सावधान : हिन्दुत्व के विरूद्ध अन्तर्राष्ट्रीय षडयंत्रों को गंभीरता से लेना होगा - अरविन्द सिसौदिया
हाल ही में हिन्दुत्व को समाप्त करने की योजना पर काम करने वाली मानसिकता के लोगों ने अमेरिका में ‘डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ के नाम से वर्चअल सम्मेलन किया है। यह सम्मेलन प्रतिष्ठित हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड, प्रिंसटन, कोलंबिया, बर्कले, शिकागो, पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी समेत 50 से ज्यादा विश्वविद्यालयों ने मिलकर प्रायोजित की है। सम्मेलन के शीर्ष्रक से प्रगट हो रहा है कि सम्मेलन डिसमेंटल्रिग जैसे घ्रणित एवं कुत्सित शब्द के विचारों की मानसिकता से ग्रसित था । आयोजकों का कहना तो यह है कि उनका उद्देश्य “लिंग, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, जाति, धर्म, स्वास्थ्य और मीडिया में विशेषज्ञता रखने वाले दक्षिण एशिया के विद्वानों को एक मंच मुहैया कराना है और उनके नजरिए से हिंदुवादी विचारधार को समझना है। इससे आगे उनका यह भी कहना है कि वे आगे भी इस तरह के कार्यक्रम जारी रखेंगें।
मूलतः जो समझ में आ रहा है वह यह तथ्य है कि यह आयोजक किसी बडे अर्न्तराष्ट्रीय षड़यंत्र के तहत काम कर रहे है। इनके पीछे बडी ताकतें है। विश्विद्यालय सामान्यतौर से इस तरह के पचडों में नहीं पडते है। पर्दे के पीछे झुपे किसी बडे उददेश्य का हिस्सा यह आयोजन रहा है। इसलिये इसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता । यह आने वाले समय में हिन्दुत्व को समाप्त करने के लिये होनें वाले अन्य वैचारिक हमलों का भी यह आगाज है। इसलिये इस संदर्भ में जबावी कार्यवाही क्या हो ? , सावधानी क्या हो , जागरूकता क्या हो। इस हेतु क्या क्या कार्य करना चाहिये। इन पर विचार एवं कार्य अविलम्ब प्रारम्भ हों।
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ईसा मसीह ; क्या भारतीय ज्ञान का प्रकाश
https://arvindsisodiakota.blogspot.com/2010/09/blog-post_28.html
हमारे देश में अनेकों महान आत्मदर्शी हुए हैं , इनमें से एक रजनीश अर्थात ओशो हैं , उनके धरा प्रवाह भाषणों के आधार पर ६५० से भी अधिक पुस्तकें २० भाषाओं में छप चुकी हैं , उनकी एक पुस्तक "भारत : एक अनूठी संपदा " है , उसमें उन्होंने ईसा मसीह के जीवन पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि ईसा ज्ञान कि प्रकाश भारत से लेकर गए थे और उनकी मृत्यु भी भारत में ही हुई है !
-- यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है , अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठाता है , अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकाल पड़ता है | और यह केवल आज की ही बात नहीं है | यह उतनी प्राचीन बात है जितने पुराने पुराण और उल्लेख मौजूद हैं | आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व , सत्य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था | ईसा मसीह भी भारत आए थे |
-- ईसा मसीह को तेरह से तीस वर्ष की उम्र के बीच का बाइबल में कोई उल्लेख नहीं है |
-- और यही उनकी लगभग पूरी जिन्दगी थी , क्योंकि तैंतीस की उम्र में तो उन्हें सूली पर ही चढ़ा दिया गया था | तेरह से तीस तक के सत्रह सालों का हिसाब गायब है | इतने समय वे कहाँ रहे , और बाईबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया है ? उन्हें जान बूझ कर छोड़ा गया है , कि वह एक मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं
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कुछ रिपोर्टें जिन्हे ध्यान से पढ़ें
हिन्दुत्व के विरूद्ध अन्तर्राष्ट्रीय सेमीनार
अमेरिका में हिंदुत्व को लेकर हुआ एक वर्चुअल सम्मेलन विवादों के बीच समाप्त हो गया है.
