न्याय के लिये, भ्रष्टाचार और पूंजीवाद के लूटतंत्र को समाप्त करें - अरविन्द सिसोदिया
न्याय के लिये, भ्रष्टाचार और पूंजीवाद के लूटतंत्र को समाप्त करें - अरविन्द सिसोदिया
जयपुर में शनिवार 16 एवं 17 जुलाई 2022 को राष्ट्रीय विधिक प्राधिकरण की दो दिवसीय बैठकें संपन्न हुई । जिसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रमन सहित सर्वोच्च न्यायालय,उच्च न्यायालयों एवं विधिक प्रधिकरणों के न्यायाधीशों सहित, केंद्रीय विधि एवं कानून मंत्री रिजुजी और राजस्थान सरकार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भाग लिया ।
राजस्थान की राजधानी जयपुर के जेईसीसी में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority) की ओर से जो दो दिवसीय ऑल इंडिया लीगल सर्विसेज मीट (All India Legal Services Meet) का आयोजन हुआ जिसमें आजादी के सौ साल वर्ष 2047 में देश में विधिक सेवाओं की आवश्यकता और आमजन तक विधिक सेवाएं पहुंचाने की चुनौतियों पर भी मंथन हुआ है।
इस दौरान हुये कार्यक्रमों में न्यायपालिका एवं कार्यपालिका को लेकर के कई गंभीर प्रश्न और उनसे जुड़े उत्तर आये। वही जो समस्याएं हैं और उनके समाधान क्या हो सकते हैं, इन पर भी खुले मन से अभिव्यक्ति देखने को मिली ।
जैसे कि कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आई -
1- मुकदमों की पेंडेंसी करोड़ों में है । देश में अदालतों में बड़ी संख्या में मामले लंबित होने का मुख्य कारण न्यायिक पदों की रिक्तियों को भरा नहीं जाना है। इस कारण 5 करोड़ से अधिक मामले अदालतों में लंबित हें।
2- जेल में बंद विचाराधीन कैदी लाखों में हैं। देश के 6.10 लाख कैदियों में से करीब 80 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं। जेलों को ब्लैक बॉक्स की संज्ञा देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा, जेल अलग-अलग श्रेणी के कैदियों पर अलग-अलग असर डालते हैं, खासकर वंचित तबके से आने वाले कैदियों पर। उन्होंने कहा, सुधार का लक्ष्य विचाराधीन कैदियों की जल्द रिहाई तक सीमित नहीं होना चाहिए। इसके बदले हमें उस प्रणाली पर सवाल उठाना चाहिए जो कैदियों की संख्या को बढ़ा रही है।
3- न्याय करने की प्रक्रिया का समयानुकूल अपडेट नहीं होना।
4- न्यायपालिका में अधिवक्ताओं की अत्यंत महंगी फीस,किसी केस की एक सुनवाई के लिए 10 से 15 लाख रुपये फीस लेना पर चिंता जनक। देश में न्याय गरीबों और वंचितों की पहुंच से बाहर हो रहा है।
5- राजनैतिक द्वेषता,शत्रुतापूर्ण न हो- राजनीतिक विरोध का वैर में बदल जाना स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है, हालांकि दुख की बात है कि इन दिनों ऐसा ही दिख रहा है। पहले देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष में आपसी सम्मान होता था जो दुर्भाग्यपूर्ण रूप से अब कम होने लगा है।
6- न्याय मातृ भाषा में हो इस हेतु लोकल कोर्ट से हाईकोर्ट स्तर तक स्थानीय भाषाओं को अनिवार्यतः बढ़ावा देना चाहिये। आखिर अंग्रेजी को ज्यादा महत्व क्यों मिलना चाहिए। अंग्रेजी जानने और बोलने वाले वकील को ज्यादा फीस क्यों मिले ?
