श्री गोरक्ष नाथ जी महाराज shree gorksh nath ji maharaj
श्री गोरक्ष ज्ञानसागर के मोती
|| श्री गुरु गोरक्षनाथ जी महाराज के अवदान ||
1. श्री महाविष्णु के अवतार श्री मत्स्येन्द्रनाथ जी की प्रार्थना पर श्री महाशिव ने सतयुग में योग मार्ग के प्रचार के लिए शिव गोरक्ष का रूप धारण किया और भोगवाद में लिप्त देवों को योग मार्ग का अनुसरण कराया |
2. श्री भगवान् शिव तो गुरुओं के गुरु हैं, उन्होने ही गुरु परम्परा को प्रारम्भ किया | श्री 'गुरु गीता' नामक ग्रन्थ उन्होंने ही लिखा है | जो श्री शिव महा पुराण में दिया गया है | शिवस्वरूप होने के कारण श्री गोरक्ष नाथ जी महाराज तो स्वभावतः गुरुओं के गुरु हैं | तो भी गुरु परम्परा के निर्वहन के लिए ही उन्होंने श्री महाविष्णु के अवतार श्री मत्स्येन्द्र नाथ जी महाराज को अपना गुरु बनाया | इस प्रकार उन्होंने त्रिदेवों के भेद को भी मिटाया और छोटे बड़े के भाव को भी समाप्त किया |
3. स्वयं को गुरु की आवश्यकता नहीं थी तो भी गुरु बना कर जैसा कहो वैसा स्वयं करो भी की परम्परा का श्री गणेश श्री गुरु गोरक्षनाथ जी महाराज ने किया | यही सच्चे गुरु का चिह्न है | श्री गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने खालसा पन्थ का निर्माण किया तो उन्होंने ही उन पञ्च प्यारों से सब से पहले अमृत छका और खालसा बने जिन्हें स्वयं गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने अमृत छकाया था |
4. श्री विष्णु अवतार को गुरु बना कर उन्होंने श्री विष्णु एवं श्री शिव के भेद को समाप्त किया और हरिहर की मान्यता की पुष्टि की |
5. ब्रह्मावातार श्री सत्यनाथ जी महाराज को नवनाथों में सम्मिलित कर उन्होंने त्रिदेवों के एकत्व और अभेद को सिद्ध किया |
6. श्री गणेश जी के अवतार श्री गजकर्णस्थल नाथ जी को नवनाथों में सम्मिलित कर श्री गणेश जी की प्रथम पूज्यता को यथावत् रखा |
7. त्रेता में श्री रामजी, श्री लक्ष्मणजी एवं श्री हनुमान जी को योगमार्ग में दीक्षा देकर उन तीनों के ब्रह्म ह्त्या के दोष से मुक्त किया और दोषी के दोष का निवारण हो सकता है, इस सनातन मान्यता को परिपुष्ट किया |
8. श्री रामजी, श्री लक्ष्मणजी एवं श्री हनुमानजी के द्वारा प्रवर्तित पन्थ क्रमशः राम पन्थ, लक्ष्मण पन्थ अर्थात् नाटेश्वरी पन्थ, और ध्वज पन्थ नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख बारह पन्थों में स्थान देकर राम कथा के प्रमुख पात्रों का मान बढाया |
9. द्वापर युग में श्री रुकमनी जी के विवाह में अड़चन आ गयी थी | श्री रुक्मिणी जी के भाई के रूप में कार्य करने योग्य कोई भी मण्डप में नहीं था | समस्त देवता श्री रुक्मिणी जी के तेज के सामने बौने पद रहे थे | तब गुरु गोरक्षनाथ जी महाराज वहां प्रकट हुए और उन्होंने भाई के दायित्व का निर्वाह किया | तब से समस्त नाथ लक्ष्मी माता के भाई माने जाते हैं | सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ |
10. कलियुग में दिए अवदान तो सब को ज्ञात ही हैं, फिर भी कुछ प्रमुख अवदानों का आगे उल्लेख किया जा रहा है –
11. मध्यकाल में विविध पन्थों के योगमार्ग में आयी यौनाचार विकृति से नाथ पन्थ को बचाए रखने के लिए अवधूत गण बिना स्त्री के रहेंगे, इस सतयुगीन अवधारणा को दृढ़ता पूर्वक लागू रखा |
12. कथनी, करनी और रहनी में सच्चे होने पर बल देकर आपने श्री गीता जी के इस उद्घोष को समर्थित किया –
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||3.21||
13. किस से क्या काम लेना है ? इस योजकता को श्री गुरु महाराज ने अतिविचित्र प्रकार से प्रयुक्त किया | उदाहरणार्थ भर्तृहरि जी को राजा से रंक बना दिया तो बप्पा रावल को रंक से राजा बनाया |
14. श्री भर्तृहरि जी की कथा से प्रमाणित होता है कि गुरु महाराज ने समाज को भोगवाद से दूर कर त्याग की ओर प्रवृत्त किया |
15. इसी कथा से सिद्ध होता है कि उन्होंने जीव हत्या को अपराध बताया, उन्होंने एक अनुत्तर प्रश्न जनता के सामने उपस्थित किया कि जो प्राण दे नहीं सकता, उसे प्राण लेने का क्या अधिकार है ?