सोशल मीडिया पर समर्थन और विरोध में चले अभियानों के बीच 'डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व' नाम से हुई इस वर्चुअल कॉन्फ्रेंस में हिंदुत्व को नफ़रत से प्रेरित विचारधारा बताया गया और इस पर सवाल खड़े किए गए.
सम्मेलन के आयोजकों का कहना है कि इसका विरोध करने वालों ने उनकी आवाज़ को दबाने और पैनल में शामिल अकादमिक जगत के लोगों को डराने की कोशिश की.
वहीं इसका विरोध करने वाले लोगों और समूहों का कहना है कि ये सम्मेलन राजनीति से प्रेरित था और इसका मक़सद वैश्विक स्तर पर भारत और हिंदू धर्म की छवि ख़राब करना था.
क्या थी डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व कॉन्फ्रेंस?
10-12 सितंबर के बीच ऑनलाइन हुए इस सम्मेलन को अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के 53 विश्वविद्यालयों के 70 से अधिक केंद्रों, इंस्टीट्यूट्स, कार्यक्रमों और अकादमिक विभागों का समर्थन प्राप्त था.
इसे अमेरिका की हार्वर्ड, स्टेनफर्ड, प्रिंस्टन, कोलंबिया, बर्कले, यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो, द यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिलवीनिया और रटजर्स जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों का सहयोग और समर्थन प्राप्त था.
आयोजकों का दावा है कि इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए दस हज़ार से अधिक लोगों ने पंजीकरण किया और साढ़े सात हज़ार से अधिक लोग इसके साथ जुड़े.
सम्मेलन के आयोजकों में शामिल प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश ने बीबीसी को बताया, "डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व सम्मेलन का मक़सद हिंदुत्व और भारत की विविधता पर उसके असर का विश्लेषण करना था. हिंदुस्तान के जो अलग-अलग धर्म हैं, अल्पसंख्यक हैं, दलित हैं, औरतें हैं उन पर हिंदुत्व का क्या असर हो रहा है, इस पर सम्मेलन के दौरान चर्चा की गई."
ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "आज जब हिंदुत्व वैश्विक स्तर पर प्रसार की कोशिश कर रहा है, तो हमने इस कॉन्फ्रेंस के जरिए ये समझने की कोशिश की है कि ग्लोबल स्तर पर इसका क्या असर हो रहा है."
आयोजकों का कहना है कि ये अमेरिका में विभिन्न अमेरिकी और अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सटियों के सहयोग से हिंदुत्व के मुद्दे पर हुआ अपनी तरह का पहला सम्मेलन है जिसमें बड़ी तादाद में अकादमिक और शिक्षा जगत के शोधार्थी और शिक्षाविद शामिल हुए. तीन दिन के इस सम्मेलन में कुल नौ सत्र हुए जिनमें 30 से अधिक वक्ताओं ने अपने विचार रखे.
इन सत्रों में ग्लोबल हिंदुत्व क्या है, हिंदुत्व की राजनीतिक अर्थव्यवस्था, जाति और हिंदुत्व, हिंदुत्व की जेंडर और सेक्सुअल पॉलिटिक्स, हिंदुत्व के प्रोपेगेंडा और डिजीटल इकोसिस्टम जैसे विषयों पर चर्चा की गई.
प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफर जैफरो ने अपने पेपर में ये बताया कि कैसे और क्यों हिंदुत्व 1995 के बाद वैश्विक स्तर पर बढ़ गया. हमने इस बात पर भी चर्चा की है कि कैसे हिंदुत्व विज्ञान के ख़िलाफ़ एजेंडा चला रहा है."
क्यों हुआ इस सम्मेलन का विरोध?
सोशल मीडिया पर इस सम्मेलन का ज़बरदस्त विरोध हुआ है. आयोजकों का दावा है कि सम्मेलन के ख़िलाफ़ चलाए गए ऑनलाइन अभियानों ने इस सम्मेलन में शामिल विश्वविद्यालयों के सर्वर जाम कर दिए.