7 - विधायिका का गिरता स्तर - देश की विधायिका के प्रदर्शन की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाए। उन्होंने कहा, दुखद रूप से देश विधायिका के प्रदर्शन में गिरावट देख रहा है। कानून बिना विस्तृत विचार-विमर्श और छानबीन के पारित हो रहे हैं।
8- विधिक सहायता प्रबंधन पोर्टल, मोबाइल एप और ई प्रिजन से लोगों को कानूनी सहायता हासिल करने में बहुत आसानी हो जाएगी।
इसीक्रम में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश श्री रमन के द्वारा यह मानना की आपराधिक न्याय व्यवस्था ही सजा है, अत्यंत दुःखद पहलू रहा ।
सवाल न्यायपालिका में सुधार का मात्र नहीं है। सवाल सब दूर व्याप्त पूँजीवाद और भ्रष्टाचार का है और विभिन्न सरकारों,उनके मंत्रियों और जबावदेह अधिकारियों के सात पीढ़ी के आर्थिक इंतजाम में जुटे होनें का भी है। एक तरफ आपराधिक प्रकरणों की धीमी गति का विषय है तो दूसरी तरफ अपराधियों में कानून का भय न होना और आपराधिक व्यक्तियों का साम्राज्य एवं वर्चस्व स्थापित होने का भी प्रश्न है।
कोचिंग व्यवस्था द्वारा पूंजीपतियों नें उच्च विशिष्ट शिक्षा पर कब्जा कर लिया । प्राइवेट चिकित्सालयों और प्राइवेट विद्यालयों के द्वारा चिकित्सा एवं शिक्षा पर व्यापारिक कब्जा हो गया । सरकार किसी की भी हो, मगर भ्रष्टाचार के लिये, सेवा शुल्क सभी में यथावत है। सरकारी सप्लायरों और ठेकेदारों तथा सत्ता से लाभ उठाने वालों की नेताओं के अघोषित पार्टनरशिप हैं। पूरी व्यवस्था में ही भांग घुली है। यह इसलिए हुआ कि आजादी के बाद राजसत्ता की रेल इसी पटरी पर चल पड़ी । इसे एक झटके में ठीक किया भी नहीं जा सकता।
पूँजीवाद का विरोध करते ही लोग कहने लगते हैं कि यह साम्यवादी है। जबकि पूंजीवाद ही लोकतंत्र को लूटतंत्र में बदल रहा है। इस सच से सब आँख चुराते हैं। सुविधाएं एवं पैसा सभी को चाहिये। पैसे का खेल सभी जगह लोकतंत्र को विफल किये हुए है। इन परिस्थितियों में न्यायपालिका भी इसी दूषित व्यवस्था से ग्रस्त है । जैसे ही त्वरित न्याय की व्यवस्था बनाते हैं, त्वरित न्याय के लिये प्रक्रिया में संसोधन करेंगे तो वकील हड़ताल पर चले जायेगें। राजनैतिक दलों से लेकर, सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मात्र ठहरनें तक में फाइव स्टार कल्चर व्याप्त हो गया है। तो बांकी सब क्या क्या होता होगा ? और वह सब तोे आम आदमी की पहुँच से बाहर है ।
देश को भ्रष्टाचार और पूंजीवाद की गिरफ्त से बाहर निकालने के लिए साहसी, युगांतरकारी राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत है। जो कि स्थानीय प्रशासन में जबरदस्त ईमानदारी से ही संभव है।
जयपुर में शनिवार 16 एवं 17 जुलाई 2022 को राष्ट्रीय विधिक प्राधिकरण की दो दिवसीय बैठकें संपन्न हुई । जिसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रमन सहित सर्वोच्च न्यायालय,उच्च न्यायालयों एवं विधिक प्रधिकरणों के न्यायाधीशों सहित, केंद्रीय विधि एवं कानून मंत्री रिजुजी और राजस्थान सरकार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भाग लिया ।
राजस्थान की राजधानी जयपुर के जेईसीसी में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority) की ओर से जो दो दिवसीय ऑल इंडिया लीगल सर्विसेज मीट (All India Legal Services Meet) का आयोजन हुआ जिसमें आजादी के सौ साल वर्ष 2047 में देश में विधिक सेवाओं की आवश्यकता और आमजन तक विधिक सेवाएं पहुंचाने की चुनौतियों पर भी मंथन हुआ है।
इस दौरान हुये कार्यक्रमों में न्यायपालिका एवं कार्यपालिका को लेकर के कई गंभीर प्रश्न और उनसे जुड़े उत्तर आये। वही जो समस्याएं हैं और उनके समाधान क्या हो सकते हैं, इन पर भी खुले मन से अभिव्यक्ति देखने को मिली ।
जैसे कि कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आई -
1- मुकदमों की पेंडेंसी करोड़ों में है । देश में अदालतों में बड़ी संख्या में मामले लंबित होने का मुख्य कारण न्यायिक पदों की रिक्तियों को भरा नहीं जाना है। इस कारण 5 करोड़ से अधिक मामले अदालतों में लंबित हें।
2- जेल में बंद विचाराधीन कैदी लाखों में हैं। देश के 6.10 लाख कैदियों में से करीब 80 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं। जेलों को ब्लैक बॉक्स की संज्ञा देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा, जेल अलग-अलग श्रेणी के कैदियों पर अलग-अलग असर डालते हैं, खासकर वंचित तबके से आने वाले कैदियों पर। उन्होंने कहा, सुधार का लक्ष्य विचाराधीन कैदियों की जल्द रिहाई तक सीमित नहीं होना चाहिए। इसके बदले हमें उस प्रणाली पर सवाल उठाना चाहिए जो कैदियों की संख्या को बढ़ा रही है।
3- न्याय करने की प्रक्रिया का समयानुकूल अपडेट नहीं होना।
4- न्यायपालिका में अधिवक्ताओं की अत्यंत महंगी फीस,किसी केस की एक सुनवाई के लिए 10 से 15 लाख रुपये फीस लेना पर चिंता जनक। देश में न्याय गरीबों और वंचितों की पहुंच से बाहर हो रहा है।
5- राजनैतिक द्वेषता,शत्रुतापूर्ण न हो- राजनीतिक विरोध का वैर में बदल जाना स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है, हालांकि दुख की बात है कि इन दिनों ऐसा ही दिख रहा है। पहले देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष में आपसी सम्मान होता था जो दुर्भाग्यपूर्ण रूप से अब कम होने लगा है।
6- न्याय मातृ भाषा में हो इस हेतु लोकल कोर्ट से हाईकोर्ट स्तर तक स्थानीय भाषाओं को अनिवार्यतः बढ़ावा देना चाहिये। आखिर अंग्रेजी को ज्यादा महत्व क्यों मिलना चाहिए। अंग्रेजी जानने और बोलने वाले वकील को ज्यादा फीस क्यों मिले ?
