda,
राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष - स्वामी विवेकानन्द
भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म के प्रखर प्रवक्ता और मीमांसाकार, मानवता के ओजस्वी प्रणेता, विश्व में सनातन चेतना का साकार स्वरूप स्वामी विवेकानंद जी थे। जिनकी वाणी में तेज, हृदय में जिज्ञासाओं का महासागर, स्वस्फूर्त स्पष्टताओं से भरी प्रेरणाशैली, सुसुप्त को भी पुनः जागृत कर देने वाली संजीवनी सा प्रभाव, उनकी विशिष्टता थी। स्वामीजी की आध्यात्मिक चेतना और वैचारिक प्रेरणाओं के अमृत घट से भारत ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व ने मानव कल्याण के लिये बहुत कुछ पाया है। हम उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर विचार करते हैं।
स्वामीजी ने देश व दुनिया के दिग्भ्रमित लोगों को नवजीवन, नई सोच, नई दिशा दी। वे स्वयं तेजस्वी जीवन के धनी, गौरवशाली ज्ञान गरिमा के प्रतीक और प्रेरक, युवा युगपुरुष थे। उन्होंने भारत की रग-रग में स्वाभिमान व राष्ट्र-चेतना का संचार किया। समाज सुधारक, राष्ट्र चेतना के उन्नायक अध्येता-ज्ञाता-कीर्ति पुरुष स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व व ज्ञान आभा से देश ही नहीं, सारा संसार आलोकित हुआ। इसी कारण स्वामी विवेकानन्द जी के उपदेश आज भी महत्वपूर्ण व प्रासंगिक बने हुये हैं।
कहा जाता है कि लीक से हटकर चलने वाला व्यक्ति अत्यंत प्रतिभाशाली होता है। स्वामी विवेकानंद जी ने भी अपना मार्ग स्वयं बनाया, उस पर चलकर समाज सुधार और राष्ट्र चेतना की कीर्तिध्वजा लहराई। उन्हांने विदेशी सत्ता के रहते हुये भी दृढ आत्मविश्वास से भारतवासियों की जख्मी आत्मा और घायल प्राणों में राष्ट्रीय चेतना स्पंदित की और स्वाभिमान के साथ उठ खड़ा होने की प्रेरणा दी।
युवा शक्ति के प्रेरणास्त्रोत विवेकानन्दजी का जन्म 12 जनवरी, 1863 ई. में महानगर कलकत्ता में पिता विश्वनाथ दत्त के घर हुआ, इनकी माँ का नाम भुवनेश्वरी देवी था। उनके जन्म से पहले पुत्रियों का ही जन्म हुआ था, माता ने पुत्र कामना में वाराणसी के वीरेश्वर महादेव मंदिर में अपनी चाचीजी के द्वारा विशेष पूजा करवाई थी। माता को भगवान शिव शंकर ने स्वप्न में आर्शीर्वाद भी दिया था। इसके बाद जन्मे स्वामी जी का, माता ने घर पर नाम वीरेश्वर ही रखा था, इस कारण वे उन्हें “विले” कह कर पुकारा करती थीं। वहीं पिता ने नाम रखा नरेन्द्रनाथ। यही नरेन्द्रनाथ दत्त आगे चल, समाज सुधारक व राष्ट्र चेतना का साकार स्वरूप बन कर देश व दुनिया में भारतीयता की पहचान, स्वामी विवेकानन्द बने। उनके दो छोटे भाई महेन्द्रनाथ दत्त और भूपेन्द्रनाथ दत्त थे।
धर्मज्ञान, ध्यान, चिंतन, मनन, पूजा, अर्चना इनको अपने पारिवारिक संस्कार के रूप में मिली थी। स्वामीजी उच्च पावन संस्कारों में पल्लवित मेधावी व विलक्षण छात्र थे, इनकी प्रतिभा का यह आलम था कि पढ़ते वक्त पाठ््यपुस्तकों की छोटी-छोटी सीमाएं इन्हें संतुष्ट नहीं कर पाती थीं।