बीबीसी को भेजे एक बयान में आयोजकों ने दावा किया है कि इस सम्मेलन के ख़िलाफ़ इसमें शामिल यूनिवर्सटियों के प्रेसिडेंट, प्रोवोस्ट और अन्य अधिकारियों को दस लाख के करीब ईमेल भेजे गए.
आयोजकों का दावा है कि ड्रयू यूनिवर्सिटी के सर्वर पर चंद मिनट के भीतर ही तीस हज़ार ईमेल भेज दिए गए. इस ऑनलाइन हमले की वजह से यूनिवर्सटियों को सम्मेलन के नाम वाले सभी ईमेल ब्लॉक करने पड़े.
आयोजकों का ये भी कहना है कि सम्मेलन के ख़िलाफ़ चले विस्तृत अभियान के बावजूद किसी भी यूनिवर्सिटी ने इससे अपने हाथ नहीं खींचे. हालांकि सम्मेलन की वेबसाइट दो दिन बंद रही, इसका फ़ेसबुक पेज भी बंद कर दिया गया.
सम्मेलन के ख़िलाफ़ व्यापक अभियान
भारत के हिंदूवादी समूहों और कार्यकर्ताओं के अलावा अमेरिका में रह रहे हिंदू समूहों ने भी इस सम्मेलन का ज़बरदस्त विरोध किया. हिंदू अमेरिकन फ़ाउंडेशन ने इस सम्मेलन के ख़िलाफ़ एक व्यापक अभियान चलाया.
इसके विरोध की वजह बताते हुए एचएएफ़ की संस्थापक सुहाग शुक्ला ने बीबीसी से कहा, "हम 'हिंदुओं की छवि' को लेकर चिंतित नहीं है. ये कार्यकर्ता हिंदुओं के ख़िलाफ़ अपना नफ़रत भरा एजेंडा दशकों से चला रहे हैं."
"हमारी चिंता इस बात को लेकर है कि जब प्रोफ़ेसर अकादमिक स्वतंत्रता के नाम पर विभाजनकारी और नफ़रत भरे भाषण देंगे और ये राजनीतिक सक्रियतावाद के साथ मिल जाएगा तो इसका उदार शिक्षा व्यवस्था पर क्या असर होगा."
सुहाग कहती हैं, "शिक्षा का मकसद छात्रों को विविध विचारों को समझना और विभिन्न दृष्टिकोणों को तर्कशीलता और सम्मान से देखना सिखाना होता है. हम इसे लेकर भी चिंतित हैं कि जब हिंदुओं को सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया जाएगा और बर्बर बताया जाएगा तो इसका हिंदू छात्रों और शिक्षकों पर क्या असर होगा."
'कई लोगों को धमकी भरे संदेश मिले हैं'
सम्मेलन के आयोजकों का कहना है कि उन्हें अंदेशा था कि इसका विरोध होगा लेकिन इतना भारी विरोध होगा ये उन्होंने नहीं सोचा था.
ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "हमें ये अंदेशा तो था कि इस सम्मेलन का कुछ तो विरोध होगा लेकिन एक अकादमिक सम्मेलन से ये लोग इतने डर जाएंगे, ये हमने नहीं सोचा था. हमारे पैनल में शामिल कई लोगों को धमकी भरे संदेश मिले हैं."
"ट्विटर, फोन और ईमेल पर उन्हें धमकिया दी गई हैं. गंदी भाषा का इस्तेमाल किया गया है. ख़ासकर महिलओं को बहुत गंदे और धमकी भरे मैसेज मिले हैं. सम्मेलन में शामिल कुछ शिक्षाविद धमकियों की वजह से पीछे हटे हैं. ये लोग भारत में रहते हैं और हम उनकी सुरक्षा को ख़तरा नहीं पहुंचाना चाहते हैं."