7 - विधायिका का गिरता स्तर - देश की विधायिका के प्रदर्शन की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाए। उन्होंने कहा, दुखद रूप से देश विधायिका के प्रदर्शन में गिरावट देख रहा है। कानून बिना विस्तृत विचार-विमर्श और छानबीन के पारित हो रहे हैं।
8- विधिक सहायता प्रबंधन पोर्टल, मोबाइल एप और ई प्रिजन से लोगों को कानूनी सहायता हासिल करने में बहुत आसानी हो जाएगी।
इसीक्रम में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश श्री रमन के द्वारा यह मानना की आपराधिक न्याय व्यवस्था ही सजा है, अत्यंत दुःखद पहलू रहा ।
सवाल न्यायपालिका में सुधार का मात्र नहीं है। सवाल सब दूर व्याप्त पूँजीवाद और भ्रष्टाचार का है और विभिन्न सरकारों,उनके मंत्रियों और जबावदेह अधिकारियों के सात पीढ़ी के आर्थिक इंतजाम में जुटे होनें का भी है। एक तरफ आपराधिक प्रकरणों की धीमी गति का विषय है तो दूसरी तरफ अपराधियों में कानून का भय न होना और आपराधिक व्यक्तियों का साम्राज्य एवं वर्चस्व स्थापित होने का भी प्रश्न है।
कोचिंग व्यवस्था द्वारा पूंजीपतियों नें उच्च विशिष्ट शिक्षा पर कब्जा कर लिया । प्राइवेट चिकित्सालयों और प्राइवेट विद्यालयों के द्वारा चिकित्सा एवं शिक्षा पर व्यापारिक कब्जा हो गया । सरकार किसी की भी हो, मगर भ्रष्टाचार के लिये, सेवा शुल्क सभी में यथावत है। सरकारी सप्लायरों और ठेकेदारों तथा सत्ता से लाभ उठाने वालों की नेताओं के अघोषित पार्टनरशिप हैं। पूरी व्यवस्था में ही भांग घुली है। यह इसलिए हुआ कि आजादी के बाद राजसत्ता की रेल इसी पटरी पर चल पड़ी । इसे एक झटके में ठीक किया भी नहीं जा सकता।
पूँजीवाद का विरोध करते ही लोग कहने लगते हैं कि यह साम्यवादी है। जबकि पूंजीवाद ही लोकतंत्र को लूटतंत्र में बदल रहा है। इस सच से सब आँख चुराते हैं। सुविधाएं एवं पैसा सभी को चाहिये। पैसे का खेल सभी जगह लोकतंत्र को विफल किये हुए है। इन परिस्थितियों में न्यायपालिका भी इसी दूषित व्यवस्था से ग्रस्त है । जैसे ही त्वरित न्याय की व्यवस्था बनाते हैं, त्वरित न्याय के लिये प्रक्रिया में संसोधन करेंगे तो वकील हड़ताल पर चले जायेगें। राजनैतिक दलों से लेकर, सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मात्र ठहरनें तक में फाइव स्टार कल्चर व्याप्त हो गया है। तो बांकी सब क्या क्या होता होगा ? और वह सब तोे आम आदमी की पहुँच से बाहर है ।
देश को भ्रष्टाचार और पूंजीवाद की गिरफ्त से बाहर निकालने के लिए साहसी, युगांतरकारी राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत है। जो कि स्थानीय प्रशासन में जबरदस्त ईमानदारी से ही संभव है।
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