अत्यंत पवित्र एवं महान शूरवीर “पंज प्यारे”

 कांग्रेस के पंजाब प्रभारी के द्वारा अत्यंत ही हल्के राजनेताओं की तुलना में  "पंज प्यारे" शब्द का उपयोग करने के बाद यह मसहूस हुआ कि आम जन को स्मरण करवाया जाना चाहिये कि परम पवित्र और महान शूरवीर "पंज प्यारे " कौन थे। इसी उद्देश्य से उपरोक्त आलेख प्रस्तुत हे। - अरविन्द सिसौदिया

 

 Panj Piyare | Guru Gobind Singh Sakhi | khalsa panth ki sthapna by  StoryAtoZ.com - YouTube

 

       भारतीय संस्कृति पर गत 3 हजार वर्ष की अवधि में, पश्चिमी दिशा से अनेकानेक आक्रमण हुए जो कि अलग- अलग  तरह की संस्कृति और जीवन शैली वाले लोगों ने किए, जिसमें  कभी शक आए ,कभी हूण आए,कभी यूनानी आए , तो फिर इस्लामिक आक्रमण हुए और इसके बाद अंग्रेजों का  आक्रमण हुआ। इन सभी आक्रमणों से लड़ने की भिड़ने की और उससे अपनी संस्कृति की रक्षा करने की जिजीविषा हिन्दू संस्कृति में निरंतर रही है । इसी की अदम्य चेतना के कारण हमेशा ही कोई ना कोई महान पराक्रमी वीर योद्धा उत्पन्न हुआ, वीरता पूर्वक वह आक्रमणकारियों से भिड़ा , लड़ा , जीता या हारा मगर शत्रुओं के मंसूबों को रोकने में सम्पूर्ण समर्पण किया।
       
        भारतमाता की कोख से हमेशा ही वीर योद्धा जन्म लेते रहे जैसे पिछले 2-3 हजार वर्ष के काल खण्ड में भी करोडों वीरों ने जन्म लिया और अपने सर्वर्श्व को बलिदान किया है। गुरु गोबिंद सिंह जी  सहित , महाराज विक्रमादित्य, ,सम्राट अशोक, सम्राट समुद्र गुप्त , महाराजा पोरस , सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार, सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य या केवल हेमू  ,सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड ,चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त, वीर शिरोमणी बप्पा रावल, राणा सांगा, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, पेशवा बाजीराव प्रथम, वीर दुर्गादास राठौड, महाराजा छत्रशाल,  रानी दुर्गावती ,  रानी लक्ष्मीबाई , अमर क्रांतिकारी मंगल पांडे ,  महाराजा रणजीत सिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस , चन्द्रशेखर आजाद, शहीद भगतसिंह जैसे अनगिनित वीर सपूतों की माला है । जिसनें भारत की सभ्यता, धर्म, संस्कृति के लिये संर्घष किया बलिदान दिये। ( नामों में बहुत से नाम छूट गये हे। क्रम भी ऊपर नीचे हो सकते है। यह सिर्फ उदाहरणार्थ हे। इसी दृष्टिकोंण से ग्रहण करें । गलती के लिये माफी मांगता हूं। कोई सुधार होतो 9414180151 पर बतायें। )

    इसी तरह के एक महान संघर्ष का नाम महान सिख गुरू ओं एवं खालसा पंथ के रूप में भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है । खालसा पंथ की स्थापना सिख पंथ के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने 1699 में बैसाखी के दिन की थी । उन्होंने एक प्रकार से सैन्य स्वरूप देकर के इस्लामिक हिंसावाद और आतंकवाद, इस्लामिक जबरिया धर्मांतरण और इस्लामिक आक्रमण के विरुद्ध हिंदू रक्षा पंक्ति खड़ी की थी और जिसे खालसा के नाम से जाना जाता है। खालसा नामक सैन्य दल में शूरवीर और प्राणों को अर्पित कर देने वाले योद्धाओं की भर्ती के लिए सबसे पहले गुरु गोविंद सिंह जी ने उन वीरों को पुकारा जो अपना शीश  गुरुवर की तलवार की तुरन्त अर्पित करने को तैयार हों और गुरूवर की तलवार को अपना शीशभेंट करने वाले पांच महान योद्धाओं को , जो अपना बलिदान देनें तुरंत पहुंचे, अपना जीवन उत्सर्ग करके गुरु गोविंद सिंह जी के समक्ष खडे हो गये। उनके अनुरोध को पूरा करने आये, उन 5 शूरवीरों को , उन महान सपूतों को इतिहास में “पंज प्यारे “ कहा जाता है । पंज प्यारे - भाई दया सिंह जी,भाई हिम्मत सिंह जी,भाई मोहकम सिंह जी,भाई धरम सिंह जी,भाई साहिब सिंह जी !

