एकात्म मानववाद : ईश्वरीय प्रेरणा का महान अनुसंधान
* प्रस्तुतकर्ता - अरविन्द सिसौदिया
* 9414180151
महान चिंतक, विचारक तथा संगठनसेवी मनीषी पण्डित दीन दयाल उपाध्याय जी नें एकात्म मानववाद के अर्थों को विस्तारित करते हुए कहा था कि – “हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज करने वाले विदेशी थे, अपितु इसलिए भी कि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में, हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था. आज यदि दिल्ली का शासनकर्ता अंग्रेज के स्थान पर हममें से ही एक, हमारे ही रक्त और मांस का एक अंश हो गया है तो हमको इसका हर्ष है, संतोष है, किन्तु हम चाहते हैं कि उसकी भावनाएं और कामनाएं भी हमारी भावनाएं और कामनाएं हों. जिस देश की मिट्टी से उसका शरीर बना है, उसके प्रत्येक रजकण का इतिहास उसके शरीर के कण-कण से प्रतिध्वनित होना चाहिए.
एकात्म मानववाद मानव जीवन व सम्पूर्ण सृष्टि के एकमात्र सम्बन्ध का दर्शन है। यह दर्शन पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा 22 से 25 अप्रैल, 1965 को मुम्बई में दिये गये चार व्याख्यानों के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
एकात्म मानववाद
भाजपा संविधान की धारा तीन के अन्तर्गत ‘एकात्मक मानववाद’ भाजपा का मूल दर्शन है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपने सुदीर्घ चिन्तन, अध्ययन एवं मनन के बाद सन् 1964-65 में विचारधारा के नाते इसका प्रणयन किया।
पाश्चात्य राजनैतिक चिन्तन ने मानव को ‘सेक्यूलरवाद, व्यक्तिवाद (पूंजीवाद) समाजवाद एवं साम्यवाद की विचार धाराएं दी थीं। स्वतंत्र भारत का नेतृत्व भी इन्हीं वादों में भारत का भविष्य खोज रहा था। दीनदयाल जी ने इस खोज में हस्तक्षेप करते हुए यह सवाल खड़ा किया कि जब हमने पाश्चात्य साम्राज्यवाद को नकार दिया, तब अब हमारी क्या मजबूरी है कि हम पाश्चात्य वादों का अनुगमन करें।
सामान्यतः भारत के राजनैतिक क्षेत्र में स्थापित सभी दल यह सोचते थे कि हमें कुछ संशोधनों के साथ इन पाश्चात्य वादों को ही स्वीकारना पडे़गा क्योंकि हमारे पास कोई अन्य चिंतन नहीं है। हम तो राष्ट्र थे ही नहीं। पाश्चात्यों ने ही आकर हमको राष्ट्र बनने के लिए तैयार किया है। उनका विचार है हम राष्ट्र बनने जा रहे हैं या हम नवोदित राष्ट्र है, आदि आदि।
भारतीय जनसंघ या भारतीय जनता पार्टी भारत को प्राचीन एवं सनातन राष्ट्र मानती है। पश्चिम की राष्ट्र-राज्य परिकल्पना से पुरानी कल्पना भारत के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की है। भारतीय संस्कृति की एक गौरवसम्पन्न ज्ञान-परम्परा हैं हमें इसी ज्ञान-परम्परा में भारत का भविष्य खोजना चाहिए।
मानव की तरफ देखने की पाश्चात्य दृष्टि खण्डित हैं उनका व्यक्तिवाद, समाजवाद का दुश्मन है तथा समाजवाद, व्यक्तिवाद का शत्रु है। वे प्रकृति पर मानव की विजय चाहते हैं, इस प्रकार यहां भी प्रकृति बनाम मानव उनका समीकरण है। सेक्यूलरवाद को अपना कर उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन को अध्यात्म से काट लिया, अतः भौतिकवाद बनाम अध्यात्म, स्टेट बनाम चर्च तथा रिलिजन बनाम सांइस के द्वंद्वमूलक समीकरण वहां उत्पन्न हुये।
दीनदयाल जी मानते थे कि पश्चिम की यह बहस भी एक मानवीय बहस है, इसे हमें जानना चाहिए तथा इससे कुछ सीखना भी चाहिये, लेकिन हमें इन द्वंद्व्रमूलक निष्कर्षों का अनुयायी नहीं बनना चाहिये।
अतः मौलिक भारतीय चिन्तन के आधार पर विकल्प देने की जिम्मेदारी उन्होंने स्वयं स्वीकार की। भारतीय जनसंघ की पहली पीढ़ी के सभी कार्यकर्ता इस काम में लगे। 1959 का पूना अभ्यासवर्ग, 1964 का ग्वालियर अभ्यास वर्ग तथा 1964 के संघ शिक्षा वर्गों के इस दृष्टि से विशेष महत्व है। इन वर्गों में परिपक्व हुये विचारों को दीनदयाल जी ने सिद्धांत और नीति प्रलेख में ‘एकात्म मानववाद’ नाम से प्रस्तुत किया। 1965 में भारतीय जनसंघ के विजयवाड़ा वार्षिक अधिवेशन में इसे मूल दर्शन के रूप में स्वीकार किया गया तथा 1985 में भारतीय जनता पार्टी ने भी इसे अपने मूल दर्शन के रूप में स्वीकार किया।