16. ज्वाला माता के मन्दिर की उनकी कथा कहती है कि मन्दिरों में अभक्ष्य पदार्थ चढ़ाना वर्जित होना चाहिए |
17. गोरखपुर की खिचडी की कथा कहती है कि सात्विक भोजन ही योगियों और जनसाधारण के लिए भी फलदायी है |
18. मृगस्थाली नेपाल की घटना कहती है कि काल तो योगियों के वश में रहता है |
19. यह कथा यह भी कहती है कि साधुओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिए |
20. संस्कृत के साथ साथ लोकभाषा में भी उन्होंने जनता को शिक्षा दी ताकि आम जनता को भी ज्ञान पर अधिकार रहे |
21. उन्होंने संस्कृत में रचना कर अपना पाण्डित्य सिद्ध किया तो लोक भाषा में रचना कर जन सामान्य को भी उन्होंने ज्ञान उपलब्ध कराया |
22. श्री गुरु गोरक्षनाथ जी महाराज हिन्दी भाषा के प्रथम कवि हैं | लोग भूल से पद्मावत के कवि मालिक मोहम्मद जायसी को हिन्दी का प्रथम कवि बताते हैं, जो कि अशुद्ध है, क्यों कि जायसी से तो सैकड़ों वर्ष पूर्व गुरु महाराज ने हिन्दी में उपदेश दिया |
23. बलपूर्वक मुसलमान बनाए गए हिन्दुओं को बप्पारावल द्वारा फिर से हिन्दू बनवाया |
24. घर वापसी के इस कार्य को हम लोग आगे बढाते रहते तो देश का विभाजन नहीं होता |
25. गुरु महाराज के इस कार्य से सिद्ध होता है कि हिन्दुत्व ही राष्ट्रीयत्व है |
26. अन्याय का प्रतिकार जिस प्रकार श्री गीता जी सिखाती है, उसी प्रकार पाबू जी महाराज पर किये गए अपकार का प्रतिकार रूपनाथ जी द्वारा कराने की घटना भी जैसे को तैसा व्यवहार की ओर उन्मुख कराती है |
27. पन्थ और समाज में व्याप्त बुराइयों पर लिखी उनकी वाणियां उनको समाझ सुधारक बनाती हैं |
28. बप्पारावल, गोगाजी, अजयपालदेवजी, महाराणा प्रताप के द्वारा आपने हिन्दुत्व की रक्षा करवायी | इससे एक बात तो यह सिद्ध हुई कि यह देश हिन्दू राष्ट्र है | इस राष्ट्र की रक्षा करने का अर्थ है हिन्दुत्व की रक्षा करना |
29. हिन्दुत्व भारत राष्ट्र की आत्मा है |
30. दूसरी बात इस संघर्ष प्रेरणा से यह सिद्ध हुई कि क्षत्रियत्व किसी भी राष्ट्र की रक्षा के लिए आवश्यक है |
31. भाषा, जाति, सम्प्रदाय, प्रान्त, रूप, रंग, आदि के भेद और त्रास से भयभीत सभी जनों को नाथ पन्थ में समाविष्ट कर आपने हिन्दू एकता की रक्षा भी की और हिन्दुत्व को सर्वमान्य भी बनाया |
32. योगमार्ग में फ़ैल रहे वामाचार से आपने योग को बचाया |
33. योग और समाज में फ़ैल रहे पाखण्ड से आपने देश और समाज कि रक्षा की |
34. शारीरिक व्यायाम को ही योग समझने वालों को भी श्री गुरु महाराज की प्रेरणा है कि परमात्मा से जीवित ही मिलने को योग कहते हैं |
35. समस्त जीव मात्र में परमात्मा को देखने की प्रेरणा आपने अपनी वाणी, योग और अपने कार्यों से दी |
36. अरब से लेकर सारे भारत में आप घूमे और अभी भी इसी क्षेत्र में आप घूमते रहते हैं, इससे निम्न बातें सिद्ध होती हैं –
क. इतनी सम्पूर्ण भारत भूमि है
ख. यह इतनी पुण्यभूमि है
ग. सत्कर्म यहीं पर फलदायी होते हैं
घ. संसार की अन्य भूमियाँ भोगभूमियाँ हैं
ङ. स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि यदि किसी को मोक्ष प्राप्त करना है तो उसे एक बार भारत भूमि में जन्म लेना होगा, तभी उसे मोक्ष मिलेगा, अन्यथा नहीं | यही बात श्री गुरु गोरक्षनाथ जी महाराज के कार्य व्यवहार से सिद्ध होती है कि यह भारत भूमि ही पुण्यभूमि और कर्मभूमि है अन्य सब भोगभूमियाँ हैं |
च. और इसीलिए गुरु महाराज इस भूमि के बाहर नहीं गए तो इससे सिद्ध होता है कि गुरु महाराज स्वदेशी विचार धारा के समर्थक थे
छ. और यह भी ज्ञान होता है कि गुरु महाराज इस स्वदेशी धारा को क्यों अनुप्राणित करना चाहते हैं क्यों कि यही भूमि कर्म, पुण्य और अध्यात्म की भूमि है |
ज. इस भारत भूमि को अखण्ड बनाने की प्रेरणा भी गुरु महाराज के कार्यों से मिलती है कि पुण्य क्षेत्र पापकर्माओं के अधिकार में न जाना चाहिए, न रहना चाहिए |
झ. उनका मानना था कि यदि भारत सुधर जाएगा तो सारा संसार सुधर जाएगा | अर्थात्
ञ. 'भारत माता मानवता की प्रयोग शाला है' |
- बाबा निरंजन नाथ अवधूत
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महायोगी गुरु गोरखनाथ का जीवन परिचय