      यह वही “पंज प्यारे “ हैं जिन्होंने गुरु गोविंद सिंह के खालसा पंथ को संभाला आगे बढ़ाया, इस्लाम के विरुद्ध खुलकर युद्ध लड़ा और इस्लाम को आगे बढ़ने से रोक दिया । खालसा पंथ के द्वारा धर्म रक्षा का किये गये संघर्षों  से, बलिदानों से ही भारत में हिंदुत्व की रक्षा हुई, सम्पूर्ण भारत को इस्लामिक होने से रोकने वाली किसी सैन्य शक्ति का नाम है तो वह खालसा संघर्ष है । अगर यह संघर्ष नहीं होता तो आज पूरा देश इस्लामिक हो चुका होता ।
        खालसा पंथ  जिसे गुरु गोविंद सिंह ने स्थापित किया था, उसके लिये हिंदू संस्कृति के इतिहास में गुरु गोविंद सिंह जी को करोड़ों - करोड़ों वर्षों तक याद किया जाता रहेगा एवं उनके इस अविस्मरणीय,महान निर्णय और उससे उत्पन्न वीरता का यशोगान को लाखों - करोड़ों वर्षों तक हिंदू संस्कृति में , स्तुति के रूप में , आराधना के रूप में , प्रार्थना के रूप में , मार्ग दर्शनके रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा ।

         सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा महिमा में खालसा को “काल पुरख की फ़ौज“ पद से निवाजा है। तलवार और केश तो पहले ही सिखों के पास थे, गुरु गोबिंद सिंह ने “खंडे बाटे की पाहुल“(अमृत) तयार कर कछा, कड़ा और कंघा भी दिया। इसी दिन खालसे के नाम के पीछे “सिंह“ लग गया। शारीरिक देख में खालसे की भिन्ता (भिन्न) नजर आने लगी। पर खालसे ने आत्म ज्ञान नहीं छोड़ा, उस का प्रचार चलता रहा और आवश्यकता पड़ने पर तलवार भी चलती रही।

“ सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं,
तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं!! “


गुरू गोविन्द सिंह जी और पंज प्यारों के महान शौर्य के लिये अनन्त काल तक श्रृद्धा एवं पवित्रता से समरण किया जाता रहेगा। जिस जरह उन्होने धर्म की रक्षा के लिये अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिया उसी भांती हम सब का भी कर्त्तव्य बनता है। कि प्रण प्राण से अपने धर्म संस्कृति और सभ्यता की रक्षा का संकल्प लें।

जय हिंद जय भारत ।

अरविन्द सिसौदिया 9414180151

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 पंज प्यारे
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से


पंज प्यारे
भाई दया सिंह जी
भाई हिम्मत सिंह जी
भाई मोहकम सिंह जी
भाई धरम सिंह जी
भाई साहिब सिंह जी



पंज प्यारे अथवा पाँच प्यारे (पंजाबी: ਪੰਜ ਪਿਆਰੇ, Pañj Pi'ārē, शाब्दिक अर्थ पाँच प्यारे लोग), सिख गुरु, गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा १३ अप्रैल १६९९ को आनन्दपुर साहिब के ऐतिहासिक दीवान में पाँच लोगों भाई साहिब सिंह, भाई धरम सिंह, भाई हिम्मत सिंह, भाई मोहकम सिंह और भाई दया सिंह को दिया गया नाम है। उन्होंने ख़ालसा पंथ की स्थापना की।