वहीं विपक्षी विचारधारा के शिक्षाविदों को शामिल न करने के सवाल पर ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "हमारे सम्मेलन का उद्देश्य साफ़ था कि हम हिंदुत्व पर चर्चा करेंगे और इसके बारे में लोगों में जागरूकता लाएंगे. हम हिंदुत्व का विरोध करते हैं. ये कोई बहस का मुक़ाबला नहीं था कि इसमें सभी पक्षों को शामिल किया जाता. बल्कि ये हिंदुत्व के मुद्दे पर अकादमिक चर्चा थी. इसलिए ही हमने दूसरे पक्ष को इसमें शामिल नहीं किया क्योंकि हम उनके एजेंडे को पहले से ही जानते हैं."
'हिंदुत्व के घृणित रूप' की वापसी का खतरा
हिंदुत्व की राजनीति और तमिल लेखकों पर हमले
सम्मेलन के आलोचकों का तर्क है कि इस सम्मेलन में हिंदू धर्म को बदनाम करने की कोशिश की गई.
प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश इस आलोचना को दरकिनार करते हुए कहते हैं, "हम हिंदुत्व और हिंदू धर्म को एक नहीं मानते हैं. ये दोनों अलग-अलग हैं. हिंदुत्व एक राजनीतिक आंदोलन है जबकि हिंदू धर्म इससे बिलकुल अलग है. हिंदुत्व के समर्थक हमेशा ये कहने की कोशिश करते हैं कि हिंदुत्व ही हिंदू धर्म है. लेकिन वास्तव में ये बिलकुल अलग-अलग हैं. हम ये मानते हैं कि हम हिंदुत्व के ख़तरे को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं. हम देख रहे हैं कि पिछले छह-सात सालों या उससे पहले से हिंदुस्तान में हिंसा हुई है. वैश्विक स्तर पर भी ये लोग ये कहने की कोशिश करते हैं कि हिंदुत्व ही हिंदू धर्म है."
वहीं प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश के इस तर्क को ख़ारिज करते हुए विजय पटेल कहते हैं, "ये लोग मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुए कुछ अपराधों की वजह से समूचे हिंदू समाज को एक रंग में रंगना चाहते हैं लेकिन इस तरह के अपराध तो हिंदुओं के ख़िलाफ़ भी हुए हैं. ऐसे में कुछ असंगठित अपराधों की वजह से समूचे हिंदू समाज को बदनाम नहीं किया जा सकता है. भारत एक सहिष्णु राष्ट्र है, इस तरह के एजेंडा आधारित सम्मेलन से भारत की छवि ख़राब हुई है."
हिंदुत्व को लेकर आयोजकों के विचार क्या हैं?
प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "हिंदुत्व भारत के मुसलमानों के ख़िलाफ़ है, भारत के दलितों के ख़िलाफ़ है और भारत की महिलाओं के ख़िलाफ़ है. हम हिंदुत्व की आलोचना कर रहे हैं, हिंदुस्तान की आलोचना नहीं कर रहे हैं. बहुत लोग हिंदुत्व के बारे में नहीं जानते हैं."
"विद्वान तो जानते हैं लेकिन आम लोग नहीं जानते हैं. हम ये कोशिश कर रहे हैं कि आम लोगों को भी इस विचारधारा के बारे में पता चले. हिंदुत्व अब यूरोप और अमेरिका में भी फैल रहा है और फैलने की कोशिश कर रहा है. ऐसे में यहां भी इसके बारे में लोगों को जागरूक करने की ज़रूरत है."
तमाम विरोध के बाद भी ये सम्मेलन हुआ और इसमें हिंदुत्व विचारधारा की आलोचना की गई. लेकिन सवाल ये है कि ये सम्मेलन इतना ज़रूरी क्यों था कि भारी विरोध के बाद भी इसे आयोजित किया गया?
इस सवाल पर ज्ञान प्रकाश कहते हैं, "अगर हम इस सम्मेलन को रोक देते तो ये उन लोगों की जीत होती. वो चाहते हैं कि हिंदुत्व को हम स्वीकार कर लें. वो जो तर्क देते हैं उसे हम स्वीकार कर लें और हिंदुत्व की कोई आलोचना ना करें. इसलिए उन्होंने इस सम्मेलन को रोकने की बहुत कोशिश की, हमारे पैनल में शामिल कई लोगों को धमकी भी मिली. यदि हम इस सम्मेलन को रोक देते तो ये अकादमिक आज़ादी के ख़िलाफ़ होता. क्या हम उनके डर से बात करना भी बंद कर दें?"
