भैरोंसिंह शेखावत : शेर - ए - राजस्थान Bhairon Singh Shekhawat : Sher-e - Rajasthan
Bhairon Singh Shekhawat : Sher-e - Rajasthan
= रामबहादुर राय
- यह १५ मई २०१० को लिखा गया लेख है ..........
भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति और देश के एक कद्दावर राजनेता भैरो सिंह शेखावत नहीं रहे. 87 साल के भैरोसिंह शेखावत ने लगभग छह दशक तक भारतीय राजनीति में अपना सशक्त हस्ताक्षर बनाये रखा.
आज उनके जाने के बाद उन्हें याद करें तो हम उन्हें ऐसे राजनेता के रूप में पाते हैं जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में आदर्श और व्यवहार का बहुत ही बेहतर समन्वय किया और लोक राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया.
भैरो सिंह शेखावत उन चंद नेताओं में से एक रहे हैं जो अपनी विचारधारा से बिना समझौता किये हुए निजी संबंधों को बनाये रखने में माहिर थे. उनके संबंध हर दल के नेताओं में थे और वे संबंध केवल औपचारिक नहीं बल्कि गहरे रिश्ते थे. इसकी कई बार परीक्षा भी हुई. 1993 में राजस्थान विधानसभा में दोबारा चुनाव हुआ तो मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश इन जगहों पर भाजपा की सरकार वापस नहीं आयी. लेकिन राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत के नेतृत्व में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होकर उभरी. हालांकि उन्हें स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था लेकिन भैरोसिंह के कारण ही वहां भाजपा उनके नेतृत्व में सरकार बना सकी. कांग्रेस ने उस सरकार को उखाड़ने, गिराने और तोड़ने की हर चाल चली. उसी तरह से प्रयोग करने की कोशिश की जैसा कि गुजरात में किया गया था. राजेश पायलट उस कोशिश के सूत्रधार थे. लेकिन भैरोसिंह शेखावत की सरकार पांच साल चली. और अपने निजी संबंधों के कारण ही वे समय समय पर नरसिंहराव का समर्थन प्राप्त कर लेते थे.
भैरो सिंह शेखावत के पिता कम उम्र में ही चले गये थे और पूरे परिवार की जिम्मेदारी उनके ऊपर आ गयी थी. पहले कोई छोटी मोटी नौकरी की और बतौर पुलिस के सब इस्पेक्टर काम भी किया. लेकिन जब जनसंघ का गठन हुआ तो शुरुआती तौर पर ही वे जनसंघ से ही जुड़ गये. अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और राजनीतिक विकास की प्रक्रिया के कारण उनके मन में गरीबों के लिए गहरी पीड़ा थी. 1977 में जब वे मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने सबसे पहले गरीबी रेखा के नीचे जीनेवाले लोगों के लिए जो कार्यक्रम शुरू किया उसको नाम दिया अन्त्योदय योजना. अन्त्योदय योजना के बारे में जैसे ही जयप्रकाश नारायण ने सुना तो उन्हें पटना बुलाया और उनकी सार्वजनिक सराहना की.
भैरों सिंह शेखावत राजनीति के व्यावहारिक और आदर्शवाद में समन्वय करना बखूबी जानते थे. उनके जीवन में कई मौके ऐसे आये जब उनके सामने निजी संबंधों और राजनीति के आदर्श का टकराव उपस्थित हुआ लेकिन हर मौके पर उन्होंने न तो निजी संबंधों को बिगड़ने दिया और न ही अपने राजनीतिक आदर्श से कोई समझौता किया. बीते दिनों में उन्होंने एक ऐसा ही उदाहरण उस वक्त पेश किया जब जयप्रकाश नारायण के नाम पर बने ट्रस्ट में कई तरह की गड़बड़ियां की जा रही थीं. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से उनके संबंध बहुत प्रगाढ़ थे और चंद्रशेखर जी चाहते थे कि वे जयप्रकाश की जन्मस्थली जाएं. लेकिन भैरो सिंह शेखावत ने मना कर दिया. उनका तर्क था कि अगर जय प्रकाश जी के नाम पर कुछ लोग धांधली कर रहे हैं तो वे उन सबके बीच सिताब दियारा नहीं जाएंगे. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आदर्शों के लिए वे निजी संबंधों का ख्याल नहीं रखते थे. जीवन में बहुत सारे मौके ऐसे आये जब उन्होंने निजी संबंधों को महत्व दिया और कौन क्या कह रहा है इसके बारे में कभी विचार नहीं किया.
