स्वभाषा में न्याय दान,न्यायपालिका का कर्तव्य - अरविन्द सिसोदिया Duty of The Judiciary

  स्वभाषा में न्याय दान,न्यायपालिका का कर्तव्य - अरविन्द सिसोदिया
Giving justice in one's own language is the duty of the judiciary - Arvind Sisodia


Duty of The Judiciary

 
 न्याय को स्वभाषा में दिया जाना, न्यायपालिका का कर्तव्य है - अरविन्द सिसोदिया
It is the duty of the judiciary to give justice in its own language - Arvind Sisodia


भारत के  सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश नें हाल ही में एक महत्वपूर्ण एवं सराहनीय निर्णय लिया है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का अधिकृत अनुवाद हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवाये जायेंगे। इससे आमजन को निर्णयों को जानने और समझने में आसानी होगी।
The Chief Justice of the Supreme Court of India has recently taken an important and commendable decision that the official translation of the judgment of the Supreme Court will be made available in Hindi and other Indian languages. This will make it easier for the common man to know and understand the decisions.

न्यायपालिका अभी तक भारतीय नागरिकों को स्वभाषा में न्याय देनें विफल रही है। वहीं वह स्वभाषाओं को उतना सम्मान भी नहीं दे पाई, जिसकी एक स्वतंत्र राष्ट्र में जरूरत होती है। न ही वह एक परोपकारी एवं कल्याणकारी स्वरूप ही स्थापित कर पाई है. बल्कि अजीब सी उपनिवेशवादी मानसिकता उसकी लगातार झलकती रहती है। जो पूरी तरह असंवैधानिक है।
Judiciary has so far failed to give justice to Indian citizens in their own language. At the same time, it could not even give that much respect to the native languages, which is needed in an independent nation. Nor has it been able to establish a philanthropic and welfare form. Rather, a strange colonialist mindset is constantly reflected in it. Which is totally unconstitutional.

 खैर अब एक बिना अंग्रेजी पडा व्यक्ति भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पढ़ सकेगा, समझ सकेगा। किन्तु  अभी भी, सभी प्रारंभिक सुनवाई वाले न्यायालयों में पीड़ित व्यक्ती की बात उसकी ही भाषा में सुनने का अधिकार दिया जाना चाहिए। क्यों की पक्षकार को अपनी बात कहने और हुई कार्यवाही को समझने का पूरा अधिकार भी है और इस तरह का कर्तव्य भी है।
Well, now even a person without knowing English will be able to read and understand the decision of the Supreme Court. But still, the right to hear the aggrieved person in his own language should be given in all the preliminary hearing courts. Because the party has full right to say his point and understand the action taken and also has such duty.

 यह न्याय का पहला कर्तव्य है कि पक्षकार को अपनी सही व पूर्ण अभिव्यक्ति का अवसर दे, सुनने वाले  की  सही अभिव्यक्ति को समझा जाये , उसे सही तरह से ग्रहण किया जाये और उसमें सारी कार्यवाही समझमें आनेवाली भाषा में हो। निर्णय भी समझ में आना चाहिए।
It is the first duty of justice to give an opportunity to the parties to express themselves correctly and fully, to understand the correct expression of the hearer, to receive it in the right way and to conduct all the proceedings in the understandable language. The decision should also be understandable.

जब तक उच्च न्यायालयों की भाषा क्षैत्रीय भाषा में मुकदमों को न सुने तब तक देश की स्वतंत्रता अर्थहीन है। संविधान में हिन्दी और अंग्रजी दोनों भाषायें सवैधानिक बाध्यता रखती हैं। इसलिये इन दोनों भाषाओं में तो तुरन्त सुनवाई प्रारम्भ करनी ही चाहिये।
The independence of the country is meaningless until the High Courts hear the cases in regional language. In the constitution, both Hindi and English languages ​​have constitutional obligation. That's why hearing should be started immediately in both these languages.