प्रकाश कहते हैं, "हमारे यूनिवर्सिटी कैंपस में भी ये लोग जड़े जमाने की कोशिश कर रहे हैं. ये लोग तर्क देते हैं कि भारत का मतलब है हिंदू और हिंदू का मतलब है हिंदुत्व. हमारा मानना है कि हिंदुत्व कोई धर्म नहीं है बल्कि एक राजनीतिक विचारधारा है जिसकी कुछ ख़ास विशेषताएं हैं जैसे ये विचारधारा जातिवाद पर चलती है, ये ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं."
"ये लोग गांधी और आंबेडकर को भी अपने हिसाब से अपनाने की कोशिश कर रहे हैं जबकि दोनों ही जातिवाद के ख़िलाफ़ थे. हम अपने छात्रों को गांधी और आंबेडकर के बारे में पढ़ाते हैं. हम नहीं चाहते कि हमारे छात्र ये बात माने कि गांधी और आंबेडकर भी हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़े थे."
वहीं सुहाग शुक्ला तर्क देती हैं कि उनका विरोध सम्मेलन को रद्द कराने के लिए नहीं था.
उन्होंने बीबीसी से कहा, "हमने कभी भी सम्मेलन को रद्द करने की मांग नहीं की थी, इसलिए हमें इसमें कोई शक ही नहीं था कि ये सम्मेलन होगा. सम्मेलन के आयोजकों ने ये झूठ जानबूझकर फैलाया है कि हमारे प्रयास इसे रद्द करवाने के लिए थे. हमने इस सम्मेलन से संबंधित विश्वविद्यालयों से इससे दूरी बनाने के लिए कहा था क्योंकि ये स्पष्ट तौर पर एक विभाजनकारी और राजनीतिक रूप से प्रेरित कार्यक्रम था जिसका मक़सद हिंदुओं के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाना था."
सुहाग कहती हैं, "हिंदुओं की तुलना श्वेत वर्चस्ववादियों से की जा रही है. जबकि वास्तविकता ये है कि हम ख़ुद ही श्वेत वर्चस्ववाद के पीड़ित हैं. अमेरिका में हिंदू अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक हैं. हम अमेरिका की कुल आबादी का सिर्फ़ 1.3 प्रतिशत हैं. हमें लगता है कि इस सम्मेलन के आयोजक और इसमें शामिल हुए लोग या तो अपनी समझ गंवा चुके हैं या फिर उन्हें हमारी परवाह ही नहीं है."
हिंदुओं से माफ़ी मांगे संस्थान
इस सम्मेलन को अमेरिका, यूरोप और ब्रिटेन की प्रसिद्ध यूनिवर्सटियों ने समर्थन दिया था. अब हिंदूवादी कार्यकर्ता चाहते हैं कि ये संस्थान हिंदुओं से माफ़ी मांगे.
सुहाग कहती हैं, "अब जब ये सम्मेलन हो चुका है, हमारी चिंताएं सही साबित हुई हैं. सम्मेलन से पहले भले ही विश्वविद्यालयों ने आयोजकों को संदेह का लाभ दिया हो क्योंकि अधिकतर आयोजक या तो उनके कर्मचारी हैं या फैकल्टी हैं. लेकिन अब जब इस सम्मेलन की सामग्री सामने आ चुकी है, हम उम्मीद करते हैं कि विश्वविद्यालय इसे देखेंगे ताकि उन्हें पता चल सके कि जिस सम्मेलन के साथ उनकी साख अधिकारिक तौर पर जुड़ी थी उसमें हिंदुओं के प्रति कितनी नफ़रत थी."
"सम्मेलन से जुड़े संस्थानों को अपने कैंपस के हिंदू छात्रों और शिक्षकों से संपर्क करना चाहिए और समुदाय की तरफ से व्यक्त की गई चिंताओं को गंभीरता से ना लेने के लिए उनसे माफ़ी मांगनी चाहिए. इसके अलावा विश्वविद्यालयों को इस सम्मेलन की वजह से डर, हिंसा या किसी भी तरह का ख़तरा महसूस करने वाले छात्रों के प्रति सहयोग करना चाहिए."