1951 में जब वे जनसंघ के जरिए राजनीति में आये उससे पहले वे राजस्थान पुलिस में बतौर सब-इंस्पेक्टर कार्यरत थे. उनकी राजनीतिक अभिरुचि और सक्रियता का ही परिणाम था कि राजनीति में आते ही 1952 में वे पहली बार विधायक बने. उस साल राजस्थान विधानसभा में जनसंघ के सात विधायक चुनकर आये थे. पहली बार विधायक बनते ही उन्होंने जमीनी राजनीति को जनसंघ का व्यावहारिक राजनीतिक कर्म बना दिया. जब केन्द्र सरकार ने जमींदारी प्रथा उन्मूलन का ऐलान किया तो भैरो सिंह शेखावत ने उसका समर्थन कर दिया. भैरो सिंह शेखावत का यह समर्थन कई लोगों को नागवार गुजरा क्योंकि उन दिनों जनसंघी सामंती विचारवाले लोगों की पार्टी हुआ करती थी. लेकिन भैरो सिंह शेखावत ने साफ कर दिया कि अगर कोई पार्टी छोड़कर जाना चाहता है तो जा सकता है लेकिन पार्टी अपना स्टैण्ड नहीं बदलेगी और बाद में सबको भैरों सिंह का समर्थन करना पड़ा.
भैरो सिंह शेखावत बहुत ही सामान्य परिवार से आते थे. पूरे जीवन उन्होंने राजनीतिक ऊंचाई कुछ भी हासिल कर ली हो लेकिन वे एक आम इंसान ही बने रहे. आम आदमी के हक और हित की चिंता उनकी राजनीति के केन्द्र में हमेशा बना रहा. ऐतिहासिक रूप से भैरों सिंह शेखावत ने दो काम ऐसे किये हैं जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि भैरों सिंह न होते तो शायद ये दोनों पहल कभी नहीं होती. इसमें पहला काम था बतौर मुख्यंत्री राजस्थान में अन्त्योदय योजना की शुरूआत. 1977 में जब वे पहली बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने तो पहली दफा उन्होंने गरीबों के लिए जिन योजनाओं की शुरूआत की उसे अन्त्योदय योजना का नाम दिया. इन योजनाओं से खुद जयप्रकाश नारायण इतने प्रभावित हुए कि उन्हें पटना बुलाकर उनका सार्वजनिक सम्मान किया. इसी तरह भैरो सिंह शेखावत ही ऐसे पहले मुख्यंत्री थे जिन्होंने सूचना का अधिकार आंदोलन को आधार प्रदान किया. 1993 में जब वे एक बार फिर राजस्थान के मु्ख्यमंत्री बने तो उन्होंने अनिवार्य कर दिया कि ग्राम पंचायतों में जो भी विकास का काम किया जा रहा है उसका शिलापट लगाया जाए और किसी भी नागरिक द्वारा जानकारी मांगे जाने पर अधिकारी उसे जानकारी मुहैया कराएं. हालांकि शुरूआत में अधिकारियों ने आनाकानी की लेकिन मुख्यमंत्री की सख्ती के कारण उनको ऐसा करना पड़ा. इसी का परिणाम है कि राजस्थान में हुई इस शुरूआत को अरुणा राय ने सूचना अधिकार का आंदोलन बनाया और उसे केन्द्र सरकार द्वारा लागू किया गया.
भैरों सिंह शेखावत आम आदमी की राजनीति करते थे लेकिन पार्टी के स्तर पर भी वे हमेशा एक योद्धा की भांति ही राजनीति करते रहे. जब वे बतौर उपराष्ट्रपति दिल्ली आ गये और राजस्थान में विधानसभा के चुनाव होनेवाले थे तो उन्होंने ही कोशिश करके वसुंधरा राजे को राजस्थान की राजनीति में अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाया. लेकिन पांच साल के शासनकाल में जब उन्हें लगा कि वसुंधरा राजे ने आम आदमी के हकों कि रक्षा नहीं की तो उन्हीं भैरों सिंह शेखावत ने वसुंधरा राजे का विरोध करना शुरू कर दिया. यह बात अलग है कि उस वक्त वसुंधरा राजे को भाजपा के ऐसे नेता का संरक्षण मिल गया जिसके सामने भैरो सिंह एक तरह से कमजोर पड़ गये. फिर भी उन्होंने अपनी मांग बनाये रखी. पार्टी फोरम पर भी वे आम आदमी के लिए राजनीति का मुद्दा उठाते रहते थे और समय समय पर पार्टी को सचेत करते रहते थे कि आम आदमी की राजनीति ही असली राजनीति है.
भैरो सिंह शेखावत राजनीति मे बेदाग व्यक्तित्व थे. अपने निजी संबंधों के लिए कभी विचारधारा से समझौता नहीं किया लेकिन निजी संबंधों में राजनीतिक विचारधारा को भी कभी आड़े नहीं आने दिया. उनके निधन से सिर्फ भारतीय जनता पार्टी का ही नुकसान नहीं हुआ है बल्कि भारतीय राजनीति का एक बेदाग व्यक्तित्व हमारे बीच से चला गया है.
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