युवा अवस्था में आते आते उनके ऊपर से पिताजी का साया उठ गया था। यह उनके लिये भारी दुःख की अनुभूति थी। किन्तु वे विकट हालातों से कभी घबराते ही नहीं थे बल्कि उनसे जूझते हुये कुछ विशेष कर गुजरने के लिए वे बैचेन रहते थे।
स्वामी जी प्रायः सोचा करते थे संसार में इतनी विषमताएं क्यों हैं ? मानव सभ्यता में लोककल्याण की सभी क्षमतायें होने के बावजूद, गरीबी, भेदभाव, हिंसा और शोषण क्यों ? समाज की विकृत स्थितियों ने इनके मन को जमकर झकझोरा। गरीबों व दुखियों को देख कर इनका हृदय करुणा से भर जाता था, वह द्रवित हो पास में जो हो उसे देने को तत्पर रहते थे। कुछ नहीं होता तो अपना धोती-कुर्ता ही दे देते थे।
युवावस्था के प्रारम्भ में ही, वे अपनी व्यापक जिज्ञासाओं के चलते, ईश्वर की खोज में उन्मुख व चिंतित रहा करते थे। वे तब कई महन्तों व साधु संतों की शरण में भी गए, वे हमेशा ही सोचा करते थे, क्या कोई उन्हें ईश्वर से मिलवा सकता है। अर्थात ‘‘ऐसे तत्त्वदर्शी महापुरुष कहाँ मिलेंगे जो ब्रह्म से साक्षात्कार करा दें।’’
अपनी इसी प्रबल इच्छाशक्ति के चलते, स्वामी जी को स्वामी रामकृष्ण परमहंस का शिष्यत्व मिला, जिससे इनकी जिज्ञासाओं को विराम मिला और साथ ही संतुष्टि भी। अपने गुरु से विवेकानंदजी ने निर्भीकता, आध्यात्मिकता, सद्चरित्रता, स्वदेश प्रेम का वरदान व तेजस्वी व्यक्तित्व प्राप्त किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में नरेन्द्र (यानी विवेकानंद जी) ‘‘ध्यानसिद्ध पुरुष है’’, अर्थात स्वामी विवेकानन्द के जीवनवृत्त, आध्यात्मिकता व प्रतिभा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता।
स्वामी विवेकानन्द हिमालय से विभिन्न तीर्थ स्थलों पर होते हुए कन्याकुमारी गये, वहाँ तट पर स्थित देवी शक्ति की वंदना कर समुद्र में तैरते हुए ढाई किलोमीटर दूर समुद्र में विशाल चट्टान पर पहुँचे, उसी चट्टान पर ध्यान लगा, चिंतन मनन में तन्मय हो गए। यहाँ स्वामी जी को दिशा बोध हुआ, ज्ञान व प्रेरणा मिली। उसी दृष्टि के द्वारा स्वामीजी ने पाश्चात्य जगत् को भारतीय दर्शन के अध्यात्म के प्रकाश से प्रकाशित कर चकित कर दिया। तेजस्वी स्वामी विवेकानन्द जी को कन्याकुमारी में जिस चट्टान पर ध्यान से ज्ञान, प्रेरणा व चेतना मिली, उस चट्टान पर कन्याकुमारी में आज, स्वामी विवेकानन्दजी का स्मारक बना है। इस स्मारक का उद्घाटन 02 सितम्बर 1970 में राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी ने किया था।
ज्ञातव्य रहे कि स्वामी जी को इसी तीर्थ यात्रा में कन्याकुमारी के बाद रामेश्वर पहुंचना हुआ, वहां रामनाद नामक राज्य (रामसेतु के राजा) के राजा भास्कर सेतुपति ने शिकागो में आयोजित होने वाली विश्व धर्म संसद की जानकारी देते हुये, उनसे उसमें भाग लेने का आग्रह किया। शिकागो यात्रा के लिये स्वामीजी के निकटतम मित्र राजस्थान की खेतड़ी रियायत के राजा अजीतसिंह जी और कुछ मद्रास के शुभ चिन्तकों ने व्यवस्था सहयोग दिया था।