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SC: गणतंत्र दिवस के मौके पर 12 भाषाओं में जारी होंगे सुप्रीम कोर्ट के 1000 से अधिक फैसले
SC Judgements: 

 26 जनवरी 2023 को सुप्रीम कोर्ट के 1000 से ज्यादा अहम फैससे स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध होंगे।
 

SC: गणतंत्र दिवस के मौके पर 12 भाषाओं में जारी होंगे सुप्रीम कोर्ट के 1000 से अधिक फैसले
SC Judgements: गणतंत्र दिवस पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक शानदार तोहफा दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट अपने 1000 से अधिक अहम फैसले विभिन्न भाषाओं में जारी करेगा। इससे स्थानीय लोगों को अपनी भाषा में इन फैसलों को पढ़ने का मौका मिलेगा। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने बुधवार को इसकी घोषणा की। उन्होंने बताया कि इलेक्ट्रॉनिक सुप्रीम कोर्ट रिपोर्ट्स (E-SCR) परियोजना, गणतंत्र दिवस से संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज भाषाओं में कोर्ट के फैसलों तक पहुंच मुहैया कराना शुरू कर देगी। सीजेआई ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुवाद का काम भी तेजी से हो रहा है। जल्द ही ये फैसले उड़िया, असमिया, खासी, गारो, पंजाबी, नेपाली और बंगाली में उपलब्ध होंगे।

स्थानीय भाषाओं में फैसले
सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने वकीलों से कहा कि शीर्ष अदालत ई-एससीआर परियोजना के एक हिस्से का क्रियान्वयन शुरू करेगी, जिसके तहत अनुसूची में दर्ज कुछ स्थानीय भाषाओं में फैसलों तक नि:शुल्क पहुंच उपलब्ध हो सकेगी। उन्होंने कहा कि ई-एससीआर के अलावा, अब हमारे पास स्थानीय भाषाओं में सुप्रीम कोर्ट के 1091 फैसले भी हैं, जो गणतंत्र दिवस पर उपलब्ध होंगे। शीर्ष अदालत के फैसले सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट, उसके मोबाइल ऐप और राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (एनजेडीजे) के निर्णय पोर्टल पर उपलब्ध होंगे।
आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएं
आपको बता दें कि संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएं हैं। इनमें असमिया, बंगाली, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगु, उर्दू, बोडो, संथाली, मैथिली और डोगरी शामिल हैं। जल्द ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले इन सभी भाषाओं में उपलब्ध होंगे।

पीएम मोदी ने की थी तारीफ
इससे पहले सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा था कि हमारा उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट की कॉपियों को, हर भारतीय की भाषा में उस तक पहुंचाना है। पीएम नरेंद्र मोदी ने सीजेआई के इस वीडियो को शेयर करते हुए लिखा था कि यह बहुत ही प्रशंसनीय विचार है। 

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भारत में न्यायालयों की भाषा
    
06 Jan 2022

सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, अधीनस्थ न्यायालय, न्यायालय में भाषा, अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 343, अनुच्छेद 348

न्यायालयों में प्रयुक्त भाषा और उसका महत्त्व, उच्च न्यायपालिका में क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग का विश्लेषण।

चर्चा में क्यों ?
हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालय में न्यायालय की अवमानना ( Contempt of Court) का सामना कर रहे एक पत्रकार को न्यायालय द्वारा यह कहते हुए केवल अंग्रेज़ी में बोलने के लिये कहा गया कि यह उच्च न्यायपालिका की भाषा है।
प्रमुख बिंदु  - पृष्ठभूमि :-
भारत में न्यायालयों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा ने मुगल काल के दौरान उर्दू से फारसी और फारसी लिपियों में बदलाव के साथ सदियों से एक संक्रमण देखा है जो ब्रिटिश शासन के दौरान भी अधीनस्थ न्यायालयों में जारी रहा।
अंग्रेज़ों ने भारत में राजभाषा के रूप में अंग्रेज़ी के साथ कानून की एक संहिताबद्ध प्रणाली की शुरुआत की।
स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 में प्रावधान है कि संघ की आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी।

हालाँकि यह अनिवार्य है कि भारत के संविधान के प्रारंभ से 15 वर्षों तक संघ के सभी आधिकारिक उद्देश्यों हेतु अंग्रेज़ी भाषा का उपयोग जारी रहेगा।

यह आगे प्रावधान करता है कि राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान अंग्रेज़ी भाषा के अलावा संघ के किसी भी आधिकारिक उद्देश्य के लिये हिंदी भाषा के उपयोग को अधिकृत कर सकता है।