वहीं सभी तरह की आलोचना को खारिज करते हुए ज्ञानप्रकाश कहते हैं, "यदि आप ये चर्चा सुनेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि ये एक अकादमिक चर्चा है. हिंदुत्व से जुड़े लोग चाहते हैं कि उन पर कोई चर्चा ही ना हो. भारत और हिंदुत्व एक चीज़ नहीं है. भारत एक विविध संस्कृति वाला देश है. हिंदुत्व एक कट्टरवादी राजनीतिक विचारधारा है.अब हमने ये तय किया है कि हम ना सिर्फ ये सम्मेलन कर रहे हैं बल्कि आगे भी इसे चलाए रखेंगे."
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विदेशों में हिन्दू धर्म के खिलाफ सुनियोजित साजिश
लगभग सारी दुनिया में हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज अभूतपूर्व संकटों और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों के दौर से गुजर रहा है। इस षड्यंत्र में अमेरिका की कई संस्थाएं शामिल हैं, किन्तु दलित फ्रीडम नेटवर्क और फ्रीडम हाउस दो ऐसी संस्थाएं हैं, जो अमेरिकी शासन में भी इतनी गहरी पैठ रखती हैं कि उसकी भारत-विषयक वैदेशिक नीतियों को भी ये तदनुसार प्रभावित किया करती हैं।
दलित फ्रीडम नेटवर्क (डीएफएन) का मुख्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलोराडो शहर में स्थित है। इसके निदेशकों में से कई अमेरिकी कांग्रेस के पूर्व या वर्तमान सदस्य-सीनेटर हैं, तो कई प्रमुख प्रशासक व शिक्षाविद। भारतीय दलितों की मुक्ति का अगुवा होने का दावा करने वाली यह संस्था ‘दलित-मुक्ति’ के नाम पर हिन्दू धर्म का दानवीकरण करने में कमर कस कर लगी हुई है।
इस संस्था का एकमात्र एजेंडा है कि हिन्दू देवी-देवताओं, पर्व-त्योहारों, ग्रंथों-शास्त्रों, रीति-रिवाजों सबको विकृत रूप में विश्लेषित-प्रचारित कर दिया जाए। हिन्दू धर्म का छिद्रान्वेषण करने और दलितों को गैर-दलित हिन्दुओं के विरुद्ध सशस्त्र गृहयुद्ध के लिए भड़काते रहना डीएफएन की प्राथमिकता है। इस कारण से यह संस्था विभिन्न शिक्षाविदों, लेखकों से तत्संबंधी उत्पीड़न साहित्य लिखवाकर उन्हें प्रायोजित-प्रोत्साहित व पुरस्कृत करती है, तो विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं (एनजीओ) से सुनियोजित सर्वेक्षण कराकर उन्हें वैश्विक मंचों पर उछालती है और अमेरिकी सरकार के विभिन्न आयोगों व नीति-निर्धारक निकायों के समक्ष भाड़े के भारतीय बौद्धिक-बहादुरों द्वारा हिन्दू धर्म की तथाकथित असहिष्णुता से दलितों के पीड़ित-प्रताड़ित होने तथा उस पीड़ा-प्रताड़ना से उबरने के लिए ‘ईसा’ को पुकारने की गवाहियां दिलवाती है।