11 सितम्बर 1893 ई. का विश्व इतिहास में वह यादगार दिन, अमरीका शिकागो शहर में प्रथम विश्व धर्म संसद (आध्यात्मिक सभा) और उसमें भारतीयता से ओतप्रोत स्वामी विवेकानन्दजी की उपस्थिति। मंच पर विभिन्न देशों के प्रतिनिधि, हजारों श्रोता और बोलने की बारी आयी तो उनके मुँह से निकला “भाइयों और बहनों” का सम्बोधन, यह सुनते ही मंचस्थ एवं श्रोता सभी आत्मविभोर और मंत्रमुग्ध हो उठे। हर्ष, उल्लास और तालियों की गडगड़ाहट गूंजती रही.....और वह हिंदुत्व का जय घोष आज भी सब दूर गूंज रहा है। स्वामी जी के उद्बोधन की लहरों में पाश्चात्य जगत् को समस्त मानव जाति के एकत्व की अनुभूति हुई, मंत्रमुग्ध श्रोता अभिभूत थे। चेतनायुक्त भारतीय आध्यात्मिक दर्शन और स्वामी जी की धाराप्रवाह, तेजस्वी वाणी, श्रोताओं की तन्मयता, भारतीय ज्ञान के विश्वगुरु भारत की पताका फिर से फहरा रही थी।
विश्व धर्म संसद में स्वामीजी के कुल पांच भाषण हुये थे। तीसरा भाषण हिन्दुत्व की न केवल व्याख्या थी बल्कि विश्व के सामने भारतीयों के आध्यात्मिक भण्डार का लोकार्पण भी था, जिसे तत्कालीन विश्व ने पहली बार सुना। इस संदर्भ में भगिनी निवेदिता ने लिखा है, ‘‘महासभा में स्वामी जी का अंतिम भाषण (छठा) सत्ताईस सितम्बर को था, जिसने भारतीय संस्कृति के महत्त्व को सर्वोच्च शिखर पर अधिष्ठित कर दिया।’’ वस्तुतः यही वह ऐतिहासिक दिन थे जब स्वामी जी ने विश्व में भारत की आध्यात्मिकता को प्रकाशित किया तथा वे विश्व के समक्ष भारत के सर्वोच्च प्रवक्ता बन कर उभरे।
तदुपरान्त स्वामी जी विभिन्न देशों में होते हुए स्वदेश लौटे, भारतीय समुद्र तट पर जहाज से उतरते ही वे पहले धरती पर लेट गए और इधर-उधर बार-बार लेटते रहे और बोले, बहुत दिनों बाद माँ का (भारत भूमि) का स्पर्श मिला है। मातृभूमि में लिपट वह सारे कल्मष दूर हो गए।
भारत में स्वामी विवेकानन्दजी ने रूढ़िवादी विचारों, अंधविश्वासों को छोडने एवं पराधीनता को त्यागने का आह्वान किया, उनके विचारों से जन जन में आत्मविश्वास भर गया, उन्होंने स्वतंत्रता के लिए देशवासियों में स्वाभिमान जगाया। स्वामी विवेकानन्दजी के समाज सुधार के वक्तव्यों ने समाज में अंधविश्वासियों की आँखें खोल दी। इसी दौरान स्वामी जी को विश्व के कई देशों के निमंत्रण मिले तथा वे फिर उन देशों में गए भी।
स्वामी जी ने व्याख्यानों के द्वारा विदेशों में भारतीय वेदान्त, दर्शन और आध्यात्मिकता को गुंजायमान किया। उनके प्रवचनों की गूँज विश्व में जगह-जगह भारतीय गौरव गान के रूप में प्रतिध्वनित होने लगी थी। स्वामी जी ने पाश्चात्य भौतिकता की नकारात्मक सोच को भी ललकारा, इसके बावजूद स्वामी जी विदेशी लोगों के भी चहेते रहे। विश्व के सभी बुद्धिजीवियों में प्रेरणादायी आदर्शों के प्रणेता महापुरूषों में स्वामीजी के महान् व्यक्तित्व को श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया जाता है।
स्वामी विवेकानन्द जी ने भारतवर्ष की महानताओं के सम्बन्ध में प्रखरता से विचारों का प्रवाह हमें दिया है। उन्होंने यथार्थ दर्शाते हुए कहा, ‘‘भारत भूमि पवित्र भूमि है, भारत मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्जगत् के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे।’’ स्वामी जी कहा करते थे, ‘‘भारत वर्ष की आत्मा उसका अपना मानव धर्म है, सहस्रों शताब्दियों से विकसित चारित्र्य है।’’
