अल्पसंख्यक शब्द को पूर्ण परिभाषित किया जाये - अरविन्द सिसौदिया

 


     भारत में मुस्लिम आबादी लगभग 20 सें 25 करोड मानी जाती है। इस स्थिति में उन्हे दूसरे क्रम का बहूसंख्यक कहा जाता है । क्यों कि वे जनसंख्यात्म दृष्टि से दूसरे क्रम पर है , द्वितीय बहूसंख्यक समुदाय है। भारत के संविधान में स्पष्टता से कोई भी परिभाषा अल्पसंख्यक होनें की नहीं दी हे। विशेष कर जनसंख्या के प्रतिशत को लेकर बिलकुल खामोशी है। इसका मुख्य कारण भी यही है कि यह दूसरे क्रम का बहूसंख्यक ही है। अल्प संख्यक नहीं हैं।

    किन्तु भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद से ही अंग्रेज सरकार ने हिन्दू और मुस्लिम को अलग - अलग करने की रणनीति अपनाई जिसके क्रम में यह विभेद लगातार अपनाये गये, बढाये गये और हिन्दू के विरोध में मुस्लमान को ब्रिटिश सरकार निरंतर खडा करती रही। इसी भेद को और अधिक बढानें के लिये अंग्रजों नें ही पीछे रह कर मुस्लिम लीग और कांग्रेस की स्थापना करवाई थी। इसीक्रम में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय भी ,खुलवाया गया था ।
   देश आजाद तो हो गया या यूं कहिये कि देश बंट गया, मुस्लिमों को एक नया देश दे दिया गया और भारत में भी उन्हे सभी अधिकारों के साथ रखा गया। संविधान में भी ज्यादातर वही कानून रखे गये, जो ब्रिटिश हुकूमत ने भारत शासन अधिनियम के नाम से पहले से बनाये हुये थी। कांग्रेस भी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर ही चलती रही और इसीक्रम में ही मुस्लिम पर्सनल लॉ, अल्पसंख्यक आयोग जैसी संस्थायें आई, जिनको कभी भी संवैधानिक व्यवस्था के तराजू पर नहीं तोला गया। जब कि संविधान अपनी प्रस्तावना से घोषत करता है कि वह किस तरह का शासन देश की जनता को देगा।

मूलतः अल्प शब्द बहुत थोडे के लिये आता है। जिसे हम 2-5 प्रतिशत मान सकते हे। 10 प्रतिशत से अधिक की कोई संख्या अल्प संख्यक हो ही नहीं सकती। इसलिये सबसे पहले अल्पसंख्यक की परिभाषा भी आनी चाहिये, दूसरे धर्म निरेपेक्ष देश में धर्म आधारित शिक्षा सरकारी पैसे से नही दी जा सकती । क्यों कि महात्मा गांधी ने  सोमनाथ मंदिर निर्माण के समय कहा था कि भव्य मंदिर तो बनना चाहिये किन्तु उसमें जनता का धन लगना चाहिये। अर्थात सरकारी धन नहीं लगना चाहिये। 

अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का प्रभार संभालने के तुरंत बाद 2014 में नजमा हेपतुल्ला ने मुसलमानों के अल्पसंख्यक दर्ज़े को लेकर एक ज़बरदस्त टिप्पणी की. उन्होंने कहा, “ यह मुस्लिम मामलों का मंत्रालय नहीं है, यह अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय है । अर्थात मुस्लिम अल्पसंख्यक है या नहीं यह प्रश्न तब भी उभरा था । 

केरल हाई कोर्ट में भी इसी तरह की एक याचिका दायर की गई है जिसमें अल्प संख्यक सूची पर पुर्न विचार का आग्रह किया गया हे।

सबसे पहले जो अल्पसंख्यक शब्द की स्पष्ट परिभाषा आनी चाहिये और दूसरे सरकारी धन किसी भी धर्म की धार्मिक शिक्षा में नहीं लग सकता यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिये।

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प्रयागराज,

 उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धार्मिक शिक्षा में फंडिंग पर ( बुधवार 1 सितम्बर 2021 को ) कई अहम सवाल किए। 