डीएफएन की इस पैंतरेबाजी से अमेरिकी सरकार की विदेश-नीतियां प्रभावित होती रही हैं। मालूम हो कि सन 2005 में वैश्विक मानवाधिकार पर गठित संयुक्त राज्य अमेरिका के एक सरकारी आयोग ने डीएफएन द्वारा 'वर्ण-व्यवस्था के शिकार 20 करोड़ लोगों के लिए समता व न्याय' शीर्षक से प्रेषित प्रतिवेदन के आधार पर यह घोषित कर दिया था कि भारत में हिन्दुओं द्वारा धर्मांतरित दलितों एवं ईसाई मिशनरियों को हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है, जिन्हें सजा भी नहीं दी जाती।
डीएफएन ने कांचा इलाइया नामक एक तमिल भारतीय से ‘व्हाई आई एम नॉट हिन्दू’ (‘मैं हिन्दू क्यों नहीं हूं’) नामक पुस्तक लिखवाकर, उसे पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप प्रदान की गई थी। जॉन दयाल, कुमार स्वामी व स्मिता नुरुला नामक भारतीय ईसाइयों से सन 2007 में अमेरिकी ‘कांग्रेसनल ह्यूमन राइट्स कॉकस’ के समक्ष इस झूठे तथ्य की गवाहियां दिलवाई हैं कि हिन्दू धर्म अतिवादी है और उसकी अतिवादिता ही सभी प्रकार की धार्मिक हिंसा के लिए जिम्मेवार है।
‘क्रिश्चियन टुडे’ पत्रिका के अनुसार डीएफएन के द्वारा कांचा से अमेरिकी कांग्रेस की एक सभा में यह तथाकथित साक्ष्य भी दिलवाया गया है कि हिन्दू धर्म एक प्रकार का 'आध्यात्मिक फासीवाद' है। दलित फ्रीडम नेटवर्क के पैसे पर पल रहे कांचा ने एक और किताब लिखी है- ‘पोस्ट हिन्दू इंडिया’, इसमें उसने दलितों को हिन्दू-देवी-देवताओं के शस्त्र-धारण का प्रायोजित अर्थ (दलित-विरोधी) समझाते हुए गैर-दलित हिन्दुओं के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध के लिए प्रेरित किया है।
डीएफएन की पहल पर कांचा इलाइया की ये दोनों पुस्तकें विभिन्न अमेरिकी विश्वविद्यालयों में हिन्दू धर्म-विषयक पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं। यह डीएफएन क्रिश्चियन सॉलिडरिटी वर्ल्ड वाइड तथा गॉस्पेल फॉर एशिया और एशियन स्टडीज सेंटर नामक संस्थाओं के साथ गठजोड़ कर ऑल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल के माध्यम से भारत में दलितों को गैर-दलित हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काने और उनके धर्मांतरण का औचित्य सिद्ध करने के बाबत पश्चिमी देशों में हिन्दू धर्म के विरुद्ध घृणा फैलाने हेतु भिन्न-भिन्न परियोजनाओं को क्रियान्वित करते रहता है।
हिन्दू धर्म का दानवीकरण तथा हिन्दू-समाज के विखंडन में अमेरिका की एक और संस्था काफी सक्रिय है- ‘सेन्टर फॉर रिलीजियस फ्रीडम’, जो भारत में पश्चिमी रुझान के तथाकथित बुद्धिजीवियों, खासकर दलितों को धार्मिक स्वतंत्रता का छ्द्म अर्थ समझाता है कि पुराने धर्म अर्थात हिंदू धर्म को आत्मसात किए रहना बंधन है और इससे विलग हो जाना स्वतंत्रता है, जबकि ईसाइयत को अपनाना तो सीधे मुक्ति ही है। धर्म-अध्यात्म के ककहरा-मात्रा की भी समझ नहीं रखने वाले लोग दुनिया के आध्यात्मिक गुरु के वंशजों को धार्मिकता-आध्यात्मिकता सिखा रहे हैं, तो इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है!