उन्होंने देशवासियों से कहा ‘‘चिन्तन मनन कर राष्ट्र चेतना जागृत करें तथा आध्यात्मिकता का आधार न छोडें।’’ स्वामी जी ने तत्कालीन देश, काल, वातावरण पर अपना मंतव्य इस प्रकार स्पष्ट किया ”सीखो, लेकिन अंधानुकरण मत करो“ और “नयी और श्रेष्ठ चीजों के लिए जिज्ञासा पूर्वक संघर्ष करो।’’ स्वामी जी का यह भी स्पष्ट मत था कि उनका (पाश्चात्य जगत का) अमृत हमारे लिए विष हो सकता है। उन्होंने कहा था, दो प्रकार की सभ्यताएं हैं, एक का आधार मानव धर्म, दूसरी का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति। इन्हीं संदर्भों में उनका यह भी कहना था कि समन्वय हो, किन्तु भारत यूरोप नहीं बन सकता, उनके मतानुसार प्रेम से असम्भव भी सम्भव हो सकता है।
युवाओं से उनका सम्बोधन था, ‘‘ध्येय के प्रति पूर्ण संकल्प व समर्पण रखो।’’ उन्होंने कहा भारत के राष्ट्रीय आदर्श सेवा व त्याग हैं। देश की युवा शक्ति को त्यागी व समाजसेवी होना चाहिए। पुनरुत्थान के संदर्भ में उनका कहना था, जिन्दा रहना है तो विस्तार करो, जीवन दान करोगे तो जीवन दान पाओगे। स्वामी जी ने स्पष्ट कहा, हमें पश्चिम से मुक्त होना है, पर उनसे बहुत कुछ सीखना है, सब जगह से अच्छी बात लो। स्वामी जी अक्सर कहते थे, ‘‘नैतिकता, तेजस्विता, कर्मण्यता का अभाव न हो। उपनिषद् ज्ञान के भण्डार हैं उनमें अद्भुत ज्ञान शक्ति है, उनका अनुसरण कर अपनी निज पहचान स्थापित करो।’’
उन्होंने कहा ज्ञान अनंत और अनादि है, सर्वप्रथम हमारी सभ्यता - संस्कृति के पुरातन ऋषि कवियों ने इसको प्राप्त किया, दार्शनिकों ने इसका प्रतिपादन किया और उसे आधारशिला का रूप दिया जिसके ऊपर आज भी सम्पूर्ण सनातन जीवन का प्रासाद खड़ा होता है।’’
उनका चिंतन था कि यही वह पुरातन भूमि है जहाँ ज्ञान ने अन्य देशों में जाने से पूर्व अपनी आवास भूमि बनाई थी। यह वही भारतवर्ष है जिसकी धरा से दर्शन के उच्चतम सिद्धान्तों ने अपने चरम का स्पर्श किया। इसी भूमि से अध्यात्म एवं दर्शन की लहर पर लहर, बार-बार उमडी और समस्त विश्व पर छा गयी। स्वामीजी का अपना चिंतन बहुत ही विस्तृत, महान् तथा प्रेरणायुक्त है।
स्वामी विवेकानन्द जी के समय देश की हालत बडी जर्जर थी, उन्होंने लिखा स्वधर्मी, विधर्मी लोगों के दमन चक्र में पिसकर लगभग चेतना शून्य हो गए। उन्होंने पुनरुत्थान के संदर्भ दान का महत्त्व को बताया, प्राणदान, धर्मदान, विद्यादान और अन्न-जल दान, उन्होंने कहा ‘‘सत्य दो, असत्य स्वयं मिट जाएगा।’’ ग्रंथों में छिपे आध्यात्मिक ज्ञान को प्रकाश में लाएं। उनके अनुसार, आत्मविश्वास की अपनी अद्भुत शक्ति है।
उनके मतानुसार निःस्वार्थ कार्यकर्ता ही सबसे सुखी होता है, निष्काम कर्म ही सर्वोत्तम है, उनका कहना था कि इच्छा, चाह ही प्रत्येक दुःख की जननी है। श्रेष्ठ मनुष्यों का भी लोकेषणा पीछा नहीं छोड़ती। आज के संदर्भों में देखा जा सकता है, उनके विचारों की प्रासंगिकता कितनी सटीक थी और है, कोई व्यक्ति कर्म के लिए कर्म नहीं करता, कहीं न कहीं, कोई न कोई कामना विद्यमान रहती ही है। धन, सत्ता, यश, लालसा, कोई न कोई कामना समाज में, राजनीति में, स्पष्ट देखी जा सकती है।