भारत संतो की भूमि है, यहां पर संतो की बात जब भी की जाती है तो उनकी दयालुता और करूणा याद आती है। सिद्ध पुरूषों की धरा पर भगवान का हमेशा ही आशीर्वाद बना रहता है। महापुरुष ज्ञान देते हैं, भगवान का स्मरण करवाते हैं और मानवों को उनके जीवन का ध्येय समझाकर उनका कल्याण करते हैं। आज हम एक ऐसे ही सिद्ध महायोगी की बात कर रहे हैं जिन्हें गुरु गोरखनाथ और उनके नाम से ही उत्तर प्रदेश में एक जिले का नाम गोरखपुर है। आइये जानते हैं…
महायोगी गुरु गोरखनाथ जीवन परिचय
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।
कई आसनों का किया आविष्कार
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।
गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है।
महायोगी गोरखनाथ जी की रचनाएं
इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।
संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।
पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पुरान भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पूर्ण भगत पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पुरान तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पुरान वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।
बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से पंजाब में गोपीचंद, रानी पिंगला और भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथी बन गये थे।
गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है-
एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, महाराज, आप क्यों रो रहे हैं? गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।
इस पर राजा ने कहा, हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं। गोरखनाथ बोले, तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो। गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।
कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी का मंदिर
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।
- साभार मनीष कौशल
भारत संतो की भूमि है, यहां पर संतो की बात जब भी की जाती है तो उनकी दयालुता और करूणा याद आती है। सिद्ध पुरूषों की धरा पर भगवान का हमेशा ही आशीर्वाद बना रहता है। महापुरुष ज्ञान देते हैं, भगवान का स्मरण करवाते हैं और मानवों को उनके जीवन का ध्येय समझाकर उनका कल्याण करते हैं। आज हम एक ऐसे ही सिद्ध महायोगी की बात कर रहे हैं जिन्हें गुरु गोरखनाथ और उनके नाम से ही उत्तर प्रदेश में एक जिले का नाम गोरखपुर है। आइये जानते हैं…
महायोगी गुरु गोरखनाथ जीवन परिचय
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।
कई आसनों का किया आविष्कार
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।
गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है।
महायोगी गोरखनाथ जी की रचनाएं
इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।
संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।
पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पुरान भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पूर्ण भगत पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पुरान तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पुरान वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।
बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से पंजाब में गोपीचंद, रानी पिंगला और भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथी बन गये थे।
गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है-
एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, महाराज, आप क्यों रो रहे हैं? गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।
इस पर राजा ने कहा, हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं। गोरखनाथ बोले, तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो। गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।
कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी का मंदिर
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।
- साभार मनीष कौशल
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