संबंधित प्रावधान:
अनुच्छेद 348 (1) (A), जब तक संसद कानून द्वारा अन्यथा प्रदान नहीं करती है, सर्वोच्च न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय के समक्ष सभी कार्यवाही अंग्रेज़ी में आयोजित की जाएगी।

अनुच्छेद 348 (2) यह भी प्रावधान करता है कि अनुच्छेद 348 (1) के प्रावधानों के बावजूद किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उच्च न्यायालय की  कार्यवाही में हिंदी या किसी भी आधिकारिक उद्देश्य के लिये इस्तेमाल की जाने वाली किसी अन्य भाषा के उपयोग को अधिकृत कर सकता है।

उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश राज्यों ने पहले ही अपने-अपने उच्च न्यायालयों के समक्ष कार्यवाही में हिंदी के उपयोग को अधिकृत कर दिया है और तमिलनाडु भी अपने उच्च न्यायालय के समक्ष तमिल भाषा के उपयोग को अधिकृत करने के लिये उसी दिशा में काम कर रहा है

एक अन्य प्रावधान में यह कहा गया है कि इस खंड का कोई भी भाग उच्च न्यायालय द्वारा किये गए किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होगा।

इसलिये संविधान इस चेतावनी के साथ अंग्रेज़ी को सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की प्राथमिक भाषा के रूप में मान्यता देता है कि भले ही उच्च न्यायालयों की कार्यवाही में किसी अन्य भाषा का उपयोग किया जाए लेकिन उच्च न्यायालयों के निर्णय अंग्रेज़ी में दिये जाने चाहये।

राजभाषा अधिनियम 1963:
राजभाषा अधिनियम- 1963 राज्यपाल को यह अधिकार देता है कि वह राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से उच्च न्यायलय द्वारा दिये गए निर्णयों, पारित आदेशों में हिंदी अथवा राज्य की किसी अन्य भाषा के प्रयोग की अनुमति दे सकता है, परंतु इसके साथ ही इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी संलग्न करना होगा।

यह प्रावधान करता है कि जहाँ कोई निर्णय/आदेश ऐसी किसी भी भाषा में पारित किया जाता है, तो उसके साथ उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद होना चाहिये।

यदि इसे संवैधानिक प्रावधानों के साथ पढ़ें तो यह स्पष्ट है कि इस अधिनियम द्वारा भी अंग्रेज़ी को प्रधानता दी गई है।
राजभाषा अधिनियम में सर्वोच्च न्यायालय का कोई उल्लेख नहीं है,जहाँ अंग्रेज़ी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसमें कार्यवाही की जाती है।

नोट :-
वादी को अदालत की कार्यवाही को समझने और उसमें भाग लेने का मौलिक अधिकार है क्योंकि यह यकीनन अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के तहत अधिकारों का एक बंडल प्रदान करता है।
वादी को मज़िस्ट्रेट के सामने उस भाषा में बोलने का अधिकार है जिसे वह समझता/समझती है। इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत "न्याय के अधिकार" को भी मान्यता दी गई है।
इसलिये संविधान ने वादी को न्याय का अधिकार प्रदान किया है जिसमें आगे यह भी शामिल है कि उसे पूरी कार्यवाही तथा दिये गए निर्णय को समझने का अधिकार होगा।

अधीनस्थ न्यायालयों की भाषा:
उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ सभी न्यायालयों की भाषा आमतौर पर वही रहती है जो राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किये जाने तक सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के प्रारंभ पर भाषा के रूप में होती है।
अधीनस्थ न्यायालयों में भाषा के प्रयोग के संबंध में प्रावधान में यह शामिल है कि नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 137 के तहत ज़िला न्यायालयों की भाषा अधिनियम की भाषा के समान होगी।
राज्य सरकार के पास न्यायालय की कार्यवाही के विकल्प के रूप में किसी भी क्षेत्रीय भाषा को घोषित करने की शक्ति है।
हालाँकि मजिस्ट्रेट द्वारा अंग्रेज़ी में निर्णय, आदेश और डिक्री पारित की जा सकती है।
साक्ष्यों को दर्ज करने का कार्य राज्य की प्रचलित भाषा में किया जाएगा।
अभिवक्ता के अंग्रेज़ी से अनभिज्ञ होने की स्थिति में उसके अनुरोध पर अदालत की भाषा में अनुवाद उपलब्ध कराया जाएगा और इस तरह की लागत अदालत द्वारा वहन की जाएगी।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 272 में कहा गया है कि राज्य सरकार उच्च न्यायालयों के अलावा अन्य सभी न्यायालयों की भाषा का निर्धारण करेगी। मोटे तौर पर इसका तात्पर्य यह है कि ज़िला अदालतों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा राज्य सरकार के निर्देशानुसार क्षेत्रीय भाषा होगी।