भारतीय और पाश्चात्य नारी संदर्भों में स्वामी जी ने न्यूयॉर्क में भाषण देते हुए कहा ‘‘भारतीय स्त्रियां इतनी शिक्षा सम्पन्न नहीं, फिर भी उनका आचार-विचार अधिक पवित्र होता है।’’ उनके मतानुसार प्रत्येक स्त्री को चाहिए कि वह अपने पति के अतिरिक्त सभी पुरुषों को पुत्रवत समझे व पुरुष को चाहिए कि अन्य स्त्रियों को मातृवत् समझें।
उन्होंने कहा, वर्तमान शिक्षा निषेधात्मक एवं निर्जीव है, वस्तुतः शिक्षा में चरित्र निर्माण के विचारों का सम्मिश्रण होना चाहिये। शिक्षा का लौकिक परमार्थ हमारे हाथों में हो तथा हमारी आवश्यकता के अनुरूप हो। उनका कहना था जिन खोजा तिन्ह पाइयां... निःस्वार्थ सही दृष्टिकोण हो, आदर्श के लिए जिओ, पूजागृह ही सब कुछ नहीं, मदान्ध मत बनो, कट्टरतावादी मत बनो, अंधविश्वास त्यागो, कठिनाइयों का निर्भीकता से सामना करो। वीर बनो, उदार बनो। आत्मनिरीक्षण करो, अपने में सद्चरित्र का निर्माण करो। उन्होंने कहा ‘मैं’ से मुक्ति पाओ।
वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द के समाज सुधारों एवं राष्ट्र चेतना की प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है। उनके समाज सुधार के कार्य समाज की थाती है तथा उनके द्वारा जगाई राष्ट्र चेतना देश की दिशा का अहम् हिस्सा है। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उनके सम्बन्ध में भविष्यवाणी की थी, ‘‘तू संसार में महान् कार्य करेगा, तू मनुष्यों में आध्यात्मिक चेतना लाएगा और दीन दुखियों के दुःख दूर करेगा।’’
४ जुलाई,१९०२ को 39 वर्ष के अल्प जीवन में स्वामी विवेकानन्द ने भारतवासियों में आत्मगौरव की भावना प्रेरित कर उन्हें अपनी संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परंपराओं का योग्य उत्तराधिकारी बनाया। अपनी समृद्धि और सफलता के मद में चूर पश्चिम के लोगों को भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ताकत का एहसास कराया। उन्होने उद्घोषित किया भारत ही वह देश है जिसमें विश्व बंधुत्व के साथ, धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता, उपनिषद और विज्ञान सब के सब समाहित हैं।
स्वामी विवेकानंद का हम सबको उपदेश
ऽ अगर तुम्हारा पड़ोसी भूख से मर रहा हो तो, मंदिर में भोग लगाने के बजाय उसकी क्षुधा तृप्त करो, उसे खिलाना साक्षात् नारायण को भोग लगाना है।
ऽ वास्तविक शिव की पूजा निर्धन और दरिद्र की पूजा है, रोगी और कमजोर की पूजा है।
ऽ मैं भारत में लोहे की मांसपेशियों और फौलाद की नाड़ी तथा धमनी देखना चाहता हूं क्योंकि इन्हीं के भीतर वह मन निवास करता है जो शम्पाओं और वज्र से निर्मित होता है, शक्ति, पौरुष, क्षात्र-वीर्य और ब्राह्म-तेज, इनके समन्वय से भारत की नई मानवता का निर्माण होना चाहिए।
ऽ मानवता के नवनिर्माण हेतु पत्तियां बदलने से काम नहीं चलेगा, हमें जड़ तक जाना होगा।
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