गायत्री परिवार के संस्थापक पण्डित श्रीराम शर्मा " आचार्य "

 पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के 8 प्रेरक विचार

 

पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य (२० सितम्बर १९११ - ०२ जून १९९०) भारत के एक युगदृष्टा मनीषी थे जिन्होंने अखिल विश्व गायत्री परिवार की स्थापना की। उनने अपना जीवन समाज की भलाई तथा सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया। उन्होंने आधुनिक व प्राचीन विज्ञान व धर्म का समन्वय करके आध्यात्मिक नवचेतना को जगाने का कार्य किया ताकि वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सके। उनका व्यक्तित्व एक साधु पुरुष, आध्यात्म विज्ञानी, योगी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, लेखक, सुधारक, मनीषी व दृष्टा का समन्वित रूप था। ४ वेद,१०८ उपनिषद, ६ दर्शन,२० स्मृतिया और १८ पुराणों के भाष्यकार ।

परिचय
पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् १९६७ (२० सितम्बर १९११) को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के आँवलखेड़ा ग्राम में (जो जलेसर मार्ग पर आगरा से पन्द्रह मील की दूरी पर स्थित है) हुआ था।[2] उनका बाल्यकाल व कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता। वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिता श्री पं. रूपकिशोर जी शर्मा आस-पास के, दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे, किन्तु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत् विचलित रहता था। साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे।

जाति-पाँति का कोई भेद नहीं। जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में अछूत वृद्ध महिला की जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवा कर उनने घरवालों का विरोध तो मोल ले लिया पर अपना व्रत नहीं छोड़ा। उन्होंने किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना आरंभ कर दी थीं। औपचारिक शिक्षा स्वल्प ही पायी थी। किन्तु, उन्हें इसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि, जो जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न हो वह औपचारिक पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रह सकता है। हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य-शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी कैसे बनें, इसके छोटे-छोटे पैम्पलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी। वे चाहते थे, जनमानस आत्मावलम्बी बने, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका जागे, इसलिए गाँव में जन्मे। इस लाल ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व उसके द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाय, अपने पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाय-यह सिखाया।

महामना मदनमोहन मालवीय ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी। इसके बाद वे अपने घर की पूजास्थली में नियमित उपासना करते रहते थे। कहते हैं कि पंद्रह वर्ष की आयु में वसन्त पंचमी की वेला में सन् १९२६ में उनकी गुरुसत्ता का आगमन हुआ।

उन्होने युग निर्माण के मिशन को गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान के माध्यम से आगे बढ़ाया। वह कहते थे कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सार्मथ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी।

 

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