अंग्रेज़ी प्रयोग करने का कारण:
जिस तरह पूरे देश से मामले सर्वोच्च न्यायालय में आते हैं, उसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के जज और वकील भी भारत के सभी हिस्सों से आते हैं।
न्यायाधीशों से शायद ही उन भाषाओं में दस्तावेज़ पढ़ने और तर्क सुनने की उम्मीद की जा सकती है जिनसे वे परिचित नहीं हैं।
अंग्रेज़ी के प्रयोग के बिना अपने कर्तव्य का निर्वहन करना असंभव होगा। सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णय भी अंग्रेज़ी में दिये जाते हैं।
हालाँकि वर्ष 2019 में न्यायालय ने अपने निर्णयों को क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद करने के लिये एक पहल की शुरुआत की, बल्कि यह एक लंबा आदेश है, जो न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णयों की भारी मात्रा को देखते हुए दिया गया है।

अंग्रेज़ी का उपयोग करने का महत्त्व:
एकरूपता: वर्तमान में भारत में न्यायिक प्रणाली पूरे देश में अच्छी तरह से विकसित, एकीकृत और एक समान है।
आसान पहुँच: वकीलों के साथ-साथ न्यायाधीशों को समान कानूनों और कानून व संविधान के अन्य मामलों पर अन्य उच्च न्यायालयों के विचारों तक आसान पहुँच का लाभ मिलता है।
निर्बाध स्थानांतरण: वर्तमान में एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अन्य उच्च न्यायालयों में निर्बाध रूप से स्थानांतरित किया जाता है।
एकीकृत संरचना: इसने भारतीय न्यायिक प्रणाली को एक एकीकृत संरचना प्रदान की है। किसी भी मज़बूत कानूनी प्रणाली की पहचान यह है कि कानून निश्चित, सटीक और अनुमानित होना चाहिये तथा हमने भारत में इसे लगभग हासिल कर लिया है।
संपर्क भाषा: बहुत हद तक हम अंग्रेज़ी भाषा के लिये ऋणी हैं, जिसने भारत के लिये एक संपर्क भाषा के रूप में कार्य किया है जहाँ हमारे पास लगभग दो दर्जन आधिकारिक राज्य भाषाएँ हैं।

आगे की राह
भारत में भाषा हमेशा एक भावनात्मक मुद्दा रहा है और 25 विभिन्न उच्च न्यायालयों में राज्यों की संबंधित आधिकारिक भाषाओं की शुरुआत का मुद्दा बड़ा है, जिसका भारतीय न्यायिक प्रणाली पर बहुत गंभीर असर होगा।
देश के भीतर अब तक एकीकृत और अच्छी तरह से संरचित कानूनी प्रणाली राज्यों द्वारा भाषायी एकता के विघटन से विघटित हो सकती है।

कार्यवाही के लिये आधिकारिक राज्य भाषाओं की शुरुआत भी सीधे उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्थानांतरण नीति का सामना करती है और हस्तक्षेप करती है।
इस प्रकार विभिन्न राज्यों द्वारा अपने-अपने उच्च न्यायालयों में किसी भी स्तर पर अन्य राज्यों के साथ चर्चा किये बिना या अंग्रेज़ी के स्थान पर वैकल्पिक संपर्क भाषा के लिये सर्वसम्मति की एक समानता प्राप्त करने हेतु कोई प्रयास किये बिना अपनी आधिकारिक भाषा को पेश करने का विकल्प प्रदान करेगा।
विभिन्न राज्यों की न्यायपालिकाओं के बीच संचार के माध्यम समाप्त हो जाएंगे। उस स्थिति में देश की न्यायिक व्यवस्था का एकीकृत ढाँचा ही एकमात्र वस्तु नहीं होगी, जो क्षुद्र क्षेत्रीय राजनीति और भाषायी रूढ़िवाद की वेदी पर चढ़ सकती है।

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