पंज प्यारे चुनाव की कथा 

ऐसा माना जाता है कि जब मुगल शासनकाल के दौरान जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय सिख धर्म के गुरु गोबिन्द सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में सिख समुदाय को आमंत्रित किया। जहाँ गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। उस समय गुरु गोबिन्द सिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी। गोबिन्द सिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुँचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहाँ मौजूद सभी सिख आश्चर्यचकित रह गए और सन्नाटा छा गया। उसी समय दयासिंह (पूर्वनाम- दयाराम) नामक एक व्यक्ति आगे आया जो लाहौर निवासी था और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया। गुरु गोबिन्द सिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार धर्मदास (उर्फ़ धरम सिंह) आगे आये जो मेरठ जिले के सैफपुर करमचंदपुर (हस्तिनापुर के पास) गाँव के निवासी थे। गुरुसाहिब उन्हें भी तम्बू में ले गए और पहले की तरह इस बार भी थोड़ी देर में खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गुरु गोबिन्द सिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की माँग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय (उर्फ़ हिम्मत सिंह) खड़े हुए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तम्बू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुसाहिब पुनः बाहर आए और एक और सिर की माँग की तब द्वारका के युवक मोहकम चन्द (उर्फ़ मोहकम सिंह) आगे आए। इसी तरह पाँचवी बार फिर गुरुसाहिब द्वारा सिर माँगने पर बीदर निवासी साहिब चन्द सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने सिक्खों के होने के बाद भी वहाँ सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तम्बू से गुरु गोबिन्द सिंह जी केसरिया बाणा पहने पाँच सिक्ख खालसा के साथ बाहर आए। पाँचों नौजवान वही थे जिनके सिर के लिए गोबिन्द सिंह तम्बू में ले गए थे। गुरुसाहिब और पाँचों नौजवान मंच पर आए, गुरुसाहिब तख्त पर बैठ गए। पाँचों नौजवानों ने कहा गुरुसाहिब हमारे सिर काटने के लिए हमें तम्बू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुसाहिब ने वहाँ उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पाँचों मेरे पंज प्यारे हैं। इस तरह सिख ----- को पंज प्यारे मिले जिन्होंने बाद में अपनी निष्ठा और समर्पण भाव से खालसा पंथ का जन्म दिया।

 

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गुरु गोविन्द सिंह की वो सभा,
 जिसमें उन्होंने अपने ही 5 लोगों के शीश माँगे: खालसा और ‘पंज प्यारे’ का इतिहास

अनुपम कुमार सिंह | 13 April, 2020
   गुरु गोविन्द सिंह ने 'अमृत' चखा कर पाँचों को खालसा की सदस्यता दिलाई जब कोरोना वायरस की आपदा के बीच वैशाखी देशवासियों के लिए ख़ुशी का एक मौक़ा लेकर आया है, ये समय इस्लामी आक्रांताओं से लोहा लेकर खालसा पंथ की स्थापना करने वाले सिखों के दसवें और अंतिम गुरु गोविन्द सिंह जी को याद करने का भी है। गुरु ने 5 लोगों को ‘पंज प्यारे’ के रूप में चुना था, और ख़ुद खालसा के छठे सदस्य बने थे। यहाँ ये कहना भी सही होगा कि वो पाँचों ख़ुद से आगे आए थे। ये तब की बात है, जब औरंगज़ेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था।

    17वीं शताब्दी अपने अंतिम दिनों में थी। उसी दौरान गुरु गोविन्द सिंह ने आनंदपुर साहिब के मैदान में हज़ारों लोगों को बुलाया। मैदान में एक बड़ा सा पंडाल, उसके सामने तख़्त और उस पर बैठे गुरु। साथ में वहाँ पर एक तम्बू भी था।सन 1699 में गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। सिखों के इतिहास में ये एक बड़ा क्षण रहा है। खालसा की स्थापना का मकसद ही ये था कि मजहबी उत्पीड़न और अत्याचार से लड़ने के लिए ऐसे लोग तैयार किए जाएँ, जो धर्म और मातृभूमि की रक्षा के लिए जान देने से भी नहीं हिचकें। इसलिए, गुरु गोविन्द सिंह ने वैशाखी के दिन इतनी बड़ी भीड़ एकत्रित की थी। आज वहाँ पर केशगढ़ साहिब गुरुद्वारा शान से खड़ा है।

यही वो जगह है, जहाँ हाथ में चमकती हुई नंगी तलवार लिए गुरु गोविंद सिंह ने वहाँ उपस्थित जनता से एक बहुत बड़ी माँग रख दी थी। उन्हें ‘धर्म की रक्षा के लिए’ किसी का सिर चाहिए था।सारी सभा में हलचल मच गई। रौद्र रूप धरे गुरु गोविन्द सिंह की इस माँग के बाद जो लोग आए, उन्होंने न सिर्फ़ अपनी बहादुरी से देश को गौरवान्वित किया बल्कि जाति-पाती के बंधनों को तोड़ने में भी अहम भूमिका निभाई।

