शौर्य परायण बनो - भगवान श्रीराम lord shree ram

करुना-सुख-सागर, सब गुन आगर, जेहि गावहिँ स्रुति सन्ता।
सो मम-हित-लागी, जन-अनुरागी, भयउ प्रगट श्रीकन्ता॥

दया व करुणा के सागर, जन-जन पर अपनी प्रीति रखने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम संपूर्ण जगत पर अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें, यही कामना है।

 


शौर्य परायण बनो - भगवान श्रीराम

लगभग 17.5 लाखवर्ष पूर्व त्रेतायुग में श्रीराम का काल रहा था, यह वैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है, क्योंकि रामसेतु कि आयु भी लगभग यही आती है। त्रेता युग कि आयु 17 लाख 28 हजार वर्ष थी जिसमें कभी श्रीराम का जन्म हुआ था। त्रेतायुग के बाद द्वापर युग पूरा गुजरा, वह 8 लाख 64 हजार वर्ष का रहा है जिसके अंत में भगवान श्रीकृष्ण का कालखंड आया था। वर्तमान में कलयुग चल रहा है, कलयुग ईसापूर्व 3102 वर्ष से प्रारंभ हुआ माना जाता है, इसलिए प्रकार से कलयुग का 5125 वां वर्ष (2023 में ) चल रहा हैं। हमारी पृथ्वी की वर्तमान आयु भी हिन्दू पंचाग और वैज्ञानिक गणना से लगभग 2 अरब वर्ष की है। जो कि गुजर चुकी है। यह सब विश्व में सिर्फ हिन्दुत्व ही हजारों वर्षों पूर्व से कहता, बताता और समझाता आया है।

सृष्टि का मूल संघर्ष समय से है, काल से है, टाइम से है अर्थात समय कैसे गुजरे, समय को कैसे पास किया जाये। जब प्रश्न अरबों खरबों वर्ष का हो तो यह बहुत जटिल और गंभीर समस्या के रूप में उपस्थित होता है और उसी का निदान उस महाशक्ति का सृष्टि निर्माण खेल है। जिसमें सृजन, संचालन और संहार के रूप में विविध क्रीडायें सृजनकर्ता करता है। यह आदी,अनादि और अनंत तक चलते रहने वाले क्रम में ही सभी प्रकार की लीलाएं हैं । जिन्हे स्वयं भगवान एवं उनके अंश के रूप में 84 लाख प्रकार के शरीरों में संचालक रूपी प्राण करते हैं।

ईश्वर हो या उसके अंशरूप प्राणी सत्ता, जीव सत्ता । सृष्टि में व्याप्त तमाम चेतन अचेतन सृजन हों, सभी को अपने अपने कर्तव्यों में रत रहना होता है, इसी को सत्य कहा है, इसी को धर्म कहा है। यह सब चरैवेती चरैवेती की तरह निरंतर चलता रहता है। उस ईश्वर के स्वरूपों को, क्रियाओं को,उनसे उत्पन्न विविध व्यापक चराचर जगत को नेती नेती कहते हुये,आध्यात्म को जानने वाले ऋषि मुनी साधू संत कहते है। स्तुती करते हैं।

यह ईश्वरीय व्यवस्था ही है कि उसमें निगेटिव, पॉजिटिव और न्यूटरल मनोवृतियाँ हैं,इनकी अनिवार्यता भी है। इन्हे हम सतोगुण,रजोगुण, तमोगुण आदी के रुपमें भी जानते हैं। इसी तरह से इन प्रवृतियों के नेतृत्व से देव दानव,साधू संत हर युग में रहते हैं। सभी अपनी अपनी भूमिका ईश्वरीय योग से ही निभाते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण नें अर्जुन से कहा था येशा कोई समय, कालखंड नहीं है जब तुम और में न रहे हों। अर्थात हम प्रत्येक समय अन्यान्य रूपों में रहते हैं। विभिन्न प्रकार के शरीरों में रहते हैं।

राम रावण कालखंड भी इसी तरह के संघर्ष का कथानक है। संपूर्ण सृष्टि सुनिश्चित अनुशासन से चलती है। यही सिद्धांत मानव सभ्यता पर भी लागू होता है। भगवान श्रीराम अपने अवतार से यही सिख मानव सभ्यता को देनें अवतरित होते हैं कि मर्यादायें ही सर्वोपरी है। इन्हे मह सरल भाषा में कह सकते है। कि अपनी अपनी भूमिका के कर्त्तव्य ही सर्वोपरी हैं। वहीं श्रीराम अवतार यह संदेश भी देता है कि हमें अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाना है।

उन्होंने गुरु के आदेश पर उपद्रवी दानवी शक्तियों का संहार किया। उन्होने माता - पिता के प्रति कर्त्तव्य भाव को अंगीकृत करते हुये वनगमन चुना, वे मना भी कर सकते थे। उन्होनें अपने भाई भरत पर पूर्ण विश्वास किया । जब वे वनवास पर थे तो उन्होने वहाँ भी समाज की पिछली पायदान पर बैठे लोगों को समानता का दर्जा दिया। केवट को उसके परिश्रम का मूल्य दिया, यह बात दूसरी है कि उसने नहीं लिया। उन्होने भील जनजाती की महिला सबरी के झूठे बेर खाकर, वह उदाहरण प्रस्तुत किया जो अभी तक भी प्रस्तुत नहीं हो पाया। आसुरीवृतियां जो समाज पर अपनी मनमर्जी थोपती थीं। उन्हे मजबूती से पराजित किया, सुव्यवस्था निर्माण के लिए जो संघर्ष करना कर्तव्य है यह उन्होंने स्वयं करते संदेश दिया। रावण के मनोहारी राज्य को जीत कर भी उसमें अपना हित न खोज कर वास्तविक उत्तराधिकारी को प्रदान किया। वहां उन्होनें भाई लक्ष्मण को समझाया कि मातृभूमि ही सर्वोपरी है। रामराज्य में भी लगातार युद्ध और विजय के द्वारा अनुशासन का निर्माण किया।

श्रीराम होने का मतलब है सत्य परायण,कर्त्तव्य परायण,शौर्य परायण,धर्म परायणा, समाज परायण, नीती परायण होना तो है ही। इसके अलावा भगवान श्रीराम का जीवन हमें यह संदेश देता है कि जीवन में युद्ध कौशल का सर्वोच्च है , उससे स्वयं की,समाज की रक्षा की एवं सि़द्यांतों की रक्षा की जा सके।

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
हिन्दी अनुवाद : “मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। (किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।“

बुराई के चाहे दस सिर हो, आखिर उसे धरती पर आना ही होता है। ऐसा ही संदेश भगवान श्री राम का जीवन देता है। वहीं दूसरी ओर रामायुग सभी को एक संदेश भी देता है कि अहंकार चाहे रावण का भी हो, उसे टूटना ही पड़ता है.


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