लेकिन ‘फ्रीडम हाउस’ और इससे जुड़ी संस्थाएं धार्मिक स्वतंत्रता की अपनी इसी अवधारणा पर भारतीय कानूनों की समीक्षा करती हैं और तदनुकूल कानून बनवाने के लिए भारत सरकार पर दबाव कायम करती हैं। इसके लिए ये संस्थाएं तरह-तरह के मुद्दों को पैदा करती हैं और तत्संबंधी तरह-तरह के आंदोलन प्रायोजित करती-कराती हैं। फ्रीडम हाउस ने कुछ वर्षों पहले ‘हिन्दू एक्सट्रीमिज्म’ अर्थात ‘हिन्दू उग्रवाद’ नाम से बेसिर-पैर का एक मुद्दा खड़ा किया था और इस तथाकथित कपोल-कल्पित प्रायोजित-सुनियोजित मुद्दे को मीडिया के माध्यम से दुनिया भर में प्रचारित करते हुए इस पर बहस-विमर्श के बहुविध कार्यक्रमों का आयोजन कर 'द राइजिंग ऑफ हिन्दू एक्सट्रीमिज्म' (हिन्दू उग्रवाद का उदय) नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उक्त रिपोर्ट में हिन्दू-उग्रवाद का बेसुरा, बेतुका राग अलापते हुए ‘फ्रीडम हाउस’ ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की थी, उसके कुछ अंशों पर ही गौर करने से आप इसकी नीति-नीयत और इसके निहित उद्देश्यों को समझ सकते हैं।
'द राइजिंग ऑफ हिन्दू एक्सट्रीमिज्म” नामक उक्त रिपोर्ट में ‘रिलीजियस फ्रीडम’ की वकालत करने वाली इस संस्था ने जिन बातों पर जोर दिया है, वह तो वास्तव में हिन्दुओं के धर्मांतरण में मिशनरियों के समक्ष खड़ी बाधाओं पर उसकी चिंता की ही अभिव्यक्ति है। रिपोर्ट में धार्मिक स्वतंत्रता संबंधी भारतीय कानूनों की गलत व्याख्या करते हुए भारत को ‘एक धार्मिक उत्पीड़क देश’ घोषित कर इसके विरुद्ध यहां अमेरिका के हस्तक्षेप की आवश्यकता पर बल दिया गया है। मालूम हो कि हमारे देश के ‘धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ और तत्संबंधी अन्य कानून धोखाधड़ी से अथवा बहला-फुसलाकर या जबरिया किए जाने वाले धर्मांतरण को रोकते हैं, न कि स्वेच्छा से किए जा रहे धर्मांतरण को। किन्तु उस रिपोर्ट में इसकी व्याख्या इन शब्दों में की गई है- 'भारतीय कानून के तहत किसी धर्म अथवा पंथ विशेष के आध्यात्मिक लाभ पर बल देना गिरफ्तारी का कारण हो सकता है। भारत में धर्मांतरण आधारित टकराव इस कारण है, क्योंकि ईसाइयत के माध्यम से दलितों की मुक्ति से अगड़ी जाति के हिन्दू घबराते हैं'। जाहिर है, इस व्याख्या में ‘आध्यात्मिक लाभ’ और ‘मुक्ति’ शब्द का गलत इस्तेमाल किया गया है, जिससे फ्रीडम हाउस और उसकी सहयोगी संस्थाओं की मंशा और मान्यता दोनों स्पष्ट हो जाती है।
गॉस्पल फॉर एशिया (जीएफए) अमेरिका की एक ऐसी भारी-भरकम संस्था है जो भारत के बाहर-भीतर सर्वत्र यह प्रचारित करती रहती है कि एशिया में भूख और गरीबी के लिए हिन्दू धर्म जिम्मेदार हैं, क्योंकि कई एशियाई देशों पर इसका प्रभाव है। भारत की खाद्य समस्या के लिए हिन्दू धर्म पर दोषारोपण करते हुए इसके कर्ताधर्ता केपी योहन्नान कहते हैं कि हिन्दुओं के आध्यात्मिक अंधेपन के कारण पूजनीय बनी गायों और चुहियों से प्रतिवर्ष हजारों टन अनाज के नुकसान होने से खाद्यान-संकट गहराता जाता है।
जीएफए का अपना रेडियो-प्रसारण केन्द्र है जहां से वह 92 भारतीय भाषाओं में हिन्दू धर्म के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करते रहता है और लोगों को ‘मुक्ति का मार्ग’ बताता है। यह मूर्तिपूजा की भर्त्सना करते हुए ईसा को सच्चा ईश्वर और हिन्दू-देवी-देवताओं को ‘दैत्य-पापी’ बताता है।
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https://jagohindustani.wordpress.com/2019
जानिए भारत में ईसाई कब आए और उनका काला इतिहास का अध्याय
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