एक व्यक्ति आगे आया। गुरु गोविन्द सिंह उसे तम्बू में ले गए और खचाक…! जब वो बाहर आए तो उनके तलवार पर रक्त लगा हुआ था और उन्होंने फिर से ऐसी ही माँग रख दी। एक के बाद एक कर के पाँच लोग सामने आए और यही प्रक्रिया दोहराई गई। कई लोगों को ऐसा लग रहा था कि कहीं गुरु पागल तो नहीं हो गए हैं? वो अपने ही लोगों को मार डाल रहे हैं। लेकिन, उनके मन में तो कुछ और ही चल रहा था।अंत में गुरु गोविन्द सिंह फिर से तम्बू में गए और जब वो वापस लौटे तो सभा में उपस्थित सभी लोग हतप्रभ थे। उनके साथ वो पाँचों बहादुर थे, जिन्होंने अपने शीश अर्पित करने का साहस किया था। जिन्दा और सलामत। लोगों को समझ आ गया कि ये गुरु की एक परीक्षा थी, जिसमें विरलों को ही उत्तीर्ण होना था। यही हुआ। ये ही ‘पंज प्यारे’ पहलाए और साथ ही ख़ालसा के पहले पाँच सदस्य भी यही बने। फिर गुरु गोविन्द सिंह छठे सदस्य बने।

इनमें दया राम, धरम दास, हिम्मत राय, मोहकाम चंद और साहिब चंद शामिल थे। इसके बाद उन सभी को ‘सिंह’ सरनेम दिया गया। ख़ुद गुरु गोविन्द भी ‘राय’ से ‘सिंह’ बने।गुरु गोविन्द सिंह ने वहीं पर खालसा पंथ की पहली प्रक्रिया पूरी की। उन्होंने एक लोहे के मर्तबान में पानी और चीनी को तलवार से मिलाया और इसे ही उन्होंने अमृत नाम दिया। जिस प्रक्रिया से गुरु ने उन पाँचों को खालसा की सदस्यता दिलाई, उसी प्रक्रिया से वापस उन पाँचों ने मिल कर गुरु को सदस्यता दिलाई। पुरुषों को ‘सिंह’ और महिलाओं को ‘कौर’ सरनेम दिया गया। तम्बाकू का सेवन नहीं, हलाला मीट का सेवन नहीं, व्यभिचार नहीं और शराब का सेवन नहीं- खालसा पंथ के लिए कई नियम-कायदे तय किए गए, जो आवश्यक थे। उन्हें एक ख़ास ड्रेस कोड भी दिया गया।गुरु गोविन्द सिंह ने पाँचों को भगवा वस्त्र पहनाए थे। असल में गुरु गोविन्द सिंह ने पहले ही कह दिया था कि वो किसी का शीश माँग रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं कि बाकी उन्हें प्यारे नहीं है। पूरी संगत उन्हें प्रिय है लेकिन एक ख़ास कार्य के लिए उन्हें ऐसे ही लोग चाहिए।

इन पाँचों में हर वर्ग के लोग शामिल थे- लाहौर के एक व्यक्ति से लेकर हस्तिनापुर के जाट तक। द्वारका के एक कपड़े सिलने वाले से लेकर एक नाइ तक। यानी, पाँचों में एक क्षत्रिय था, एक जाट और तीन ऐसे लोग थे- जो उस समुदाय से आते थे जिन्हें कई लोग ‘नीच जाति’ कहते थे। गुरु का सन्देश जिसने समझ लिया, वो सच्चा सिख बन गया।ख़ालसा को एक ख़ास पहचान दी है, एक ख़ास कार्य सौंपा गया और इसीलिए संगत में ये ख़ास हुए। आगे के कई युद्धों में खालसा पंथ ने जो बहादुरी दिखाई, वो तो इतिहास है। 13 अप्रैल 1699 में गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। 322 साल हो गए लेकिन सिखों का मातृभूमि और धर्म के प्रति आस्था अडिग ही होती चली गई। गुरु गोविन्द सिंह ने एक तरह से समुदाय को पुनर्जीवन दिया।

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