 कोर्ट ने उत्तर प्रदेश राज्य सरकार से पूछा है कि
1-“ क्या क्या पंथनिरपेक्ष राज्य धार्मिक शिक्षा देने वाले शिक्षण संस्थानों (मदरसों) को फंड दे सकता है?”
2- “क्या धार्मिक शिक्षा देने वाले मदरसे अनुच्छेद 25 से 30 तक प्राप्त मौलिक अधिकारों के तहत सभी धर्मों के विश्वास को संरक्षण दे रहे हैं?”
3-“ क्या संविधान के अनुच्छेद 28 में मदरसे धार्मिक शिक्षा संदेश व पूजा पद्धति की शिक्षा दे सकते हैं?”
4- “क्या महिलाओं को मदरसों में प्रवेश पर रोक है? यदि ऐसा है तो क्या यह भेदभावपूर्ण नहीं है?”
5- “क्या लड़कियों को प्रवेश दिया जाता है? इसका भी जवाब दिया जाए।  ”
6- “मदरसों के पाठ्यक्रम, शर्तें, मान्यता का मानक, खेल मैदान की अनिवार्यता का पालन किया जा रहा है या नहीं? ”
7- या धार्मिक शिक्षा देने वाले अन्य धर्मों के लिए कोई शिक्षा बोर्ड है।

8- “संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष राज्य की स्कीम है तो सवाल है कि क्या पंथनिरपेक्ष राज्य धार्मिक शिक्षा देने वाले स्कूलों को फंड दे सकते हैं।”
    
     कोर्ट ने इन सभी सवालों के राज्य सरकार से चार हफ्ते में जवाब मांगे हैं। अब इस याचिका की सुनवाई 6 अक्तूबर को होगी। यह आदेश न्यायमूर्ति अजय भनोट ने प्रबंध समिति मदरसा अंजुमन इस्लामिया फैजुल उलूम की याचिका पर दिया है।

कोर्ट के 3 बड़े सवाल
1-क्या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के धार्मिक शिक्षा संस्थानों को सरकार फंड दे रही है?
2-क्या महिलाओं को मदरसों में प्रवेश पर रोक है?
3-यदि ऐसा है तो क्या यह भेदभाव पूर्ण नहीं है?

 

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कब तक मुसलमान, ईसाई बने रहेंगे अल्पसंख्यक? केरल उच्च न्यायालय में याचिका
 25 जुलाई, 2021

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केरल उच्च न्यायालय में केंद्र सरकार और अल्पसंख्यक आयोग को अल्पसंख्यकों की सूची पर पुनः विचार करने को लेकर एक याचिका दायर की गई है। इस याचिका में केरल राज्य में मुस्लिम और ईसाइयों के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर सवाल उठाए गए हैं।

केरल में भारत देश के ही आँकड़ों के भाँति दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या मुस्लिम समुदाय की है, जिसके बाद इस पायदान पर ईसाई समुदाय आता है। इसके बाद भी राज्य में इन समुदायों को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है तथा राज्य और केंद्र सरकार की कई योजनाओं का लाभ मिलता है।

इसी विषय में केरल उच्च न्यायालय के समक्ष बृहस्पतिवार (22 जुलाई, 2021) को एक याचिका दर्ज कराई गई। यह याचिका सिटीजन एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेसी, इक्वलिटी, ट्रेंकुलिटी एंड सेक्युलरिज्म कैडेट्(CADETS) नामक संस्था द्वारा डाली गई है। यह संस्था हर प्रकार के सांप्रदायिक, जाति और लिंग के आधार पर किए गए भेदभाव के विरुद्ध सवाल उठाती रही है।

याचिका में यह मुद्दा उठाया गया कि राज्य में मुस्लिम और ईसाइयों को अब सामाजिक या शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ा नहीं माना जाना चाहिए। याचिका में कहा गया कि:

“ईसाई और मुस्लिम समुदायों को वित्तीय, व्यावसायिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में ज़रूरत से अधिक तुष्टिकरण (Pamper) संवैधानिक लोकतंत्र के पंथनिरपेक्ष ढाँचे के लिए एक गंभीर झटका होगा और इससे बहु-राष्ट्रवाद हो सकता है।”
 

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