यह विचार व्यक्ति बनाम समाज नहीं वरन व्यक्ति और समाज की एकात्मता का विचार है। यह मानव बनाम प्रकृति नहीं वरन मानव के साथ प्रकृति की एकात्मता का विचार है। भौतिक बनाम अध्यात्मिक नहीं वरन इनकी एकात्मता का विचार है। भारत में इसे धर्म कहा गया है ‘यतो अभ्युदय निःश्रेयस संसिद्धि स धर्म।’ अर्थात् यह व्यष्टि, समिष्ट, सृष्टि व परमेष्ठी की एकात्मता का विचार है।
यह विचार दृश्यमान पृथकताओं में एकात्मता के सूत्र खोजता है। संसार में पृथकता नहीं विविधता हैं, जो ‘पिंड’ में है वही ‘ब्रह्माण्ड’ में है। आज मानव अपने को व्यक्ति मान कर अपनी सामाजिक संस्थाओं से युद्ध कर रहा है, परिवार, जाति, वंश , पंचायत सब को अपना दुश्मन मान रहा है। समाजवाद के नाम पर तानाशाहियों का सृजन कर रहा है, विकास के नाम पर प्रकृति से युद्ध कर रहा है, पर्यावरण का विनाश कर भयानक विभीषिकाओं को आमंत्रित कर रहा है। अध्यात्म का निषेध कर भोगेन्द्रियों का गलाम बन रहा है। सुख की खोज में दुःख कमा रहा है तथा आनंद की अवधारणा से अपरिचित रह रहा है।
भारतीय परम्परा इन पृथकताओं का निषेध करती है वह जड़-चेतन सभी से अपनी रिश्ते स्थापित करती है। धरती ‘माता’ है चन्द्रमा मामा है पर्वत ’देवता’ है, नदियां ‘माता’ है। समाज का हर व्यक्ति परस्पर जुड़ा हुआ है, यह संसार परायेपन की जगह नहीं, यह ‘वसुधा तो एक कुटुम्ब’ है आदि विचार मानव को असम्बद्धता, पृथकता तथा द्वन्द्वशीलता के सम्बंधों से निजात दिलाते है।
एकात्मता, समग्रता में निहित रहती है। समग्रता के अभाव में खण्ड दृष्टि से मानव आक्रांत होता है। जैसे ब्रह्माण्ड की समग्रता है, वैसे ही व्यक्ति की भी समग्रता है। व्यक्ति अर्थात केवल शरीर नहीं, उसके पास मन है, बुद्धि है और आत्मा भी है। यदि इन चारों में से एक की भी उपेक्षा हो जाये तो व्यक्ति का सुख विकलांग हो जायेगा। इन चारों के पृथक पृथक सुख से व्यक्ति सुखी नहीं होता, उसे तो एकात्म एवं धनीभूत सुख चाहिये। जिसे आनंद कहते है।
वैसे ही समाज केवल सरकार नहीं है, उसकी अपनी संस्कृति है, जन एवं देश है। इन चारों के सम्यक संचालन के बिना समष्टि के सुख का संधान नहीं होता।
इस प्रकार सृष्टि के पंच-महाभूत (पृथ्वी, जल, आकाश, प्रकाश व वायु) हैं, जिनके साथ न्याय-संगत व्यवहार होना चाहिये तथा अदृश्य किन्तु अनुभूति में आने वाले आध्यात्मिक तत्वों से भी योग्य साक्षात्कार होना चाहिये। तभी मानव सुखी होगा।
व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि तथा परमेष्ठी से एकात्म हुआ मानव ही विराट पुरुष है। इसके पुरुषार्थ चतुर्यामी है ‘धर्म, अर्थ काम और मोक्ष’ ये पुरुषार्थ मानव की परिस्थति निरपेक्ष आवश्यकतायें हैं, इनकी सम्पूर्ति करना समाज व्यवस्था का काम है।
1-धर्म-अर्थात शिक्षा-संस्कार एवं विधि व्यवस्था।
2-अर्थ-साधन पुरुषार्थ है। धर्मानुसार अर्थव्यवस्था, रोजगार, उत्पदान, वितरण एवं उपयोग आदि।
3-काम-‘धर्माविरुद्धो कामोऽहम्’ (जो धर्म के अविरूद्ध हैं, मैं वह काम हूँ - गीता) समस्त एषणायें इसके अन्तर्गत आती है, उनको सांस्कृतिक उपागम प्रदान करना संगीत एवं विविध कलाओं के माध्यम से एषणाओं को सकारात्मक बनाना। धर्म विरुद्ध काम पुरुषार्थ नहीं, वरन विकार है।
4- मोक्ष-परम पुरुषार्थ है, जब व्यक्ति अभाव व प्रभाव की कुण्ठाओं से मुक्त हो जाता है। अब इसे कुछ नहीं चाहिये ‘विगतस्य कुण्ठः इति वैकुण्ठ।’
यह समस्त भारतीय विचार प्रवचनों का नहीं वरन राष्ट्रनीति एवं राजनीति का विषय होना चाहिये। इसके आधार पर देश की नीतियां बननी चाहिये।
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